Tuesday, January 1, 2013

----- ।। बर-अहोरा बधु-बहोरा ।। -----

पद्य पद्य पथ पत पत पावा । सुर रूर नूपुर नत नत नावा ।।
कहत कोपलि कुसुम के काना । निरखु सुरनारि तवहि समाना ।।
उपवन के पथ के कगारों पर की पंगडंडियों पर चलते सुन्दर स्वरमय नूपुर से युक्त पाँव को पत्ते अवनत होकर प्रणमन कर रहे हैं | कोपलियाँ कुसुम के कानों में कहती हैं देखो इस देवांगना को यह तुम्हारे ही समदृश्य है | 

 पल्लव पव रव काननचारी । फिरि भुजि बंधन उपरन धारी ।।
उरि उरि बहु फुर कार कुराई । अगिन उठाई पछिन ढहाई ।।

 पद चाप से पवनमय पल्लवों में मधुर ध्वनि उत्पन्न करती  वह उपवन में विचरण कर रही है  भुजा बंधों उपरन धारण किए इधर-उधर भ्रमण करते ह हुवे उडते उपरन  को आगे से उठाकर पीछे ढहाती है जिससे उसपर की हुई फूलकारी एकत्र होकर उपवन में उपवन की सी शोभा दे रहे हैं  | 

पद अनुगमन पव अलक अलिके । पावन ढूँढ़इ पल झलकि पी के ।।
मृगदृगि कहँ बन साजन बूझी । अरुन अरुन बन अरुरै सूझी ।।
मस्तक पर के अलक पवन के पदानुगामी हो रहे हैं  प्रीतम के एक पल का झलका प्राप्त करने हेतु प्रीतम को ढूंढती,  मृगलोचनि ने  उपवन से पूछा  साजन कहाँ हैं ?प्रीतम की  झलकी न देकर संध्या की अरुणिमा से अरुणित उपवन को कष्ट देने की ही सूझी है  | 



 हँसि कौसुम गहि पिय कर बाहीं  । अगहुन पठाहि पछिन बैसाहीं ।।
अरन दर्पन दरसन दरसाएँ । तरस न धराएँ दरस न कराएँ ।।
प्रीतम की भुजाओं को गहे कुसुम हास-परिहास करते कभी उन्हें आगे भेज देते कभी पीछे बैठा देते | जल दर्पण का दर्शन हो रहा है किन्तु कौसुम  प्रिया पर तरस नहीं करते हुवे  उसपर प्रीतम की छवि का दर्शन नहीं करवाते |  

जल बिनु मीनु जस अस तरपाएँ । मनु दुबर दुइ आसार सिराएँ ।।
मरू मृग तिसने तोय पियासे । लभ बल्लभ दइँ दकन अकासे ।।
वधु को जल बिन मीन के जैसे  तड़पाते हुवे वह  मानो दुबले पर दो आषाढ़ समाप्त कर रहे थे | मरुस्थल में जिस प्रकार मृग तृष्णा को जल की प्यास होती है उसी प्रकार वधु को वल्लभ के दर्शन की प्यास है और वह मरीचिका के जल प्रतिबिंबि में आभाषित स्वरूप में प्राप्त हो रहे हैं 

दरस न दैं देइँ तरपन दर्पन दरपन तार ।
दयित न दयित दुखन दुगन दुलहन दरस अधार ।। 
मृग मरीचिका का दर्पण  प्रियतम का दर्शन न देकर तड़पन दे रहा है  | नवब्याहता को प्रियतम के दर्शन की आस है और वह उसे प्रियतम को न देकर उनके अदर्शन का  दुगुना कष्ट देते हैं | 

बुधवार, 2 जनवरी, 2013                                                                       

फूल मूल फल तरुबर बृंदा  ।  अलापत अलि पिय लुपुत नदिंदा  ।।
एकै गाँछि तुर लवइ लुकाठी । कर तल धरै गहै लइ गाँठी ।।
फूल मूल फल एवं वृक्षों का श्रेष्ठ समूह तथा नदी  तट के आलाप करते भौरों ने पिया को छुपा रखा है तत्पश्चात वधु ने एक वृक्ष की टहनी  को तोड़कर उस हथेली पर लेकर उसे अँगुलियों से आबद्ध कर लिया  ।।

 सार दुइ चार लगाए सोंटे । धूरि ध्वज धाए धूरि ओंटे ।।
पिछु पिछु सुमन पंख सुकुवाँरे । घुरइ सुकुरै भय के मारे ।।
और सार कर हवा में दो चार सोंटे लगाए जिससे धुल से अटी वायु  तिव्र गति से 
दौड़ने लगी  ।वायु  के पीछे पीछे भागते भयभीत होकर पुष्प के कोमल पंख भी सिकुड़ कर प्रिया को घूरने लगे । 

ताड़ तिरछ करि दृग कोदंडे । गंध मदनि रँग कोमलि गंडे ।।
कास मुठिक मुठ लकुटि उठाई । मृदुल अधर सुमधुर हँसि छाई  ।।
पुष्प के भय युक्त मनोभावो का आभास कर वधु ने भंवें कुटिल करते हुवे 
दिखावटी क्रोध का प्रदर्शन किया । जिसके कारण उसके कोमल गाल लाख के 
रँग जैसे लाल हो गए । मुट्ठि में लाठी की मुठ कस कर ( ज्यों ही )
उठाई । ( त्यों ही ) उसके मृदुल  वधु के अधरों पर मीठा सुहास 
छा गया  ।

छाँड़ छरि धरि परिहर पारे । पुनि पुचकारत पुहुप बुझारे ।।
निज स्वास सुख  गंधन घोले । कुंज कुंज गुँज मंजरि बोले ।।
 उसने छड़ी को छोड़ दूर कही फेंक दिया । और पुचकारते हुवे फिर पुष्पों से 
पिया का पता पूछा |  अपनी स्वांस से  वायु में सुगंध घोलते हुवे वन वन में कुसुम मंजरी गुंजायमान होकर बोल उठी  -

रहसन रहस रहस रमन दयत देंय संकेत ।
उ बैसे तव मन भावन केत निकुंज निकेत ।।   
 दयावस प्रिया को प्रीतम  के स्वर्ग निवास का रहस्य चिन्ह देकर उनका 
पता बताते हुवे कहा कि वे बैठे तुम्हारे मन भावन, लतामंडप 
के नीचे केतकी के वास स्थान के निकट ।।

गुरूवार,  03 जनवरी, 2013                                                                  

तबहि तरुबर  छाँह तरियाई । पल्लौ बिच पिय  दियो दिखाई  ।।
हहरत चापत चरन धराहीं । धरकत हिय ते  पहुँचि पिय पाहीं ।।
तभी पेड़ की छाँव के निचे बैठे पल्लवों के मध्य पिय दिखाई दिए ।
प्रिया, पिया मिलन की उत्सुकता के कारण कांपते पद चाप व् धड़कते ह्रदय से  पिय के
पास पहुंची ।।

अदरस प्रियबर दरसन कैसे । मनु मन मंदिर देवहि बैसे ।। 
तन चितहर  रंग घनेरा । रोहि पूस रथ जनु घन घेरा  ।।
अदर्शित प्रियवर का साक्षात दर्शन कैसा है मानो मन के मंदिर में मन के देव 
विराजमान हों  पिया का विग्रह  चित को चुराते हुवे ऐसे गहरे रंग से रंगा है मानो बूंदों के रथ पर आरोहित बादलों का घेरा हो  ।।

चितब छबि जब चितवन जोरे । छिनु छित चित्र चित रेखन खोरे ।।
पिय हिय होरे खिंच लइ डोरे । दरस प्रगस सिँगार एकु ठोरे  ।।
पिया की छवि का दर्शन करते जब नैन से नैन मिले तब क्षण भर में ही छवि के कण बिखर कर 
ह्रदय पर रेखा उकेर चित्र में परिणत हो गए    ह्रदय चित्र पर स्थिर प्रिय को नयनो की डोरियाँ 
 खिंच कर साक्षात स्वरूप अर्थात निर्गुण रूप से सगुण स्वरूप में ले आईं ।  साक्षात 
दर्शन ऐसा है मानो सारा श्रंगार रस उस एक छवि में एकत्र हो गया हो ।।  
 
मगन प्रीतम  प्रियाहि निहारे । रुँधी प्रिया पट नयन  दुआरे ।।
अरुन रूप बिरहारति हारे । हिय दुखारे ते भए सुखारे ।।
प्रिय निमग्न हो प्रिया को निहार रहें है । प्रिया ने पलको से नयन रूपी द्वार को बंद 
कर लिया । अरुणमय रूप ने पिया की विरह पीड़ा को हरते हुवे दुखित ह्रदय को सुख-
मयी कर दिया ।।

झूर झूर पात कुसुम साथ मिलन मंडप सजावहीं ।
डारि डारि भरी फुरवारी घेर घारी सुहावहीं ।।
कर कल  कंगन लोलहि सुमधुर  सुर सरगम धारिके ।
 गहत लसित प्रीतम करषत कहत तनि उर सँभारिके ।।
 कुसुम के साथ पल्लव  झूल झूल कर मिलन -मंडप अभिमण्डित कर रहे हैं भरी पूरी शाखाओं से घिरी फूलवारी अत्यंत मनमोहक प्रतीत हो रही है | स्वरों की सुमधुर  सरगम को धारण कर कलाइयों पर कंगन हिल-डुल रहे हैं जिसे पकड़ कर खैंचते हुवे प्रियतम कहते हैं किंचित हृदय को संभाल रखिए | 

प्रतीति दूबि प्रीति पयस ते निलय कँचन थार ।
अवनत पलक अवलि परस लइ पिय चरन पखार ।। 
 अवनत पलकावली से प्रियतम के चरण-स्पर्श कर  ह्रदय के कंचन थाल में प्रीति के पयस व्  दृढ़ विश्वास की दूर्वा लिए  प्रक्षालन करते हैं  - ( आतिशयोक्ति अलंकार )

शुक्रवार, 04 जनवरी, 2013                                                              

पूछ कुसल कहिं पिय मम हीना । कवन बिधि बीते कहु तव दिना ।।
पूरे न दिन साँझ हो आई । पूरन देब तब दएँ कहाई ।।
और कुशल क्षेम पूछते हुवे  प्रियवर कहत्ते है  : - कहो तो मेरे बिना आपके दिन किस भांति व्यतीत हुवे ? अभी संध्या की बेला है दिवस पूर्ण नहीं हुवा है उसे पूर्ण होने दो फिर कह सुनाएंगे ( प्रिया ने कहा ) | 
हँसे पिय कहे का बात कही । हंसगमनि तक तव चातकही ।।
पियूख मयूख मुख परिहारे | पय पियास तज तवहि निहारे ।।
प्रियतम ने हंसकर कहा  : -- अहा ! क्या बात कही हे हंसगमनी ! तुम्हें तो चातक भी तकते हैं | चन्द्रमा के मुख का तिरष्कार कर स्वाति बूँद को त्याग वह तुम्हारे रूप का रसपान करते हैं | 

भनिति भीति भर रस सिंगारे । हास बीच कर करून कगारे ।
रूप गुन गिन कीर्तित कारें । पिय कविकर बर भाग हमारे ।।
श्रृंगार रस से परिपूरित भनिति में हास्य के मध्य करुण रस का आलम्बन लेकर हमारे रूप का गुणगान कर रहे हैं, अहो भाग !  प्रियवर कितने श्रेष्ठ कवि हैं | 

बैन बचन भरि बिंग नैनी । पुंख पुंगित फर श्रँगी सैनी ।।
भरे भर पूर उर इव भाथे । तव रन निबिरन बाहन नाथे ।।
नैनों के बाणों से व्यंग भरे वचन वो भी पंख की सघन राशि वाले ? जिनके संकेत स्वरूपी फल तीक्ष्ण हैं | तुम्हारा ह्रदय इन बाणों से भरपूर तूणीर है जो इस रण की रक्षा पंक्ति का सेनापति भी है | 
  
प्रेम ब्रम्ह नग निर्गुन रूपा । रूप सगुन गुनी अगिन सरुपा ।।
भेष भूषन भयउ बर भाले । बसन दसन धर दन्त कराले ।।
तुम्हारा प्रेम निर्गुण ब्रह्म स्वरूप में अदृश्य है तुम्हारा अलौकिक रूप अग्नि के स्वरूप में दृश्यमान है | तुम्हारी अभरित आभूषण सुन्दर भाले हैं और ये यह वेश भूषा उसके विकराल दंष्ट्र हैं | 

लव निमेष परमानु जुग कलप सर सिंगारि ।
मंत्र मुग्धा साध सजुग प्रियतम ह्रदय निहारि  ।।
तुम्हारा श्रृंगार लव,निमेष, परमाणु, युग और कल्प नामक प्रचंड आयुध हैं | जो प्रियतम को मंत्र मुग्ध कर उसके हृदय का लक्ष्य किए हुवे हैं |   

शनिवार, 05 जनवरी, 2013                                                       

देखहु रुर जुर उर उपरैनी । का हम लागत तव सों सैनी ।।
मति मंद गति धरि धूरिन धूमि । एहिं सुन्दर बन नहीं रन भूमि ।।
हमारे ह्रदय से लगी यह  सुन्दर ओढ़नी  देखो । क्या हम तुम्हें सैनिक जैसे लगते हैं ? 
तुम्हारी बुद्धि की वैचारिक गति  धूल-धूमिल होकर धुंधला गई है । ( क्यों कि )
यह सुन्दर उपवन है कोई युद्ध भूमि थोड़े ही है ।।

हे मृगनयनी हे पिक बैनी । बउर फुर भँउर पउँ मउरैनी ।।
कोर काय कर कंचन काँची । एहिं उपमति मन रंजन राँची ।।
पिया कहते हैं हे मृग के जैसे नयनों वाली हे ! कोयल के जैसी वाणी की स्वामिनी ।
बौर के फूलते ही अर्थात वसंत ऋतु में नृत्य करने वाली मोरनी । तुम्हारे हाथ के कगारे 
पर का स्वर्ण तुम्हारी काँच सी काया में प्रतिबिंबित है । क्या यह तुलना तुम्हारे मन 
को प्रभावित कर ( मेरे प्रति ) अनुराग के वर्द्धन के योग्य है ।।

ए उपजुगति अस लोगन जोगहि । रच्छन रत जौ बिरहा रोगहि  ।।
कटख कथन कस धँसि जस गाँसे । ररकत साँसे पिय बहु हाँसे ।।
इसका उपयोग तो ऐसे लोगों के लिए उपयुक्त है जो विरह की रोगजनित पीड़ा से 
रोग प्रतिरक्षा कर उससे निवृत्ति चाहते हों ।। ऐसे कसे हुवे कटाक्ष कथन ह्रदय में गाँसे 
के जैसे धंस गए । और प्रियतम त्राहि त्राहि कहते हुवे ( दिखावे स्वरूप ) अतिशय परिहास करते हैं  ।।

सायक लछ  लग पिय हिय माढ़े । तासु राग जुज  रंजत  गाढ़े ।।
अरसन परसन पिय अनुरागे । रति रूप पुहुप परागन लागे ।।
इस प्रकार प्रेम बाण लक्ष्य साधते हुवे पिया के ह्रदय में स्थित हो गए। और वह उसके अनुराग 
में रागान्वित होकर गहरे आनंद को प्राप्त हुवे । प्रीतम के इस अनुराग के स्पर्श प्राप्त कर 
उपवन के कुसुम भी रति का रूप लिए परागित होने लगे ।।

करत हास परिहास दुहु रसिक गमनहि कर गहि 
पेखत रास बिलास मंजरी मुद मुगुध मगन 
हाथों में हाथ लिए हास-परिहास करते क्रीड़ाप्रेमी युगल दम्पति टहल रहें हैं ।
और इस प्रेम-क्रीडा को पुष्प-मंजरियाँ आनन्द विभोर हुई 
मंत्र मुग्ध होकर  देख रही हैं ।।

रविवार, 06 जनवरी, 2013                                                          

भए दिन अंत दिन कंत सिराए । नदी नग नभ नव पट पहिराए ।।
बिखरेउ किरन सुमन सम सोंहि  | बहुरन अरुन रथ रबि अबरोहि || 
सूर्यास्त होकर दिन का अत हुवा । आकाश ने नदी, पहाड़ आदि को नव वस्त्र पहनाए ।। विकरित किरणे,  पुष्पों के सदृश्य प्रतीत हो रही है | सूर्यदेव लौटने हेतु अरुण रथ में आरोहित हो गए हैं 

आह एहि रंगबिरंगि रोरी | चले रबिहि पथ देउ रँगोरी | 
चौंक  सजाउ अगोहन साँझी  । बाँधै बहनु फिरत कहँ माँझी ।।
( सांझ के स्वागत में ) माँझी घर लौटने हेतु नाव बांधते मांझी कह रहे हैं चौंक सुसज्जित कर सांझ की अगवानी करो  

बिथिक बिथिक बिज बिचरहिं बाँके । धर बर कर बधु पटिका झाँके ।।
बिति पहर भै साँझ हो आई । बेर भयउ कहि देव बिदाई ।।
हवा में थके हुवे से पक्षी भी टेड़े-मेढ़े विचार कर रहे हैं । ( इस प्रकार का पहर देख ) वधु ने 
वर के हाथ बंधी घडी में समय देखा और कहा अब पहर व्यतीत हो रहा है संध्या हो आई है 
बहुंत देर हो चुकी अब हमें जाने  की आज्ञा दो ।।

नैन लगा गहनहि गाहे । निबियहुत नहि हम भए बियाहे ।।
कह गह लंपट लिपटइ लाहे रहिं गल बाहें बिथुरन काहे ।।
नयनों से नयन बांधे प्रियतम गहरे गोते लगाते हुवे कहा कि बिना ब्याहे थोड़े ही हैं 
बियाह हो गया हमारा ऐसा कह कर कामलुब्ध पकड़ कर लिपटाते हुवे मेलमिलाप 
कर आलिंगन करते हुवे कहा कि हम अब विलग क्यों हों ??

बही बियाहीं सागर सारें । पूर रीति जन पुनि नग धारें ।।
सरिस सुर सरित धरित पहारा । धरी तरीं तब ही तव धारा ।।
विवाह कर बहते बहते हम सागर रूपी पीया संग जा मिले ।  पुराइ  लोगों की पुरानी 
रीति निभाने हेतु   पर्वत पर अर्थात पिता के घर आए । अब तुम्हारी इस वधु रूपी 
गंगा को हिमालय धारे हुवे हैं । पुन जब धरा पर बहेगी तब ही यह गंगा की धारा 
तुम्हारी होगी ।।

फूल सइ प्रफुलित बारी बानि बानि के संग ।
चंद्र सइ रतियन कारी सजनी मैं किस अंग ।।
फूलो के साथ उद्या प्रसन्नचित है रंग के साथ चमक 
काली रात के साथ चाँद है हे! सजनी में किसके साथ मन रमाऊँ ??

चिठिया सँगत हरकारा आखर कारे रंग ।
बाँचि प्रिया कर धार के सजनी मैं किस ढंग ।।   
चिट्ठी के साथ डाकिया है अक्षर काले रंग के साथ ।
उसे  हाथो में रख प्रिया ने बांच लिया 
सजनी ये कहो मुझे कौन बांचेगा  ।।

सोमवार, 07 जनवरी 2013                                                                  

धूरि धरा धर निधान । धूली मूल संधान ।।
मूल तन तरुबर तान । तरुबरी डारि बितान ।।
धूल को धरा सहेज कर रखती है । धुल जड़ क साधे रखती है ।।
जड़ तरुवर(पाधे)  के तने को ताने रखता है । पौधा डाली को तान 
कर रखता है ।।
  
डारि डारि पात धार । फूर फुर पाति अधार ।।
फूर दल कोष कपाट । दल गंध उपबन पाट ।।
डालियाँ पत्तियों को धारण किय हव है । पत्तियों पर पुष्प प्रफुल्लित हो 
कर आधारित है । पुष्प पर उनका दल समूह संचयित है । इन दल समूहों 
की सुगंध से उपवन अटा हुवा है ।।

फुरहर फूर दल पुंज । बवर झवर भवर गूँज ।।
रुर सुर मधुर मधुर रुंज । खील खील मुकुल निकुँज ।।
 स्फुरित फूलों क दल समूह पर भँवरे बावरे होकर गुंजत हुवे चक्कर लगा
रहे हैं सुंदर मीठे मीठे सुर बज रह हैं और उपवा में अधखिली कलि पुष्पित 
हो रहीं हैं ।।

बिलस बिपिन सोभन हास । लखी चिन चंदन बास ।।
रँग धरि हर हरदि लाल ।मालन माल ।।
वन में कमल एवं वनहास नामक पुष्प सुशोभित है । चीड़ एवं सुगंधित 
चन्दन शोभा वर्द्धन कर रह हैं । हल्दी अर्थात पीले हरे एवं लाल रंग से 
रँगे पुष्पों को धारण किये वनपालिका उहे पो कर मालाओं में पुर रही है ।।


बउर पउर फुर मंजरि । झूर डोर डोर फीरि ।।
धुर ऊपर फर फैरे । साम काम सर पैरे ।।
बौर अर्थात अमिया के छोटे छोट पुष्प पुष्पित हो गए ।
जो डालियों की डोर से झुले के जैसे झूल रहे हैं । कोमल आम
पैरे अर्थात धान की सुखी पत्तियों के मध्य विराजित है ।।

धान धान भरी बाल । फली फली धरी दाल ।।
धान मिसाए ओखरी । चाक पात दार दरी ।।
 बालियाँ धान से भरी हुई हैं । दाल फलियों में फली है ।।
धा ओखली में कूटा जा रहा है । दाल चाकी में दली जा रही है ।।


तार तर तीर तरंग । ताल ढोलक के संग ।।
राग राज बँसरि रंध्र । रुर सुर समीर सुगंध ।।

सुर तरंगे तारो में उतर कगारों पर विराजित हैं । ताल ढोलक के साथ है ।।
राग बाँसुरी के क्षिद्र में विराजित है । हवा में सुन्दर सुर एवं गंध विराजित हैं ।

 सुधाकर कर मयूख । अगनी सूरज के मुख ।।
धर भर मन बिरहन दुःख । सजन सजनी नयन सुख ।।
सुधा का आकर चन्द्रमा की किरणों में है । अग्नि सूरज के मुख में स्थापित है ।
मन में विरह का दुःख भरे । साजन सजनी के नयनों में चैन प्राप्त कर रहे हैं ।।

घट पनघट घटा प्यास धरा घटा के पास ।।
धारा धरि सागर आस मैं साजन के साँस ।।
शरीर पनघट में तृप्त होता है । धरती घटा स तृप्त होती है ।
धारा सागर की आस धरे है साजन मे तुम्हारे साँस में हूँ ।।

मंगलवार, 08 जनवरी, 2013                                                         

असन बचन कहि एक ही सांसा । बन साजन धर उरस निरासा ।।
पहलि परिहरइ भुज सँह साथे । तहँ छुर चुनर करज महँ हाथे ।।

उर उर ऊपर उपरन अंचल । धरि अंतर पद कमलिन कोमल ।।
चल तौ दिए अस रसे रसेऊ । कहु कर परिहर उरस बसेऊ ।।

बिहर गए घर बर बधु बिहीना । सहन बिरहन बस बिति दुइ दिना ।।
बसंत अगवन फुर दिन फिरे । तस लवनइ दिन अवनइ धीरे ।।

भोरि भवन बर पाट पटीरे । नील बरन अपबरन पहीरे ।।
लग दुअर सथ सिबीरथ साजे । धृत धुरबह बर धीर बिराजॆ ।।

धूर दूर रथ चरन सँचारे । द्रुत गति पहिं पहुँचे ससुरारे ।।
एक लघु पुर के लघु गुन गाही । जे सुनत जाहिं अति सुख पाहीं ।।

गए पहुँचहिं निज ससुरार परिजन पाए अगोर ।
सबहिं करँय जय जुहार अगुवन बर कर जोर ।।

बुधवार, 09 जनवरी, 2013                                                          

लै घर भीतर कोत कुठारे । सादर आसन पर बैठारे ।।
बैसे बर के सोभा कैसी ।  राज रतन रति मुँदरी जैसी ।।
वर को घर के अन्दर कक्ष की और लेजाकर आदर सहित ( सुन्दर ) आसन पर बैठाया ।।
बैठे हुवे वर की शोभा ऐसी है मानो किसी मुद्रिका में कोई रत्न अनुलग्न होकर विराज 
रहा हो ।।

चीर रुचिर सरूप रूप रतन निधि । दीपित दिनमन जनु गगन परिधि ।।
मगन मुद मंजुल छबि निहारी । देखत रही पुलक महतारी ।।
सुन्दर वस्त्र से रूप का स्वरूप  साक्षात विष्णु रूप में ऐसे दैदीप्यमाँ है मानो आसन रूपी गगन 
की परिधि में स्वयं दिनकर ही हों ।। मगन एवं प्रसन्नचित होकर वर की सुदर छवि को निहारते 
माता पुलकित होकर जडवत हो गईं ।

सुधित सुधा जल सुखफल थारे । मधुर मोदकिक परुस अगारे ।
करू करू कहिं कँवरजी कलेवा । भावहिं भवन भामिनी सेवा ।।
थाल में सुव्यवस्थित मधुत्रय मिश्रित दूध,रसाला, ठंडाई,गर्मपेय, सुखेफल जैसे काजू,
 मधुर स्त्रवा, मिश्री, फलस्नेह(अखरोट) , बादाम, अंजीर,द्राक्षा, दारुफल(पिस्ता) आदि 
तथा मधुर मिष्ठान बर के सामे परोसटे हुवे मनुहार पूर्वक करते हुवे कहा कुँवर जी कलेवा 
कीजिये । घर की स्त्रियाँ ऐसे सेवासुश्रुता कराती मन को प्रस कर रही हैं ।।
    
भोज पहर सुघर जेवनारि । बनवन बिंजन बहु छरस चारि ।।
जोग जामातु भोज जिमाई । लोक रीति कर मंगल गाई ।।
भोजन के समय स्रुचिपुर्वक भोज में नाना प्रकार के षष्ट रस युक्त (जैसा कि वेदों में 
वर्णित है ) व्यंजन बनवाए ।। प्रतीक्षारत होकर जवाईं को भोजन करवाया एवं लोक 
रीति का निबाह कर मंगल गान गाए ।।

दीठ पीठ भित करे धर प्रिया करज महँ कान ।
नैन सन नैन लरे तर पिया अधर मुसुकान ।।
भीत से पीठ टिकाकर प्रिया अपनी उंगलियों में का को धारण किये वर को निहार 
रही है ऐ मिले तो वर के अधरों पर मुस्कान उतर गई ।।

गुरूवार, 10 जनवरी, 2013                                                                            

गोर गात तहँ सारंग सारी । चित चोरइ प्रान ते प्यारी ।।
कनखन सजवन नखत तै सिखा । मृदु मन अरु तन सुमन सरीखा ।।
शुभ्र शरीर उसपर सुन्दर रंग युक्त साड़ी प्राणों से प्यारी जैसे चित को चुरा रही है ।
पिया ऐसी सजावट को नख से शिख तक काखियों से देख रहे हैं । एक तो कोमल मन 
उस पर फूलों के जैसा शरीर ।।

बिगत बेर धरि कोर कलाई । लइ प्रिया पिय पौर चढ़ आई ।।
गव निज खन भित पलंग डसाए । फेन बहनु पर पिया बैसाए ।।
( थोड़ा ) समय व्यतीत होने पर प्रिया ने प्रियतम की कलाई को पकड़ कर सीडिया 
चढ़ कर निज कक्ष में ले गईं और समुद्री फे के सामान कोमल बिछावन पर बैठाया ।।

जुग सजुगबध सजन तन संगा । भुज दंड कर सर सिखर अंगा ।।
अधर कंज भर कंज कपोले । मनु मुकुलित कलि मधुकर कोले ।।
सजन के तन के साथ संयुक्त होकर हाथो को कंधो पर धरते आलिनगा बद्ध किया ।
पिया ने अधरों में कमल के जैसे कपोल का अमृत भरा मानो अधखिली कलि को 
भ्रमर आलिंगन कर रहा हो ।।

लइ कर धर पिय दृग भर देखे । मेहँदी के कृति कारि लेखे ।।
सोभन सुभगा सुभ सिंगारे । रँग सुरंग सुरभित गंधारे ।।
और  प्रिया के हाथ को विह्वल नयन से उस पर रचित मेहंदीकी रेखाओं को 
देखन लगे । यह सौभाग्य श्रृंगार पतिप्रिया को शोभायमान कर सुन्दर रंग से 
रंगा सुगंध से भर रहा है ।।

तल्प तल नव जुगल लाग अस खन भवन कुठार ।।
दुइ अलि बल्लभ अनुराग जस रति रतन अगार ।।
भवन के उपरी खंड कक्ष में पलंग ऊपर नव युगल ऐसे लग रहे हैं ।
जैसे की समुद्र में दो लाल कमल अनुराग रत हों ।।

 शुक्रवार, 11 जनवरी, 2013                                                  

जूत सँजूत सब जॊउ जोरें । साँझ संग महुँ जावन मोरे ।।
अय लवन तौ जवन न लासें । एक दौ दिन मम पितु गह बासें ।।

सुन पिय हाँसे हाँस बिलासे । राग रंग रस राज पियासे ।।
चंद्र बदन बर बिम्बहिं बासे । भुज के कासे सिन्धु संकासे ।।

सयन सदन तव पंथ निहारें । पर परिहारे गहन गुहारें ।।
मम सइ कहवइ सहइ तुर आएँ । पिया पलोवन लाग छुराएँ ।।   

हँस बधु कहि हम गहि पद अंका । रमन रूप राज हम रम रंका ।।
हम दयनिय तुम दया निधाने । भए दीन दसा तुम धनवाने ।।

नाम दयाकर अभिधान धरे । हैं दीन बंधु अभिमान करें ।।
धर्म चरन चर कर दव दाने । तव अभिधाने तब ही माने ।।

ओढ़ जतन उत पाँव पसारें । देव न सक तौ लव न उधारे ।।
दीन दया धर हीन न धारें । हीन श्रम हर देन परिहारे ।।

कॊऊ दरसन को तरस कोऊ परसन तरस ।
प्रिया पिया पीहु पारस सबहिं हिरन को करस ।।



 प्रियतम प्रिया परस तरस पपीहा दरस तरस ।
 पीतर तरस लस पारस सब हिरन कर्षन बस ।।


शनिवार, 12 जनवरी, 2013                                                             

तब लेंइ बन धन दुहाए धारु । दूँ मूलक सहि बियाजु उतारूँ ।।
एहि बखत तौ दुज अंस धराएँ । तर मूर तुर सुर सिंधु नहाएँ ।।
( प्रियतम कहत हैं ) स समय तो तुमने बनाते हुवे सौगंध लेकर धन उधार लिया था 
कहा था कि तुम्हारे मूल को ब्याज सहित उतार देवेंगे ।। सो इस समय ब्याज्का दूसरा 
भाग दें फिर शीघ्रातिशीघ्र मूल चुका कर गंगा नहाए हो जाएँ ।।

जान भए तुम्ह को करि आसा । रास बिलासँय पेम पिपासा ।।
कहें बर अजहु लहनहु थोरे । चित चीतन जे चाँद चकोरे ।।
वधु ने कहा हम जा ग तुन्हें किस की आशा है । प्रेम के प्यासे  कामक्रीडा 
का तुम्हें लोभ है ।।  वर ने कहा अभी तो हमें थोड़े की ही चाह है । चाह वही जो 
चाँद से चकोर चाहता है ।।

केस कपोले कर तल धारे । प्रिया अधर पिय अधर पधारे ।।
करस कस लस सुधा रस सोषे । सुध बुध बिसरा तन मन तोषे ।।
गाल को और उस पर के केश को हथली पर धारण कर प्रिया के  अधरों पर पिया  ने 
अपे अधर रख दिए । और उसके आकर्षण में दबावपुर अवस्था में उस परके रसामृत का 
पान करते हुवे सुध बुध बुला कर तन और मन को जसे तुष्टि प्रदान करने  लगे  ।।

  रत अनुरागत रंजन रंगे । रमा रति रूपक रमन अनंगे ।।
अस रूप अनूप सरूप सरोबर । सरस सरसीज मधुप मनोहर ।।
अनुराग के पाश में आबद्ध आनन्द प्राप्त करते युगल दम्पति ने  रति- मदन का ही रूप
प्राप्त कर लिया  । रूप ऐसा अद्वितीय जैसे की किसी सरोवर के सरस कमलिन में सुन्दर 
मधुप उसका रस पा कर रहा हो ।।

काँप काँप काया कँपन अधर अधर बस  बंध ।
लग बिलग बधु अभिषंजन निसँसन साजन कंध ।।

अधर से अधर के  बंधन  वश वधु की काया के कंपन से कानो के कर्णफूल कम्पन करने  
लगे   अधरों से अलग हो, आलिंगन वश साजन के कंधे पर वधुय की सांस द्रुत गति से 
गमन करने लगी ।।

रविवार, 13 जनवरी, 2013                                                              

अटपट लपटइ लट गल बाहीं । तूल तरुबर बेली बलाही ।।
चंद्रानन लवन पिय अगहुड़े । नयन दर्पन सजन सन जुड़े ।।
अटे वस्त्र लपटी हुए केश और ग्रीवा में बाँह तरुवर में वलयित लतिका के तुल्य 
प्रतीत हो रही हैं । चन्द्रमा के जैसे मुख को पीया ने आगे की ओर किया तो 
दर्पण स्वरूप प्रिया के  नयनों में पिया की छवि से जुड़ गए ।।

भावइ पियबर अंतर ताड़े । चलउ हटउ कहि मनुहर छाँड़े ।।
उझक उझप रुझ भुज बल गीवाँ । लही बही जिमि धरि सरि सीवाँ ।।
पिया के अंतस ( रति) भाव को भांप कर चलो हटो कह कर छोड़ने का मुहार करे लगी ।।
भूली हुई सुध का संज्ञान ले काठ से उलझी भुजाओं को विमुक्त किया । और ऐसे चली 
जैसे कोई सरिता लहरा कर अपि मर्यादा में चलती हो ।।

पेम के आदि मध्य न अंता । न्यून न अति न नियत नियंता ।।
भव भव बिभव नहीँ एहि भाँति । न सम्मोहन अस सुपत सुपाति ।।
प्रेम का न तो आरम्भ ही है न ही मध्य है एवं न ही कॊई अंत है । इसका न तो कोई 
न्यूनतम है अ ही अधिकतम इसका अ तो कॊई निर्धारक है न ही कोई इस पर शासन 
कर सकता है ।। ससार में सर्वव्यापक हुवा अहि कोई इसके जैसा । प्रेम के जैसा न तो 
कोई सम्मोहन है अ ही इससे कोई प्रितिष्ठित है और न ही पात्रता प्राप्त ।।

  बूढ़ भए अधिक अधिक अधिकाए । गह गह गहरन गहन गहराए ।। 
घना घन गगन मगन बिबराए । कन कन कंचन बिभन बिथुराए ।।
जो जितना अधिक डूबा वह और अधिक डूबता चला । जिसने जीतनी गहनता प्राप्त की 
वह और गहराता चला । जैसे घना मेघ गगन में निमग्न हो गहरा वर्ण ले कर चमकता 
हुवे स्वर्ण कण बिखराता है उसी प्रकार भी प्रेम गहरा हिकार स्नेह के कण की वर्षा करता
 है ।।

 सब लोकन तें एक लोक लोकन लोग बिलोग ।
कभु रत कभु बिरह सोक बस जहँ प्रेमी जोग ।।
लोगो ने देखा है कि सभी लोकों में एक ( उत्तम ) लोक है जहां कभी मिलन 
तो कभी विरह के शोक वश प्रेमी युगल का वास रहता है ।।

सोमवार, 14 जनवरी, 2013                                                                   

गइ पूरिते प्रभा पग फेरे । भास भानु चौखट पट भेरे ।।
ढरि ढरि डहरहि सांझ सुहाई । स्याम बरन बर रतियन छाइ ।।
किरओन ने अपनी  पूर्णता प्राप्त कर जब चरण फेरे तो सूर्य ने भी अपि कल्पन के 
चौखट के द्वार बंद कर लिए ।। डगर पर ढलती हुई संध्या भी अति सुहावनी प्रतीत 
हो रही है । और सुन्दर श्याम वर्ण में रजनी ने अपनी छाया बिखरा दी ।।
    
प्रभा प्रिय ससी भूषन सीसा । नीलय निलय नभ बिलय निभ निसा ।।
दूर धरनि धुर उर उजियारे । दिक् गति दर्सन दीपक बारे ।।
चाँद का  मुख मंडल तारो के मोतियों के आभूषण से युक्त हो कर प्रकाशित है । नभ के 
ह्रदय की नीलिमा भी प्रकाशित निशा में विलापित हो गयी ।। दूर धरती की धुरी तक 
उसके ह्रदय में उजाला भरते जलता हुवा दीपक  दृष्टि की पहुँच तक दृश्यमान है ।।

साँझ बिरत भए भोजनु काला । एक ते एक हैं भोग रसाला ।।
अहार बिहार रुचिबर  किन्हें । कह बीनितइ बर अब बिदइ दिन्हें ।।
सांझ बीती भोज का समय हुवा । विभीन्न रसों से युक्त शुद्ध, मार्जित, मीठा, मधुर, रसीला 
सुपाच्य, सुस्वादु भोजन- आवास को औराग पूर्वक ग्रहण किया ।। तत्पश्चात विनय पूरित
वाचा से जाए की आज्ञा मांगी ।।
  
ले लवन तूल तिलकन माथे । मान दान देइ दृढ़ मूल हाथे ।।
सन सनमान धर सीस सुभागे । सास ससुर बर पागन लागे ।।
तात-मात ने सुदर लाल तिलक माथे पर लगाया । तथा मान  सम्मान पूर्वक दान सहित 
 नारिकेल भेंट स्वरूप दिया ।। सम्मान सहित उसे शीश पर धार अपना सौभाग्य मान 
वर इ सास-ससुर के चरण सपर्श किये ।।

अंब अंबर धर अंजन छाए । धीय उर धुर मिल  सलिल बहाए ।।
तात मात बर सौंप धराए । समधिक समदन कर धिय बिदाए ।।
पुत्री के काले नयन में काले बादल छ गए फिर भारी मन से सबसे मिलकर जल बरसाइ 
लगे । अतिशय उपहार प्रदान कर टाट मात इ पुत्री को वर के हाथों में सौप कर विदा की ।।
  
लय ह्रदय भर  धीर राख सिबीरथ धिय बैसाए ।
ता पर बर अँधेरपाँख तुर अति आतुर धाए ।। 
भरे ह्रदय में धीरज को धरा कर पुत्री को सिवीरथ में बैठाया ।
उस पर बैठे बार ने अधेरे के पंखों पर सिवीरथ को अत्यधिक 
द्रुत गति से दौड़ाया ।।


 मंगलवार, 15 जनवरी, 2013                                                                        

लह लह बाहनु बह बह जाही । तीर त्रिबिध बध बायु बहाही ।।
पग पग खग मृग तरुबर बृंदा । नग नग नदी बन मगन निंदा ।।
 लहराती हुई वाहनी दूर होती चली गई । बाहनी के कगारे तीन प्रकार की ( शीतल, मंद, 
सुगन्धित) वायु प्रवाहित होने लगी ।  चरन ,चरन पर पशु, पक्षी एवं वृक्षों के समूह व 
पर्वत-पर्वत तथा नदी-वन सब निद्रामग्न हैं ।।

निरव रथय रव पथ कोलियाए । डगर ढुकाए ढुर घर नियराए ।।
पंथ पुरी जन सोए समूचे ।  भँवर भँवर पी पँवरी पहुँचे ।।
शांत सकरे पथ पर रथ के पहिये कोलाहल करते डगर को पार कर गम करते घर के 
निकट आए । पथ एवं अड़ोसी-पडोसी सब सो चुके हैं । घूमते-घुमाते पिया के घर पहुच 
गए ।।
 
बधु सहित बर भित दुअर धामा । तिलक-दान दे मात प्रनामा ।।
तात जाउ कह करें बिश्रामा । आवन जुगल तब सयन श्रामा ।।
 वर -वधु साथ में घर के भीतर पधारे । तिलक-दान माता को देकर कर चर स्पर्श किया ।।
फिर पिता ने वर-वधु से कहा जाओ अब विश्राम करो । तब युगल सयन-मंडप में विश्राम 
हेतु आए ।।
 
 भर भुजंतर बर बधु  धारे । ऋनोद गहन कर समुद्धारे ।।
 बर ने वधु को गोद में उठाकर ऋण धारिणी वधु से सम्पूर्ण
ऋण ग्रहण कर ऋन धारी का ऋणोंद्धार किया  ।।

लव लाल भाल ललित गाल हिरनय होठी धरावहिं ।
हर हहर अधराधर गहन उतर हिम कन पिय पावहिं ।।
पेम पियूष परस पूस परागन रागन रजस रजे ।
अधस्तात अधीर रात रति पिय नाथ मंदिर सजे ।। 

तापित धरनि जलधि आस जलधित कासिक कास ।

पिय तिय तन मन धन त्रास बूँद सभी के पास ।।      
तपती हुई भूमि बादल की बूंदों के आस है समुद्र प्रकाश वान के 
आकर्षण में  अर्थात सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र ( विशेष कर स्वाति ) के आकर्षण है 
प्रियतम प्रियतमा के तन-मन  रूपी धन के प्यास को तरसे है जबकि बुँदे 
( धरती के पास समुद्र, समुद्र के पास जल, पियाके पास हिरण्य ) सभी के पास है ।।





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