Monday, December 31, 2018

----- || राग-रंग २० | -----,

मैं साँस पिय तुम हरिदय मैं आतम तुम देह |
तुम मोहन मैं राधिका सो तो साँच सनेह || १ ||

तुम अधर मैं बाँसुरिया में सुर तुम संगीत |
तुम गीत मैं मधुर तान सो तो साँचिहि प्रीत || २ ||

तुम नरतन में नर्तिका  मैं रागिनि तुम राग |
मैं वाद तुम वादबृंद सो साँचा अनुराग || ३ ||

तुम माथ मैं मोरमुकुट मैँ माला तुम हेम |
तुम करधन मैं कंकनी  सो तो साँचा पेम || ४ ||

जो मैं कंचन कामिनी तो तुम रूप सिंगार |
मैं मन मुकुर अरु तुम छबि साँचा सोइ प्यार || ५ ||

--------------------------------------------------------------------




देके हंसी पैगाम  सुबह ने लिखी शाम |
गुंचों ने खुशबू लिखी मस्त हवा के नाम ||

पेशाँ पे देके सियाह  ज़ुल्फ़ों का हिज़ाब |
चाँद को नूरे-चश्म 

Wednesday, December 19, 2018

----- || राग-रंग १९ | -----

             ----- || राग-देश || -----

बहुतेर बरस बसेरा करत एहि  बिरानी आनि बसे  |
बहुरि बसिआ परबसिआ भए भेस बानि बर बिलसे ||
बिलसत बहु बहु बहु बिरधावत बाहरी भाउ बिसुरे |
बार बहुरे बरस बहुरे बाहिरि देसि बरग न बहुरे ||

बासत बासत बसती बसाएउ बास बास बसबासिते |
बसिआवत ए बास थान बट बलइत  बेलि बिकासिते ||
भगवन्मय जन भवन भवन भूरि भूरि भँडारू भरे |
भदरबान भव भूतिमान भारत देस अधीन करे ||

वर्षोंवर्ष वास करते हुवे ये परधर्मी समुदाय इस देश में वसते चले गए | तदनन्तर  इस देश की वेशवाणि  इसकी संस्कृति का अनुशरण कर ये पार्देशीय समुदाय देशीय समुदाय स्वरूप दृष्टिगत होने लगे | इस देश के अतिशय उपभोग से  संवर्द्धित होते गए फिर तो इनके मनोमस्तिष्क से बाह्यभाव विस्मृत हो गया | दिन आए और लौट गए  वर्ष आए और लौट गए किन्तु यह पार्देशीय समुदाय नहीं लौटा |

भारत के वासों में वसते वसते इसने उपनिवेश वसा लिए इन उपनिवेशों में निवास करते हुवे भारत खंड रूपी वटवृक्ष में बेल के सदृश्य वलयित होकर यह समुदाय परिपुष्ट होता गया  | भगवद भक्ति में तन्मय जनों से युक्त  प्रचुर भवभूतियों से भरपूर भवनों से युक्त इस भद्रवान व् संसार भर में ऐश्वर्यवान भारत देश को अपने अधीन कर लिया |

पार देसि ए पार गेहि पार धर्म अनुयाइ |
जन्मजात सुभाउ अहइँ  पेखै पहुमि पराइ ||
भावार्थ : - अन्य देशों के भूखंड पर कुदृष्टि करना भारत से भिन्न खंड में व्युत्पन्न इन परधर्मी
देशान्तरों का जन्मजात स्वभाव है  |

बहिर देस बसबासते बिहुरत निज बसबास |
भवाँभूमि ए ब्यापते करतब गए निज दास ||
बाह्य देशों में निवास करते हुवे  इन्होने अपना गृह देश अपना देवस्थान त्याग दिया | साम्राज्यवादी मानसकिता लिए ये देशों को  दास में परिणित करते विश्वभर की भूमियों में व्याप्त हो गए |

परबस ते होतब गयउ ए देस दिनोदिन दीन  |
प्रभु राज माहि प्रभु बरग भए प्रभुता ते हीन || 
पराधीनता के श्राप से अभिशप्त यह देश दिनोंदिन दरिद्र होता चला गया | वर्तमान के प्रभुसत्ता संपन्न वैधानिक राज्य में स्वामी समुदाय स्वयं सम्प्रभुता से वंचित है |

देसि पीढ़ि पीठ पद दए  रचे पीढ़ि की सीढ़ि |
हरत प्रभुता तापर चढ़ि जने पीढ़ि पर पीढ़ि ||
भावार्थ : - भारवासियों की पीठ पर अपने चरण-तल  देते हुवे इन्होने पीढ़ियों की सीढियाँ निर्मित की और इस  सीढ़ी पर आरोहित होकर भारत के आधिपत्य को अपने अधीन करते हुवे इन्होने वंश पर वंश उत्पन्न किए |

देशाचार बिचार सहुँ देसधरम अनुहार | 
जाजाबरी निरबंसि ए गहे बंस गहबार || 
भावार्थ : - इस देश के आचार-विचार,आहार-विहार व्  रीतिगत परम्पराओं का अनुशरण करते ये यायावर निर्वंशी वंशवाले होते चले गए |

मूरि सहित उपारी के भखे पराया रूख | 
भखै सकल भव भूमि बरु मिटइ न भुइँ करि भूख ||
भावार्थ : - अन्य धर्मानुयायियों को ये मूल सहित उखाड़ कर निगलते जाते हैं  | संसारभर की भूमि इनके द्वारा भक्षयित है तथापि भूमि से इनकी क्षुधा शांत ही नहीं होती |

बिनहि भूमि भरुबार भए भाजत बारहिबार | 
तापर भारत बसि रहए भाग देय दए भार || 
भावार्थ : - भूमिरहित  हुवे भी भारत का वारंवार विभाजन कर ये प्रभुसत्ता संपन्न वैधानिक राष्ट्रों के स्वामी हैं तथापि भारत के राजस्व पर भारभूत होते हुवे भारत में ही बसे हुवे हैं |

अब इन्हें और भूमि चाहिए

भाजत भार भूत गहे भारत बारहिबार || 
प्रभुताइ ते बिहीन भय  होत भूमि भरुबार || 
भावार्थ : - और यह भारत देश एक प्रभुत्व संपन्न वैधानिक राष्ट्र का स्वामी होते हुवे भी  स्वामित्व से वंचित है और वारंवार विभाजन के पश्चात भी अपने राजस्व पर  विभाजितों का भार ग्रहण किए हुए है |


Monday, December 10, 2018

----- || राग-रंग १८ | -----

----- || राग -देश || ----- धीरोदात्त धनधानदाती धर्म धुरी धारिनी || ए धर्माचरनि धरनि धृतात्मावतार कर धामिनी | धनुर्धर धामान्तर धर्मि ध्वंसत धर्मातिक्रमन करे | हे धर्माधिकरनिक ध्यानत ए धर्माश्रित सेतु बरे || धृष्ट मानि धीसचिउ धरता धर्म संघ धर्म तजे | धींग धरम ध्वज धंधक धोरी धूर्त चरित धारत धजे || हे धारा सभा धर्मांधन्तरि धर्मि धर्म संग करे | धरम पीर कृत धीरवान भृत धर्मिनि धक् धड़क धरे || देस भूमि न होइ रे बहुरि बहुरि खनखण्ड | धर्माधिकरन न त तोहि देस देहि धिग्दंड || भावार्थ : - आत्मश्लाघा से रहित, धन धान्य प्रदान करने वाली, धर्म की धुरी को धारण कर धर्म का आचरण करने वाली यह धरती धृतात्मा वाले विष्णु के अवतार श्री राम चंद्र की धरती है | भारत देश में प्रादुर्भूत समुदायों से भिन्न एक धार्मिक समुदाय द्वारा धनुर्धारी श्रीरामचन्द्र जी के इस धाम का विध्वंश कर न्याय का अतिक्रमण किया गया | धर्माधर्म का निर्णय करने वाले हे न्यायाधिकरणिक ! आप यह ध्यान करते हुवे न्याय सम्मत मर्यादा का वरण करें | उद्दंड नेतृत्व को धारण करने वाले धर्म संघों ने तो धर्म ही त्याग दिया है वह तो धींगाधींगी करने वाले, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले, कपट धंधों का भार ढोने वाले, धूर्तों के चरित्र से शोभित हैं | हे व्यवस्थापिका ! दूसरे धर्म के प्रति द्वेष का भाव रखने वाले वह भिन्न समुदाय केवल धर्म का ढोंग करने में लगे हुवे हैं | न्याय में निष्ठा रखने वाली धार्मिक व्यक्तियों की मंडली को न्याय के उल्लंघन होने की भयपूरित आशंका है | भावार्थ : - एतएव हे धर्माधिकरण ! इस देश की भूमि अथवा उसका कोई खंड वारंवार खंडित न हो यदि हुवा तो आपको यह देश धिक्कारों से दण्डित करेगा |


Friday, December 7, 2018

----- || राग-रंग १७ | -----

                    ----- || राग-रंग | -----

निमूँद निमिष निसि नींद निबेरत नैनन निरंजनाए रे |
निरखत नूतन नभस निकेतन नव नील बसन दसनाए रे ||
निरखत नग मूर्धन्य निभरित निभ नभो केतन निकरते |
निकसे नंदन नंदन नवल नवीन नील नलिन नमन करते ||

नत मस्तक नदि निर्झरि निरंतर नीरज नूपुर निर्झरते  |
नेवारी नख नखत नाथ नव  नव निर्हारी नीहारि भरती  ||
निगदत निगमगान नगर नरदेउ नारी नर निर्माल धरे |
नीराजत नंदलाल नखाल नंदि  तुरज निह्नाद करे ||

भावार्थ : - मूंदी पलकों से निद्रा को त्याग कर निशा के नेत्र काजल/माया से रहित हुवे |  नील वर्ण  के नवीन वस्त्रों को धारण किए आकाशगृह नव नूतन दर्शित हो रहा है | पर्वत की चोटियों में छिपे प्रखर प्रकाश वाले सूर्यदेव उदयित हो रहे हैं | वे नंदन-नंदन नवल नवीन नील नलिन उन्हें नमन करते निष्कासित हो रहे हैं |

नदी झरने भी उनके सम्मुख नतमस्तक हैंउनसे निरंतर  मुक्तामय नूपुर  झर रहें हैं | नक्षत्रों एवं नक्षत्रानाथ चन्द्रमा का निवारण वह ( नभ को) सुगंध प्रस्तारित करने वाली निहारिकाओं परिपूरित कर रहे हैं | नगर विप्र निगमागान का आख्यान कर रहे हैं ,और नर नारी निर्माल्य लिए नंदकिशोर भगवान श्रीकृष्ण की पूजार्चना कर रहे हैं तो शंख व् नन्दितुर्य मंगल ध्वनि कर रहे हैं |


Saturday, December 1, 2018

----- || राग-रंग १६ | -----,

----- || राग- भूपाली || -----
लोभ लाह बहु नाच नचावै..,
करि न चहिए सो कर करि जावै || १ ||
यह मोहनि माया बहु ठगनी मूरख मन सब जान ढगावै |
यह लाहन सोइ जोहै जोइ अंत चले कछु काम न आवै || २ ||
पथ भटकावत दृक भरमावै दीठिहु ऐसो दोष धरावै |
पर दूषन दृग दरसत फिरती नाहि अपुना दोष दरसावै|| ३ ||
झूठे संगत करत मिताई अरु साँचे कू झूठ कहावै |
अधर्मी अजहुँ सनमान गहे धर्मी धरम करत सकुचावै || ४ ||
कुटिल चालि चलि करत कुचाली कुल कुल कलि कारन उपजावै |
कूट बचन कह कलहु कारि के मन महु बहु बहु करष बढ़ावै || ५ ||