Sunday, February 17, 2013

----- ।। सुक्ति के मनि 2।। -----


शनिवार, १६  फरवरी, २०१३                                                                                            

ज्ञान पिपासक जोग निधाने । कोस गमन कर दै दा दाने ।।
नयन बर्द्धन साधी समाधि । लै उपहरन उपाधित उपाधि ।।
ज्ञानाभिलाषिणी  वधू को, प्राप्ति योग्य शुद्ध एवं व्यवस्थित ज्ञान के ज्ञातव्य विषयों को जान समझ कर श्री सरस्वती ने यह उपहरण दान किया कि (उस दान को ग्रहण कर ) दिक् द्रष्टा होकर ज्ञान की वृद्धि करते हुवे चिंतन मनन द्वारा ध्यान केद्रित कर उपहार स्वरूप उपाधि पर उपाधि धारण करे ।। 

ज्ञानवान भइ पड़ पड़ पोथा । भाल भान भइ भालन भोथा ।।
तात थाति कुल दीपन दाने ।  दाम चकस किए तमस अज्ञाने ।।
(इस प्रकार) ग्रंथों का अध्ययन कर वह विद्यावती हुई ।  और ध्यान-तमस से ज्ञान-तेजस बनी ।।पिता ने अपनी धरोहर को वर के कुल को प्रज्जवलित करने के लिए उसे  उदारता पूर्वक वर के हाथों में दान दे दिया  । किन्तु अज्ञानता के अन्धकार ने ज्ञान के इस दीपक के प्रकाश की  तीव्रता को शांत किए रखा ॥ 


पठन सील पिय पाठक पाटी । अस पठ पाठ कि पार त्रिपाठी ।।
ग्रन्थ कीट करि आखर काले । नभ  केतन  चर  नगर निराले ।।
सघन अध्यायी प्रियतम गणक-विद्या के उपाध्यायी ही हैं । विषयाध्ययन इस प्रकार करते थे कि तीन  वेदों  के  ज्ञाता  को  भी पार लगा दें ।। उन्होंने ग्रंथ कृमि स्वरूप अक्षरों से पत्रों को काला ही कर दिया  और सूर्य के सदृश्य तेजोमय हो नगर में विलक्षण प्रतिभा के धनी सिद्ध हुवे ।।

भानु मंत भू भयऊ भोरे । भाल हर भास भर अंजोरे ।।
सब कार जस काल कर धर्मे । भान अभान तस क्रमस कर्मे ।।
सूर्य उदयित होकर भूमि पर प्रकाश विकिरित कर भोर करते हुवे अधकार का हरण करता है  समस्त कार्य जैसे समय के हाथों में विहित होते हुवे समय पर ही होते हैं ( जैसे रात्रि और दिवस ) । वैसे ही ज्ञान और अज्ञान भी क्रमानुसार ही कारित होते हैं ।।

बदली रितु नियति क्रम धर बदले दिन अरु रैन ।
पर बदले नहि घरी भर गृह्जनु के कटु बैन ।। 
 प्रकृति के इसी नियम के अंतर्गत  धरा पर ऋतु भी परिवर्तित हुई । दिवस रजनी में रजनी दिवस में परिवर्तित हुवे  । 
किन्तु गृहजनों की कटु वचन क्षण भर के लिए भी परिवर्तित नहीं हुवे  ।।

रविवार, १७  फरवरी, २०१३                                                                                  


सीत समिट भा सिसिर के अँता । पीत बसन बर आए बसंता ।।
काल दूत कल द्रुम दल फूले । सरस सरस सरि मंजरि मूले ।।
शीत-लहर को समेटते हुवे शिशिर ऋतु का अंत हुवा । पीले वस्त्र को वरण कर वसंत का आगमन हुवा ॥ 
कोयल की मधुर कुहुक के साथ आम के तरुवर पर बौर प्रस्फुटित हुवे  हरी-भरी सरसों के सीकों में लगे 
छोटे घने पुष्प मालाओं के सदृश्य उद्भिद हुवे ॥ 

बानि बानि बन बिरच बिरंचे । पुर पुर फुर फर मंडप मंचे  ।।
कूल कुलीनस कल कल केरें । जनु कल कंठ कूनिका छेरे ।
उदभेदव नव पल्लव पूले । लाख तरु तूल तिलकित फूले ।
फूल मुकुल महि महुव बहूले । साख सिखर फर सैसिर झूले  ।।

 विधाता ने उपवन को बहुंत प्रकार से सँवार कर नगर को फूलों एवं फलों का कोई मंडप युक्त मंच बनाया हो ॥ नदी के किनारे का जल कल कल कर रहा है मानो वीणा की मधुर स्वर गूंज रहे हों ॥ नव पत्र समूह प्रस्फूटित हुवे, पलाश के वृक्ष लाल तिलक के सदृश्य पुष्प प्रफुल्लित हुवे । वसुंधरा महुवे के पुष्प कलिकाओं से सज गई । शाखों के शिखरों को फलीभूत  कर शिशिर ऋतू  हिल्लोल करने लगी | 

कुसुम केतु रथ पथ पद  चापे । राग बेल रति बाहु बियापे ।।
यवन मगन मह रहसन रागे । कन केसर भर पुहुप परागे ।।
 रति (सौंदर्य ) के अनुराग की बेलें भुजाओं में व्याप्त किए काम देव का पुष्प रथ (पौष ऋतू )के चरणों की पथ पथ पर आहट होने लगी | 

फुल चाप सुदर्सन कमल नयन तन पीताम्बर धरे ।
लाखन लोचन पद कल कंजन प्रमाद कानन भरे ।।
रति रागिन रंजन हरिन नयन लख पत रख ह्रदय हरे ।
पथ पंख प्रसारित बनी बिहारित पंथ निरखत खड़े ।।
कौसुम का धनुष लिए देह पर पीतम वस्त्र 
रूप लावन लख रति मयन रागत रंजत रंत ।
सीत सुरभित मंद पवन बासित बास बसंत ।।

कहुँ भल ताल तैल पर्निक कहुँ तर तीर तुषार ।
धार करतल तूलि तउलिक तुल तेल चित्र उतार ।।

सोमवार, १८ फरवरी, २०१३                                                                                     

अजहुँ काल कल दिन घल राते । सीत समउ गत बातहि बाते ।।
भू पुर पौर बेर लै फेरे । बधु गह गर्भ मास सत घेरे ।।
वर्तमान समय भूतकाल हुवा दिवस रातो से मिले । बातो ही बातों में  शीत ऋतु  व्यतीत हुई ।
भूमि भवन और द्वार पर से समय फिरा । और वधु द्वारा गृहीत गर्भ  सप्तमास की अवस्था को 
प्राप्त हुवा ।।

गर्भ भ्रून उयंग प्रत्यंगे । अंग भंगिमन उदकन अंगे ।।
बरनातीत अनुभावन भूती । बहित अवनु बल बलउ बहूँती ।।
गर्भित भ्रूण  के अंग प्रत्यंग  (शरीर के विभिन्न  अवयव  जैसे  हाथ, पैर, नासिका, कर्ण, मुख 
इत्यादि ) प्रकट हुवे ।। गर्भस्थ शिशु के शारीरिक अगों की मनोहारी चेष्टाओं का अनुभव वर्णन 
नहीं किया जा सकता ।। जो बाहर आने हेतु गर्भ घेरे पर बहुंत ही बल का प्रयोग कर रहा था ।।

देखौ बिधि के अद्भुद माया । एकाकार दुहिय हर्हराया  ।।
एक कपाल कर दोउ कपाला । एक भीतर एक बाहिर भाला ।।
नियति की यह अद्भुत मोह्कारिणी शक्ति देखिये । एक ही शारीरिक आकार में दो ह्रदय  स्पंदित 
हैं । एक कटोरे में एक शीश धारी दो शीश धारण  किये  है  एक शीश गर्भस्थ है तो  एक बाहर है ।।  

एक प्रान परे एक अरु प्राना । एक नियति निधि दुज निधि निधाना ।।
एक नाभि धरे दूसर नाभि । एक गिन्नी दूज अनगन गाभी ।।
एक प्राण में एक और प्राण समाया है । एक सृष्टि की धरोहर है दूसरा इस धरोहर का धारक है ।।
एक नाभि ने दूसरी नाभि को धारण किया है । एक चक्रकारी है दूसरी अष्ट मासिक है ।।

 एक नाभि एक नाभि माल भित बलयित एक बाल ।
एक खरभर एक कर साल बाहर भीतर भाल ।।
एक नाभि में एक नाभि की माला जिसके घेरे में एक शिशु । एक हलचल कारे दूसरा पीड़ा धारे ।।
एक अंतस अँधेरे  एक बाहर तेज-प्रकाश के घेरे में है ।।

मंगलवार, १९ फरवरी, २०१३                                                                                         

सूय अगन तप जल बन भापे । भाप सघन घन धन्बन थापे । 
बूँद बूँद झर खल भर दाने । अनगिन अगनी ताप न जाने ॥ 
सूर्य की अग्नि के ताप से ही जल भाप में परिवर्तित होता है । सघन  भाप  को  गगन घन स्वरूप 
स्थापित करता है ॥ घन बूँद बूँद झर कर धरा को अन्न पुर्णित करता  है । अनग्नि  अर्थात  जिस 
अग्नि  की  आवश्यकता  नहीं  है  उसे  अग्नि के   ताप या मोल  का  भान  नहीं  होता  अर्थात  जो 
अविवाहित है उसे स्त्री के अनुराग का अनुमान नहीं होता ॥ 

एक नर कारी अरु एक नारी । पाँख पसु तरु सब जी धारी ॥ 
दोउ जन जूर जी धन राखे । चलत नियति के तब ही चाके ॥ 
पशु-पक्षी पेड़-पौधे आदि सभी जीव धारी एक नर एवं एक मादा  स्वरूप  में  होते ।। नर  एवं  मादा    
दोनों की जोड़ी सर्वस्वरूप धारण करती हैं तब ही सृष्टि का चक्र चलता है ॥ 

गर्भ धान कर जीवन जोरे । जनमत जननी पीर न थोरे ॥ 
पाहिं देस धर सव के ढाँपे । जब जन जातक उदरन उद्यापे ॥ 
(मनुज) गर्भ धारयिष्णु से गर्भ धारयित्री जीवन को आधार स्वरूप देती है । और जन्म देते समय 
जननी को अतुलनीय पीड़ा होती है ।। कहते है कि जननी  अपने सिराहाने शावाच्छादन रखती है 
तब उदर से उद्गम होकर शिशु जन्म लेता है ॥ 
   
जनक जनी जनु अवधि अगोरें । पर बिपदा पीछौर न छोरे ॥ 
सोचु करहु कछु आनै होई । भेद बिधा बिधि जान न कोई ॥  
( इधर) जनक एवं जननी जन्म की अवधि को जोह रहे थे । किन्तु विपदा थी कि पीछा ही नहीं छोड़ 
रही थी । मानव सोचता कुछ है होता कुछ और  है । सृष्टि की कार्यप्रणाली का भेद कॊई नहीं जानता ॥ 

 कहहिं बिदित भिन भिन भनित बेर बहुँत बलवान । 
दुःख तीत कभु दुखातीत न सब दिन एक समान ॥  
विद्वानों ने विभन्न प्रकार से कहा भी है कि समय  बहुत  बलवान  है । असह्य दुःख तो कभी कष्ट मुक्त 
जीवन होता है सारे दिन एक जैसे नहीं होते ॥ 

बुधवार, २० फरवरी, २०१३                                                                                                     

पुनि एक दिबस तेज कर अम्बर । तम हर तूलबर उयउ दिनकर ॥ 
चरन उनति क्रम जों जों चाढ़े । दिन अंतर पर तौं तौं बाढ़े ॥ 
पुन: एक दिवस आकाश की कांति में वृद्धि करते हुवे अँधकार का हरण कर रक्ताग्नी से युक्त होकर दिनमणि उदयित हुवे ॥ दिवस के सोपान पथ पर उनके चरण ज्यों ज्यो आरोहित हुवे  । त्यों  त्यों  दिवस मध्याह्न  की ओर अग्रसर हुवा  ॥ 

ढल ढर डगभर डगर डहाँके । भँवर नगर दुइ पहर नहाके ॥ 
नभ केतन चष चिलचिल लाखे । कन पर करकस किलकिल काखे ॥ 
ढलान पथ पर ढलते हुवे चरण लांघे । मध्याह्न पार करते हुवे नगर का भ्रमण करने लगे ॥ 
अब सूर्य आँखों में चमचमाते हुवे दर्शित होने लगे और कानों में कटाक्षो की कर्कस ध्वनी पड़ने लगी ॥ 

उत संतापित साँझ दुआरे । सहस नयन के पद पैठारे ॥ 
इत नउ मंचन कर घरवारे । नउ कारज क्रम नउ नट कारे ॥ 
उधर प्रज्वलित सूर्य के चरण संध्या के द्वार प्रवेश किये । तो इधर नए नए कार्यक्रम एवं नई नौटंकी 
के साथ गृहजन एक नया मंचन लेकर बैठे थे ॥ 
  
छज रज सूरज अगनी अंगे । लाखन लाखन लाखन रंगे ॥ 
भीतर घर भर द्वंदर द्वंदें । लागन लागन लागन संगे ॥ 
छज्जे  पर  सूर्य  अग्नि के सह राजित होकर अत्यधिक गहरे लाल रंग में रंगे दर्शित हो रहे थे ॥ तो 
गृह के भीतर परस्पर विरोधी भाव से युक्त लड़ाकुओ से भरा था । जो परस्पर वैर धर कर आपस में 
उलझे हुवे थे ॥ 

कुल की दुष्कीरति कर हठ के साधन साध । 
दुर्बुद्धि भाव भवन भर सब जन  दुर्नइ राध ॥ 
कुल का अपयश करते हुवे हाथ धर्मिता के समस्त साधन सिद्ध कर हट बुद्धि से युक्त होकर एवं तुच्छ 
विचार को घर में भारत हुवे सब जन बुरी नीति के प्राप्ति थे ॥ 

जनु जलबल जल जलधि जर सकल दीप लइ घेर । 
रोष तरंग बिपति भँवर बाढ़े बाढ़े भेर ॥    
मानो क्रोध से उबलते हुवे समुद्र के जलते हुवे जल ने द्वीप को पूरी तरह से घेर लिया हो । विपदा भँवर 
लिए हुवे रोष की तरंगें ऊँची उठ कर द्वीप की ओर बढ़ रही हों ॥ 

गुरूवार, २१ फरवरी, २०१३                                                                                       

दूसर दूषक दूषन प्रेरे । दरसे गृह्जन मत मति फेरे ॥ 
उग्र बचन भरे करें लराई । समुख जेठ की प्रान समाई ॥ 
पराए दूषित व्यक्ति के दोषों से प्रेरित प्रियजनों की विचार-बुद्धि मानो फिर सी गई थी ॥ वे उग्र  वचनों 
से परिपूर्ण होकर लड़ाई छेड़े हुवे थे । सामइ वधु के जेठ की पत्नी थीं ॥ 

घेर लइ तेहिं चारिहुँ पासे । तेज भरी मुख बैनी निकासें ॥ 
देख दिरिस एहिं छुट बधु धाई । बर बधु कर धरहरिआई ॥ 
उन्हें चारों ओर से घेर कर  मुख से तेजपूर्ण वाणी निकाल रहे थे । ऐसा दृश्य देखकर छोटी वधु  भागी । 
और बड़ी वधु का बीच-बचाव करे लगी ॥ 

थोर न थंभें लड़ रर रंते । जे बर आदि त छुट अंते ॥ 
करन कलह कल प्रतिपल परसे । बारहि बार धरसत बरसें ॥ 
किंचित भी शान्ति न रखते हुवे बारम्बार लड़ाई में ही अनुलग्न रहे  । जो लड़ाई बड़ी वधु से प्रारम्भ हुई  
वह छोटी वधु पर समाप्त हुई ॥  कलह कोलाहल कानों को प्रतिक्षण स्पर्श कर रहा था । (घरवाले) बार 
बार डांट डपट कर बरस पड़ते ॥ 
    
सब गहजन की भइ लड़ बुद्धी । गर्भ बयस बधु कछु नहिं सूझी ॥ 
तब पीहर घर दै संदेसे । लइ जाउ मोहि अस ही भेसे ॥ 
सभी गृहजनों की लड़ाई बुद्धि रही । गर्भावस्था को प्राप्त वधु को कुछ अहि सूझ रहा था ॥ तब उअसने पीहर 
घर में सन्देश भिजवाया कि मुझे में जिस वेश में हूँ वैसे ही ले जाओ ॥ 

नयन भर रुदन कर अंधु लाखी बखतै भोर । 
अवनु लवनु बधु के बंधु ले भगीनि के सोर ॥    
नयन रो रो कर आसुओ से भर अंधे हो गए और भोर को जोहने लगे । ( भोर पड़े) वधु के भ्राता बहा की सुधि 
लेते हुवे बहन को लेने ससुराल पहुँचे ॥ 
  
शुक्रवार, २२ फरवरी २०१३                                                                                    

एहि बिधि बधु दुःख धर चित ऊपर । संताप कर चली पितु के घर ॥ 
लागन लाग न लाग लपेटे ॥ गवनु बखत तिय पिय नहिं भेंटे ॥ 
इस  प्रकार  वधु  मन में दुःख धारण कर पीड़ा युक्त होकर पिटा के घर चली ।। न वैर न प्रीति न ही कॊइ 
औपचारिकता जाते समय पीया प्रिया से मिले भी नहीं ॥ 

दिवस राति रत रितु रथ बदरी । बसंत भरी सोहित डगरी ॥ 
सर सर सरसिरु पेड़ पलासे । त्रिबिध बिरह बह बही अगासे ॥ 
दिवस और रातो के प्रेम पाश में आबद्ध ऋतू ने अपना रथ( चक्र) बदला । वसत भरी डगर सुदर प्रतीत
होती सरोवरों में  कमल  और  पदों  पर  पलास  शोभायमान  हुवे  विरह युक्त त्रिविध बयार आकाश में 
प्रवाहित होए लगी ॥ 

लागि भरी ना  पुर पुरवाई । हाट न बाट न बीथि लुभाई ॥ 
फूर बहु फुर बहु बरन बोरे । नयन नीर पर धुंधरे धोरे ॥ 
नगर की यह पुरवाई भली नहीं लग रही थी । न हाट न न मार्ग और अहि गलियाँ लुभा रहीं थी ॥  फूल 
बहुंत से वर्णों में वर्णित होकर प्रस्फुटित थे  किन्तु  वधु  के  नयन  जल  में  धुंधला कर धवलित जान 
पड़ते ॥ 

तरु मंडित मर हर हरियारे । हरिन नयन भर हरिदा धारे ॥ 
पाँव पाँव नव पल्लव छाहीं । पाल उर पार पारक गाहीं ॥ 
धरती हरे भरे वृक्षों से  हरियाली बिखेर रही थी । कितु उस मृगनयनी के नयो में हरिद्रा छाई थी ॥ पग-
पग पर नव पल्लव छाये हुवे थे किन्तु ह्रदय की परत-परत पर प्रिय गहराए हुवे थे ॥ 

चली दूर दूर उरी धूर धूर पर उर न धीर धरे । 
देखि मूर मूर तरे झूर झूर पट नयन नीर भरे ॥ 
भरी कर कूरी हरीयर चूरी सुर सँवर गईं भूर । 
दुःख धरी बिंदिया पीर भरि बिछिया चुप करि सिस सिंदूर ॥  
वधु ऊर  चली  जा रही है पीछे शिविका का चक्र धुरी से धुल उड़ रही है किन्तु वधु के ह्रदय में धैर्य नहीं है 
वह मुड़ मुड़ कर  देखती  है  और अश्रुकण नयनों में में भर कर झुलते हुवे नीचे उतर  रहे हैं ।।  हरी-भरी 
चूड़ियां हाथो में ढेर लगाए  हुवे  हैं जो पिया के (प्रेम) सुरों को भी भूल गई हैं बिंदिया  दुःख धारण किये है 
बिछिया को भी विरह जनित पीड़ा है और सिर का सिन्धुर चुप्पी धारे हुवे है ॥ 

   
रंगे रहें आँगन बन सोभहिं सहि श्रीरंग । 
कह सुमन भर राग बिरहन  सह न रंग श्री संग ॥ 
श्री के साथ श्रीकर की शोभा जिस आँगन के उपवन को सुशोभित कर रहे थे । वहाँ के पुष्प विरह राग में कह 
रहे है कि अब श्री एवं श्रीकर साथ नहीं हैं तो उपवन सुशोभित नहीं है ॥ 

शनिवार, २३ फरवरी, २०१३                                                                                    

दोष भरे चाहु कैहि छोभें । पिय प्रियजनु के पख ही सोभें ॥ 
ए जग लरकिनि जोनि जे लाईं । न पिय न पितु के पाख लिखाईं ॥ 
दोषों से परिपूर होकर चाहे किता भी क्रोध करें पीया तो प्रियजनों के पक्ष में ही शोभा देते हैं । । इस जगत में जो 
स्त्री योनि में आईं हैं उनके भाग्य न तो पति का पक्ष लिखा है और न ही पिता  का ॥ 

प्रेम पुरित जहँ पिय छबि मोही । बिहुर बहुर तहँ बनी बिद्रोही ॥  
तात देहरी पग धरी  दो ही । सोची जे हो भली न होही ॥ 
प्रेम में अनुरक्त हो जहा पीया की छवि लुभा रही थी वहां से बिछुड़ बैर कर लौटी ॥  पिता की देहली  पर दो  ही पग 
रख थे कि वधु के मन में विचार आया कि जो भी हुवा अच्छा नहीं हुवा ॥ 

चरन भीतें न रहे बहारे  । अजहुँ न भाए तात दुआरे ॥ 
जनु कोउ महजन लाग चढ़ाए । तेहि न बहुरे दुज मँगन आए ॥ 
चरण अन्दर प्रवेश नहीं करते वह बाहर ही रहते हैं । आज पिता का द्वार नहीं भा रहा । मानो कोई महाजन का ऋण 
चढ़ा हो सो वो तो लौटाया नहीं दूसरा ऋण मांगने आ गए हों ॥ 

  कोउ दोष न कोउ अपराधे । एतक दोष कि नारि तनु राधें ॥ 
नयन नवन भए लाजन भारे । आपहि घर कर आप उजारे ॥ 
न तो कोई दोष ना ही कोई अपराध  केवल इतना ही दोष कि वधु नारी शरीर को प्राप्त हुई ॥ नया इस लज्जा से भारी
हो झुक गए कि अपना घर अपने ही हाथों उजाड़ने चले हैं ॥ 

एहि भू जन्में मम जनु जूरे । अस मत बुड़ बधु चौखट बूड़े ॥ 
इसी भूमि में जन्म लेकर मेरे प्राण यहीं बंधे । वधु ने ऐसे विचार मग्न होकर पिता की चौखट के भीतर प्रवेश किया 

लखत लखत बखत बिबाहु काल गाँठी धर एक । 
देखु भाल बधु बिधि बाहु अरु का लाखे लेख ॥ 
देखते ही देखते विवाह का एक काल ग्रंथि अर्थात विवाह हुवे एक वर्ष हो गया । देखो अब वधु के माथे पर विधाता ने 
और क्या लेख लिखा है ॥ 

रविवार, २४ फरवरी, २०१३                                                                                        

बिगति बसंत रितु बिरह लाई । होनइ सकल बिधात रचाई ।।   
काल लेखन नहि कोउ हाथे । न त लेखहिं भल सब निज माथे ॥ 
बितती हुई वसंत ऋतु विरह ले कर आई सारी होनी विधाता के द्वारा रचाई गई है ॥ समय लिखना किसी 
के वश का नहीं है । अन्यथा सब अपने माथे पर अच्छा-अच्छा ही लिखते  ॥ 

दूनउ घर नर नागर जाने । नाम कीरति कर सब सनमाने ॥ 
बधु के पितु कार निज समुदाए  । जथा जोगु जूर  सेवा सहाएँ ॥ 
वधु का पीहर और ससुराल दोनों घरों को नगर के रहवासी जानते थे । जिनके नाम की कीर्ति करते हुवे सभी 
नागारिक जन सम्मान करते थे ॥ वधु के पिता निज समुदाए के कार्य में जूड़कर यथा  योग्य सेवा सहायता 
करते थे ॥ 

जे कहु के निज होए बिबादे । जथा मति गत समुझ सुरझा दें ॥ 
जी रहँ दुःख सुख ररैन  बिहाने । अस दसा के दस दिसा जाने ॥ 
यदि कहीं किसी का कोई निजी विवाद हो जाता तो उसे यथा बुद्धि के अनुसार समझ कर सुलझा देते ॥ जीवन 
में दुःख रात्रि के सदृश्य और सुख दिवस के सदृश्य रहे । ऐसी दशा की दस ठो दिशाएँ जानते थे ॥ 
  
जदपि सील पर सैली लाखें । भान मान कर सब भय भाखें ॥ 
कह न उलट कभु आयसु कारे । आठ गाँठ गह गृहस सँभारे ॥ 
यद्यपि व्यवहार कुशल थे किन्तु शैल के सदृश्य कठोर दिखते । उनकी प्रतिष्ठा का सम्मान कर सब गृह जन 
उनसे भय खाते ॥ सभी उनकि आज्ञा का पालन क़र कभी उलटा नहीं कहते आठ प्रकार की गहरी गाँठ लगा 
कर गृहस्थी को संभाले थे ॥ 
  
जे रहि धिय के कहुँ दोसु ते बहु रोस जताएं । 
जान पितु तेहि निर्दोसु लैवन बंधु पठाए ॥  
यदि कहीं पुत्री का दोष रहता तो उस पर क्रोध जताते । यहायाह जानते हुवे की पुत्री निर्दोष है तभी भ्राता को 
उसे लेने उसके ससुराल भेजा ॥   

सोम/मंगल, २५/२६ फरवरी, २०१३                                                                                          

भइ सयान बधु बर भौजाई । रूप असन जनु माइ के छाई ॥ 
सनेहु जस निज बाल सनेहीं । तेहि बिहा पर बधु जनु  लेहीं ॥ 
वधु की बड़ी भौजी समझदार थी रूप उअका ऐसा की जैसे माता ही की परछाई हों । वह ऐसे स्नेह करती जैसे 
कोई अपने  ही बालक को सनेह करता है । कारण  कि उनके विवाह के पश्चात ही वधु का जन्म हुवा था ॥ 

अस ते पिहरू भए मातु हीना । पर भउजइँ बहु ममता दीना ॥ 
कहैं सुने समुझाइ बुझाई । समउ पर सब नीक हो जाहीं ॥ 
ऐसे तो पीहर माता ही हो गया किन्तु भावजों ने बहुंत स्नेह किया ॥ काहा हवा सुआ और समझाया-बुझाया कि
 समय आए पर सब ठीक हो जाएगा ॥ 

दिन भर बत कर दुःख सुख रागी । सनै सनै सँझ गहरनु लागी ॥ 
उत अम्बर बर राजत रजनी ॥ इत साजन बिनु साज न सजनी ॥ 
दिनभर बातेंकर दुःख सुख बोलते बतलाते साँझ गहराने लगी ॥ उधर अम्बर का वरण कर रजनी विराजित हुई 
इधर साज बिना सजनी शोभित न हुई ॥ 

अस बिरहन भर एक भइ दु राति । पिया बिथुरन न सुख कहुँ भांति ॥ 
बसंत दूत संदेसु न  आजु । नींद परे ना कोउ ब्याजु ॥ 
इस प्रकार विरह भरी एक रात दूसरी में परिवर्तित हुई । पीया के बिछुड़े से सुख भी किसी भाँति नहीं था ॥ 
अब की बार पूर्व के जैसे वसंत्त दूत ने कोई सन्देश भी नहीं दिया नींद थी की किसी बहाए भी नहीं आ रही थी ॥ 

होइ वही जे सोचु न जोही । बिचारि बधु आगिल का होही ॥ 
दीन दसा अस  कर दुःख दूना । दिवस  दुसह बधु दरस कभू ना ॥ 
वह हो गया जो विचारों ने भी नहीं जोहा । वधु ने विचार किया कि अब आगे क्या होगा ॥ गर्भ धरी ऐसी विकलता 
से भरी दशा में दुःख दुगुना प्रतीत होता । ऐसे कठीन दिन वधु इ कभी नहीं देखे थे ॥ 

एकहिं  उरस दस चिंतन सारे । अजहुँ गर्भ गह नव जी धारे ॥ 
जनम लेहि जग नयन उघारे । तब कस कर तर सर संसारे ॥ 
एक ही ह्रदय और दस प्रकार की चिता घिरी हुई थीं अभी तो नव जीवन धारी गर्भ  में है । जन्म  लेकर  जब  शिशु 
इस जगत में अपनी आँख खोलेगा तो वह इस संसार रूप सरोवर में किस प्रकार तैरेगा ॥ 

हिय हरु पिया हिरन नयन गर्भ दोउ के अंस । 
चित चेतन करे चिंतन का जग जी जिय हंस ॥  
ह्रदय हरने वाले पीया मृग नयनों में हैं गर्भ में वधु-वर का अंस है । चित विचार  कर  यह  चिंतन  करने  लगा कि 
इस जगत में देहस्थ चैतन्य की जीवित दशा क्या है ॥ 


गर्भ गार गह घिर तम घोरे । नौ मास भीत रह कर जोरे ॥ 
नलिनइ रूह अस बँध नभ नारे । करत बिनति प्रभु बहिर निकारें ॥ 
गर्भ गृह में घने अँधेरे से घिर कर  नौ माह तक हाथ जोड़ कर रहते हुवे जैसे कमल नाल कीचड़ में धंसी रहती है 
वैसे ही नाभि नाल से बंधे प्रभु से बाहर इकाले की विनती करता है  -- 

सार सार सिर जननी पीरे । तरइ धरा सिसु धीरहि धीरे ॥ 
रवन रुदन धरि धीर न राखे  जस आवनु तस भॊजनु  भाखे ॥  
और जननी को पीड़ा देते हुवे सिर को साधते सारते हुवे धीरे-धीरे शिशु धरती पर आता है । रुदन शब्द धरे वह धैर्य 
न रखते हुवे भोजन का भूखा अर्थात विषय भोगो के अधीन हो जाता है ॥ 

जनम जन जोनि गह जगत अतिथि । लिखि लवनु ललाटन मरनिहि तिथि ॥ 
पी पिऊष पर रहें पिपासे । काम क्रोध मद मोहौ कासे ॥ 
वह मनुष्य योनि ग्रहण कर  इस जगत आश्रम में अतिथि स्वरूप में उत्पन्न होता है । अपने माथे पर मरण तिथि को 
लिखवा कर लाता है ॥ अमृत पीकर भी सदैव प्यासा रहता है अर्थात विषय भोगो में लिप्त होकर भी उनकी कामना 
करता रहता है वह काम, क्रोध, मद एवं लोभ के पाश में बंधा रहता है ॥ 

जियतइ जी तक जनमन जेई । जीवन के सिख दिन दिन लेई ॥ 
आस भरि साँस सिरावत जाए । कहु गवाएँ ते कहूँ छिनु पाएँ ॥ 
मनुष्य जब जन्म लेता है तो वह जीवन पर्यन्त तक दिनोदिन जीवन की सीख लता है । आशाओं से भरी सांस 
समाप्त होती जाती है । कुछ क्षण खो जाते है तो कुछ क्षण पा भी जाते है ॥ 

कहु जीवन साप समरूप कहुँ जीवन वरदान । 
ताप सीत कर छाइँ धुप सकल सुख दुःख अपान ॥ 
कहीं पर जीवन श्राप की अनुभूति देता है, कहीं यह वरदान सिद्ध होता है ॥ कहीं दुःख रूपी तिप्त् धूप है, कही छाँया रूपी सुख शीतलमयी है, यह समस्त सुख दुःख मनुष्य के स्व हस्तोत्पादक हैं ॥ 

मनु कहुँ जलधि खार भरे नादे नदी निर्मल । 
उरस पीर पहार धरे कहूँ धीर धरा तल ॥ 
मानो कहीं पर खारा समुद्र है, कहीं नदी के निर्मल जल का निनाद है, कहीं ह्रदय की पीड़ा धरे पहाड़ है, कही शांत धरा-
तल है ॥ 

बुधवार, २७ फरवरी, २०१३                                                                                            

पुनि तरि एक रतियाँ रति कारी । गगन नगन नग निभ नख घारी ॥ 
माथ मुख बिंदुक चाँद पिरोए  । पाद पदुम दल पेयूख धोए ॥ 
फिर आकाश में रत्नों के समान अनगिनत तारों से युक्त एक श्यामल सुंदरी रात्रि उतरी । जिसके माथे ने बिंदु स्वरूप में चाँद पिरोया था । पद्म दल के सदृश्य चरणों को सुधा बिंदु धो रहे थे ॥   

पिया पपीहा बिकल भे एकै । तिस पर  कबि बर कँह बहु लेखै । । 
पेम परस पी पयसन तरसे । पेम तरस पी तरसन परसे ।
पिया और पपीहे की विकलता एक ही समान है, इस पर श्रेष्ठ कवियों ने लिख लिख कर बहुंत हूँ कहा है ॥ प्रेम का स्पर्श पाकर ही पपीहा और पिया उसकी सुधा बिंदु को तरसते हैं प्रेम करुणा में कभी स्पर्श हेतु तरसते हैं ॥ 

दोउ प्यास मै दोउ पिया से । परस तरस तै दोनौ कासे ॥ 
कोउ रूपक कोउ रूप की रासि  । दोनौ कासत प्रीति के कासि ॥ 
दोनो ही प्यासे हैं दोनों ही प्रेमी हैं दोनों ही स्पर्श को तरसते दोनों सुन्दर प्रतीत होते हैं ॥ कोई ( प्रेमी)  मूर्ति स्वरुप है कोई( प्रेमिका)  रूप की राशि है,  दोनों प्रेम की मुष्टिका में बंधे हैं ॥ 

मंद कांतिक दिवस मलिना । कलंक कलुषित बिधु मुख दीना ॥ 
प्यास तरस पी बहुंत बियाजे । कुंच कमल कर भाल बिराजे ॥ 

मुर मुकुर मलिले मेल मसि ले । कबि कांति मुख मेलें मनि ले ॥ 
जस रयनै चर रात अधारे । तस सजनी सज साजन सारे ॥ 

रसै रसै राति रासे बिरहन कहूँ न रास । 
रज रज रतन मनि कासे सजन सजनी न कास ॥ 

गुरूवार, २८ फरवरी, २०१३                                                                               

ससी दिवाकर अपर अगासे । धरा जल किरन गिरी बन कासें ।। 
कहुँ उयऊ कहुँ छबि छित छाई । तसहि प्रबुद्ध बुध कबि प्रभुताई ॥ 

बिरच बिरंचि कह बहुताईं । बितत बितत रत पिय बिरहाई ॥ 
प्रिया जस चंदु पिया बियोगे । चौंक चौंक चष प्रियतम जोगे ॥ 

लाख लेखि लिख लख लंकारे । रूर मधुर सुर सिंजन डारे ॥ 
सत बर्निक कर धनुधर धारे । टंकन खंकन टन टंकारें॥ 

सर सर आखर माल नियासे । मुख जोजन पत पातक धाँसे ॥ 
सूर नयन बीर केसरि कूरे ॥ पुर पूर जौवन  रन बाँकुरे ॥ 

सूतधार कृत करमन काठे  । कोशकार पत ग्रन्थन गाँठे ॥ 
छंद प्रबंध भेद रस नाना । कह नौ रस मस भानिती भाना ॥ 

धूम अगर जर रुर सुरभि गंधे । नहि ते खाँस आँखि दै अंधे ॥ 
कला कमल कल कृति के संगे । कर बर बर्निक बरनन रंगे ॥ 

बन बानी आखर बान पानी आखर पान ॥ 
बानि बानि  के भरू भान दै सक आखर ज्ञान ॥ 
बाण का विस्तार युद्ध की भाषा है व्यापार का विस्तार व्यापारी की भाषा ॥  वर्ण-वर्ण की  वेश भूषा में 
वर्ण-वर्ण के पति  जैसे उद्योगपति, वाचस्पति, करोडपति, भूमिपति,राष्ट्रपति आदि आदि पति है,
कवि उन्हें, उन्ही की भाषा में अक्षर ज्ञान दे सकते हैं ॥ 




  






























 

















Friday, February 1, 2013

----- ।। सुक्ति के मनि 1।। -----

पत पत हरियर हरु हरु साखे । मूल फूल फर रुख रुख राखे ।।
लही बही बह लह लह लाखे । दिन दिन सिरत बिगत बिय पाँखे ।।
पत्ते पत्ते हरित अम्बर हो गए शाखाओं पर हरीतिमा बिखर गई । पौधों पर पुष्प कंद 
प्रस्फुटित हुवे ।। लहराती हुई बहती हवा में ये अत्यधिक लहलहा रहे हैं । इस प्रकार 
दिन  समाप्त होते हुवे दो पक्ष ( मॉस के पद्रह दिन =एक पक्ष ) बीते ।।

सुर कांत किए  सुरसरि सुन्दर । भई जलमइ बहि सिद्ध दिसि बर || 
भवन भवन बन भूमिहि भूधर ।। उपवन उपवन भयउ मनोहर || 
इंद्र देव ने सुरगंगा  को सुन्दर कर दिया  अब वह अत्यधिक जलयुक्त होकर 
सिद्ध दिशा में प्रवाहित है । तथा भवनों, वनों एवं पर्वतों ने  भी सुन्दरता धारण कर ली  ।।

फिरहिं मुदित मन गगन बिहंगे  | मञ्जुलगति  मनमति बहु रंगे ||  थरि तरि सरि भरि सुभ सिंगारा । नादै नूपुर धर जल धारा ।।
बहुरंगे पक्षी अब प्रमुदित मन से गगन में स्वच्छंद विहार करने लगे | 
नदियाँ धरा पर आभा युक्त श्रृंगार भर कर प्रवाहित होने लगीं । जलधारा नूपुर से 
 जल बिंदु धारण कर मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रही है ।।
   
सरजिहि जीवन जल दए जलधर  । सरनहि सैलझर सोंहि सरिबर  ।।
हरि भरि धरि कर बदरी बहुरी । हरि न हरि चाप पंक न धूरी ।।
बादलों ने जल देकर  जीवों का सृजन किया | जलमय होकर  सरोवर सुसोभित हो रहे हैं और झरने गतिमान हो चले हैं ।।
धरनी को हरी भरी कर वर्षा लौट चली । अब न तो इन्द्रदेव न ही उनका  घोड़े ना  कीचड़ 
और न ही धूल है अर्थात धरती बहुंत ही स्वच्छ दिख रही है ।।

आए  सरद सुम सुरभित गंधे । बिंब बिंदु कन सुबरन बंधे ।।
हरि हरिधनु हीनु हरिज हरिना  । ते दिन दिसि नहि दिसि अंत दिना  ।।
शरद ऋतु का आगमन हो चुका है सुमन सुगधित हो कर गंध बिखेर रहे हैं । उन पर पड़े 
ओस कण की  प्रतिच्छाया में वे सुन्दर रंग में बंधे दिखाई दे रहे हैं ।। जो सूर्य देव दिवस में भी दर्शनातीत थे अब वह इन्द्र  व् उनके धनुष से रहित होकर दिन के अंत तक दर्शित होते हैं | 

पीयुष मयूख मुख मलिन,  मेघ बरना अगास ।
बरनसि धारा धुरत दै  मेघ बरना अभास ।।   
चन्द्रमा का मुख मलिनकर जो आकाश श्याम रंग में रंगा  था  ।
जल-धारा से धुल कर वह अब नील (मेघवर्णा =नील का पौधा ) के पौधे के सदृश्य आभासित हो रहा है ।।

शनिवार, 02 फरवरी 2013                                                                                   

रत सुत बधु ते प्रातह जागे । दुःख परिहरु  गह करमन लागे ।।
ताप तरी धर दरस न दिखाए । मलिन प्रभ मुख कभु कभु मुसुकाए ।।
इस प्रकार वधु रात्रि को शयन कर प्रात: उठती वाम समस्त दुःख को गृह कार्य में भुलाने का 
प्रयास करती ।। पीड़ा हृदय के अंतस में धारे रहती किन्तु ऊपर व्यक्त नहीं करती । मुख सर्वदा 
उदासित रहता कभी कभी ही मुस्कराती ।।

  पुनि एक दिवस दिनमनि तीपिते । बिकिरित कनक प्रभ कनि दीपिते ।।
ललित कलित कर अवनी अंबर । सरसन सरसिरु सरर सरोबर ।।
फिर एक दिन जब सूर्य तपायमान होकर  किरण समूह धूल कणों को स्वर की सी आभा देकर 
दीप्ती बिखेर रहे थे ।। धरती व् आकाश इ कनक किर रूपी सुन्दर आभूषण से विभूषित थे ।।
सर सर करते सरोवर में कमल विकसित थे । ।

गामिन हकदक हंसक श्रेनी । बारि बिहारहिं बापन बेनी ।।
उत अलि प्रिय इत बधू अलिंदे । मंद काँति पर मुख अरविंदे ।।
हंसों की श्रेणी विस्मित करते हुवे मनोहर गति कर रह थे ।। सरोवर की धारा में 
जल क्रीडा करते शोभायमान थे ।।उधर सरोवर में सुदर लाल कमल तो इधर 
छज्जे पर लाल कमल के सदृश्य वधु दृश्यमान थी । कितु उस अलीन मुख की कांति 
धुंधलाई हुई थी ।। 

जर पित अंतर जर भइ छांती । दरत थित धरत काहु न भाँती ।।
घरी भर गहबर जी मिचलाए । लै उबकाए अरु मतलइ आए ।।
उर के अंतर में अग्नि से छाती जल रही थी । यह पीड़ा किसी भी प्रकार से शांत नहीं हो 
रही थी । क्षणभर में ही घबराहट के साथ जी मचलाने लगता ।। और उबकाई लेते हुवे 
उलटियाँ होने लगती ।।

सास जब दिसि दसा दुखदाई । बैद राज पिय लेन  पठाई ।।
अवनु बैद तब परखत पेखे । सिरा हरष दिस औषधि लेखे ।।
सास ने जब वधु की असि दुखदाई दशा देखी । तब तत्काल ही प्रियतम को वेद राज को 
लें हेतु भेजा ।। तब वैद ने आकर दखभाल कर स्वास्थ परीक्षण किया ।। और ह्रदय का 
स्पंदन देख कर औषधि लिखीं ।।

भए गृहजन मन बिगूचन त अधर धर मुसुकान ।
कहत बैद मधुरित बचन बधु करि गर्भाधान ।।
गृहजनो का मन जब( वधु के स्वास्थ की चिंता में ) उद्वेलित हो उठा तब अधरों पर मुस्का धरे 
वेद ने ये मधुरित वचन कहे कि वधु ने गर्भ-धरा है ।।

रविवार, 03 फरवरी, 2013                                                                                  

बैद एहीं भेदु बचन बताए । श्रवन सकल जन ह्रदय हुलसाए ।।
निजपुर सब जब निरखत पाही । लजन लवन लै बधु लख लाही 
वैद्य इ जब यह भद-वचन बताए कि वधु गर्भवती है यह सुनकर सभी जनों का  ह्रदय 
 उल्लसित हो उठा ।।  जब सभी को वधु ने  अपनी ओर  देखते हुवे पाया । तब वधु की 
लज्जा का सौदर्य  लाख की कांति को धारण किये  हुवे था ।।

 प्रियजन बिच तनि अवसर धारे । प्रिया पिया  भए चितबन चारे ।।
प्रफुलित नयन सजन करिं सैने । लजन नवन नव नलिनइ नैने ।।
प्रिय जनों के मध्य थोड़ा अवसर पाते ही प्रिया से पिया के नयन चार हुवे तब पिया ने 
प्रसन्नता- विस्तृत आँखों से साजन ने कुछ संकेत किया । तब लज्जा वश नए नलिनों 
के जैसे नयन समूह झुक गए ।। 
  
कहि सास गवनु सयनइ धामे । जी जर थरत तनिक करू बिश्रामे ।।
गवन पीछु प्रियतम पद पैठे । पास देस गह गल बहिं बैठे ।।
फिर सास ने कहा सायन सदन में जाओ और जी की घबराहट थमने तक थोड़ा आराम कर लो ।।
जाने के पश्चात पीछे से प्रियतम के चरणों ने भी प्रवेश किया । और गले में बाहु पाश कर बगल 
में बैठ गए ।।

कीच भूमि भए जल के कारन । रचक रचत अवरोधन रज कन ।।
जड़ दय चेतन जीवन जोरे । कुलिन कुलीनस कमलिन कोरे ।।
भूमि पर कीचड़ जल के कारण होता है । रचनाकार रजस कणों को अवरोधित कर 
नव सृजन करता है । अचेतन को चेतना देकर सर्वस्वरूपित करता है । जल से 
कुल का शिल्प कर नवी कमल रूपी संतान की रचना करता है ।।

मातु मीच के अनंतर मुख मुकुल अरविंद ।
भै मंद कांत फुरहर ता पर पिया मिलिंद ।।
माता के देहावसान के पश्चात कमल की कलि के जैसा मुख जो मुरझा गया था 
अब खिलकर चमक दार हो गया जिसके ऊपर प्रियतम भ्रमर स्वरूप सुशोभित हैं ।।

सोम/मंगल, 04/05 फरवरी, 2013                                                                


कहिं पिय रितु के रित दिनुराते । अरु तनि मदन मास के जाते ।।
जनक जात जन हम भए ताता । जात रूपक तुम जननी जाता ।।
फिर प्रियतम ने कहा कि दी और रात के अंतर काल में ( कुछ )ऋतुओं के रितते और 
थोड़े अनुराग पूरित मास के बीतते  हम जन्मे हुवे शिशु के जन्मदाता होकर तात बन 
जाएंगे और तुम जन्मदात्री सुदर जननी बन जाओगी ।।

इहाँ बमन बय जी जरि ताते । तुम रटबत करि ताते माते ।।
सुनि पिया अतिसय हास ठठाए । केहरि कंध कर कास गठाए ।।
वधु ने कहा यहाँ तो हम वमनवय जी की ज्वाल से तपे जा रहें हैं । और तुम ताता-माता 
की रट लगा रखे हो ।। असा सुनकर प्रियतम अत्यधिक हंसे । और सिह के समान भुजाओं 
में हाथ सेबंधन  कसते हुवे कहा :--

भै जल सीतल जारन जी के । पा पानि परस पारस पी के ।।
रुचिकर कारहिं जस चित चाऊ । जे तव कहु रस रासन लाऊँ ।।
( तुम्हारे )पिया के हाथ का स्पर्श पारस के जैसे है जो जी की जलन को जल सा शीतल 
कर देगा  ।। ( पिया ने पुन: कहा ) यदि तुम कहो तो तुम्हारे मन को जो भी रुचिकर लगे 
वह भोज्य पदार्थ में तुम्हारे लिए ले आऊं??

इ सब होहहि कारन तुम्हरे । तुम प्रियतम नहिं हारन हमरे ।।
फूर फूर फिर बउरन भँवरे । फूर फूर फिर बउरन पँवरे ।। 
ये लाना लेवाना, जी जलना, उल्टियां आना  सब तुम्हारे ही कारण तो हुवा है । 
तुम प्रियतम कहा हो ( काले)चोर व लुटेरे हो ।  तुम आनंदमग्न होकर इतराते हुवे विचरण 
करते फूल पर फिरकर उसे पुष्पित कर डालियों पर बौर को स्फुटित करने वाले 
बावरे भौरे हो  ।।

अजहूँ तै बहु खेलहु भाखे । मगन मदन भए चतुदस पाखे ।।
कहि बधु बिनोदु गहु गह भारू । तव हरहन हरहि होनहारू ।।
अब तक तो बहुत ही खेल खा लिए आनंदउत्सव में मग्न हुवे तुम्हें चौदह पखवाड़े
हो गए वधु इ परिहास करते हुवे कहा अब गृह-गृहस्ती का भार वहां करे का समय आ गया
है तुम्हारी इ सभी 'बाल' क्रीडाओं को हरने कोई आने वाला है ।। 

सूँ सीच सुसार सीकर सुसुप्त सूखम सूत ।
गह गरुवर गर्भ केसर गात समितंग भूत ।।
 सारवान बूंदों से सिंचित होकर सुप्त सूक्ष्म तंतु , जातक के गर्भ  
तंतु द्वारा गृहीत  होकर, भारपूर्ण हो,  अंगों का स्वरूप बनाते, भ्रूण की 
आकृति लेते हुवे  तीन मास के ऊपर की अवस्था प्राप्त की ।। 
    
बुधवार, 06 फरवरी, 2013                                                                            

पित सित सीकर सुकुति सँजुगते । मातु मुकुति गह बालक मुकुते ।।
जनक दीपक जननी ज्वाला । तेज स्वरुप पुंज कर बाला ।।
पिता की विशुद्ध अर्थात सुधा स्वरूप बूंदें गर्भ रूपी सीप में जा कर संयुक्त होती हैं । अत: माता 
सिप स्वरूप एवं संतान मुक्तिक रूप में होते हैं ।। यदि जनक दीपक है जननी  ज्वाल है । तेज 
स्वरूप ब्रम्ह रूप में बालक किरण-पुंज है ।।    

लगनहि बंधहीं नर अरु नारी । भै भव भूषन धरम अचारी ।।
दुइ तन दुइ मन दु चेतन चिते । सर्जन नौ जीवन भुवन भिते ।।
 नर और  नारी परस्पर विवाह बंधन में बंढाते हैं । वे इस संसार के आभूषण स्वरूप होते हैं जो 
सदाचरण कर सत कर्म करते हैं । दो तन दो मन और दो आत्माएं मिलकर इस संसार के अंतर 
नवीन जीवन का सृजन करती हैं ।।

 जनमन चौखन जीवन धारी । ते बर जे जन जोनिहिं घारीं ।।
 जीवन उद्भवजनमन अंतर । चलत नियम धर नियति निरंतर ।।
जीवधारी चार योनियों में जन्म लेते हैं अंडज, पिंडज, ऊष्मज एवं उद्भज । वे जिव श्रेष्ठ हैं जो 
मनुष्य योनि को प्राप्त हैं ।।  एक के पश्चात दूसरे  जीव की उत्पत्ति   इस प्रकार प्रकृति का जीवन  क्रम 
नियमानुसार सतत  संचालित रहता है ।।

जग महुँ जन बहु जे जल जोहें । पर सागर सम बिरलै होंहें ।।
सर सरि तर तरि जस घन आसे । बादर सागर बूँद पियासे ।।
इस संसार में जल की अभिलाषा करने वाले मनुष्य बहुतायत हैं । किन्तु सागर के सदृश्य 
मनुज बहुंत ही कम हैं ।। जिस प्रकार सरिता की तरलता और सरोवर की गहनता मेघ-आस पर 
ही निर्भर है । और मेघ सागर की बूंदों का प्यासा है ।। परोपकार के आशावान तो बहुत हैं किन्तु 
परोपकारी की संख्या बहुंत ही कम है ।। 

कलित कलुष एहि काल कलेहू । जन धन  पूजक तन के नेहू ।।
भस्म भाव भर भूतिहि माया । नियति नियंत्रण नस्बर काया ।।
इस युग की गणना काल एवं कलह युक्त स्वरूप में हुई है । इस युग के मनुष्य धन के पुजारी 
एवं तन के अभिलाषी हैं । माया की उत्पत्ति भस्म स्वभाव स्वरूप हुई है । और यह काया तो 
नश्वर  है जिसका नियंत्रण सृष्टि के हाथ में है अत: इस काया और माया का  क्या मोह ।।

या मनुज निज कृत काया होत है क्षणभंगूर ।
दृष्टा दनुज नृप माया गिरि तौ चकनाचूर ।।

हे मनुष्य इस काया का निज स्वरूप  क्षणमात्र में ही नष्ट होए योग्य है और राजा बाई यह माया 
दानव का दृष्टांत है  अर्थात रावण के सदृश्य है यदि यह एक बार गिरी तो फिर इसका अस्तित्व
नहीं मिलता ।।

जे परिहरु माया बँधन तेहिही साधौ जान ।
जे तिन तुलन कंचन तन ते  चित संत समान ।।
जिनने माया के बंधन का त्याग कर दिया उन्हें ही साधू समझना चाहिए ।
जिनने इस स्वर्ण काया की तुलना तिनके से की ऐसे  ह्रदय ही संत ह्रदय होते है ।।

गुरूवार, 07 फरवरी, 2013                                                                               

मैं मति धी अजान अंधेरे । मान कलह कलि  गह गह घेरे ।।
तज सत्य जन जप करें झूठे । जी जिव ते पाप भरें मूठे ।।
अहंकार, घमंड रूपी अज्ञान के अँधेरे तथा मान  जनित कलह ने  कलयुग में घर-
घर को घेर रखा है । सत्य को त्याग कर मनुष्य झूठे जाप करता है जीवित रहते 
तक महत्ती में पाप को भरता जाता है ।।

  दुइ पद दुइ कर दुइ दृग काना । दिस श्रुति गति धरें एक समाना ।।
एक मुख पर बैन बहु भाँती । चाटु बाँच करिं ठकुरसुहाती ।।
चरण दो है दो हाथ है कर्ण एवं दृष्टि भी दो ही है । जो एक जैसे ही देखते, सुनते व गतिमान 
होते हैं ।  किन्तु मुख एक ही है और वाणी  बहुंत प्रकार की हैं । झूठी प्रशंसा से चापलूसी 
की जाती है ।।

करक कुटिल कहुँ करुवर कासा । कल कंठन कहुँ मधुरित भासा ।।
कुटिल बचन बन बिघनहि बोहीं । कु बचनन कर कुल कुजस होहीं ।।
कहीं कड़क कहीं कपट भरी कहीं कड़वी कहीं कसैली कही श्रुतिमधुर मधुरित भाषा है ।।
कहीं कुटिल वचन घर में विध्न बोते हैं । कुवचनों के हाथ से तो कुल का अपयश ही होता है ।।

धीर धार घन धन कर जोरें । बृष्टि बन कर तेइ घर फोरें ।।
जो बिय बयनै सो फल पाईं । बो बाबुल ते रसाल न खाईं ।।
धैर्य धारण किये घन धनाड्य कर देते हैं वाही ये वृष्टि बन कर घर को फोड़ देते हैं ।
जो बीज बोया गया है फल भी वही मिलेगा । बाबुल के बोए आम ककी प्राप्ति नहीं होती ।।

 श्री गिरा कर कंठ पर कृतित अगम कृतिकार ।
जे बिराजैं तालु उपर कूट कलह घर घार ।। 
श्री सरस्वती का वास यदि हाथ एवं कंठ में हो तो एक कुशल कृतिकार की रचना होती है ।
यहीं यदि तालव्य में विराजित हो जाएँ तो  घर में छल-कपट युक्त  कलह का वास हो जाता है ।।

शुक्रवार, 08 फरवरी, 2013                                                                                       

बर बधु के घर नहिं एक अकेरे । बवन बिघन बिय बन बहुतेरे ।।
भलमनसाही पै कठिनाई । चलत चलत ही मिलत निचाई ।।
वर-वधू का घर भी न्यारा नहीं था । इस घर में भी विध्न के बहुंत से बीज बोये हुवे थे ।।
भलामानुसपन को प्राप्त करना कठिन है । नीचता तो चलते-चलते ही प्राप्त हो जाती है ।।

सुधा गरल दोउ गहसन सिन्धु । सुधाधार ते मलिन बन इंदु ।।
गृहजन अस दुइ नियति निधाने । भल अनभल गुन अवगुन साने ।।
अमृत एवं विष सागर ने दोनों ही निगल रखा है । चन्द्रमा में सुधा का आधार के साथ 
मलिन वन भी है । वधु के गृहजन भी  भलाई बुराई, गुण-अवगुण से गुंधे द्विप्रकृति को 
धारण किये हुवे थे । 

कहुँ मन कोमलि कहुँक कठोरे । भायँ कुभायँ भए एकहि ठोरे ।।
बधू के गन गुन दोष विभागें । कभु अनुरागें कभू बिरागें ।।
कहीं मन कोमल हो जाता कहीं कठोरता धारण कर लेता इस प्रकार अच्छा एवं बुरा 
दोनों स्वभाव प्रकृति एक ही स्थान पर होते हुवे कभी वधू के गुणों की तो कभी दोषों 
की गणना से अंतर कर कभी अनुराग करते कभी विरक्ति करते ।।

क्रोध अनल घृत द्वेष दहकाए । कल जल नेहु नल जवल बुझाए ।।
काम कन कोष तोषहि सोषे । घन घन गुन गन दमनै दोषे ।।
क्रोध रूपी अग्नि में विद्वेष घृत का कार्य कर उसे भड़काते  । स्नेह की वाष्प युक्त मधुर ध्वनि 
उक्त ज्वाला को बुझा देती ।। महत्वाकांक्षा के बिंदु कोष को संतोष ही शोषित करता है । गुण- समूह 
रूपी भारी हथौड़ा ही दोषों का दमन करता है ।।

सार सार सर सर सरन कर कुल काल कलंक ।
गहन बिदंस दहन दार बैनन सूल नियंक ।।
वायु मार्ग में सर-सर करते ह्रदय को विदीर्ण कर कुल का काल बन उसके अपमान का कारन
बन कर कुल की मान प्रतिष्ठा को नष्ट करते  तेज गति युक्त बाण अथवा वचन 
गहरे धंसते हुवे लड़ाई/ वध/ टुकड़े कर कुल को कष्ट देते हैं ।।

शनिवार, 09 फरवरी, 2013                                                                                       

रमन जनन जहँ जननी जराउ । जानिन्ह सकल गृहजनि सुभाउ ।।
कहँ गुण बहुल कहँ दोषु अधिके । रमा रयनै रहें कुल ही के ।।
जननी के जेर से जहां कान्त का जन्म हुवा, स कारण वह गृह के सभी सदस्यों के आचरण से 
परिचित थे ।। कहाँ गुण अधिक हैं, कहाँ दोष अधिक है ( यह जानते हुवे भी) प्रियतमा 
पर अनुरक्त होते हुवे कुल ही के पक्षधर थे ।।

रवकत रकत रज रंग बिराए । गृह जन जानिन कहिन परजाए ।।
जननी जे जातक जनमाही । ते बैजिक बड़ ही त बड़ाही ।। 
संचारित रक्त के रंग-कण पराए घर के हैं । गृहजन, घर के पंडित अर्थात घर में ही पांडित्य 
प्रकट कर वधुओ को पराई जनी ऐसा कहते थे ।। ( इस ज्ञान से अनभिज्ञ होकर कि )वही 
वधुएँ जननी बन कर जिस जातक को जन्म देंगी अन्तत : वह बरगद रूपी पैतृक वृक्ष को 
ही तो पोषित करेंगी ।।

कुल धर दीपक बधु दीप्ति कर । एक दिनमनि रूप दुज रजनी चर ।।
एक तूल कुल तिलक धर भाले । दुज लखि लह गह साज सँभाले ।।
पुत्र यदि (गृह) दीपक है तो पुत्रवधू उसकी दीप्ती किरण हो गृह-शोभा स्वरूप है ।
एक यदि सूर्य रूप है तो दूजी शशी स्वरूप है । एक यदि वंश का गौरव स्वरूप सिरोधार्य है 
तो दूजी गृह लक्ष्मी रूप में सुशोभित हो गृह-सौंदर्य की प्रबंध स्वरूपा है ।।

 स्वामी श्री न सेवक सेवी । बिनु साधु देव न साधु देवी ।।
सीत के संग सलिल सिराई । भाप जल बाप ताप के ताईं ।।
भक्त की भक्ति, प्रजा की शक्ति, पत्नी की प्रीति के बिना भगवान, राजा एवं पति की 
 वैभव-विभूति नहीं होती । ऐसे ही श्वसुर के बिना सास की पूजा नहीं होती ।।
जल की शीतलता शीत पर ही आधारित है । वाष्प से परिवर्तित जल-सरोवर का अस्तित्व 
ताप के ही निमित्त है ।।

 भर सात बचन भाग जनम संग बाँध कर धर भामिनी ।
पद भँवर अगन थापत पूजन तब सन भइ स्वामिनी ।।
शुभकृत चिंतनी सुची कर प्रनी सुद्धित बुद्धि गाहिता ।
गह करम प्रबंधनी मंजुल मोहिनी देवी रूप बर देवता ।।

सप्त वचन भर जीवन साथी से भाग्य बाँध कर हाथ पकड़  वधु अग्नि का आह्वान एवं 
पूजन कृत्य कर चरण-भँवरती है,  तब से ही वह स्वामिनी हो जाती है ।। कल्याणकारक 
कार्य करने वाली सब का हित चाहने वाली  आचमन कर शुद्ध एवं सत्य आचरण को 
ग्रहण करते हुवे गृहस्थ एवं धर्म विहित कर्म द्वारा गृह व्यवस्थापन हेतु यह सुन्दर 
मोहित छवि मोह कारिणी आद्या शक्ति स्वरूप दिव्य देही देव का वरण करती है ।। 

बिनु बैदेही राम अधस अस हरि हर वेनुधर ।
सबहिं कै श्री सिखर सुयस श्रीमती के श्री कर ।।
बिना वैदेही के श्री राम भी अपूर्ण हैं ऐसे ही श्री हरि ,श्री शंकर एवं श्री श्याम भी अपूर्ण है ।।
सभी की शिखर सुकीर्ति की शोभा उनकी संगिनी पार्वती, लक्ष्मी एवं राधिका के 
सुन्दर हाथों में है ।।

रविवार, 10 फरवरी, 2013                                                                                


मेघा बरन प्रभ धनबन धारे । सघन बरन बिष सागर सारे ।।
तेहिं प्रभुत कबिन्ह बहु बरने । एक मुक्तिक धर दूज तेहिं अरने ।।
गगन ने नील की प्रभा को धारण किया है । गहरे सागर में विष वर्ण विस्तारित है ।।
इनकी प्रभुता कवियों ने बहुंत प्रकार से कही है । कि एक मोती का धारक है और एक 
उसका संधान करने वाला है ।।

घन घनकन दर्सन काजर से । पर बरसत कन कन परदरसे ।।
हिम संहति धर बरनन धवले । अरन बिबरनन खन खन पिघले ।।
गरजते हुवे बादल काले दिखत हैं । पर उसके बरसते हुवे कण कण पारदर्शी होते है ।।
हिम शैल का संग्रह शुभ्र वर का होता है । किन्तु जब उसके खंड खंड पिघलते हैं तो 
वर्णहीन जल में परिवर्तित हो जाते हैं ।।

एहि बिधि बरनन जस दुइ पाखें । जन तन रुपवन धारिन राखें ।।
रूप रँग ते गुन धर्म न जाने । काठ राख नहिं रख पहिचाने ।।
इसी प्रकार जैसे एक मास के दो पक्ष कृष्ण एवं शुक्ल वर्ण के होते है । मनुष्य का शरीर भी 
ऐसा ही (अर्थात कृष्ण/शुक्ल) वेश वर्ण धारे हुवे है ।। ( उपरोक्त कथनानुसार )  रूप -रंग से 
गुणधर्म अर्थात स्वभावतस लक्षणों  का पता नहीं चलता । जैसे राख काठ की पहचा को 
नहीं सहेजती ।।

घन के घरषन बरसा होई । दध दधि चारिंन जात बिलोई ।।
पाहन खन खन  घन के घाते । बयन अंकुरन पौ फर पाते ।।
घन के घर्षण से ही वर्षा होती है । दही को मथनी से  बिलोए जाने पर ही मख्खन प्राप्त 
होता है । पाषाण हथौड़े के प्रहार से ही खंडित होता है । बोया हुवे अंकुर प्रकाश की ऊर्जा 
प्राप्त कर ही विकसित होता है ।। 

 तपोबन तप बल तापन पाए । राम तब ही भगवन कहलाए ।।
ताप दाप धुप दहनहि देही । अगुन गुन सगुन तब लख लेही ।।
तपोवन में तप कर कष्ट वहन करते ताप द्वारा अर्जित शक्ति के करान ही  श्री राम, भगवान 
कहलाए । जब  दुःख व्यथा की धुप रूपी ऊर्जा से शरीर की दहन परीक्षा  होती है  
तब ही अदृश्य गुण सदृश्य हो कर लक्स्झ्हित होते हैं ।।

 सार जग जात भेद बल दरस न सत सही रूप ।
अस ही मनुज तन बलकल जानि न सत्य स्वरूप ।।
दृश्यमान वस्तुओ का योग का वास्तविक अंतर उसके यथार्थ सिद्ध  स्वरूप में दिखाई नहीं  देता ।
ऐसे ही मनुष्य के शारीरिक आवरण से उसके यथातथ्य रूप का ज्ञान नहीं होता ।।

 सोमवार, 11 फरवरी, 2013                                                                             

गिन दिन बिरंचि रच निपुनाई । कभु घुप धुप कभु सीतल छाईं ।।
मंद सुगंधि सरन सुखदाई । तपस बहनु तनु बहु झुलसाई ।।
ब्रम्हा ने( प्रत्येक जीव के ) दिन गिन कर बहुंत ही निपुणता से रचे हैं । जीवन रूपी दिवस 
में गहन दुःख धूप के साथ शीतल सुख छाँव की भी रचना की है ।। सुख की छाया में त्रिबिध 
वायु (अर्थात शीतल मंद सुगधित) रूपी वैभव को रचा वहीं दुख की धूप में गर्म लू के थपेड़े 
के रूप में अभाव( प्रेम,पुत्र पुत्री संतान, धन, पद, साथ,पिता माता परिवार आदि का अभाव ) 
को भी रचा ।। 
  
बधु घर भीतर अस दुइ साखे । द्वेस राग दुइ बह लाह लाखें ।।
धीरक घट गह रागन धारे । द्वेस तपस घर राजन रारे ।।
वधु के घर के अन्दर भी ऐसे ही दो शाखें थीं । यह शाखाएं द्वेष और अनुराग रूप में 
लहती-बहती हुई लक्षित थीं । शान्ति स्वरूप त्रिबिध वायु शरीर में अनुराग भरती थी ।
द्वेष की लू से घर में झगड़ो का वास हो जाता था ।।

जदपि भवन बर भए त्रै भाई । तेहि बखत ते दु हीं बियाहीं ।।
थोरु धीरू पर कलेष बहुता । जे सक सहउ दूनउ बियहुता ।।
यद्यपि उस सुन्दर सदन में वर ( वर सहित ) कुल तिन भाई थे । कथा कथन तक केवल दो 
ही का विवाह हुवा था ।। सदन में शान्ति थोड़ी और अशांति अधिक थी । जिसे दोनों विवाहिता 
सहन कर रहीं थीं ।।

परिनै पर पुत पेम बिभागे । तनि गहजन तनि बधु अनुरागें ।।
पी जननी बधु राग न भाए । हेतु  कहिं बधू बस न हुइ जाएँ ।।
परिणय पश्चात पुत्त्रों का प्रेम विभक्त हो जाता है । जो किंचित प्रियजनों को एवं किचित प्रिया 
को प्राप्त होता है । पिया -जननी को वधूओ के प्रति अनुराग नहीं भाता ।।  इस कार कि कहीं पुत्र 
वधुओ के वश न हो जाएं ।।

जौं भै पुत बधु बसताए जइँ परिहरु परिवार ।
तहँ पुत न नतैत निभाएँ मति गति मंद बिचार ।। 
यदि पुत्र वधूओं के वश हो जाएंगे तो परिवार को बिसार देवेंगे तत्पश्चात पुत्र 
पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करेंगे ऐसा ओछा विचार उनके मन में विचरण करता 
रहता ।।

 मंगलवार, 12 फरवरी, 2013                                                                          

पूछ सोएँ रत पूछत  जागें । अरु अदेस पै बधू सुहागें ।।
चापिं चरन कर कथन कठोरे । तबहिं बधू बस होहहिं मोरे ।।
पूछ कर रात में सोएँ पूछ कर ही जागें और आदेश प्राप्त कर ही बधूओं  से अनुराग रखें ।
दबाव में रखते हुवे कठोर वचन करूँ  तब ही  वधूवें मेरे वश में होवेंगी  ।।

 मंत्री अस को मत मति मंता । श्रवन  कवन सत संगति संता ।।
गव को बुधहत बोध बिगारे । कोप के कूप पयस उबारे ।।
( पी जननी ने ) जाने  किस मंत्री से ऐसे विचारों की मन्त्रणा की थी । और पता नहीं किस संत की सत 
संगति से ये विचार उत्पन्न हुवे ।।  किस खंडित- पंडित के पास जाकर यह बिगाडू ज्ञान अर्जित किया ।
कि कोप के कूँवे में दूध उबालो ।। 

जग बास बहु लोग अस सुभाए । लखहिं परगह जस मान जराएँ ।।
कोर रंध जे थारी खोरें । तिनका तोरें अरु गह फोरें ।।
संसार में ऐसे स्वभाव के बहुँत से लोग वास करते हैं । जो दुसरे के घर का प्रतिष्ठा एवं कीर्ति देख 
कर ईर्ष्या करते हैं ।। जिस थाली में खाते है उसी में ही छेद करते हैं । और परस्पर सम्बन्ध विछिन्न 
कर घर को विभक्त करवाते हैं ।।

काम क्रोध मद लुभ के आसा । पी जननी  अभिलाषन पासा ।।
सुसंगति सथ सत पथ राधे । कुसंग गति अस स्वहित साधें ।।
काम,क्रोध,मद,और लोभ की आशा करते पी जननी महत्वाकाक्षाओं के भवर पाश में बंधी थीं ।।
अच्छी संगति से शास्त्र विहित सिद्धांतों अथवा सदाचार की प्राप्ति होती है । निकृष्ट साथी  दुर्दशा 
कर उपरोक्तानुसार विभाजनवाद का अनुशरण कर अपना ही हित साधते हैं ।।

लाह न लोहन अन आकरषे । परस प्रभव पै पारस परसे ।।
कल  कंचन चढ़ मनिसर सोही । पर खन कोयरि कोयरि होही ।।
लोहे में कांति नहीं होने के कारण वह अन आकर्षिक होता है किन्तु स्पर्शमणि का स्पर्श प्राप्त कर 
स्वर्ण( आभायुक्त) हो जाता है ।  और उसी सुदर कंचन पर श्वेत कांति युक्त हीरा शोभायमान होता है 
किन्तु वह कोयले की खान में कोयला ही हो जाता है ( कुसंगति एवं सुसंगति का प्रभाव तदनुरूप ही है ) ।।

कोप ता पर करूक कथन चढ़ नीम कारबेल ।
प्रीति ऊपर प्रेम बचन मधु पर्क मिश्रित मेल ।।  
क्रोध उस पर कड़वे वचन जैसे करेले का नीम चढ़ना अर्थात अवगुण के ऊपर अवगुण । अनुराग ऊपर 
राग वचन जैसे दधि, घृत, मधु, पयस एवं शर्करा का योग मिश्रण हो ।।


बुधवार, 13 फरवरी, 2013                                                                                               

मैं मति भेस उपदेस बहुले । निंदित निगदन नक नग सूले ।।
काटुक कटखनि कटु रस साने । करन न गोचर करकस बाने ।।
अहँकार, घमंड के वेश में अर्थात हम ये थे हम वो थे बहुँत से उपदेश कर निंदा कथन पाषण के 
नुकीले शुलों के जैसे थे । काट खा कर घाव करने वाले कड़वे रस से से हुवे थे । एसी करकस वाणी 
कि जो कानो में सुनी  जा सके ।।
  

बैन बचन बने बैन अजुधे । व्यर्थ बैर कर कारण जुधे ।।
भवन खन जनु रन भूमि बंगे । अगन पिंड बिध धूमि बियंगे ।।
वाणी वाचन बाण-आयुद्ध बने आयर व्यर्थ की शत्रुता युद्ध का कारण बने ।।  भवन खंड 
जैस  उपद्रवियों की रन भूमि हो गई और  व्यंग के उल्कापात व अग्नि पिंड भूमि को भेद 
रहें हों ।।

भय व्यूह भट पेट अनेका । समर ब्यसन सूर एक त  एका ।।
कोस खडग पवि परसू बाना । कोटि कूट बल छत कल नाना ।।
सेना की अनेक टुकड़ियां हैं जिन्होंने भय उपस्थित होने पर अपने रक्षार्थ हेतु व्यूहविशेष को 
रच रखा है । खोल में तलवार, वज्र, फरसेऔर बाण आदि हैं । भुजाओं में छलकपट का बल 
और विभिन्न प्रकार के क्षत्रक आयुद्ध ( क्षत्रिय  द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाल आयुद्ध )  हैं ।।

बक्रि कील गति नयन अँगारे । वज्र कार दंड पातक धारे ।।
जारन कन जे पलटन घातें । पाल पलंकट पल महँ काटे ।।
कुटिल भाषा के अंकुश नयन-अंगार स्वरूप गतिशील हैं । भीषण आकार के अस्त्र मानो बिजली 
से गिरने हेतु धारे हों ।। यदि रक्षा पक्ष चिंगारी स्वरूप अलाट कर प्रतिवात का आघात करते तो 
ऐसे डरपोक के प्रतैवादित वाचा को आक्रमण पक्ष क्षणभर में ही काट देते ।।

न इन्द्रिय न अंगात्मन  नियत न निलयन भीत ।
नियत नै नियम नियंत्रण चहँ नियत पराए चित ।।
ना तो  स्वयं की इद्रियों पर ना अंगों पर  और ना ही ह्रदय आकांक्षाओं पर ही संयम है । नेतृत्व करने वाले 
विधि-विधान एवं प्रतिबंधों का  निर्धारण कर दुसरे की मन:स्थिति नियंत्रित करे की अभिलाषा रखते हैं ।।
  गुरूवार, 14 फरवरी, 2013                                                                                          

उत बधु पीहरू भए बिपरीते । सकल कुल जन कल कंठ कलिते ।।
भूषित भाषा भीनन भीनी । बचन लखित कर भवन भामिनी ।।
उधर वधु के नैहर में ऐसे कोलाहल के विपरीत था । सभी गृहजन मधुर भाषा थे ।।
 भाषा रसमय एवं धीमे आचरण की थी । भाव की स्त्रियाँ आज्ञाकारी होकर परम पूरित 
वचन कहते थे ।। 

बल मंडल मनि मुक्तिक मनके । रल मिल रह गह जन लड़ बनके ।।
पास पड़ोस रव न रवनके । होहि रार कभु रमा रमन के ।।
जैसे माला में मूंगा-मोती एक होकर वलयित होते हैं वैसे ही घर के सदस्य हिलमिल 
कर एक साथ रहते ।। यदि कभी घर के किसी युगल दंपत्ति में रार हो भी जाती तो पास 
पड़ोस में उसकी ध्वनि का कोलाहल नहीं होता ।।

बधु तात तनिक चित धर ताते । कभु कभु ते भीड़ तैं भ्राते ।।
गहनि गह घड़ें लड़े न लड़ाई । सबहीं पुरजन कहहिं बड़ाई ।।
वधु के पिता का स्वभाव थोड़ा तीक्ष्णता लिए हुवे था अत कभी कभी वे वधु के भ्राता से भीड़ 
जाते (किन्तु स्त्री-पुरुष में लड़ाई नहीं होती) । ग्रहणियों ने  जिस प्रकार घर बाँध रखा था उसकी 
प्रशंसा सभी नगर वासी कहते थे ।।

बानी कि बान  बान कि बानी  । ज्ञान कि बानी कि बान ज्ञानी  ।।
बानी ज्ञान न बान बिज्ञानी । बधु नहि रहि अस गह बह बानी ।।
(और यहाँ वधु के घर ) वाणी है कि बाण है, बाण है कि वाणीं है ज्ञान-वाणी है कि बाणों के ज्ञानी ।।
न तो वाणी-ज्ञानी न ही बाण-विज्ञानी वधु को ऐसे घर की घरेलु वातावरण की अभ्यस्त नहीं थीं ।। 

आप पानि हो कुल हानि आपन बानी मान ।
आप ज्ञानी कुल ज्ञानी आपन दानी दान ।।
अपने ही हाथों कुल का नाश है अपनी ही वाणी में कुल की मान-प्रतिष्ठा है ।
स्वयं के ज्ञान से कुल ज्ञानवान होता है और दान स्वयं दान करे से ही होता है ।। 

आपन पानि होत दानी आप पानि गुन ज्ञान ।
आप पानि जाके हानि भान पान कुल मान ।।
उदारशीलता स्वयं के हस्त से होती है ज्ञान एवं गुण का ग्रहण स्वयं के हाथों में ही है अर्थात दुसरे के ज्ञान 
से व्यक्ति विद्वान नहीं कहलाता । प्रसिद्धि, व्यापार एवं कुल-मर्यादा की हानि भी स्वयं के हस्तविहित है ।

बात बात बातरायन बात बात बाताल ।
वज्र पतन घन बात वहन बात केतु कर काल ।।
वायु एवं वचन से ही वाण चलते हैं वायु एवं वचन से आंधी उत्पन्न होती है 
घन वायु ग्रहण कर के, वचन कटु भाषा ग्रहण कर के ही वज्रपात करते हैं 
वचन-वायु की धूल सदैव हानिकारक होती हैं ।।   

शुक्रवार, 15 फरवरी, 2013                                                                                             

सदगुनि सज्जन जे सदचारे । हंस गुन गह पयस पै सारें ।।
खल जन के मन भाव बिकारे । कलह कार काकल कलिहारे ।।
जो जन सद्गुणी, सदाचारी सज्जन होते हैं वो हंस का गुण ग्रहण कर नीर- क्षीर से केवल सार स्वरूप क्षीर ही 
ग्रहण करते हैं । दुष्ट  व्यक्तियों  के  मनोभाव  विकृत  होते हैं । वह  कलह कारी पक्षी  कौंवा के जैसे कलह के 
जनक होते हैं अर्थात जिस प्रकार कौंआ  का  कितना  भी  पाल लो वो  मांस  खाना  नहीं छोड़ता उसी प्रकार 
दुर्जन अपने दुर्गुण नहीं छोड़ते ॥    

जे दूषन के भूषन ओटे । ते दुर्जन के दर्सन टोटे ।।
तज निज गुन दुज दुर्गुन धारें । मति गतंक गहँ कूट बिचारे ।।
जो दूषित आचार के आभूषण को ओट रखते हैं उन दुर्जनों के दर्शन का कोई लाभ नहीं होता हानि ही होती है ॥ 
अपने  गुणों  को  त्याग कर  अन्य के  दुर्गुणों  को धारण करते हैं उनकी मति गयी बीती होकर छल-कपट के
विचारों से ओत-प्रोत होती है ॥ 

दुखियन दीनन दरस दयाने । ऊंच न नीच न कोउ लघु माने ।।
सदाचरन चारु सील सयाने । जग जग जाने सब सनमाने ॥ 
जो विपन्न विपदाग्रस्त के ऊपर दया दर्शाए और  किसी को भी उंचा-नीचा, छोटा-बड़ा न माने  ऐसे  सदाचारी 
एवं सुन्दर नैतिक आचरण वाले बुद्धिमान व्यक्ति समस्त जग के संज्ञान में  एवं  सर्वजनों द्वारा  सम्मानित्त 
(चिर-स्थायी रूप में ) होता है ॥  

तम गुनी होहहि तिरस्कारे । भल पै पयस तेहिं ते फारें ।।
बधु घर छोट बर बुद्धि बहुरी । खलबत भूभल भल बत भूरी ।।   
तामस वृत्ति वाले अर्थात अज्ञान,आलस्य और क्रोध रखने वाले मनुष्य का तिरस्कार ही होता है सात्विक गुण 
धारी अर्थात भले मनुष्य नीर को क्षीर में परिवर्तित करते है तामसी प्रवृत्ति वाले उसे फाड़ देते हैं । वधु  के  घर 
में छोटे से लेकर बड़े तक की बुद्धि फिर गई थी । सब दोषपूर्ण बातो की गर्म अर्थात क्रोध युक्त धुल धारे हुवे गुण
युक्त बातों को भूले बैठे थे ॥ 

चारु छबित जूर जोरि झूरे । रमा रमन जहँ रयनै रूरें ।।
पग पाइल रल रव रमझॊला । राम धाम तहँ रामन रोला ।।
जहाँ सुन्दर युगल छवि जोड़ी झुला झुलती थी जहाँ प्रिय की प्रियतमा प्रेममग्न हो सुन्दर  दिखाई देते ॥  जहाँ
पाँव की पायल घुंघरू की मिश्रित मधुर ध्वनि सुआइ पड़ती थी या ऐसे साकेत नगरी में  व्यर्थ का उपद्रव मचा 
था ॥ 
  
प्रीति पुनीति के गुन गह नव जी जीवन जोर ।
द्वेष दाहक दाहिन दह प्रान सूत दै तोर ।। 
पवित्र प्रेम के गुण गाँठ नव जीव में जीवन भर देती है । द्वेष की अग्नि  दाह  के  अनुकूल  है  जो  परा के  सूत्रों को 
तोड़ देती है ॥