Tuesday, August 5, 2025

----- || राग-रंग 68 || -----,

 आह!मैं भारत शत्रु का कर रहा आह्वान । 

मुझसे वैर विद्रोह का तुझको है अनुमान॥ 


भाग्य विपर्यय कर यूं, हुआ विधाता वाम l 

विभाजन ने मुझको फिर, दिया दुसह परिणाम ll 


छल कपट से छिन कर लिये देस पर देस । 

तेरा उद्देश्य शेष को करना है अवशेष ॥ 


यह दुर्ग ध्वजा यह दल यह सैन्य यह कोष । 

यह सीमा यह मैत्रि बल मेरा ही परितोष ॥


 प्रनय प्रीति का राग यह जीवन का संगीत |  

युगों से है भारत के देस धर्म की रीत ॥ 


यह परिजन का कौटुम्ब यह आचार विचार । 

सिखा मुझसे तुने कि यह होता है परिवार ॥ 


गाँव गली गढ़ पुर नगर कहते इसको देस । 

लिया जान ज्ञान यह सुन भारत के उपदेस ॥ 


खाता जिस आवाल में, करता उसमें छेद । 

हुपे नहीं रहेंगे अब, जग में तेरे भेद ॥ 

आवाल = थाला 


तेरे पथ प्रदर्शक के धर्म भवन की नीँव। 

बता कहां है जगत को सुन ए गुहा के जीव ॥ 

गुफा= खैबर दर्रा 


यह पावन भूमि मेरे,जन्में जहाँ अधीस । 

बता किसकी ड्योढ़ि पे, झुकता तेरा सीस ।। 


यह हिम गिरि की श्रंखला,इसका शेखर शृंग l 

है उसी महाकाल का, जिसके शिश है गंग ll 


जब तक थिर स्थिर मेरे, धैर्य का है धुर्य । 

तब तक उदय है तेरे साम्राज्य का सूर्य ॥ 

धुर्य= धूरी 


सीमा पर निरंतर हा तेरा ये प्रतिकार l 

शांति नहीं तुझको है संग्राम स्वीकार ll 


शील संयम नियम वसन भूषण मर्यादाचारि l 

पराक्रम पारण मेरा सुन ए अतिक्रमणकारि ॥ 


भीरू पन प्रकट कर तू, करता भीतर घात l 

मेरे बल पौरुष का, तुझे नहीं संज्ञात ll 


नित प्रत्यक्ष दर्श कर तू , यह निष्कंटक जीत l 

मेरी निडर अजेय से,रहा सदा भयभीत ll 


देख निकट विनाश काल,होती मति विपरीत ।

 होगा तेरे रक्त से, यह त्रिशूल रंजीत ll


Friday, August 1, 2025

----- || राग-रंग 67|| -----,

सुनि जूँ दसरथ राज जनक के दूतक दुआरी खड़े । 

पुनि लेंइ बुला तिन्ह सादर देइ मान अगुवान बढ़े ॥ 

भए पुलकित प्रमुदित बिनय पूरित जौँ पाती पढ़े । 

जोग लिखे सब आखर प्रगाढ़त सनेह सामध गढ़े ॥ 

:-- सामध गढ़े = संबंध रचे 

:--  जनक जी के दूत द्वार पर प्रतीक्षारत हैं राजा 


अस जानि परम सुखमानि कि संभु धनुर सुत भंग करे । 

सभा जीत जय माल मेल उर गए जानकी सौंहि बरे ॥ 

अंतर मन भाव पुरायो निलयन में आनंद भरे । 

आनि जोइ सुत कई सुरतिआ नैनन ते जल बूँद झरे ॥ 

उर = वक्ष निलय = हृदय भवन 


सिय राम बिबाहु कई आनि भइँ सो सुभ मंगल घरी। 

जाचक गन दीन्हि हँकार फेरिबारि न्यौछाबरी ॥ 

परिअ भावनी भवन भवन मनिमय झलामल झालरी । 

हेम बौरि सुठि बँधिअ डोरि पौँरि पौँरि गईँ भाँवरी ॥ 

हेम बौर = स्वर्ण पुष्प, सुठि = सुंदर पौँरि पौरि = ड्योड़ि ड्योड़ि 


रामसियाँ कै बिबाहु दरस अभिलाहु दृग जोह चले । 

पीतम पाटल पाटंबर पहिर पहिर सब सोह चले ॥ 

सदन सदन सौं पुरजन परिजन संग संग होह चले l 

मधुरिम मद्धम मंगल सुर गान करत मन मोह चले ll 

पाटल = श्वेत रक्त वर्ण पाटंबर = चमकिले वस्त्र 


नगर नारिं लिएँ आरती, गहे सुमंगल थारिँ । 

सुरभि सुमन बरसाए के, देखहिं चढिँअ अटारिँ ॥ 

अटारि = अट्टालिकाएँ


Tuesday, July 29, 2025

----- || राग-रंग 65 || -----,

घिर घिर आवैं कारे बादल गागर भरी भरी लावैं l 

कंज कलस कर धारे बादल लै मंगल मौलि बँधावै ll 

स्वस्ति मंत्र उचारें बादल स्वस्तिक पूरत सुहावैं l 

घनकत घन घनकारे बादल ढप डमरू झाँझ बजावै ll 


ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। 

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ 

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥" 


शंकर शंभु पुकारे बादल मंदिर मंदिर पर छावै।

कनक कँगूर निहारे बादल कंकनि खनखन खनकावैं ॥

अमरत के ले धारे बादल गिरिवर के सीस चढ़ावै। 

दिखैँ रतनारे बादल जगती ज्योति जगरावै ॥


केसरिया पट धारे बादल अवधुत स्वांग रचावैं ।

रैनी साँझ सकारे बादल जहँ तहँ दृग सौँ दरसावै॥ 

घर घर घेर दुआरे बादल हरि हर की कीरति गावै ।

फिर फिर नगर बिहारे बादल अमरत रस झलकावै ॥


निरंजन निरंकारे बादल अग जग की अलख जगावैं । 

डगर डगर पग धारें बादल डग भर आतुर चलि जावैं ॥ 

मधुरिम बैनत हाँ रे बादल जब जो को पूछ बुझावै । 

अजहुँ जइहों कहाँ रे बादल जनक पुर बोल बतलावैं ॥ 


जुड़ जुड़ तहाँ जाएँ चले बिनयवनत नभ छाएँ l 

जहाँ हम सारे बादल सुख संपद बरसाएँ ॥ 

जागृत ज्योत= अखंड ज्योत


Thursday, July 24, 2025

----- || राग-रंग 63|| -----,

 || राग अहीर भैरव || 

गगन गगन में गहन घन छाए, 

बरसत बादल बूंद बिखराए....  


डारि डारि पर डोल हिंडोरे आँगन डोरि बँधाए

चारु चरन सब हाथ हथेली हरिअरि मेहंदि रचाए... 

सात सुरों के संगत रंगे, प्रीत संगीत सुनाए... .. 

सैंदूरी सी साँझ सुभ मंगल, सगुन श्रृंगार सजाए..... 

इन्द्र धनुष भेदे हरिदय, छन छनक छटा बिखराए. .... 

पंथ बिछावै पलक पँवारे, दरसे नैन लगाए..... 

घुमर घुमर यौं आवें मेघा, कि दूत संदेसा लाए..... 

जोग लिखे सखि राम सिया सों कब संजोग मेलाए..... 

रे हरियारो सावन आयो, हरियारे रंग रंगाए.....


Monday, July 21, 2025

----- || राग-रंग 62 || -----,


-----|| राग मालकौंस || -----

("भोले नाथ से निराला कोई और नहीं" के भजन की लय पर आधारित ) 

 सिय राम बिबाहु के जूँ जगे नैन अभिलाष | 

 लगन पत्रिका दूत लिये पहुंचे दसरथ पास ||| 

दसरथ जी लायें चिठियाँ, हम कर जोर खड़े | 

   घेरे हमको ये पहरी चारोँ ओर खड़े || 


याकीँ पतियाँ रंग बिरंगी जामें सतरंगी धारी | 

हरि चन्दन मृग कस्तूरी की सौंधि सौगन्धि घारी || 

गंधेउ गज की गंधिरी औरु भाँवरे पाछे पड़े.....


याकीँ पतियाँ खिलीं कौंपलें  कौसुम कली की क्यारी | 

लता मंडप एक कुञ्ज गली जहँ फूल रही फुलबारी 

चम्पा बेल चमेली के जी प्यारे बूटे कढ़े....  



याकीँ पतियाँ है सुन्हरिआँ गढ़ी बँधीं सौं हारी | 

चंदा तारी धरे कगारी गढ़ियाई जिन सुनिआरी || 

चुग चुग जोग जड़ाऊ जी हीरे मोतिआँ जड़े..... 



याकीं पतियाँ सोधि सुदिन सब नख मंडल चिन्हारी  | 
पुण्य घड़ी सुभ मंगल बेला परखत लगन उघारी || 
चौघड़िया महूरतिआ जी जोग लिखी लेइँ पढ़े.... 

याकीँ पतियाँ खोल भरीँ चकि चाकौरी चितकारी | 

किरिंच किरन को साँठि करी फिर गाँठि परी रसियारी || 

पद पद छंद ते छनके कनके कनी के झड़ें....  


याकीं पतियाँ बाँधी नूपुर अरु रुनुरु झुनुरु झनकारी | 

पेखत साँचे माल मनीचे अति मनभावन मनियारी || 

 तीरछे ताकते पाछे जी चातुर चोर पड़े....  


मनमोहन ल्याएं चिठियाँ हम कर जोर खड़े..... 

Saturday, July 19, 2025

----- || राग-रंग 61 || -----,

 || इति जानकी: अष्टकम् || 


भरी सभा में जौं रघुनन्दन शिव के धनुष को तोड़ निबारे   | 

दइ श्रवन धूनि पुनि प्रचंड खन खंड महि दो दंड में डारे  || 

कब चढ़ाऐं खैंचेउ कब संभु धनु प्रभो कब भंज निहारे | 

बीच भू राजाधिराज समाज काज ए लाख न देखनपारे || 

..... जय जय करत जगत जगपति राजा राम चंद्र की जयकारे || 


चाकत चारु चौंक पुराए पुलकित प्रेम ने बाँधे बँदनबारे | 

नेह भरे प्रीति के जगमग दीप मनोहर जग को उजियारे || 

चन्दन चौंकी डसाए ह्रदय में कंकन किरन के फँदन डारे | 

कुंच कुसुम को पंथ बिछाए अलकन ने दिए पलकन के पँवारे || 


..... जय जय करत जगत जगपति राजा राम चंद्र की जयकारे || 


कोमल कमल चरन बढ़ाए ता परु रघुराज कुँवर जी पधारे  |  

दरसे ज्योँ पिय प्रीतम सिय को देहरि के देवल नैन के दुआरे || 

आन दुआरु  सियँ लइँ बसाए पल में पलकन्हि ने पट डारे | 

मुँदरिआ के मनि मुकुर छबि  निहार निहार निहार ना हारे || 

..... जय जय करत जगत जगपति राजा राम चंद्र की जयकारे || 


लाजत बाल मरालि गति चलत सिय जलज जय माल कर धारे | 

चली संग सखि गन सुरभित सौम सुमन के भार सँभारे || 

भइँ सनमुख भगवन ठाढ़ रहे मौलि मुकुट धर सिस को सारे | 

ओज सरोज मुख तेज तिलक कोटिक मनोज लजावनहारे || 

.... जय जय करत जगत जगपति राजा राम चंद्र की जयकारे || 


निरख सकुचत जगजननी जौं लछिमन बाढ़ि के चरन जुहारे | 

झुकै रघु नाथ गहेउँ ताहि निज भुज सेखर दंड पसारे || 

देइ सियाँ जय माल धरीं करिं कंठ कलित उर मेल उतारे | 

परसि गह पानि अरुनिम प्रभु पद पदुम परागन लेइ सिर धारे ||   

.... जय जय करत जगत जगपति राजा राम चंद्र की जयकारे || 


लालि चुनर के चँदा तारे प्रभु की मङ्गल आरति उतारएँ | 

कहँ बधाईं सँग सखीं भरि अँजुरि कौसुम बारि सौं बौछारएँ || 

राजा जनक जी लागें निछावरि फेरत वारिहिं बारहिबारएँ  | 

बाजैं दुँदुभीं गावहिं पुरजन सुरगन सङ्गति मंत्र उँचारएँ  || 

.... जय जय करत जगत जगपति राजा राम चंद्र की जयकारे || 


 सिय राम बिबाहु के जूँ जगे नैन अभिलाष | 

 लगन पत्रिका दूत लिये पहुंचे दसरथ पास ||| 

Friday, July 18, 2025

----- || राग-रंग 60|| -----,

दीप सिखा प्रजरत बरी, द्युति करत घन रात | 

जौँ अँधिआरि सयन करी जागे प्रात प्रभात || 

:-- सघन निशीथ को प्रदीप्त करते प्रज्वलित दीप की शिखा को समाप्त होते देख जैसे ही अन्धकार शयनित हुवा वैसे ही प्रात संग प्रभात काल जागृत हो उठे...... 

सरन सरन बखेर चली दिपित किरन चहुँ ओर | 

सोम सुनेरि सूर प्रभा छाइ छितिज के छोर || 

: -- शरणियों के चातुर्य कोणों में दीप्त किरण विकिरित करते सौम्य स्वर्णिम सूर्य प्रभा क्षितिज के छोर छोर पर व्याप्त हो गई | 

ले अरुन की अरुनाई  सौंधि सौगंधी धूर | 

नत नयन नव यौवन के सीस धरे सिंदूर || 

:-- सूर्य के तेजस्व की लालिमा लिए सुरभित सौगंध्यित धूलिका अवनत नयन नव यौवन के सैंदूर्य स्वरूप सिरोधार्य हुई.....  

मनमोहन के मंदिरे मँजीरु शंख अपूर | 

मंद मधुर सुर ताल दे रँग नूपुर सौं रूर  || 

रँग = वादन, सौं रुर = संग सुशोभित 


जल तरंग की संगती बाज रहे सौ तूर | 

सुर थाप सौं राग रहे मद्धम ढोल सुदूर || 


पुष्कर पुष्कर भए पुष्करी बिकसे प्रेम पराग | 

भौंरत भरमत भाँवरी भर अंतर अनुराग  || 

:--पुष्कर = सरोवर, पुष्करी = कमलों से युक्त, भौरत भरमत भौंरी = भ्रमण करती भ्रमित भ्र्मरी, अंतर=अंतस्य 


 भाव विभोर ह्रदय करे यह पावस की भोर | 

परन पंथ पर पँख पसारे निरत मगन बन मोर || 

पावस = वर्षा,, परन पंथ = पर्ण आच्छादित पंथ  


झनक झनक जस झँकारें झाँझरि के रमझोर | 

झर झर करती निरझरी लेवे तस चित चोर ||   

निर्झरी = झरना,रमझोर =घुंघरू 


कुसुम कलित कल कुस थली, करषत कुञ्ज कुटीर |  

सुरभि सैल के सिस झरे  झर झर नीरज नीर || 

:--  कौसुम से सुसज्जित सुन्दर ग्रास की स्थली पर लताओं से आच्छादित आकर्षक कुञ्ज कुटीर 

सुरभि शैल =मनोरम पहाड़ी नीरज नीर = जल मुक्ता 


डाल डाल पर डारि के झूलनिआ की डोर | 

बरखा रानी झूरती सावन को झकझोर || 


प्रेम करन को फूल दे बाँध प्रीत के केस | 

गोद बैठाए लए गया रे बाबुल निज देस || 

करन फूल =कर्णफूल 

बूंद बून्द घन बरस के गाए बिरह का राग | 

सात सुर में प्रियतम को, छेड़ रहा अनुराग || 


पहला सावन दे रहा पहला ये संदेस | 

प्रीति बिनु इन नैनन में नींद नहीं लवलेस || 


प्रेयसी के तन मन में लेवे प्रीत हिलोर | 

डोरी धरे पलकन की झौंरे प्रेम हिंडोर || 


दीप सिखा जर बरत सिराई, उजरावत सघन घन रात | 

ज्यों अँधियारि सयन करि जाई, उठे जागे प्रात प्रभात || 

सरन सरन पै किरन बखेरे  चलत चहुँ ओर 

सोम सुनेरी सूरुज परभा छत छाई छितिज के छोर 

Monday, July 14, 2025

----- || राग-रंग 59 | -----,

धौल गिरि से गिरे गंगा की पावन अर्द्धांगी  धारा ।

यहाँ त्रिजट त्रिलोकि त्रिपुण्ड्र धरे वासे नाथ केदारा ।।१|| 


शिव शशिभूषण शिव त्रिशूल धर शिव शङ्कर ओंकारा | 

शिव के शेखर कर जल अर्पण शिव शिव कह जग सारा ||२||  


शिव शैल राज गौरी गिरिवर शिव सब देव दुआरा | 

शिव काशी कैलास निवासी शिव सब चौंक चौबारा ||३||  


नवल नीलोत्पल गरल कंठ शिव भुज भुजङ्गि हारा | 

शिव महाकाल  उज्जैन नगर हर हर कह उच्चारा ||४||  


शिव प्रियङ्कर शिव सिरोधर कर पारग सिंधु अपारा | 

 राम रमेश्वर रमा नरेश ने लंका को उपकारा  ||५||  


बैद्य नाथ के धाम धरे जन कंधे काँवड़ भारा |

यहाँ शिवंकर धरनी पर धर रावण गया सँहारा ||६|| 


त्रयंबकेश स्वरूप महेश का जप जग उद्धारा | 

ब्रह्म गिरि से गोदावरी की धारा ले अवतारा ||७|| 

सोमनाथ के शिव की महिमा त्रिभुवन में अपरम्पारा | 

इस ज्योतिर् लिंग की ज्योति ने जग को उजियारा ||८|| 


डमरूधर का जब डमरू डम डम डम ध्वनित कारा | 

घुश्मेश्वरम में परम भगत बम बम बोल पुकारा ||९|| 


नटवर नागधर नागेश्वर दारूकावन आधारा | 

गगन गगन में गूंज रहा शिव शम्भो का जयकारा ||१०|| 

          

शिव भस्म भूत अभय भयंकर शिव श्मशान विहारा | 

श्रीशैलम में शृंगप्रियम् का दर्शे दर्श न्यारा ||११||  


शिव सत्यम् शिवम् सुंदरम् शिव भव प्रलयंकारा | 

रुद्ररूपधर महादेव ने भीमा को उद्धारा ||१२||  

शिव प्रियंकर = रुद्राक्ष,धतूरा,बिल्वपत्र, इत्यादि 



Sunday, July 6, 2025

----- || राग-रंग 58 | -----,

|| राग दरबार || 

खिला है गुलशन फ़िजा है महकी,

गिरी वो शबनम वो गुल मुस्कराए.....  


तेरी वज़ू पे हमें यकीं है तू बंद परवर यहीं कहीं है 

प्रभो हमारी अरज यही है 

तुम्हारी रहमत के हो हम पे साए....  


इक दर्दे दरिया ये जिंदगी है और ऊँची हस्ती भगवन तेरी है; 

फंसी है तूफ़ां में सब की किश्ती, 

है कौन रहबर तेरे सिवाए.....  

वज़ू= अस्तित्व 

----- || राग-रंग 57| -----,

----- || राग-भैरवी || -----
           भक्तिकाल

बरखे रे पलकें कृष्ना साँझ सकारे..,

नैन गगन गहरत झरी लाए  बिन सावन घन घारे..,

पलक पँवारे निसदिन तुहरे पंथ निहारे

पंथ निहारत भै पथरीले  घरिभर पट नाहि डारे

 हरिदए बिरजवा बूड़त जाए बह अस असुवन के जल धारे

कासि गाँठि देय रसन पिरोए  जल माला कंठ उतारे

तापर प्यासे पिहु से दिनु राति तापर पिहु पिहु करत पुकारे

बूंद बूंद करि हरिअरि रे हरि निकसत तरफत प्रान हमारे

लेइ जाहु ए सनेस रे उद्धौ गह हम तोरे चरन जुहारे..,

कहँ जमुना तरु तृन तुल हमहि त्यज्यो बिनहि बिचारे

अपलक तुम्हरे पंथ निहारे

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----- || राग-भैरवी || -----
           रीतिकाल 
तुम बिन सुने रे मोरे साँझ सकारे 

Friday, July 4, 2025

----- || राग-रंग 56 || -----,

जयकार धुनि कर बजत दुंदुभि चढ़त बिप्रवर धुजा धरे । 

मुख शंख अपुरत भयो केतु मत् कासत कलस कै कँगुरे ॥ 

अरुन सारथी सौँ सुर पथ रबि रथ यान लेय आन खड़े । 

सप्त तुरग कै बाढ़े चरण जौं जगननाथ ऊपरि चढ़े ॥ 


बैसे रथ सोहत जगनाथा । सुभद्रा बल भद्र के रे साथा ।। 

बोलें भगत बाँधि के डोरे l कस कस करतल चल खैँचो रे ।l


बढ़े चलै लै रथ रतनारा | गुँजरहि जहँ तहँ जय जय कारा || 

नगर नगर पुर कै नर नारी | जुड़ जुड़ भई भीड़ अति भारी || 


राजित रथ हरि की छबि छलके  | मधुर मनोहर झाँकी झलके  | 

पंथ बिछावे पलक पँवारे | नैन निहार निहार न हारे || 


बाजै गह घन ढोल मजीरे | लेइ बढ़े रथ धीरहि धीरे || 
बारि निछाबरि हो बलिहारै | कौसुम अँजुरी नभ बौछारे || 

करहिं आरती जन बिच बीचा | सपत दिबस बस बास गुँडीचा ||  

अरुन रथी रथ चरन फेराए | निज मँगलालै नाथ बहुराए || 


साजै गौपुर गृह गली गली | जनु सब साखी रल मेलि चली || 

बाजै बाजन बृंद घनघोरा  | गगन भेद घन चहुँ दिसि ओरा || 

पूज नबैद्य चढ़ावहिं सब द्वारहि द्वार | 
जय जय कारी करत जन प्रनमत बारहि बार || 
 







बंदन कर जोरे | चरन पखारें 

छन छन सुमन कै अँजुरि छूटै | भर लोचन सब सोभा लूटै | 

 मंगल गावैं 

अति मनोहर छतर सिरु छावा  | रतन राजि रचि देय बनावा || 





Thursday, July 3, 2025

----- || राग-रंग 55 || -----,

हविर् धूम से आवरित, हंस हिरन संकास । 

पथ पथरिले लाँघ चरन,चले सोइ कैलास ॥

 :--पथरिले पंथो को उल्लॉघते हुए चरण उस कैलाश को चले जो होम के धूम्र से आवृत रजत स्वर्ण की आभा लिए है हंस संकाश = रजताभ हिरण्य संकाश= स्वर्णाभ 


हिम उरेखित ऊँ आकृत पर्वत के उस पार । 

दृष्टीगोचर हो रहा जहाँ यम का द्वार ॥ 

:-- हिम द्वारा प्राकृतिक रूप से उल्लेखित ॐ आकृति युक्त पर्वत के पारगम्य जहाँ यम का द्वार दृष्टि गोचर होता है..... 


शिव गति गहती औतरेँ चतुर नदीँ की धार। 

दिशा दिशा में दिव्यतम गूंज रहा ऊँकार ॥

 :--शिवगति= समृद्धि को गृहण करती जहाँ चातुर्य सरिताओं की धाराओं का अवतरण होता है ऐसे कैलाश पर्वत की दिशा दिशा में ॐ प्रणयाक्षर की दिव्यमय गूँज गुँजारित होती है 

शिव शंकर शंभु जी को प्रणमन सौ सौ बार । 

तिन्हके सपरिवार को विनयवत नमस्कार ॥ 


पाषणों से हो रहा अनहत का निहनाद । 

ईश्वर का रहस्य मय सृष्टी से संवाद ॥ 

:--पाषाणों से प्रस्फूटित होती ब्रम्हध्वनि से युक्त सृष्टी से ईश्वर के संवाद द्वारा परम तत्व के रहस्य की सात्विकता का आत्मानुभव अद्भूत है 


नक्षत्रों की माला गुँथे,चंद्र जोत जगराएँ । 

देव उतारे आरती, दिशा दिशा उजराएँ ॥

 :--नक्षत्रों की माला गूँथ चंद्र ज्योति जागृत कर दिशा दिशा प्रदीप्त करते देवता मध्य रात्रि के समय भगवान शिव की आरती करते है 


सत्वती पार्वती के मन मानस का ताल। 

कल कल धुनि कर विचरते, दरसे राज मराल ॥ 

:--सत्यवती माता पार्वती मन मानस का पवित्र सरोवर में कल कल की ध्वनि कर विचरण करते राजहंस दर्शनीय हैं 


कमंडल धर के निर्मल जल की बस एक बूँद । 

सेष सयन के ता सौँहि बिरथा सात समूँद ॥ 

:--कमंडल धारी शिव जी के इस पवित्र मान सरोवर की एक बूंद के सम्मुख शेष शयन भगवान विष्णु के सप्त सिंधु व्यर्थ प्रतीत होते हैं


Wednesday, July 2, 2025

----- || राग-रंग 54 || -----,

 सदरे जग से सुन्दर ए मेरे भारत देस। 

तेरे सम्मुख सिस सहित नत नत नैन निमेष ॥१||  


हिम गिरिवर मौली मुकुट तेरा सिस श्रंगार । 

सिंदूरि सी सूर्यकिरन देय तिलक लिलार॥२||  

लिलार=मस्तक 


हिम वान पर मानस सर शशि शेखर का शृंग। 

ऊँकार कर गुंज रहे, भँवर भ्रमरते भृंग ||३||   

हिम वान=कैलास ,हिमालय... मानससर=मानसरोवर शशिशेखर=शिवजी,श्रंग =जटा चोटीभ्रमर भ्रमरते भृंग= परिक्रमा पथ पर परिक्रमा करते भँवरे स्वरूप भक्त, मानस सर =मान सरोवर 

कलित कंढ को कर रही दे जय माल तरंग। 

हृदय तेरे उतर रही कल कल बहती गंग ।l४|| 

कलित=विभूषित 


शस्य शील ए वसुंधरा तुझको नमस्कार। 

तीन सिंधु यह कह रहे तेरे चरण पखार॥५||  


गाँव गाँव सब पुर नगर तेरे तीरथ धाम। 

घर घर मंदिर रूप है जन जन सीता राम ॥६||  


राम का आदर्श चरित्र,यह गीता का उपदेश l 

अखिल विश्व को दे रहा सद पथ का संदेश ll७|| 


Monday, June 30, 2025

----- || राग-रंग 53 || -----,

बिरंची परपंच रचे कहु कछु बिरथा नाहि।

मैला मलिना मल किआ दिआ रसायन ताहि ॥ 

: - -विधाता ने जगत का विस्तार कर इस सृष्टि में कहीं कुछ भी व्यर्थ नहीं रचा मल को यद्धपि मैला मलिना किया तद्वपि उसे रसायनों से युक्त कर दिया | 


मानस खावै मोतिआ निकसावै दुरगंध। 

गउवन पावै पात तृण मय मै देय सुगंध ॥

 : - -मनुष्य मोती खाता है और दुर्गंध निष्कासित करता है गौ माता तृण पत्र खाकर भी सुंगंधित गोमय प्रदान करती है |


दँडक लाढि डाँटि फटके कूड़ा करकट खात । 

हट चौहट् चौंकि बट बट भटके रे गौ मात ॥

 : --कूड़ा करकट डंडे लाठी डांट फटकार खाती चौंक चौहाटो में मार्गो पर भटकती गौ माता का गोमय सुंगंधित कहां से होगा 


मिरदा मिरदुलय भय तब,जब दय गोमय खाद। 

सस संपद अतिसय लहय, गह रस गंध स्वाद ॥ 

: - -गोमय युक्त करने से मृदा मृदुलित होती है जिससे धन धान्य की संपदा पदार्थ के तीनो रूप रस गंध स्वाद को ग्रहण कर प्रचुरता को प्राप्त होती है 


बँध खूँटे आ आपही,कर सरबस का दान।

पालै जग गौ मात तू,समुझत निज संतान॥ 

: - -गौमाता स्वयं खूँटे से बंध कर अपना सर्वस्व दान कर अपनी संतान के सदृश्य जगत भर का भरण पोषण कर देती है ।


Saturday, June 28, 2025

----- || राग-रंग 52 || -----,

कुण्डलाय शिरो कुंतलम् । लसितम् ललित ललाटूलम् ॥ 

नयनाभिराम नलीन सम । श्रीराम श्याम सुन्दरम् ॥ 

जिनके शीश पर कुंडलित केश हैं जो उनके सुन्दर ललाट पर सुशोभित हो रहे हैं | नलीन के समान वह श्रीरामश्याम सुन्दर नेत्रों को प्रिय हैं | 

परम धाम ज्योतिः परो । सर्वार्थ सर्वेश्वरम् ॥ 

सर्वकाम्योनंत लील:। प्रद्युम्नो जगद्मोहनम् ॥

सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम निर्गुण परमात्मा हैं सूर्यादि को भी प्रकाशित करने वाला जिनका सर्वोत्कृष्ट ज्योर्तिमय स्वरूप है महाबली कामदेव के समान अपने अलौकिक लावण्य से सम्पूर्ण विश्व को मोहने वाले |


Thursday, June 26, 2025

----- || राग-रंग 51 || -----,

----- || राग - हिंडोल || -----

पेड़ पेड़ परि चलै फुदकती |

डार डार धरे चरन गौरैया||

देअ सुरुज सिरु घाउँ तपावै आवत छत छाजन गौरैया |

पिबत पयस पुनि दरस कसौरे खावै चुग चुग कन गौरैया ||

बैस बहुरि पवन हिंडौरे पँख पसारे गगन गौरैया |

चरत बीथि बिलखत अमराईं पूछत मालीगन गौरया ||

मधुर मधुर पुनि अमिया खावै गावत मधुर भजन गौरैया |

डगर डगर सब गाँव नगर रे बिहरै सब उपबन गौरैया ||

भरी भोर ते घोर दुपहरी रहै प्रमुदित मन गौरैया|

साँझ सेंदुरि ढरकत जावै फिरै नसत बिनु छन गौरैया ||

 

----- || राग-रंग 50 || -----,

 ----- || राग -बसंत मुकरी || -----

नदिआ प्यासि पनघट प्यासे प्यास मरए तट तट रे |

दै मुख पट धरि चली पनहारी प्यासे घट कटि तलहट रे ||

बिलखि रहँट त रहँट प्यासे बहोरि चरन बट बट लखिते |

परबत प्यासे तरुबर प्यासे पए पए कह सहुँ पत निपते ||

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दहरि प्यासी द्वार प्यासे दीठि धरिँ चौहट तकते |

खग मृग प्यासिहिं प्यास पुकारत तल मीन तुल तिलछते ||

पंथ पंथ परि पथिक पयासे धरतिहि पय पयहि ररै |

पेखत पियूख मयूख मुख पिहु सहुँ मृगु मरीचिक जिहुँ धरैं ||


पलकन्हि परि करतल करि छाँवा हलधर नभस निहारते |

भए हति साँसे पवन कैं काँधे निरख बिहून उदभार ते ||

तापन ऋतु अगजग झुरसावत पगपग जुआला धारते |

ए बैरन जिअ की फिरहिं न फेरे, गए थकि थकि सबु हारते ||


काल मेघ घन लोचनहि अहुरे दरस परि न बरखा बहुरै |

तरसत बूंद कहुँ कंठ ते ए जाचत सबहिं के पानि जुरै ||

हे जगजीवन जग बंदन तुअ घन साँवर कै रूप बरौ |

उठौ देउ हे सिंधु सदन सोंहि गगन सिंहासन पधरौ ||


नदी प्यासी पनघट तट तट प्यास से आकुलित हैं ( सभी को प्यासा देखकर ) पनहारी अपने प्यासे घड़े पानी मेघला के तलहट पर धरे मुख में आँचल दिए चल पड़ी जब कूप की घिरनी को भी प्यासा देखा तो मार्गों में तृप्त स्त्रोत की टोह करते लौट चली | पर्वत देखा पर्वत प्यासे तरुवर देखे तो तरुवर प्यासे और उन प्यासे तरुवरों पत्ते पानी-पानी कहते सम्मुख गिर रहे हैं |

इधर प्यासी देहली और प्यासे द्वार चौपथ पर टकटकी लगाए जल हेतु प्रतीक्षा रत हैं | पशु-पक्षी प्यास प्यास पुकार जलहीन नदी तल की मीन के सदृश्य व्याकुलित हो रहे है | पंथ पंथ पर पथिक प्यासे हैं और धरती पानी पानी की रट लगाए चन्द्रमा का मुख निहारते चातक के समान रसना में मृग तृष्णा धारण किए हैं |

पलकों पर हथेलियों की छाया किए आकाश की ओर निहारते हलधर पवन के कांधों को बादलों से रहित देख कर निराश हो गए | यह ग्रीष्म ऋतू चराचर को झुलसाती मानो चरण चरण पर अग्नि का आधान कर रही है सब इसे लौट जाने के लिए कहकर हारते थक गए किन्तु प्राणों की ये वैरिन लौट नहीं रही |

घने मेघ नभ में व्याप्त न होकर नेत्रों में आ ढहरें हैं यह दर्शकर भी वर्षा ऋतू नहीं लौटती | बून्द बून्द हेतु तरसते कंठ से यह याचना करते सभी हस्त आबद्ध हो गए कि संसार को जीवन प्रदान करने वाले विश्व वन्दित भगवन अब आप ही श्यामल मेघ का रूप वरण करो और अपने सिंधु सदन से उतिष्ठित होकर गगन का सिंहासन ग्रहण करो |

----- || राग-रंग 49 || -----,

 रोला : -

नैन गगन दै गोरि काल घटा घन घोर रे |

बैस पवन खटौले चली कहौ किस ओर रे ||

दोहा : -

नैन गगन दे के गोरि काल घटा घन घोर |

बैस पवन करि पालकी चली कहौ किस ओर ||

----- || राग-रंग 48 || -----,

 ---- || राग -मेघमल्हार || -----

आई रे बरखा पवन हिंडोरे,
छनिक छटा दै घट लग घूँघट स्याम घना पट खोरे |
छुद्र घंटिका कटि तट सोहे लाल ललामि हिलोरे ||
सजि नव सपत चाँद सी चमकत, लियो पियहि चितचोरे |
भयो अपलक पलक छबि दरसै लेइ हरिदै हिलोरे |
परसि जूँ पिय त छम छम बोले पाँव परे रमझोरे |
दए भुज हारे रूप निहारे नैन सों नैनन जोरे ||
बूँद बूँद बन तन पै बरसे अधर सुधा रस घोरे |
नेह सनेह की झरी लगाए भिँज्यो रे मन मोरे ||
चरन धरे मन मानस उतरे राजत अधर कपोरे |
गगन सदन सुख सय्या साजी जलज झालरी झौंरे ||
सुहाग भरीं विभाबरि सोभा जो कछु कहौं सो थोरे |
नीझरि सी निसि रिस रिस रीते भयउ रे रतिगर थोरे ||

----- || राग-रंग 47 || -----,

 ----- || राग-भैरवी || -----

बाबूजी मोहे नैहर लीजो बुलाए,

नैन घटा घन बरसन लागै घिर घिर ज्यों सावन आए,
पेम बिबस ठयऊ सनेहु रस जबु दोइ पलक जुड़ाए..,

भेजि दियो करि ह्रदय कठोरे काहु रे देस पराए,
बैनन की ए बूंदि बिदौरि छन छन पग धुनि सुनाए..,

मैं तोरि बगियन केरि कलियन फुरि चुनि पुनि दए बिहाए,
ए री पवन ये मोरि चिठिया बाबुल कर दियो जाए..,

पिय नगरी महुँ सब कहुँ मंगल चारिहुँ पुर भए कुसलाए,
सुक सारिका अहइँ सबु कैसे पिंजर जिन रखिअ पढ़ाए.....

----- || राग-रंग 46 || -----,

 -----|| भाषा एवं बोली | -----

अन्तर भाव केर परकासन | भाषा एकु केवल संसाधन ||

जासहुं अंतर भाव प्रकासा | सो साधन कहिलावहि भाषा ||

लिपि सोंहि संपन्न को साधन | करत भाष परिभाषा पूरन ||

अवधि लिपिहि नहि गई बँधाई | एहि हुँत सो बोली कहलाई ||

ब्याकरन धन कोष समाना | सम्पन होत गहे अधिकाना ||

साहित्य लिपिहि बधे बिचारू | गह भास् साहितिक गरुवारू ||

कोउ भाषा कि बोली कोई | ऊंच पदासन आसित होई ||

एहि आसंदि करत बिख्याता | होतब प्रगति केर प्रदाता ||

सनै सनै भाषा सोंहि बोली दिए निपजाए |

अरु साहित्य रचाए पुनि प्रगति पंथ कहुँ पाए ||

भावार्थ : - भाषा भावाभिव्यक्ति हेतु साधन मात्र है | भाषा वह साधन है जिससे अंतर भाव की अभिव्यक्ति सम्भव हुई | भावाभिव्यक्ति का कोई साधन लिपि से संपन्न होकर ही भाषा की परिभाषा को पूर्ण करता है | अवधि की लिपि नहीं है इस हेतु यह एक बोली है | व्याकरण भाषाओं की सम्पदा है यह सम्पदा कोष जिस भाषा में जितना अधिक होता है वह उतनी समृद्ध होती है | लिपिबद्ध विचार ही साहित्य है, साहित्यिक गौरव को प्राप्त होकर कोई भाषा अथवा बोली उच्च पद पर अभिषिक्त होती है यह अभिषिक्तता उसे जगत में प्रसद्धि व् उन्नति प्रदान करती है | भाषाओँ से ही शनै:शनै: बोलियों की व्युत्पत्ति हुई और साहित्य रचना से यह उन्नति को प्राप्त हुई…..