सह् बस रति रत रहस रिताई । भोर दुइ पहर भै साँझ सिराई ।।
मिलजुल मंजुल सो सुख भीते । सपेम सहित तनिक दिन बीते ।।
अनुराग पूर्वक साथ में कई आनंदमयी रातें बीती । भोर दोपहर में, दोपहर
सांझ में परिवर्तित होकर समाप्त होती रही । मिल जुल कर सुन्दर सुख पूर्वक प्रेमके साथ
कुछ दिन बीते ।।
मुकुल फूल तरुबर बहु फ़ूरे । पाके फर भुर भुर झुर झूरे ।।
दिसित दरसत बखत भए पारे । दिन दिन धार पाँख पखवारे ।।
पेड़ों पर कलियाँ फुल में परिवर्तित होकर पुष्पित हुई । और पुष्प गूदेदार
फल में परिवर्तित होकर पेड़ की शाखाओं में झुलने लगे ।। देखते ही देखते समय जाने
कहाँ पार हो गया । दिन पंखों पर धरे पखवाड़ों में परिवर्तित हो गए ।।
सजन त्रिबिध ब्यसन परिहारे । श्रमन बहुल जित बिनयन कारे ।।
सीत सील सिथिल सरल सुभाएँ । पर क्रोध धरें तौ मूर्छाएँ ।।
साजन तीनों प्रकार के व्यसन ( मद्य, पराईस्त्री, चौसरक्रीडा ) से मुक्त हैं श्रम साध्य
अथक क्लान्ति एवं दरिद्रता से दूर रखने वाले हैं । स्वभाव शीतल, सुशील, शांत
एवं सरल है किन्तु यदि कर्ध के वश हों तो आपे से बाहर हो जाते हैं ।।
जुगत जतन घर सुघर सजाई । बधु सकल परिबारु सुहाई ।।
पुरा परि जन रूप गुन गिन गाए । काम कुसल के प्रसंसन पाए ।।
वधु ने बहुंत ही लगन एवं यत्न पूर्वक गृहस्थी सजाई और समस्त परिवार
को भली लगी ।। पडोसी एवं गृहजन ने वधु का रूप एवं गुण गान करे लगे ।
कार्यकुशलता की वधु ने प्रशंसा प्राप्त की ।।
काल कलह कर कुटुंब कलिते । कली कालेय गह गह भीते ।।
कही कहाबत कलुष कलेषा । पेम बास भए सांत सुबेसा ।।
कलह-काल के हाथ तो समस्त कुटुंब विभूषित हैं । कलयुग का समय में
कलह का वास तो घर घर में है । कहावत कहि गई है कि क्लेषका वास क्रोध
के वेश में होता है और प्रेम का वास सुदर शांत परिवेश में होता है ।।
बधु पिहर समाचार लहिं लोभ लखत लय जोग ।
तात मात नित ग्रसित रहिं बिरध बयस के रोग ।।
वधु पीहर का समाचार प्राप्ति हेतु उत्सुक होकर प्रतीक्षित रहती ।
( इस कारण की ) मात-पिता वृद्धावस्था के कारण दिनोदिन रोगग्रसित रहते हैं
गुरूवार, 17 जनवरी, 2013
कार कुसल पति कर्मठ कर्मी । कर्म अंत कर कर्मन धर्मी ।।
दूर गमन थर धूसर धूरे । भोर भँवर भर साँझ बहुरें ।।
पति अपने कार्यो में कुशल एवं परिश्रमी कर्मकार है । कार्य को पूर्ण कर के ही पारिश्रमिक
की धारणा करते हैं । कर्त्तव्य पालन हेतु धूल धूसरित दूर स्थित स्थल पर भोर में ही प्रस्थान
कर भ्रम करते हुवे सांझ ढले घर को लौटते हैं ।।
पद कोमल तल तृपल कठौरे । सेवा टहर करि टेकर ठौरे ।।
गृहजन नहिं रहिं तिनके भारे । ससुर सकल पोसन परिवारे ।।
कोमल पाँव है और भूमि की सतह पथरीली एवं कठोर है । ऐसी ऊँची नीची पथरीली
भूमि पर सेवा टहल कर जीवकोपार्जन हेतु धन अर्जित करते है ।। कुटुंब जन के जीवन
यापन का भार वर के ऊपर नहीं है ससुर द्वारा उपार्जित धन से समस्त परिवार का पोषण
हो जाता है ।।
मैं मंद मति लघु मुख बानी । चरित चित्रण गठ कहहुँ कहानी ।।
प्रीत प्रतीतित पयोधि थाहूँ । पेम भगति के मूकुति चाहूँ ।।
मैं मद बुद्धि को धारण किये हुवे हूँ । अपने छोटे मुख व् सिमित वाणी से चरित्र का चित्रण को गाँठ कर कहानि कहते हुवे
प्रीति और विश्वास रूपी समुद्र की थाह की अभिलाषा कर प्रेम भक्ति के मुक्ता की कामी हूँ
कोउ कहें इहि अगनी सिन्धु । कोउ कहत नहिं सुधाकर बिंदु ।।
कोउ उलट धार पार उतारें । हम कलस पयसय रस रस धारें ।।
इस प्रेम भक्ति क सिशय में कोई कहता है कि यह तो अग्नि का सागर है । कोई कहता
नहीं यह तो अमृत सदृश्य किरणों वाले चन्द्र-सुधा की बूंदों के समान है ।। कोई इसे
उलटी धार कहकर पार अवतरित करता है । और हम कलश में भरा रसा-अमृत कहते
है ।।
सरीर के सीर्ष प्रान प्रान सीर्षक साँस ।।
साँस ह्रदय के अवतान हिय पिय प्रान निधान ।।
शरीर के शीर्ष प्राण है प्राण का शीर्षक साँस है सांस विस्स्तारित होकर ह्रदय के शीर्षक है,
ह्रदय पिया के प्राण कोष का शीर्षक है ।।
शनिवार, 19 जनवरी, 2013
एक बार छत्त पैढ़ी पौरे । बैस जुगल जुर जौंरे भौंरे ।।
चितब चितवन भर चारु चौंके । परस पवन तन उपबन झौंके ।।
एक बार छत के द्वार की सीढ़ी पर युगल दम्पति एक साथ बैठे हुवे थे । और चौराहे
की सुन्दरता को नयन भर के निहार रहे थे । उपवन से चलती हुई पवन तन को स्पर्श
कर रही थी ।।
बीथिक पुरजन चलत पयोदे । कहुँ पथ गामिन बाहनु मोदे ।।
फिरे भवन सब काज उसारे । भामिनी भरू जोगें दुवारे ।।
मार्ग पर नगर के लोग पैदल चल रहे थे । कहीं वाहन पर चलते हुवे प्रसन्नचित्त
होते हुवे दृश्यमान थे । सब अपने अपने कार्य समाप्त कर घर की ओर लौट रहे थे ।
घर में सुन्दर स्त्रियाँ पतियों के आगमन को जोह रही थी ।।
साँझ सरन बर सुन्दर जोरे । ससी अंबर स्यामल गौरे ।।
परछन सयन सदन अस सोहीं । जनु भुइँ सिन्धु सयन सइ होहीं ।।
सांय काल में यह सुन्दर जोड़ा ऐसा प्रतीत होता जैसे की रात्रि काल, काले आकाश में
गौर वर्ण लिए शशी सुशोभित हो । परछत्ती में सयन सदन और उसकी सय्या ऐसे शोभित
थी जैसे की परछत्ती रूपी भूमि पर सदन रूपी सागर में शेष सय्या ही हो ।।
विभावर कांति मुख मंडिते । रसै रसै बर दीपक रीते ।।
सरित सरिल सरि सररन सरसे । सुधा किरन कर रतनन बरसे ।।
तारों भरी उस रात्रि में देदीप्यमान चन्द्रमा सजा था । दीपक भी धीरे धीरे जलते रिक्त
हो रहा था । सरिता का जल अपनी दिशा में सरसरा कर प्रवाहित है । चन्द्रमा की किरणें
अपने हाथों से जैसे मोती बरसा रही थी ।।
भू खन मंडप तारा गन भवन मंडप मयूख ।
भू खन भास चंद किरन भवन भास चंद मुख ।।
भूखंड के चरों ओर तारा मंडल आच्छादित था । और भाव में उसकी दीप्ती
भूखंड चन्द्रमा की किरण से प्रकाशित था और भवन चद्रमा के जैसे मुख से
अर्थात भवन वधु के मुख से प्रकाशित था ।।
रविवार, 20 जनवरी, 2013
उत चित्र अभरन नयन भरमाए । इत प्रियतम रहीं सीस झुकाए ।।
भयउ मगन एक कागद पेखें । बाँक चाक चित्र लेखन रेखें ।।
उधर चित्र रूपी आभुष मन को लुभा रहे थे । इधर प्रियतम शीश झुकाए एक कागद को
मगन होकर देखते हुवे आदि तिरझी रेखाओं को लिखकर चित्र चाक रहे थे ।।
देख पिय के बिचित्र चित्रकारी । खँच खतियन करि चितबत बारी ।।
पूछी बधु तुम हो चित्रकारे । चौखट कर कला कृति उतारें ।।
पिया का ऐसी विचित्र चित्रकारी एवं स्तब्ध करते हुवे चिन्हांकित लेख खंडो को देखेते हुवे
वधू ने पीया स पूछा क्या तुम की चित्रकार हो जो कागद को ऐसे चौखट में खाँच कर कला
कृति बना रहे हो ।।
हँस पिय कहिं हम चित्रक नाहीं । कहतहीं बास कारी ताही ।।
जे हम खतियन रेखन खाँचे । तबहिं धारै भवन के ढांचे ।।
तब हंसते हुवे प्रियतम ने कहा नहीं हम चित्रकार नहीं हैं इस चित्रकारी को वास्तु कारी
कहते है जब हम उल्लेखित करते हुवे रेखाओं को खींचते हैं तब इसके आधार पर ही
भवनों के ढांचे रखे जाते हैं ।।
कहुँ पथ बाँध कर सेतु सारें । तब हमहि सेतुकार पुकारें ।।
निरखर अनपढ़ अब जान भईं । भर लौ झोरी पिय ज्ञान दईं ।।
और कहीं पर मार्ग बाँध कर यदि सेतु का निर्माण किया जाता है तब हमें सेतुकार
कहा जाता है ।। तुम अनपढ़ निरक्षर ( जैसे स्वभाव से युक्त ) अब जान गईं अब अपनी
रिक्त झोली भरती जाओ पिया तुम्हे ज्ञान देते जाएँगे ।।
सोमवार, 21 जनवरी, 2013
पर सेवा धन धरूँ तनि थोरे । प्रिया ऐहिं एक अवगुन मोरे ।।
श्रवण बचन अस बधु अकुलाई । दुःख उरस धर कंठ भर लाई ।।
किन्तु हे प्रिये मैं सेवा स्वरूप किंचित धन ही अर्जित करता हूँ । हे प्रिये ये मेरा एक
अवगुण है ।। प्रियतम के ऐसे वचन सुन कर वधु व्यथित हो उठी । हृदय में दुःख रखे
वधु के कंठ भर आए ।।
पिय तव श्रम कन सोन समाना । अरु श्रमन दान मम अभिमाना ।।
तव श्रम धन सिरु नाथ धारहौं । जितो देव उतो जी सारहौं ।।
और वधु ने कहा तुम्हारे श्रम जीत स्वेद बिंदु मेरे लिए स्वर्ण कण के समान हैं । और
तुम्हारा श्रम दान मेरा गौरव है ।। तुम्हारे श्रम जीत धन को शीश पर धारण करुँगी ।
तुम जीतना धन दोगे उतने में ही में जीवन यापन करुँगी ।।
मोहि प्रिय प्रभु साथ तुम्हारा । सबु अतिरेक तव एक निहारा ।।
भोग तोष भृत लाभ बिलासे । पिय प्रेम बिहिन एकहुँ नहिं रासें ।।
हे प्रभु मुझे तो तुम्हारा साथ ही प्रिय है । सबसे बढ़ कर तुम्हारी एक प्रीत पूरित दृष्टि है ।।
भूख प्यास सेवक धन एवं भोग विलास की वस्तुएँ पति की प्प्रीति के बिना तो एक भी भली
नहीं लगती ।
पर चुपर ते निज सूखि सुहाए । पर धन काल निज केलि कहाए ।।
मोहे नहि प्रिय अति धन आसा । आस धरूँ पिया प्रेम पिपासा ।।
पराये के चुपढ़े से तो अपनी सुखी ही भली है । पराया धन काला होता है जबकि अपना
श्रम जनित धन कुबेर के कोष के सदृश्य होता है । मुझे तो अधिक धन की लालसा ही
नहीं है । मे तो केवल पिया के प्रेम की प्रेम की प्यासी हूँ ।।
सुखदायक बधु के बचन सुनि पिया धर ध्यान ।
उर महुँ प्रीति प्रिया नयन भरि अधर मुसुकान ।।
सुख प्रदा करे वाले प्रियतमा के ऐसे वचन पिया ने ध्यान धर कर सुना ।
और ह्रदय में प्रीति नयन में प्रिया तथा अधरों में मुस्कान भर गई ।।
मंगलवार, 22 जनवरी, 2013
सुद्ध भाव सत बैनी रचना । बिषय जान गुनि बधु के बचना ।।
लोचन रोचन पिय अनुरागे । दृढ़ पास परु प्रेम के धागे ।।
वधु के वचन पवित्र ह्रदय से उत्तम उच्चारित वाणी रचना एवं विषय ज्ञान
तथा गुणों से युक्त हैं ।। आँखों में पीया का औराग शोभायमान है जो प्रेम के सूत्र को
और अधिक दृढ़ता पूर्वक गाँठ लगा कर बाँध रहे हैं ।।
देखि पिया मुख मधु मुसुकाने । लागे ह्रदय प्रिय परम सुहाने ।।
सजन नयन भर चितबत ताकें । सैन नैन कहि करि भौ बाँके ।।
पिया के मुख पर मधुर मुस्कान को देख वह ह्रदय को और अधिक प्रिय व सुहावने
लगने लगे । साजन नया भर के स्तब्ध होकर देखे जा रहे है ।वधु भौंह को तिर्यक
कर नैनो के संकेत से कहती है : --
काज पूर कर लिखिक रेखें । प्रानपिया पुनि जी भरि देखें ।।
कहें पिया तुम रूप कै पूँजी । नैन निकुंज धरूँ कुंचउँ कुँजी ।।
पहले लेखनी से रेखांकित कर अपना कार्य पूर्ण करें पराओ से प्रिय हे प्रियतम
तत पश्चात हमें जी भर कर देखें ।। पिया कहे लगे तुम रूप की पूंजी हो । तुम्हें
नयनो के निकुंज में रख कर उस पर कुंजी लगा दूँ ।।
जे हम पुंज तुम धन स्वामी । भाग कल्प फल भाजन भामी ।।
धरि धरि गाढ़े हरि हरि काढ़ें । जों जों बरतें तों तों बाढ़े ।।
वधु कहती हैं यदि हम पूंजी है तो तुम इसके स्वामी हो । प्रियतमा रूपी पूंजी के
प्रत्येक अंश के योग्य अधिकारी हो ।। इस पूंजी को दबा कर रखें और
धीरे धीरे व्यय करें । जैसे जैसे इसे व्यय करते जाएंगे यह वैसे वैसे बढ़ती
जायेगी अर्थात रूप का निवेश यदि प्रेम के व्यापार में करें तो लाभ होकर रूप
बढ़ता ही है ।।
पिया हथेरी कास कहिं बरतन दो धन थोर ।
दुत दुत करि प्रिया कसकहिं छुरवन कर बरजोर ।।
पिया ने प्रिया की हथेली कास कर कहा तो अब थोड़ा धन
व्यय करने हेतु दो । तो प्रिया ने दुतकारते, कर्षते
हुवे बल पूर्वक हथेली छुड़ वाने लगी ।।
बुधवार, 23 जनवरी 2013
तन तपित कंचन रूपक लवना । लसित ललित लव लवकन अँगना ।।
दिपित बरन धर दीपक अंगे । करस अगन जर पिया पतंगे ।।
देह तपाए हुवे स्वर्ण के समान शुद्ध रजत रूप का सौंदर्य आँगन में दीपक की लौ के तुल्य
दैदीप्यमान है । अंग दीपक की स्वर्ण प्रभा धरा किये हुवे हैं । इस अगिन रूप के आकर्षण
में प्रियतम पतंग होकर संतप्त हो रहे हैं ।।
कनक प्रभ कुंडल कुंतल कँजन । निंदक निसित नभ निसी रंजन ।।
लाह टीक लीक नीक अलिके । निभ नग रख नख नछत नासिके ।।
कुंडलित कृष्णवर्ण केश की प्रभा भी कनक- प्रभा के तुल्य सुनहरी सी प्रतीत होती हुई
आकाश की तीक्ष्ण श्याम-स्वर्ण प्रभा को नीचा दिखा रही है । माथे का दमकता हुवा
टिका मांग की लाल रेखा लावान्यित है । और नासिका पर मानो नक्षत्र रूपी रत्न
ही जढ़ा हो ।।
नयन पलक पत पंकज पोटे । अयन अलक पद पंगत ओटे ।।
खुल कुंतल घुल गाल गुलाला । कन कल धौतन दोलित बाला ।।
नयन पलक कमल की पत्तियों के सद्रश्य गंठित है । पलक पदों की अधरोत्तर अलकावली
ने नयनों को ढांप रखा है । खुले हुवे केश कपोलों की लालिमा से जैसे घुले हुवे हों । कानों के
बाले झुलते हुवे मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रहे हैं ।।
सुधाधार धर कोकिल कंठी । कल कंगन कर गजमनि गंठी ।।
रुचिर रूप अस एक झलक सुहाए । गगन लाजन निरख नयन झुकाए ।।
अधर अमृत का पात्र है और कोकिल कंठ में गजमुक्ता( उत्कृष्ट मुक्ता ) का हार एवं हाथों में कंगन
की श्रुति मधुरित है ।। ऐसा सुन्दर रूप की जिसका क्षणिक दर्शन अभिभूत कर दे और गगन
जिसकी सुन्दरता के दर्शन कर लज्जा से नत मस्तक हो जाए ।।
जे बधु रुपु बर छबि देख पहर निमेष परिहर ।
लख अभिलाखन लबि लेख लाखें कवन कबिबर ।।
जिसे भी वधु का रूप एवं वर की छवि देखी वह पलक झपकाना ही
भूल गया कविवर ऐसी सुंदरता को अक्षरित करना चाहे भी तो लेश
मात्र भी न कर पाएँ ।।
गुरूवार, 24 जनवरी, 2013
मास बास भए दुइ पखवारे । एक पख उज्वल एक पख कारे ।।
रत अँधियारी दिन अंजोर । तस दुःख सुख सन जीवन जोरे ।।
एक मास में दो पक्ष होते हैं एक कृष्ण और एक शुक्ल ।। रात अंधियारी है तो दिन
उज्जवल है । इसे ही जीवन का स्वरूप सुख दुःख से बंधा है ।।
मधु मास अपर मनोहरताए । अस रयनि जस रत रास सिराए ।।
परस बरस रस काल घटा घन । घंकन आवनु पहिला सावन ।।
मधु मास अद्वितीय एवं सुन्दरता लिए हुवे थे शेष राते ऊपर उल्लेखित रातों जैसी ही
व्यतीत हुईं ।। कालिघताओ से युक्त मेघ की बूंदों का स्पर्श होते ही गरजता बरसता
विवाह पश्चात के पहले सावन का आगमन हुवा ।।
बूँद बूँद बिध बरत बिँधारे । स्याम मनि सर मुकुतिक सारे ।।
धार बारिद धर धरनि चमके । नूपुर पद पुर दामिनि दमके ।।
नीलम, हीरे, मोती जेस रतनोत्तम स्वरूप जल की बूंद-बूंद डोर में गुंठित होकर
पिरोई हुई ।। झड़ी स्वरूप अविरल रत्न वर्षा को धारण कर धरणी का रूप भी
लावाण्यित हो उठा । बिजली भी चरण में नुपुर बाँध दमक रही है ।।
उदक धर बिंदु गिर गिर घोषे । कूल कूलिन कूलीनस कोसे ।।
कुंभ कलस लस रस राखे । रसरी कास कूप के चाके ।।
बादल भी इन नूपुर रूपी बूंदों को जलाशयों से पूर्ण पर्वतों पर गिरा कर निनाद रहे हैं ।
और नदी के तट जल घुंघरू के कोष हो गए हैं ।। कुम्भ शिखर अर्थात ऊपर तक जल
नुपुर को रखे हिलोरे ले रहें हैं । कूएँ की घिर्री रस्सियों की भुजाओं में कसती चल रही हैं ।।
घरी घरी गर्जन गगन घेर घटा घन घोर ।
भरि सरि सर ताल तरियन हरि चाप चहूँ ओर ।।
क्षण-क्षण गरजती घनघोर घटाओ ने गग को घेरा हुवा है ।।
सरिताएं, तालाब और सरोवर गहरे तक भरी हैं, इन्द्रधनुष, हरि-चरण, मेघ-चरण,
हंस-चरण, इन्द्र के अश्व-चरण, मंडूक-चरण, कोकिल-चरण और भूमिखंड हरीतिमा
लिए चारों और लक्षित है ।।
शुक्रवार, 25 जनवरी, 2013
सोन सगुन सुभ सोभा सुन्दर । लोन लगन लुभ सावन बधु बर ।।
पहलइ दिन बधु के ससुराई । रीत निबर बधु पिहर पठाई ।।
रज बिरज बिरल बिमल प्रबेनी । तरी धरी दोउ तीर धेनी ।।
राग रमन रति बिरहन धारे । रयन रलन अस रस सिंगारे ।।
सहस नयन घन मेचक मीचे । घोर बरन बर छाजित बीचे ।।
दीपन नादान लागहु रिसने । पर सावन साजन मन तिसने ।।
सहुँ सागर अरु बूंद पियासे । प्रिय बिनु बारिद रितु नहिं रासे ।।
मेघ माल जुग जोवन रंगे । बिरह बिहित सब रंग निरंगे ।।
बिथुर बिथुर बिथर बियहनबोंय बिय बिरहन रज ।
करषें कियारीं बन खन बिढ़वन मीलन उपज ।।
शनिवार, 26 जनवरी, 2013
सावन बिगतहिं भादु पद आए । बाहु बिजुरी धर बदरी छाए ।।
कुंज कुसुम कुल मंजुल पुंजे । कन केसर भर मधुकर गुंजे ।।
सावन के व्यतीत होने पर भाद्र मास का आगमन हुवा । भुजाओं में बिजली धरे बदली
छा गई । उद्यान में कुसुम की सुन्दर प्रजातियाँ स्फुरित हुईं । पुष्प के कोष केसर में पराग
कण भरते भ्रमर गुजायमान हो उठे ।
ब्याधि बिबस कर सइँ गहिं गाता । भा रोगन बस बधु कै माता ।।
रितत बितत दी जों जों चाढ़े । रोगन आरति तों तों बाढ़े ।।
रोग के वश हुई वधु की माता का शरीर व्याधि की विवशता के कारण अस्वस्थ होकर
शायिका को ग्रहन कर लिया ।। रिक्त हुवे से जैसे जैसे दिन चढ़ते हुवे व्यतीत होते । रोग
और अधिक कष्टमय होता गया ।।
संता समाजु बहु बिधि बरने । देह करतहि बंध भुज धरने ।।
जे तनु भवनु ते प्राण नेईं । ढल बल उबरन ढार ढहेईं ।।
संतों के समाज ने बहुंत प्रकार से देह का वर्णन किया है । पञ्चमहाभूत के संगठन से
शरीर धारी का जीवन बंधा है । यदि तन एक भवन है तो परा उसकी नींव के सामान है
प्राण रूपी इस नींव के हिलने से शारीर रूपी ढाचे का ढहना तय है ।।
बैद राज करिं रोग निदाना । देवइँ रोधन औषधि नाना ।।
हरिद नयन हनु वामन रुधिरे । हट जी हनवन धीरे धीरे ।।
श्रेष्ठ वैद्यजनों ने रोग के निदा हेतु कई उपाय किये । रोगोपचार हेतु विभिन्न प्रकार की
औषधियाँ दीं । कितु रक्त वामा के कारण वश पिली होती आँखों में जीवन को क्षति
ग्रस्त स्वरूप दिखाई देने लगा ।।
एक बर गृहजन तब देइ राउ । काल बिकल भए आढ़ न धराउ ।।
बुलबन बर धिय तुरतै बिदाएँ । करस सनेह ससुरार पठाएँ ।।
तब एक अनुभवी गृह सदस्य ने राय दी कि समय बहुंत ही कष्ट प्रद है अब कोई आढ़ न
धरते हुवे बुलावा भेज कर वर के साथ पुत्री को तत्काल विदा कर सस्नेह ससुराल भेज देवें ।।
अरुन करून कर नीरु भर नीरज नयन अगाध ।
अंतिम परस कर सिरु धर इति करतन कर साध ।।
अरुणाई लिए हुवे करुणता से परिपूर्ण कमल के सदृश्य नयनों में
जल भर आया । अंतिम सपर्श स्वरूप माता ने सर पर हाथ रखा और
सिद्ध साधना कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की ।।
रविवार, 27 जनवरी, 2013
जल जल नयन गगन बदराई । झरी लगाए पिया घर आई ।।
घन घन नादन घन घनकारे । हा हत हहरत हिय बैठारे ।।
बदली से गगन और नयन दोनों जल युक्त हुवे नयन त्रास से व गगन बिजली से
दग्ध थे । जल की झड़ी सी लगाते हुवे वधु का पिया के गढ़ में आगमन हुवा । बादल,
हथौड़े से इआद करते हुवे गंभीर गरजा कर रहे थे इधर काल रूपी घन के प्रहार से(वधु का)
हृदय बैठा जा रहा था ।।
त्रिबिध ताप धरी अधर सुखाए । त्रस बस बिबरन बदन लटकाए ।।
दिवस दुखत रति बूझी बुझी । मातु कुसल पिय पल पल पूछी ।।
तीन प्रकार के दुःख आधिभौतिक, आधिदैविक, आधि आध्यात्मिक धरा करके वधु
के अधर शुष्क हो उठे । भय दुःख के वश मुख वर्ण हिन होकर कांति हिन हो गया ।।
दी दुखदाई हो गए रातें बुझी बुझी सी हो गई । वधु वर से माता के स्वास्थ की कुशलता
प्रत्येक क्षण पूछती ।।
को मुख बचन पिय का बताई । दुःख दसा ताहि कही न जाई ।।
निर्जर जीव जी जरित घाते । बूंद बिदु बिनु बिदरै धाते ।।
किस मुख एवं किन वाचों से पिया भी क्या बताते । माता की दुखमयी दशा वर्णन करने
योग्य नहीं थीं ।। बिया जल के तो पप्राणियों का जीवन भी जल के नष्ट हो जाता है और जल
की बूदों की बिन्दुओं के बिना धरै की सतह भी विदीर्ण हो जाती है ( अत: प्राणों के बिना मानव
का भी क्या अस्तित्व है )।।
बार बार लखि रख अवसादे । भयउ बिकल बल बिषय बिषादे ।।
भज भज याचे भगवन भवने । अस कर रत तर दिन दिन बवने ।।
वधु हृदय में अवसाद रखे पीया को बार बार देखती है विषय ही विशद पूर्वक था जो व्याकुलता
से घिरा था ।। वधु भगवा के मदिर में माता के प्राणों की रक्षा हेतु पूजा प्रार्थना करती । इस प्रकार
रात से उतर कर दिन बिखरते गए ।।
आवनु पाछु बधु पी घर दिन भयउ कुल सात ।
सास कही फिरू तुरत पिहर गहन दसा तव मात ।।
वधु के पिया के घर आगम के पश्चात कुल सात ही दी बीते थे कि ।
सास ने कहा की तत्काल ही तुम पुन: पीहर जाओ तुम्हारी माता की
दशा अति गंभीर है ।।
सोमवार, 28 जनवरी, 2013
सुध बुध भुल बधु पितु गृह पहुँची । तब देइँ सब सोक संसूची ।।
नित्यन नियमन नियति नियंता । चिर निद्रा धरि देह करि अंता ।।
सुध बुध भुला कर वधु पिता के घर पहुंची तब सब गृहजनों ने यह शोक प्रकट किया कि
जन्म- मृत्यु को नियंत्रित करने वाली नियति का यह निर्णय था मृत्यु को प्राप्य कर
माता का देहात हो गया ।।
पूर्व पहर जे देह धारी । भव भवा भवन भूमि बिसारी ।।
थरी तरी धरी तृपल देही । तनि बखत बिरतहिं भय बिदेही ।।
पूर्व समय जो देह धारी थीं अर्थात माया मोह के बंधन में थीं । उसने पुत्र, पुत्री, घार गृहस्ती
को त्याग दिया है पार्थिव शरीर भूमि की सतह पर रखा है और कुछ समय व्यतीत होने पर
देह भी न धरेगी ।।
दुःख दारुन धी धीर न थापी । बिलख बिलख लख लगन बिलापी ।।
सोक बिकल कुल कर्सन कारा । बेग संतत आरति अपारा ।।
दुःख की तीव्रता को धारे पुत्री का धीरज न रखते हुवे वह माता से लिपट कर
बिलख बिलख कर विलाप करने लगी ।। वियोगजन्य पीढ़ा से व्यथित एवं व्याकुलित
हो तीव्र सताप एवं कष्ट असीमित हैं ।।
नीर नयन धर जीवन आसा । हिचकी बाँध लेहि न उसासा ।।
ममतइ मइ भइ मातु बिहीना । पत पोतक जनु धरि हरि हीना ।।
जल भरे आया की होने की आश लिय हुवे हैं । हिचकी ऐसी बंधी की स्वांस भी जैसे रुक गई हो ।।
धी ममता मयी माता से ऐसे वंचित हुई जैसे पौधा और उसका पत्ता सहारे से विहीन होकर हरित
हीन हो गया हो ।।
ह्रदय बिदारित दिसि दिक् दरसे । मनु बीजू बिदरत बदरा बरसे ।।
यथा ब्यथा बहुस दुखदाई । तथा कथा बिध कही न जाई ।।
यह ह्रदय विदारित द्रश्य दृष्टि में इस प्रकार दिखाई डी रहा है मानो बदरा वज्र से विदीर्ण
होकर बरस रही हो ।। यह व्यथा जैसे बहुंत ही दुखदाई है कि इस अनुरूप कथा की विधि
कही नहीं जाती ।।
अवरित सव सवय साधें अर्ध्य अर्थी जोर ।
तनु करि बाँध धरि काँधे रहि लाल चुनर ओढ़ ।।
आच्छादित शव को पुज्यगण शास्त्रोक्त उच्चारित मंत्रो की द्वारा अंतिम संस्कार क्रिया हेतु
ले जाने से पूर्व की क्रिया कर अर्थी सजा रहे हैं । माता का मृत प्राय शरीर अर्थी में बंधा काँधे
पर धरा लाल चूँदरी से ढंका है ।।
मंगलवार, 29 जनवरी, 2013
दीन दयालुहिं दानिन दाती । ध1रम करम करि नाना भाँती ।।
सत कारित सथ सत्यत सँजोए । सद करमन अस स्वानहू रोए ।।
माता दुर्दशाग्रसितों पर दया धरने वाली एवं दानमयी एवं दानदी की प्रवृत्ति धारे हुवे थीं
जिओ विभिन्न प्रकार से धार्मिक कार्य किया करती थीं ।। सदा सत्य के साथ रहकर
सत्कार के योग्य थीं । हित की भावा से युक्त कर्म ऐसे थे कि स्वान भी रुदन करे लगे
अर्थात अब हमें आहार देने वाला नहीं रहा ।।
पुन करि कृति कै भलमनसाही । जसु अपजसु सब इहिं रहि जाहीं ।।
काम क्रोध मद लोभु लुभाहीं । जे भय काला तारित ताहीं ।।
पुण्य कार्य करने वाले की भलाई उसका यश उसका अपयश सब इसी जगत में रह जाते
है केवल मनुष्य एवं उसका शरीर ही नहीं रहता । मनुष्य को काम,क्रोध,लोभ, मोह की
संसार में बहुंत अधिक लालसा होती है किन्तु जब काल आता है तो वह सब कुछ छीन
लेता है ।।
प्रिय पुरी जन सिबिका लइँ जाइ । बिलखत बिलपत पीछु धी धाइ ।।
गृहजनु धारि ढाँढ़सि बँधाई । दुःख दीन दसा बरन जाई ।।
प्रियजन एवं नगरजन जब अर्थी को ले जाने लगे तो धिया भी पीछे पीछे विलाप करती
बिलखती हुई भागने लगी ।। तब गृहजनों ने उसे पकद कर ढाढ़स बधाया । दुःख
व्याकुलित धिय की दशा ऐसी थी कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ।।
उत माई इत धिय हिय दाहू । दुःख दुसहहि दिन धीर न थाहू ।।
क्रिया कलाप करि करम कठोर । काल बस देही के का ठोर ।।
उधर माता तो इधर धिया का ह्रदय दहन शील था । दिन बहुत ही असहनीय दुःख से
भरा था जिसमें धीरज की थाह पाना कठिन था ।। शास्त्र विहित अंत्येष्टि का कठोर
कार्य संपन्न हुवा । यदि देह काल अर्थात मृत्य के वश में हो तो उसका ढोर न
ढिकाना अर्थात मृत्यु के पश्चात देह का कॊई अस्तित्व नहीं ।।
गत काल जीवन काल कलपन गात कौनु गतिक धरे ।
खल कै गत का कहबत तेहिं भली जे भल करम करें ।।
भए भव सिन्धु भविन बिन्दु भव धरन बंधन धारहीं ।
सुख कामौ कलित धरि किंचित भोगु भव सूल अपारहीं ।।
मृत्यु के कारक स्वरूप काल के द्वारा मृत्यु को प्राप्त जीवधारी की गति क्या है ।
दुष्ट की गति का क्या कहना गंगागति तो उअकि ही है जो जगत एकच कर्म करते हैं ।।
इस संसार सागर में मनुष्य एक बिंदु के सदृश्य है यहाँ परमेश्वर ने भी जब जीवन-मरण
के चक्र को अपनाया अब सुख की प्राप्ति तो लेश मात्र ही हुई किन्तु दुःख इतने भोगे कि
जिसकी कोई सीमा नहीं ।।
रुदन करत नीरू नयनन अस रचित बिधि बिरंच ।
भव बंधन के दुइ चरन जन्मन काल प्रपंच ।।
नयन में नीर भरा है और धी क्रंदन कर रही है ब्रम्हा ने कुछ ऐसी ही विधि का
विधान किया है संसार चक्र दो पद, जन्म तथा मृत्यु के भवजाल से बंधा है ।।
बुधवार, 30 जनवरी, 2013
जनु जननी जड़ चित चितकारे । मातु मातु हा मातु गुहारे ।।
सोक बदरिया घर भर छाई । चली बिकलित पीर पुरवाई ।।
जन्म देने वाली जननी को निश्चेत चीत्कार कर माता, माता कह कर पुकार रहा है
शोक की बदली घर भर को घेरे हुवे है व्याकुलित पीड़ा की पुरवाई बह रही है ।।
नयन गगन घन जल जल मीचे । जल धरनी तल झल झल सींचे ।।
अस कर जस तस उरस सँभारे । भाबि प्रबल एहीं भाव बिचारे ।।
नयनों के गगन में घन बिजली से जलाते मिचे जा रहें हैं । और उसका जल धरती की सतह
को झर झर करता हुवा सा सीच रहा है । ऐसा करते हुवे जैसे तैसे धिय ने ह्रदय को सम्भाला ।
होई प्रबल है ऐसा भाव विचार किया ।।
बिधि पूरित दाह करम किन्हीं । जेठ पूत मुख अगनी दिन्हीं ।।
भय सर सीत तब फूल उठाए । गयउ प्रयाग बहाहु प्रबाहे ।।
माता का विधि अनुसार डाह संस्कार किया गया । ज्येष्ठ पुत्र ने मुखाग्नि दी ।।
जब चिता ठंडी हुई तो अस्थियां संकलित कर प्रयाग जाकर गंगा नदी में विसर्जित
किया ।।
बेद बिधा तस करि दसगाते । बाँच बर बिप्रबर गरुड गाथे ।।
भए बिसुद्ध भूमिसुर सनमाने । दसन बसन धनु धेनू दाने ।।
वेद विधान के अनुसार दसगात-विधान (दस दिनों का कृत्य) किया । श्रेष्ठ ब्रम्हजनों ने
गरुड कथा का प्रवचन किया ।। विधि पूर्वक शुद्ध होकर ओढ़-बिछाव, वस्त्र ध एवं गाय
आदि का दान कर ब्राम्हण गण को सम्मानित किया ।।
मातु कहँ कहँ तव माई चेतत चितवन चाढ़ ।
छन छन नयन छबि छाई सुमिरत प्रेम प्रगाढ़ ।।
माता कहाँ? हे माता तुम कहाँ हो ? ऐसा स्मरण कर माता धिय के मन में
समाई है । उनकी छवि प्रत्येक क्षण नयों पर छा जाती हैऔर उनका गहन प्रेम
धिया ध्यान करती है ।।
गुरूवार, 31 जनवरी, 2013
सुदिन विदाए धिय पितु निवासे । भारै मन अइ पिय के वासे ।।
कर अरुँनै अरु दुःख धरि भारी । मातु सोकबर भोजु बिसारी ।।
शुभ दिन देखकर पिता ने पुत्री को घर से विदा किया । भारी मन से पुत्री पीया के घर आ गईं ।।
आँखों में अरुणाई लेकर ह्रदय में भारी दुःख धारे हुवे वधु ने माता के शोकवश भोजन भी त्याग
दिया ।।
ओस ओस परि नयनन कोचे । भुज भर तिय पिय असुवन पोछे ।।
एते अवधि कहिं दुःख न धराहू । दह दुःख दाहू जी न जराहू ।।
उदासिन हो कर नयन भी संकुचित हो गए । तब पिया ने प्रिया को भुजाओं में धारण कर
उसके आंसू पोछते हुवे कहा कि इस सीमा तक दुःख मत धारण करो । इस इस दुःख रूपी
अग्नि में दाह कर अपने जी को मत जलाओ ।।
मन संतप सहि सईं सँभारे । उर गह धारे करि मनुहारे ।।
जात पास गह जे जन्माहीं । ते जन एक ना एक दिन जाहीं ।।
स्वयं भी मन में संताप रख कर सैंय्या ने प्रिया को ह्रदय में बसा कर समझाने का यत्न कर
कहा कि जन्म-मृत्यु के बंधन में बंधकर जिनका जन्म होगा उनको तो एक ना एक दिन
जाना ही होगा ।।
ऐ जग मोहहि जिवतत प्राना । तनु चेतनु चित चीर समाना ।।
मानु पी कहि पीर परिहरहू । दृक दुअर बध मुक्ति गह धरहू ।।
यह दुनिया तो मुनुष्य के साँस चले तक मोहित करती है । ता तो आत्म चेतन के वस्त्र के
समान है अर्थात जिस प्रकार पुराने वस्त्र को त्याग कर नए वस्त्र धारण किये जाते हैं उसी
प्रकार यह आत्मा भी है । पीया का कहना माँ कर पीड़ा को त्याग दो । और इन अश्रु मुक्ता को
सीप रूपी नयनों में धार कर पलक रूपी पट को बंद कर दो ।।
सिसकत सीस नयन नत देखे । जित तित चारु चरन नख लेखे ।।
कुँवर कवल कलित कर पोरे । करू कवलन धरि अधरन कोरे ।।
सिसकती हुई प्रिया का शीश एवं नयन झुके हुवे हैं । सुन्दर चरन के नख से जहां तहां
रेखा खिंच रहे है । कुँवर भोजन के कौर को हाथ की उँगलियों में ग्रहित कर होठों के
छोर पर रख ग्रास करे को कहते हैं ।।
हिम सिखर सीत समरूप संतत हिय संताप ।
परस पिय के प्रेम धूप तरलै तृपलित ताप ।।
दुखभरी पीड़ा ह्रदय में हिमालय पर्वत की शीतलता के समान है ।
प्रियतम की प्रेम-धूप के स्पर्श ताप से पीड़ा रूपी शैल पिघलने लगी ।।
मिलजुल मंजुल सो सुख भीते । सपेम सहित तनिक दिन बीते ।।
अनुराग पूर्वक साथ में कई आनंदमयी रातें बीती । भोर दोपहर में, दोपहर
सांझ में परिवर्तित होकर समाप्त होती रही । मिल जुल कर सुन्दर सुख पूर्वक प्रेमके साथ
कुछ दिन बीते ।।
मुकुल फूल तरुबर बहु फ़ूरे । पाके फर भुर भुर झुर झूरे ।।
दिसित दरसत बखत भए पारे । दिन दिन धार पाँख पखवारे ।।
पेड़ों पर कलियाँ फुल में परिवर्तित होकर पुष्पित हुई । और पुष्प गूदेदार
फल में परिवर्तित होकर पेड़ की शाखाओं में झुलने लगे ।। देखते ही देखते समय जाने
कहाँ पार हो गया । दिन पंखों पर धरे पखवाड़ों में परिवर्तित हो गए ।।
सजन त्रिबिध ब्यसन परिहारे । श्रमन बहुल जित बिनयन कारे ।।
सीत सील सिथिल सरल सुभाएँ । पर क्रोध धरें तौ मूर्छाएँ ।।
साजन तीनों प्रकार के व्यसन ( मद्य, पराईस्त्री, चौसरक्रीडा ) से मुक्त हैं श्रम साध्य
अथक क्लान्ति एवं दरिद्रता से दूर रखने वाले हैं । स्वभाव शीतल, सुशील, शांत
एवं सरल है किन्तु यदि कर्ध के वश हों तो आपे से बाहर हो जाते हैं ।।
जुगत जतन घर सुघर सजाई । बधु सकल परिबारु सुहाई ।।
पुरा परि जन रूप गुन गिन गाए । काम कुसल के प्रसंसन पाए ।।
वधु ने बहुंत ही लगन एवं यत्न पूर्वक गृहस्थी सजाई और समस्त परिवार
को भली लगी ।। पडोसी एवं गृहजन ने वधु का रूप एवं गुण गान करे लगे ।
कार्यकुशलता की वधु ने प्रशंसा प्राप्त की ।।
काल कलह कर कुटुंब कलिते । कली कालेय गह गह भीते ।।
कही कहाबत कलुष कलेषा । पेम बास भए सांत सुबेसा ।।
कलह-काल के हाथ तो समस्त कुटुंब विभूषित हैं । कलयुग का समय में
कलह का वास तो घर घर में है । कहावत कहि गई है कि क्लेषका वास क्रोध
के वेश में होता है और प्रेम का वास सुदर शांत परिवेश में होता है ।।
बधु पिहर समाचार लहिं लोभ लखत लय जोग ।
तात मात नित ग्रसित रहिं बिरध बयस के रोग ।।
वधु पीहर का समाचार प्राप्ति हेतु उत्सुक होकर प्रतीक्षित रहती ।
( इस कारण की ) मात-पिता वृद्धावस्था के कारण दिनोदिन रोगग्रसित रहते हैं
गुरूवार, 17 जनवरी, 2013
कार कुसल पति कर्मठ कर्मी । कर्म अंत कर कर्मन धर्मी ।।
दूर गमन थर धूसर धूरे । भोर भँवर भर साँझ बहुरें ।।
पति अपने कार्यो में कुशल एवं परिश्रमी कर्मकार है । कार्य को पूर्ण कर के ही पारिश्रमिक
की धारणा करते हैं । कर्त्तव्य पालन हेतु धूल धूसरित दूर स्थित स्थल पर भोर में ही प्रस्थान
कर भ्रम करते हुवे सांझ ढले घर को लौटते हैं ।।
पद कोमल तल तृपल कठौरे । सेवा टहर करि टेकर ठौरे ।।
गृहजन नहिं रहिं तिनके भारे । ससुर सकल पोसन परिवारे ।।
कोमल पाँव है और भूमि की सतह पथरीली एवं कठोर है । ऐसी ऊँची नीची पथरीली
भूमि पर सेवा टहल कर जीवकोपार्जन हेतु धन अर्जित करते है ।। कुटुंब जन के जीवन
यापन का भार वर के ऊपर नहीं है ससुर द्वारा उपार्जित धन से समस्त परिवार का पोषण
हो जाता है ।।
मैं मंद मति लघु मुख बानी । चरित चित्रण गठ कहहुँ कहानी ।।
प्रीत प्रतीतित पयोधि थाहूँ । पेम भगति के मूकुति चाहूँ ।।
मैं मद बुद्धि को धारण किये हुवे हूँ । अपने छोटे मुख व् सिमित वाणी से चरित्र का चित्रण को गाँठ कर कहानि कहते हुवे
प्रीति और विश्वास रूपी समुद्र की थाह की अभिलाषा कर प्रेम भक्ति के मुक्ता की कामी हूँ
कोउ कहें इहि अगनी सिन्धु । कोउ कहत नहिं सुधाकर बिंदु ।।
कोउ उलट धार पार उतारें । हम कलस पयसय रस रस धारें ।।
इस प्रेम भक्ति क सिशय में कोई कहता है कि यह तो अग्नि का सागर है । कोई कहता
नहीं यह तो अमृत सदृश्य किरणों वाले चन्द्र-सुधा की बूंदों के समान है ।। कोई इसे
उलटी धार कहकर पार अवतरित करता है । और हम कलश में भरा रसा-अमृत कहते
है ।।
सरीर के सीर्ष प्रान प्रान सीर्षक साँस ।।
साँस ह्रदय के अवतान हिय पिय प्रान निधान ।।
शरीर के शीर्ष प्राण है प्राण का शीर्षक साँस है सांस विस्स्तारित होकर ह्रदय के शीर्षक है,
ह्रदय पिया के प्राण कोष का शीर्षक है ।।
शनिवार, 19 जनवरी, 2013
एक बार छत्त पैढ़ी पौरे । बैस जुगल जुर जौंरे भौंरे ।।
चितब चितवन भर चारु चौंके । परस पवन तन उपबन झौंके ।।
एक बार छत के द्वार की सीढ़ी पर युगल दम्पति एक साथ बैठे हुवे थे । और चौराहे
की सुन्दरता को नयन भर के निहार रहे थे । उपवन से चलती हुई पवन तन को स्पर्श
कर रही थी ।।
बीथिक पुरजन चलत पयोदे । कहुँ पथ गामिन बाहनु मोदे ।।
फिरे भवन सब काज उसारे । भामिनी भरू जोगें दुवारे ।।
मार्ग पर नगर के लोग पैदल चल रहे थे । कहीं वाहन पर चलते हुवे प्रसन्नचित्त
होते हुवे दृश्यमान थे । सब अपने अपने कार्य समाप्त कर घर की ओर लौट रहे थे ।
घर में सुन्दर स्त्रियाँ पतियों के आगमन को जोह रही थी ।।
साँझ सरन बर सुन्दर जोरे । ससी अंबर स्यामल गौरे ।।
परछन सयन सदन अस सोहीं । जनु भुइँ सिन्धु सयन सइ होहीं ।।
सांय काल में यह सुन्दर जोड़ा ऐसा प्रतीत होता जैसे की रात्रि काल, काले आकाश में
गौर वर्ण लिए शशी सुशोभित हो । परछत्ती में सयन सदन और उसकी सय्या ऐसे शोभित
थी जैसे की परछत्ती रूपी भूमि पर सदन रूपी सागर में शेष सय्या ही हो ।।
विभावर कांति मुख मंडिते । रसै रसै बर दीपक रीते ।।
सरित सरिल सरि सररन सरसे । सुधा किरन कर रतनन बरसे ।।
तारों भरी उस रात्रि में देदीप्यमान चन्द्रमा सजा था । दीपक भी धीरे धीरे जलते रिक्त
हो रहा था । सरिता का जल अपनी दिशा में सरसरा कर प्रवाहित है । चन्द्रमा की किरणें
अपने हाथों से जैसे मोती बरसा रही थी ।।
भू खन मंडप तारा गन भवन मंडप मयूख ।
भू खन भास चंद किरन भवन भास चंद मुख ।।
भूखंड के चरों ओर तारा मंडल आच्छादित था । और भाव में उसकी दीप्ती
भूखंड चन्द्रमा की किरण से प्रकाशित था और भवन चद्रमा के जैसे मुख से
अर्थात भवन वधु के मुख से प्रकाशित था ।।
रविवार, 20 जनवरी, 2013
उत चित्र अभरन नयन भरमाए । इत प्रियतम रहीं सीस झुकाए ।।
भयउ मगन एक कागद पेखें । बाँक चाक चित्र लेखन रेखें ।।
उधर चित्र रूपी आभुष मन को लुभा रहे थे । इधर प्रियतम शीश झुकाए एक कागद को
मगन होकर देखते हुवे आदि तिरझी रेखाओं को लिखकर चित्र चाक रहे थे ।।
देख पिय के बिचित्र चित्रकारी । खँच खतियन करि चितबत बारी ।।
पूछी बधु तुम हो चित्रकारे । चौखट कर कला कृति उतारें ।।
पिया का ऐसी विचित्र चित्रकारी एवं स्तब्ध करते हुवे चिन्हांकित लेख खंडो को देखेते हुवे
वधू ने पीया स पूछा क्या तुम की चित्रकार हो जो कागद को ऐसे चौखट में खाँच कर कला
कृति बना रहे हो ।।
हँस पिय कहिं हम चित्रक नाहीं । कहतहीं बास कारी ताही ।।
जे हम खतियन रेखन खाँचे । तबहिं धारै भवन के ढांचे ।।
तब हंसते हुवे प्रियतम ने कहा नहीं हम चित्रकार नहीं हैं इस चित्रकारी को वास्तु कारी
कहते है जब हम उल्लेखित करते हुवे रेखाओं को खींचते हैं तब इसके आधार पर ही
भवनों के ढांचे रखे जाते हैं ।।
कहुँ पथ बाँध कर सेतु सारें । तब हमहि सेतुकार पुकारें ।।
निरखर अनपढ़ अब जान भईं । भर लौ झोरी पिय ज्ञान दईं ।।
और कहीं पर मार्ग बाँध कर यदि सेतु का निर्माण किया जाता है तब हमें सेतुकार
कहा जाता है ।। तुम अनपढ़ निरक्षर ( जैसे स्वभाव से युक्त ) अब जान गईं अब अपनी
रिक्त झोली भरती जाओ पिया तुम्हे ज्ञान देते जाएँगे ।।
सोमवार, 21 जनवरी, 2013
पर सेवा धन धरूँ तनि थोरे । प्रिया ऐहिं एक अवगुन मोरे ।।
श्रवण बचन अस बधु अकुलाई । दुःख उरस धर कंठ भर लाई ।।
किन्तु हे प्रिये मैं सेवा स्वरूप किंचित धन ही अर्जित करता हूँ । हे प्रिये ये मेरा एक
अवगुण है ।। प्रियतम के ऐसे वचन सुन कर वधु व्यथित हो उठी । हृदय में दुःख रखे
वधु के कंठ भर आए ।।
पिय तव श्रम कन सोन समाना । अरु श्रमन दान मम अभिमाना ।।
तव श्रम धन सिरु नाथ धारहौं । जितो देव उतो जी सारहौं ।।
और वधु ने कहा तुम्हारे श्रम जीत स्वेद बिंदु मेरे लिए स्वर्ण कण के समान हैं । और
तुम्हारा श्रम दान मेरा गौरव है ।। तुम्हारे श्रम जीत धन को शीश पर धारण करुँगी ।
तुम जीतना धन दोगे उतने में ही में जीवन यापन करुँगी ।।
मोहि प्रिय प्रभु साथ तुम्हारा । सबु अतिरेक तव एक निहारा ।।
भोग तोष भृत लाभ बिलासे । पिय प्रेम बिहिन एकहुँ नहिं रासें ।।
हे प्रभु मुझे तो तुम्हारा साथ ही प्रिय है । सबसे बढ़ कर तुम्हारी एक प्रीत पूरित दृष्टि है ।।
भूख प्यास सेवक धन एवं भोग विलास की वस्तुएँ पति की प्प्रीति के बिना तो एक भी भली
नहीं लगती ।
पर चुपर ते निज सूखि सुहाए । पर धन काल निज केलि कहाए ।।
मोहे नहि प्रिय अति धन आसा । आस धरूँ पिया प्रेम पिपासा ।।
पराये के चुपढ़े से तो अपनी सुखी ही भली है । पराया धन काला होता है जबकि अपना
श्रम जनित धन कुबेर के कोष के सदृश्य होता है । मुझे तो अधिक धन की लालसा ही
नहीं है । मे तो केवल पिया के प्रेम की प्रेम की प्यासी हूँ ।।
सुखदायक बधु के बचन सुनि पिया धर ध्यान ।
उर महुँ प्रीति प्रिया नयन भरि अधर मुसुकान ।।
सुख प्रदा करे वाले प्रियतमा के ऐसे वचन पिया ने ध्यान धर कर सुना ।
और ह्रदय में प्रीति नयन में प्रिया तथा अधरों में मुस्कान भर गई ।।
मंगलवार, 22 जनवरी, 2013
सुद्ध भाव सत बैनी रचना । बिषय जान गुनि बधु के बचना ।।
लोचन रोचन पिय अनुरागे । दृढ़ पास परु प्रेम के धागे ।।
वधु के वचन पवित्र ह्रदय से उत्तम उच्चारित वाणी रचना एवं विषय ज्ञान
तथा गुणों से युक्त हैं ।। आँखों में पीया का औराग शोभायमान है जो प्रेम के सूत्र को
और अधिक दृढ़ता पूर्वक गाँठ लगा कर बाँध रहे हैं ।।
देखि पिया मुख मधु मुसुकाने । लागे ह्रदय प्रिय परम सुहाने ।।
सजन नयन भर चितबत ताकें । सैन नैन कहि करि भौ बाँके ।।
पिया के मुख पर मधुर मुस्कान को देख वह ह्रदय को और अधिक प्रिय व सुहावने
लगने लगे । साजन नया भर के स्तब्ध होकर देखे जा रहे है ।वधु भौंह को तिर्यक
कर नैनो के संकेत से कहती है : --
काज पूर कर लिखिक रेखें । प्रानपिया पुनि जी भरि देखें ।।
कहें पिया तुम रूप कै पूँजी । नैन निकुंज धरूँ कुंचउँ कुँजी ।।
पहले लेखनी से रेखांकित कर अपना कार्य पूर्ण करें पराओ से प्रिय हे प्रियतम
तत पश्चात हमें जी भर कर देखें ।। पिया कहे लगे तुम रूप की पूंजी हो । तुम्हें
नयनो के निकुंज में रख कर उस पर कुंजी लगा दूँ ।।
जे हम पुंज तुम धन स्वामी । भाग कल्प फल भाजन भामी ।।
धरि धरि गाढ़े हरि हरि काढ़ें । जों जों बरतें तों तों बाढ़े ।।
वधु कहती हैं यदि हम पूंजी है तो तुम इसके स्वामी हो । प्रियतमा रूपी पूंजी के
प्रत्येक अंश के योग्य अधिकारी हो ।। इस पूंजी को दबा कर रखें और
धीरे धीरे व्यय करें । जैसे जैसे इसे व्यय करते जाएंगे यह वैसे वैसे बढ़ती
जायेगी अर्थात रूप का निवेश यदि प्रेम के व्यापार में करें तो लाभ होकर रूप
बढ़ता ही है ।।
पिया हथेरी कास कहिं बरतन दो धन थोर ।
दुत दुत करि प्रिया कसकहिं छुरवन कर बरजोर ।।
पिया ने प्रिया की हथेली कास कर कहा तो अब थोड़ा धन
व्यय करने हेतु दो । तो प्रिया ने दुतकारते, कर्षते
हुवे बल पूर्वक हथेली छुड़ वाने लगी ।।
बुधवार, 23 जनवरी 2013
तन तपित कंचन रूपक लवना । लसित ललित लव लवकन अँगना ।।
दिपित बरन धर दीपक अंगे । करस अगन जर पिया पतंगे ।।
देह तपाए हुवे स्वर्ण के समान शुद्ध रजत रूप का सौंदर्य आँगन में दीपक की लौ के तुल्य
दैदीप्यमान है । अंग दीपक की स्वर्ण प्रभा धरा किये हुवे हैं । इस अगिन रूप के आकर्षण
में प्रियतम पतंग होकर संतप्त हो रहे हैं ।।
कनक प्रभ कुंडल कुंतल कँजन । निंदक निसित नभ निसी रंजन ।।
लाह टीक लीक नीक अलिके । निभ नग रख नख नछत नासिके ।।
कुंडलित कृष्णवर्ण केश की प्रभा भी कनक- प्रभा के तुल्य सुनहरी सी प्रतीत होती हुई
आकाश की तीक्ष्ण श्याम-स्वर्ण प्रभा को नीचा दिखा रही है । माथे का दमकता हुवा
टिका मांग की लाल रेखा लावान्यित है । और नासिका पर मानो नक्षत्र रूपी रत्न
ही जढ़ा हो ।।
नयन पलक पत पंकज पोटे । अयन अलक पद पंगत ओटे ।।
खुल कुंतल घुल गाल गुलाला । कन कल धौतन दोलित बाला ।।
नयन पलक कमल की पत्तियों के सद्रश्य गंठित है । पलक पदों की अधरोत्तर अलकावली
ने नयनों को ढांप रखा है । खुले हुवे केश कपोलों की लालिमा से जैसे घुले हुवे हों । कानों के
बाले झुलते हुवे मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रहे हैं ।।
सुधाधार धर कोकिल कंठी । कल कंगन कर गजमनि गंठी ।।
रुचिर रूप अस एक झलक सुहाए । गगन लाजन निरख नयन झुकाए ।।
अधर अमृत का पात्र है और कोकिल कंठ में गजमुक्ता( उत्कृष्ट मुक्ता ) का हार एवं हाथों में कंगन
की श्रुति मधुरित है ।। ऐसा सुन्दर रूप की जिसका क्षणिक दर्शन अभिभूत कर दे और गगन
जिसकी सुन्दरता के दर्शन कर लज्जा से नत मस्तक हो जाए ।।
जे बधु रुपु बर छबि देख पहर निमेष परिहर ।
लख अभिलाखन लबि लेख लाखें कवन कबिबर ।।
जिसे भी वधु का रूप एवं वर की छवि देखी वह पलक झपकाना ही
भूल गया कविवर ऐसी सुंदरता को अक्षरित करना चाहे भी तो लेश
मात्र भी न कर पाएँ ।।
गुरूवार, 24 जनवरी, 2013
मास बास भए दुइ पखवारे । एक पख उज्वल एक पख कारे ।।
रत अँधियारी दिन अंजोर । तस दुःख सुख सन जीवन जोरे ।।
एक मास में दो पक्ष होते हैं एक कृष्ण और एक शुक्ल ।। रात अंधियारी है तो दिन
उज्जवल है । इसे ही जीवन का स्वरूप सुख दुःख से बंधा है ।।
मधु मास अपर मनोहरताए । अस रयनि जस रत रास सिराए ।।
परस बरस रस काल घटा घन । घंकन आवनु पहिला सावन ।।
मधु मास अद्वितीय एवं सुन्दरता लिए हुवे थे शेष राते ऊपर उल्लेखित रातों जैसी ही
व्यतीत हुईं ।। कालिघताओ से युक्त मेघ की बूंदों का स्पर्श होते ही गरजता बरसता
विवाह पश्चात के पहले सावन का आगमन हुवा ।।
बूँद बूँद बिध बरत बिँधारे । स्याम मनि सर मुकुतिक सारे ।।
धार बारिद धर धरनि चमके । नूपुर पद पुर दामिनि दमके ।।
नीलम, हीरे, मोती जेस रतनोत्तम स्वरूप जल की बूंद-बूंद डोर में गुंठित होकर
पिरोई हुई ।। झड़ी स्वरूप अविरल रत्न वर्षा को धारण कर धरणी का रूप भी
लावाण्यित हो उठा । बिजली भी चरण में नुपुर बाँध दमक रही है ।।
उदक धर बिंदु गिर गिर घोषे । कूल कूलिन कूलीनस कोसे ।।
कुंभ कलस लस रस राखे । रसरी कास कूप के चाके ।।
बादल भी इन नूपुर रूपी बूंदों को जलाशयों से पूर्ण पर्वतों पर गिरा कर निनाद रहे हैं ।
और नदी के तट जल घुंघरू के कोष हो गए हैं ।। कुम्भ शिखर अर्थात ऊपर तक जल
नुपुर को रखे हिलोरे ले रहें हैं । कूएँ की घिर्री रस्सियों की भुजाओं में कसती चल रही हैं ।।
घरी घरी गर्जन गगन घेर घटा घन घोर ।
भरि सरि सर ताल तरियन हरि चाप चहूँ ओर ।।
क्षण-क्षण गरजती घनघोर घटाओ ने गग को घेरा हुवा है ।।
सरिताएं, तालाब और सरोवर गहरे तक भरी हैं, इन्द्रधनुष, हरि-चरण, मेघ-चरण,
हंस-चरण, इन्द्र के अश्व-चरण, मंडूक-चरण, कोकिल-चरण और भूमिखंड हरीतिमा
लिए चारों और लक्षित है ।।
शुक्रवार, 25 जनवरी, 2013
सोन सगुन सुभ सोभा सुन्दर । लोन लगन लुभ सावन बधु बर ।।
पहलइ दिन बधु के ससुराई । रीत निबर बधु पिहर पठाई ।।
रज बिरज बिरल बिमल प्रबेनी । तरी धरी दोउ तीर धेनी ।।
राग रमन रति बिरहन धारे । रयन रलन अस रस सिंगारे ।।
सहस नयन घन मेचक मीचे । घोर बरन बर छाजित बीचे ।।
दीपन नादान लागहु रिसने । पर सावन साजन मन तिसने ।।
सहुँ सागर अरु बूंद पियासे । प्रिय बिनु बारिद रितु नहिं रासे ।।
मेघ माल जुग जोवन रंगे । बिरह बिहित सब रंग निरंगे ।।
बिथुर बिथुर बिथर बियहनबोंय बिय बिरहन रज ।
करषें कियारीं बन खन बिढ़वन मीलन उपज ।।
शनिवार, 26 जनवरी, 2013
सावन बिगतहिं भादु पद आए । बाहु बिजुरी धर बदरी छाए ।।
कुंज कुसुम कुल मंजुल पुंजे । कन केसर भर मधुकर गुंजे ।।
सावन के व्यतीत होने पर भाद्र मास का आगमन हुवा । भुजाओं में बिजली धरे बदली
छा गई । उद्यान में कुसुम की सुन्दर प्रजातियाँ स्फुरित हुईं । पुष्प के कोष केसर में पराग
कण भरते भ्रमर गुजायमान हो उठे ।
ब्याधि बिबस कर सइँ गहिं गाता । भा रोगन बस बधु कै माता ।।
रितत बितत दी जों जों चाढ़े । रोगन आरति तों तों बाढ़े ।।
रोग के वश हुई वधु की माता का शरीर व्याधि की विवशता के कारण अस्वस्थ होकर
शायिका को ग्रहन कर लिया ।। रिक्त हुवे से जैसे जैसे दिन चढ़ते हुवे व्यतीत होते । रोग
और अधिक कष्टमय होता गया ।।
संता समाजु बहु बिधि बरने । देह करतहि बंध भुज धरने ।।
जे तनु भवनु ते प्राण नेईं । ढल बल उबरन ढार ढहेईं ।।
संतों के समाज ने बहुंत प्रकार से देह का वर्णन किया है । पञ्चमहाभूत के संगठन से
शरीर धारी का जीवन बंधा है । यदि तन एक भवन है तो परा उसकी नींव के सामान है
प्राण रूपी इस नींव के हिलने से शारीर रूपी ढाचे का ढहना तय है ।।
बैद राज करिं रोग निदाना । देवइँ रोधन औषधि नाना ।।
हरिद नयन हनु वामन रुधिरे । हट जी हनवन धीरे धीरे ।।
श्रेष्ठ वैद्यजनों ने रोग के निदा हेतु कई उपाय किये । रोगोपचार हेतु विभिन्न प्रकार की
औषधियाँ दीं । कितु रक्त वामा के कारण वश पिली होती आँखों में जीवन को क्षति
ग्रस्त स्वरूप दिखाई देने लगा ।।
एक बर गृहजन तब देइ राउ । काल बिकल भए आढ़ न धराउ ।।
बुलबन बर धिय तुरतै बिदाएँ । करस सनेह ससुरार पठाएँ ।।
तब एक अनुभवी गृह सदस्य ने राय दी कि समय बहुंत ही कष्ट प्रद है अब कोई आढ़ न
धरते हुवे बुलावा भेज कर वर के साथ पुत्री को तत्काल विदा कर सस्नेह ससुराल भेज देवें ।।
अरुन करून कर नीरु भर नीरज नयन अगाध ।
अंतिम परस कर सिरु धर इति करतन कर साध ।।
अरुणाई लिए हुवे करुणता से परिपूर्ण कमल के सदृश्य नयनों में
जल भर आया । अंतिम सपर्श स्वरूप माता ने सर पर हाथ रखा और
सिद्ध साधना कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की ।।
रविवार, 27 जनवरी, 2013
जल जल नयन गगन बदराई । झरी लगाए पिया घर आई ।।
घन घन नादन घन घनकारे । हा हत हहरत हिय बैठारे ।।
बदली से गगन और नयन दोनों जल युक्त हुवे नयन त्रास से व गगन बिजली से
दग्ध थे । जल की झड़ी सी लगाते हुवे वधु का पिया के गढ़ में आगमन हुवा । बादल,
हथौड़े से इआद करते हुवे गंभीर गरजा कर रहे थे इधर काल रूपी घन के प्रहार से(वधु का)
हृदय बैठा जा रहा था ।।
त्रिबिध ताप धरी अधर सुखाए । त्रस बस बिबरन बदन लटकाए ।।
दिवस दुखत रति बूझी बुझी । मातु कुसल पिय पल पल पूछी ।।
तीन प्रकार के दुःख आधिभौतिक, आधिदैविक, आधि आध्यात्मिक धरा करके वधु
के अधर शुष्क हो उठे । भय दुःख के वश मुख वर्ण हिन होकर कांति हिन हो गया ।।
दी दुखदाई हो गए रातें बुझी बुझी सी हो गई । वधु वर से माता के स्वास्थ की कुशलता
प्रत्येक क्षण पूछती ।।
को मुख बचन पिय का बताई । दुःख दसा ताहि कही न जाई ।।
निर्जर जीव जी जरित घाते । बूंद बिदु बिनु बिदरै धाते ।।
किस मुख एवं किन वाचों से पिया भी क्या बताते । माता की दुखमयी दशा वर्णन करने
योग्य नहीं थीं ।। बिया जल के तो पप्राणियों का जीवन भी जल के नष्ट हो जाता है और जल
की बूदों की बिन्दुओं के बिना धरै की सतह भी विदीर्ण हो जाती है ( अत: प्राणों के बिना मानव
का भी क्या अस्तित्व है )।।
बार बार लखि रख अवसादे । भयउ बिकल बल बिषय बिषादे ।।
भज भज याचे भगवन भवने । अस कर रत तर दिन दिन बवने ।।
वधु हृदय में अवसाद रखे पीया को बार बार देखती है विषय ही विशद पूर्वक था जो व्याकुलता
से घिरा था ।। वधु भगवा के मदिर में माता के प्राणों की रक्षा हेतु पूजा प्रार्थना करती । इस प्रकार
रात से उतर कर दिन बिखरते गए ।।
आवनु पाछु बधु पी घर दिन भयउ कुल सात ।
सास कही फिरू तुरत पिहर गहन दसा तव मात ।।
वधु के पिया के घर आगम के पश्चात कुल सात ही दी बीते थे कि ।
सास ने कहा की तत्काल ही तुम पुन: पीहर जाओ तुम्हारी माता की
दशा अति गंभीर है ।।
सोमवार, 28 जनवरी, 2013
सुध बुध भुल बधु पितु गृह पहुँची । तब देइँ सब सोक संसूची ।।
नित्यन नियमन नियति नियंता । चिर निद्रा धरि देह करि अंता ।।
सुध बुध भुला कर वधु पिता के घर पहुंची तब सब गृहजनों ने यह शोक प्रकट किया कि
जन्म- मृत्यु को नियंत्रित करने वाली नियति का यह निर्णय था मृत्यु को प्राप्य कर
माता का देहात हो गया ।।
पूर्व पहर जे देह धारी । भव भवा भवन भूमि बिसारी ।।
थरी तरी धरी तृपल देही । तनि बखत बिरतहिं भय बिदेही ।।
पूर्व समय जो देह धारी थीं अर्थात माया मोह के बंधन में थीं । उसने पुत्र, पुत्री, घार गृहस्ती
को त्याग दिया है पार्थिव शरीर भूमि की सतह पर रखा है और कुछ समय व्यतीत होने पर
देह भी न धरेगी ।।
दुःख दारुन धी धीर न थापी । बिलख बिलख लख लगन बिलापी ।।
सोक बिकल कुल कर्सन कारा । बेग संतत आरति अपारा ।।
दुःख की तीव्रता को धारे पुत्री का धीरज न रखते हुवे वह माता से लिपट कर
बिलख बिलख कर विलाप करने लगी ।। वियोगजन्य पीढ़ा से व्यथित एवं व्याकुलित
हो तीव्र सताप एवं कष्ट असीमित हैं ।।
नीर नयन धर जीवन आसा । हिचकी बाँध लेहि न उसासा ।।
ममतइ मइ भइ मातु बिहीना । पत पोतक जनु धरि हरि हीना ।।
जल भरे आया की होने की आश लिय हुवे हैं । हिचकी ऐसी बंधी की स्वांस भी जैसे रुक गई हो ।।
धी ममता मयी माता से ऐसे वंचित हुई जैसे पौधा और उसका पत्ता सहारे से विहीन होकर हरित
हीन हो गया हो ।।
ह्रदय बिदारित दिसि दिक् दरसे । मनु बीजू बिदरत बदरा बरसे ।।
यथा ब्यथा बहुस दुखदाई । तथा कथा बिध कही न जाई ।।
यह ह्रदय विदारित द्रश्य दृष्टि में इस प्रकार दिखाई डी रहा है मानो बदरा वज्र से विदीर्ण
होकर बरस रही हो ।। यह व्यथा जैसे बहुंत ही दुखदाई है कि इस अनुरूप कथा की विधि
कही नहीं जाती ।।
अवरित सव सवय साधें अर्ध्य अर्थी जोर ।
तनु करि बाँध धरि काँधे रहि लाल चुनर ओढ़ ।।
आच्छादित शव को पुज्यगण शास्त्रोक्त उच्चारित मंत्रो की द्वारा अंतिम संस्कार क्रिया हेतु
ले जाने से पूर्व की क्रिया कर अर्थी सजा रहे हैं । माता का मृत प्राय शरीर अर्थी में बंधा काँधे
पर धरा लाल चूँदरी से ढंका है ।।
मंगलवार, 29 जनवरी, 2013
दीन दयालुहिं दानिन दाती । ध1रम करम करि नाना भाँती ।।
सत कारित सथ सत्यत सँजोए । सद करमन अस स्वानहू रोए ।।
माता दुर्दशाग्रसितों पर दया धरने वाली एवं दानमयी एवं दानदी की प्रवृत्ति धारे हुवे थीं
जिओ विभिन्न प्रकार से धार्मिक कार्य किया करती थीं ।। सदा सत्य के साथ रहकर
सत्कार के योग्य थीं । हित की भावा से युक्त कर्म ऐसे थे कि स्वान भी रुदन करे लगे
अर्थात अब हमें आहार देने वाला नहीं रहा ।।
पुन करि कृति कै भलमनसाही । जसु अपजसु सब इहिं रहि जाहीं ।।
काम क्रोध मद लोभु लुभाहीं । जे भय काला तारित ताहीं ।।
पुण्य कार्य करने वाले की भलाई उसका यश उसका अपयश सब इसी जगत में रह जाते
है केवल मनुष्य एवं उसका शरीर ही नहीं रहता । मनुष्य को काम,क्रोध,लोभ, मोह की
संसार में बहुंत अधिक लालसा होती है किन्तु जब काल आता है तो वह सब कुछ छीन
लेता है ।।
प्रिय पुरी जन सिबिका लइँ जाइ । बिलखत बिलपत पीछु धी धाइ ।।
गृहजनु धारि ढाँढ़सि बँधाई । दुःख दीन दसा बरन जाई ।।
प्रियजन एवं नगरजन जब अर्थी को ले जाने लगे तो धिया भी पीछे पीछे विलाप करती
बिलखती हुई भागने लगी ।। तब गृहजनों ने उसे पकद कर ढाढ़स बधाया । दुःख
व्याकुलित धिय की दशा ऐसी थी कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ।।
उत माई इत धिय हिय दाहू । दुःख दुसहहि दिन धीर न थाहू ।।
क्रिया कलाप करि करम कठोर । काल बस देही के का ठोर ।।
उधर माता तो इधर धिया का ह्रदय दहन शील था । दिन बहुत ही असहनीय दुःख से
भरा था जिसमें धीरज की थाह पाना कठिन था ।। शास्त्र विहित अंत्येष्टि का कठोर
कार्य संपन्न हुवा । यदि देह काल अर्थात मृत्य के वश में हो तो उसका ढोर न
ढिकाना अर्थात मृत्यु के पश्चात देह का कॊई अस्तित्व नहीं ।।
गत काल जीवन काल कलपन गात कौनु गतिक धरे ।
खल कै गत का कहबत तेहिं भली जे भल करम करें ।।
भए भव सिन्धु भविन बिन्दु भव धरन बंधन धारहीं ।
सुख कामौ कलित धरि किंचित भोगु भव सूल अपारहीं ।।
मृत्यु के कारक स्वरूप काल के द्वारा मृत्यु को प्राप्त जीवधारी की गति क्या है ।
दुष्ट की गति का क्या कहना गंगागति तो उअकि ही है जो जगत एकच कर्म करते हैं ।।
इस संसार सागर में मनुष्य एक बिंदु के सदृश्य है यहाँ परमेश्वर ने भी जब जीवन-मरण
के चक्र को अपनाया अब सुख की प्राप्ति तो लेश मात्र ही हुई किन्तु दुःख इतने भोगे कि
जिसकी कोई सीमा नहीं ।।
रुदन करत नीरू नयनन अस रचित बिधि बिरंच ।
भव बंधन के दुइ चरन जन्मन काल प्रपंच ।।
नयन में नीर भरा है और धी क्रंदन कर रही है ब्रम्हा ने कुछ ऐसी ही विधि का
विधान किया है संसार चक्र दो पद, जन्म तथा मृत्यु के भवजाल से बंधा है ।।
बुधवार, 30 जनवरी, 2013
जनु जननी जड़ चित चितकारे । मातु मातु हा मातु गुहारे ।।
सोक बदरिया घर भर छाई । चली बिकलित पीर पुरवाई ।।
जन्म देने वाली जननी को निश्चेत चीत्कार कर माता, माता कह कर पुकार रहा है
शोक की बदली घर भर को घेरे हुवे है व्याकुलित पीड़ा की पुरवाई बह रही है ।।
नयन गगन घन जल जल मीचे । जल धरनी तल झल झल सींचे ।।
अस कर जस तस उरस सँभारे । भाबि प्रबल एहीं भाव बिचारे ।।
नयनों के गगन में घन बिजली से जलाते मिचे जा रहें हैं । और उसका जल धरती की सतह
को झर झर करता हुवा सा सीच रहा है । ऐसा करते हुवे जैसे तैसे धिय ने ह्रदय को सम्भाला ।
होई प्रबल है ऐसा भाव विचार किया ।।
बिधि पूरित दाह करम किन्हीं । जेठ पूत मुख अगनी दिन्हीं ।।
भय सर सीत तब फूल उठाए । गयउ प्रयाग बहाहु प्रबाहे ।।
माता का विधि अनुसार डाह संस्कार किया गया । ज्येष्ठ पुत्र ने मुखाग्नि दी ।।
जब चिता ठंडी हुई तो अस्थियां संकलित कर प्रयाग जाकर गंगा नदी में विसर्जित
किया ।।
बेद बिधा तस करि दसगाते । बाँच बर बिप्रबर गरुड गाथे ।।
भए बिसुद्ध भूमिसुर सनमाने । दसन बसन धनु धेनू दाने ।।
वेद विधान के अनुसार दसगात-विधान (दस दिनों का कृत्य) किया । श्रेष्ठ ब्रम्हजनों ने
गरुड कथा का प्रवचन किया ।। विधि पूर्वक शुद्ध होकर ओढ़-बिछाव, वस्त्र ध एवं गाय
आदि का दान कर ब्राम्हण गण को सम्मानित किया ।।
मातु कहँ कहँ तव माई चेतत चितवन चाढ़ ।
छन छन नयन छबि छाई सुमिरत प्रेम प्रगाढ़ ।।
माता कहाँ? हे माता तुम कहाँ हो ? ऐसा स्मरण कर माता धिय के मन में
समाई है । उनकी छवि प्रत्येक क्षण नयों पर छा जाती हैऔर उनका गहन प्रेम
धिया ध्यान करती है ।।
गुरूवार, 31 जनवरी, 2013
सुदिन विदाए धिय पितु निवासे । भारै मन अइ पिय के वासे ।।
कर अरुँनै अरु दुःख धरि भारी । मातु सोकबर भोजु बिसारी ।।
शुभ दिन देखकर पिता ने पुत्री को घर से विदा किया । भारी मन से पुत्री पीया के घर आ गईं ।।
आँखों में अरुणाई लेकर ह्रदय में भारी दुःख धारे हुवे वधु ने माता के शोकवश भोजन भी त्याग
दिया ।।
ओस ओस परि नयनन कोचे । भुज भर तिय पिय असुवन पोछे ।।
एते अवधि कहिं दुःख न धराहू । दह दुःख दाहू जी न जराहू ।।
उदासिन हो कर नयन भी संकुचित हो गए । तब पिया ने प्रिया को भुजाओं में धारण कर
उसके आंसू पोछते हुवे कहा कि इस सीमा तक दुःख मत धारण करो । इस इस दुःख रूपी
अग्नि में दाह कर अपने जी को मत जलाओ ।।
मन संतप सहि सईं सँभारे । उर गह धारे करि मनुहारे ।।
जात पास गह जे जन्माहीं । ते जन एक ना एक दिन जाहीं ।।
स्वयं भी मन में संताप रख कर सैंय्या ने प्रिया को ह्रदय में बसा कर समझाने का यत्न कर
कहा कि जन्म-मृत्यु के बंधन में बंधकर जिनका जन्म होगा उनको तो एक ना एक दिन
जाना ही होगा ।।
ऐ जग मोहहि जिवतत प्राना । तनु चेतनु चित चीर समाना ।।
मानु पी कहि पीर परिहरहू । दृक दुअर बध मुक्ति गह धरहू ।।
यह दुनिया तो मुनुष्य के साँस चले तक मोहित करती है । ता तो आत्म चेतन के वस्त्र के
समान है अर्थात जिस प्रकार पुराने वस्त्र को त्याग कर नए वस्त्र धारण किये जाते हैं उसी
प्रकार यह आत्मा भी है । पीया का कहना माँ कर पीड़ा को त्याग दो । और इन अश्रु मुक्ता को
सीप रूपी नयनों में धार कर पलक रूपी पट को बंद कर दो ।।
सिसकत सीस नयन नत देखे । जित तित चारु चरन नख लेखे ।।
कुँवर कवल कलित कर पोरे । करू कवलन धरि अधरन कोरे ।।
सिसकती हुई प्रिया का शीश एवं नयन झुके हुवे हैं । सुन्दर चरन के नख से जहां तहां
रेखा खिंच रहे है । कुँवर भोजन के कौर को हाथ की उँगलियों में ग्रहित कर होठों के
छोर पर रख ग्रास करे को कहते हैं ।।
हिम सिखर सीत समरूप संतत हिय संताप ।
परस पिय के प्रेम धूप तरलै तृपलित ताप ।।
दुखभरी पीड़ा ह्रदय में हिमालय पर्वत की शीतलता के समान है ।
प्रियतम की प्रेम-धूप के स्पर्श ताप से पीड़ा रूपी शैल पिघलने लगी ।।