जननी धिय दुइ गुन समुझाई । बहु समदत पुनि किए बिदाई ॥
जोरत कर सब बाहिनि बैठे । सुभ घरि नउ बधु किए घर पैठे ॥
वधु की माता ने उसे दो गुण समझा कर ,बहुंत प्रकार के उपहार देते हुवे फिर उसे विदा किया ॥ सब बाराती भी हाथ जोड़ कर विदा हेतु अनुमति लेते हुवे वाहनों में विराजित हुवे और शुभ घडी में नव वधु ने गृह प्रवेश किया ॥
तासु पूरतस हिल मिल हेले । जामि जुगबन खोरिया खेरे ॥
कोए बनबई बनरा नीके । कोउ बनाउन भरि बनरी के ॥
उसके पहले मेल मिलाप कर राग रंग सहित रास करते हुवे घर की बहु-बेटियां साथ में खोड़िया खेला ॥ किसी को बन्ना बनाया गया । किसी ने बन्नी का वेश धारण किया ॥
नउ बधु बिरध चरन परसावा । आवत बधु कारत बहु चावा ॥
आए पाहुन धरि कर सीसे । लीन्हि बिदा दीन्हि असीसे ॥
नव वधु के आते ही गृहजनों ने बहुंत ही लाड़-चाव किया और वृद्ध जनों के चरण स्पर्श करवाए ॥ जो अतिथि आमंत्रित थे उन्होंने उसके शीश पर हाथ रखते हुवे आशीष देते हुवे विदाई ली ॥
बहुरि बहुरि सब जनमन बिहाइँ । तुहरी सास सुरसरि अन्हाइँ ॥
भरित बियाहु उछाहु अनंदु । जात सराहत कहत बधु चंदु ॥
यह कहते हुवे कि हे बहुओं ! सारी संतानों का विवाह कर अब तो तुम्हारी सास गंगा नहा ली ॥ विवाह का उत्साह और आनंद को ह्रदय में भरे वे जाते हुवे नव वधु को चाँद कि उपमा देते गए ॥
दरसत बधुबर ऐसेउ,जस दुहंस के जोरि ।
नेग सहित रीति निबेर, पुनि का कंकन खोरि ॥
और कहा : -- वर वधु ऐसे दर्श रहे हैं जैसे कोई हंस का जोटा हों । फि नेग सहित रीती पूर्णिंत करते हुवे वर वधु के खोले गए ॥
रविवार, १७ नवम्बर, २ ० १ ३
काल कर्निक पलक जल कृते । पहर करन किए अहिरात सरिते ।।
कलप धरा अस नौका चरिते । प्रीत पूरिते कछुक बय बिते ॥
समय कर्णधार हुवा ,क्षण एवं पल जल स्वरुप हुवे । जब पहर पतवार अनुरूप हुई तो पलों को संजो कर दिवस और रात्रि सरिता प्रतिमान हो गए ॥
तमोगुन गहन किए अँधियारे । तमोहन जग उजरन न हारे ॥
पावनहार देयन उलासे । देवनहार पावन ललासे ॥
अज्ञान और आलस्य जैस दुर्गुण मानस के मन मस्तिष्क में अन्धेरा करते रहे । इस अन्धकार को नष्ट करने वाले प्रतिक हार नहीं मानते और ज्ञान और चैतन्य का उजाला भरते ॥
बहुरि बहुरि खल देइँ उजराए । उपबन फिर फिर फर फूर सुहाए ॥
पाए पवन पखि भरि भर्राटे । बहेलियन के जालन काटे ॥
दुष्ट वारम्वार उअपवन उजाड़ देते परन्तु वह पुनश्च:पुनरुज्जीवित होकर सुहावना हो जाता ॥ बहेलियों के जाल काटते हुवे , पवन का संग प्राप्त कर पक्षी अति तीव्रता पूर्वक उड़ान भरते ॥
तरल तपनोपल धुनन धूरी । गहनई रयनइ दिन को घूरी ॥
मनुज बल सोंह सिंह डिराहीं । ससा हिरन के बरनि न जाहीं ॥
मणि स्वरुप सूर्य की कांति तरलता को, वायु धूल को, गहन रात्रि दिवस की वैरी हो जाती ॥ मनुष्य से स्वयं वांके राजा सिंह को ही भय लगता फिर खरगोश एवं हिरन जैसे निरीह प्राणी तो वर्णनातीत हैं ॥
अगजग लेइ सकल जगत, छाए जीव उत्कर्ष ।
चहुँत दिसा ब्यापत रहि, जीवन के संघर्ष ॥
जगत के समस्त चराचर में जीवन के प्रति उत्कंठा बनी रही । संक्षेप स्वरूप, चारों दिशाओं में जीवन संघर्ष रत रहा ॥
सोमवार, १८ नवम्बर, २ ० १ ३
न्यूनाधिक परस्पर प्रीती । सब जन करहिं सुवारथ नीती ॥
दैहिक दैविक भौतिक तापे । बार बधूटि जीवन ब्यापे ॥
लोगों में आपस की प्रीति थोड़ी-बहुंत ही थी, सभी स्वार्थ परक नीतियां अपना रखी थीं ॥ दैहिक,दैविकऔर भौतिन वर-वधु का जीवन इन त्रयीताप से व्याप्त था ॥
अंगज के रहि रुजित सरीरा । अल्पायु अरु ऐ महा पीरा ॥
दोउ रोग भय सोक अधीना । संतति प्रति सुख लच्छन हीना ॥
वर-वधु के बाल मुकुंद का शरीर रोग ग्रसित था अल्पायु और रोग की यह महापीड़ा ॥ दोनों सुख के लक्षणों से विहीन होकर रोग, भय और शोक के अधीन थे जो संतानों के प्रति था ॥
केतक जलद सुधा बरखाईं । पर बेत प्रफुर फरइँ न पाईं ॥
ऐसेउ बहुस बयस गहाहे । दंपत पुत चलि फिरैं न पाहें ॥
बादल कितना ही सुधा बरसाए । पर बेत प्रस्फुटित होकर फलीभूत नहीं होता ॥ उसी प्रकार वह बालक भी चलने फिरने कि अवस्था पार करता जाता किन्तु पैरों से चल फिर नहीं पाता ॥
रूज गहन कर लिए झटकारे । कछुक दिवस के अंतर पारे ॥
नाना बैदु भवन किए फेरे । मात पिता करि जुगत घनेरे ॥
रोग, झटके देने वाला था और गहरा था । यह झटके उसे कुछ दिनों के अंतर पर आते ॥ विभिन्न प्रकार के वैद्यों एवं उनके भवनों के चक्कर काट काट कर माता-पिटा अतिशय युक्ति करते की किसी प्रकार से यह झटके अवरुद्ध हों ॥
भाँति भाँति के नेम किए, जथा जोग पुनि दान ।
दंपत जोगत जुगे रहि, पुत के साँसत प्रान ॥
अनेको रीतियाँ अपनाईं, यथायोग्य दान-पुण्य भी किया ॥ इस प्रकार बालक के यंत्रणा में फंसे प्राणों की देख-रेख में ही जूटे रहते ॥
मेरा भाव गहे रहे, बहोरि किए पुनि दान ।
जोइ सकल जगती लहे सोइ करै कल्यान ॥
चूँकि किया हुवा पुण्य दान यदि 'मेरा ' भाव ग्रहण किये हुवे हो तो वह सफल नहीं होता । जिस पुण्य दान में समस्त चराचर के कष्ट निवारण की कामना की जाए वही कल्याण कारी होता है ( अत: दंपत का वह कृतकार्य वह असफल सिद्ध होता प्रतीत हुवा ) ॥
मंगलवार, १ ९ नवम्बर, २ ० १ ३
मुखकृति सुठि रहि सौंह साँवरी । पर वाकी बुद्धि रहि बावरी ॥
भोजन जल तौ खालै हेरी । पर रसना कछू धूनि न केरी ॥
बालक की सुनार मुखाकृति सांवरे के सदृश्य थीं । किन्तु उसकी बुद्धि मंद थी । भोजन जल को तो उसकी जिह्वा ढूंड लेती किन्तु शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाती ॥
उदर ज्वाल बूझन ललसाए । उत्सर्जन कछू भान ना पाए ॥
तिन्ह आवइ न कछु जानपनी । रही चित्त भ्रमित वाकी नयनी ॥
क्योंकि उदराग्नि ऐसी है कि वह बूझण को लालायित रहती किन्तु उत्सर्जन का उसे ज्ञान नहीं था ॥ उसे कुछ समझदारी नहीं थीं जो उसकी आयु के बालक को होनी चाहिए उसके नेत्र भी भ्रमित रहते अर्थात नेत्र से नेत्र का मिलान करने पर स्थिरता नहीं आती ।।
आप नींद सुत केलि किलौले । दूजन अनमन कछु नहि बोले ॥
पालक हीं मुख असन धराईं । चरण त्रान तन बसन बसाईं ॥
वह अपने आप में मगन होकर आप अनुसार ही खेल करता दूसरे के भावों को ध्यान नहीं देता ॥ उसे पालक ही भोजन कराते और उसके वेश को भूषित करते ॥
बिहारन उदकत बारहि बारी। चलत बाहि जब त्रिबिध बयारी ॥
धरत उच्चलत उरस उछावा । तिन्ह परस अतिसय मन भावा ॥
वह विहार करने हेतु वारंवार स्वरुप में उत्कंठित रहता । गतिशील अवस्था में चलते वाहन की शीतल मंद और सुगन्धित वायु उसके हृदय को आनंदित करती उसका स्पर्श उसे बहुंत अधिक ही भाता ॥
पेख पालक बालक मुख, सुहेलाहि एहि भाँत ।
पेखत भानु उदयित जस, पदम् मुकुल सकुचात ॥
बालक के ऐसे मुदित मुख को देख कर उसके पालक , सुख की अनुभूति करते हुवे इस प्रकार से प्रसन्न होते जैसे मुरझाए हुवे मुकुलित पद्म पुष्प को देखकर उदितमान भानु प्रसन्न होता है ॥
बुधवार, २० नवम्बर, २ ० १ ३
करत लाल धिय बहु बिधि लालै । सीँच नेह दुहु गृहबन पालें ॥
एक कलिका कल कोमलि अंकी । एक मन मोहक मुकुल मयंकी ॥
दंपत, बाल मुकुंद एवं बालिका का बहुत प्रकार से दुलार करते और अपने स्नेह से सिंचित कर गृह रूपी उस उपवन में उनका लालन पालन करते ॥
कलिका पद पद फुरत बिकासे । मुकुल कंत मुख मलिनइ भासे ॥
जे रत सकल बिषय रस कोरी । यह अधम ग्राम धरत निचोरी ॥
कलिका तो चरण-चरण पर प्रफुल्लित होकर संवृद्ध होती रही किन्तु, मुकुल का मुख मुरझाया हुवा सा धूमिल प्रभा का आभास देता ॥ कालिका संसार के विषयी रसदालिका के सभी रसों में अनुरक्त थी किन्तु मुकुल विषय समूह के अधभागी होते हुवे केवल अवसृष्ट का
अधिकारी था ॥
चलत पयादे पयादेहि धिअ । धरि पद पुत पर अपद अबोधिअ ॥
चाहे जो धिय हठ करि लेईं । बाल मुकुन पुचुकारत देईं ॥
पुत्रिका पैर पैर चलती । पुत्र चरण धारी होते हुवे भी मंद मति के कारण चल नहीं पाता ॥ पुत्रिका हाथ कर जो चाहती ले लेती किन्तु बाल मुकुंद को मात-पिता पुचकार पुचकार कर देते ॥
जाति जनित जग धरम समाजा । बसत भवन करि हित के काजा ॥
बिकसित भाव बिषय गत बोधे । एहि कर मनु पसु बिलग बिरोधें ॥
उत्पत्ति, समूह, सांसारिक धर्म, और समाज गृहस्थ जीवन, कल्याण कारी कार्य,विकसित भाव,विषयों का पूर्णकारी बोध गमन, ये कारक मनुष्य को पशुओं से भिन्न करते हुवे पृथक करता है ॥
ढोर हो चाहे पसु हो, हो को नर को नारि ।
जो प्रानि मतिहिन् का सो, ताड़न के अधिकारि ॥
ढोल हो, चाहे पशु हो, या कोई नर-नागर कि नारी हो । जो प्राणी मति हिन् हैं क्या वे मार खाने के योग्य होते हैं ॥
गुरूवार, २ १ नवम्बर, २ ० १ ३
उत बधु पितु बय बर्धन भूले । परे पालउ धरे रुज सूले ॥
अजहुँ त प्रात करम उहिं कारैं । मिल भावज करि सौच अचारें ॥
उधर वधु के पिता जैसे स्वास्थ का लाभ लेना ही भूल गए रोगों से पीड़ित होकर पलंग ही पकड़ लिया । अब तो नित्य क्रिया भी वही होने लगी । भावज मिल जुल कर उनका शुद्धिकरण करती ॥
जे कभु दंपत के मन आईं । दोउ असुख कर दरसन जाईं ॥
सयनै संजुग जड़ता धारहिं । रसना असन अरसकर अलपतर धारहिं ॥
जो कभी दम्पति का मन होता तो दोनों शोक पूर्णित होकर दर्शन कर आते ॥ पलंग पकड़ने के पश्चात शरीर ने जड़ हो गया । स्वादेंद्रिय अब अल्प मात्रा में ही भोजन गर्हण करने लगी ॥
करक धूनि धरि तीख सुभावा । चार कोस जो देइ सुनावा ॥
बेगि बिहिन अरु गति छिन होई । मंदक सुर धरि धवनिहि सोई ॥
मुख ध्वनि जो कभी कर्कश एवं तीक्ष्ण स्वभाव की थी । जो चार कोस ऊरी पर भी सुनाई देती थी ॥ उसी ध्वनि के स्वर मंद हो गए उसकी गति मद्धम और तीव्रता क्षीण हो गई ॥
झुरत चरम छबि मुख मलिनाई । बिरध सिंधु तरंग धराई ॥
दिए दरस दीन दरपक हीनी । कर्दम भरि काया भइ झीनी ॥
मुख की त्वचा झूलने लगी और उसकी शोभा मलिन हो गई जैसे मुख कोई वृद्ध सिंधु हो और और झुर्रियां तरंग हों ॥ मांस से भरी काया कृषकाय हो कर विकलता दर्शाते हुवे दर्प हीन हो गई ॥
अजहुँत मम दिवस पूरे, कहत बहोरि बहोरि ।
जेइ जगमग जगती जग, अरु तनि बय के होरि ॥
पितु वारंवार कहते अब मेरे दिन पूरे हो गए । इस जगमग करते घर-संसार में, मैं कुछ ही समय का अतिथि हूँ ॥
शुक्रवार, २२ नवम्बर, २ ० १ ३
देखत नातिन बहुस स्नेहे । रोग पीरान हरिदै लेहें ॥
बैस बर्धाहि धीरहि धीरे । कहत धिया सों भै न अधीरें ॥
पिता नातिन को देखते तो बहुंत स्नेह करते उसके रोग पीड़ा को हृदय में लेते हुवे द्रवित हो जाते ॥ यह धीरे धीरे ठीक हो जाएगा , तुम अधीर मत होओं पुत्री को ऐसा कहकर सांत्वना देते ॥
जब तब बधूटि पितु घर जाईं । मात चढत चित अति सुरताईं ॥
सुमिरत तिन्ह लोचन जल छाए । सयन सदन जब जननी न पाए ॥
वधु जब भी अपने पिता के घर जाती । तो माता का ध्यान चित्त में चढ़ जाता ॥ जब शयन सदन में वह नहीं दिखाई देती तब उन्हें स्मरण करते हुवे उसकी आँख भर आती ।
बसन भूषन वाके बिछावन । रहि ऐतक कि उँगरीहि मह गन ॥
धर्म बचन अरु सत सदाचरन । रहि जेतैक के नख नभ अनगन ॥
उनके वस्त्र आभूषण शयनाच्छादन इतने थे की उँगलियों में गिना जा सके । और धर्म पूरित आचरण सत्य सद आचार इतने थे कि जितने आकाश में अनगिनत तारे हैं ॥
धारी मुठिका करन्हि दाना । कबहुँक चौरस कबहु लुकाना ॥
मानख मति जस तस गति पाईं । जस कारज तरु तस फर आईं ॥
जब मन आया मुठिका धरी और दान कर दिया । कभी सबके सम्मुख कभी छीपा कर ॥ मानुष की जैसी बुद्धि होती है उसकी गत भी वैसी ही होती है । उसके जैसे कर्म वृक्ष होते हैं, उसमें वैसे ही फल लगते हैं ॥
जुग सिधाए सती बिहाइ, बिते बरस अह रात ।
तिन्ह संग लोग सिधाए, रह रहि तिनकी बात ॥
युग समाप्त हो जाते हैं शताब्दियां समाप्त हो जाती हैं वर्ष,दिवस, रात्रि बितते जाते हैं । उनके साथ लोग भी परलोक पहुँच जाते हैं रह जाते हैं बस उनके विचार ॥
शनिवार, २३ नवम्बर, २ ० १ ३
एक दिन बैसै सों बर भ्राता । बधूटि करत ऐसोइ बाता ॥
लालइ लाल अंक बैसाई । पुनि एतादिसी पूछ बुझाईं ॥
एक दिन अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ बैठ कर वधु इस प्रकार वार्तालाप कर रही थी वह पुत्र को सस्नेह गोद में बैठाए हुवे उसने प्रश्न भ्राता से किया : -
कभु कछु कभु कछु हेलत बुलाएं । कहु तौ तनुज का नाम धराएँ ॥
दुइ छन ठारत भ्रात बिचारे । तब मधुरित जे बचन उचारे ॥
अभी तक ठोटे को भाँति -भाँति नामों से पुकारते थे । कहो तो इसका क्या नाम रखें ? तब भ्राता ने कुछ समय थाहा कर विचार कर इस प्रकार के मधुरित वचनों का उच्चारण किया ॥
केस सिखर तरि सीस अलिंदे । बैठि भेस भर जस अलि बृंदे ॥
अरुन नयन मुख सुधा अधारे । मनहु कंजन कंज पत धारे ॥
केश शिखर से उतर कर शीर्ष के चबूतरे पर ऐसे विराजित हैं जैसे मधुकर के समूह ने वेश भर लिया हो ॥ अरुणित लोचन और मुख सुधा के आधार हैं विधाता ने मानो वहाँ कमल ही प्रतिष्ठित कर दिया हो ॥
चंचर मन तन बदन स्यामा । तव सुत सुभ लच्छन के धामा ॥
कहत भ्रात एक नाम सुखारे । धरे मात सो भविस कुमारे ॥
मन चंचल है, और शरीर और मुखाकृति सांवल है । तुम्हारा पुत्र शुभ लक्षणों का जैसे धाम ही है ॥ फिर भ्राता ने एक सुख करने वाला नाम बताया । वह नाम था भविष्य कुमार जिसे माता ने ग्रहण कर लिया ॥
एहि भाँति भ्रात के कहे, नाम देइ जनि धार ।
पुचकारत बोलि मुख सन , हे रे भविस कुमार ॥
इस प्रकार भ्राता के कहे अनुसार, माता ने अपने पुत्र का नामकरण किया । औ फिर प्यार से पुकारने लगी हे रे ! भविष्य कुमार !!
रविवार, २४ नवम्बर, २ ० १ ३
उत बधूबर के कुटुंबी गन । श्री गया पुर पितु करमन करन ॥
सब हिल हेरत किये बिचारे । मंगल दिवस संकलप धारे ॥
उधर वधू-वर के कौटुंबिक गण ने हिलमिल कर श्री गया जी श्राद्ध कर्म-काण्ड करने का शुभ विचार किया ॥ और मंगल दिवस में संकल्प धरा ॥
जेइ करमन तबही सँजोई । जब सकल कुटुम जन सुध होईं ॥
को मरनी को जनम न धारें । जग मह रह जेतक परिबारे ॥
यह कर्म-काण्ड हेतु तभी कटिबद्ध होते हैं जब सर्व कौटुम्बिक पवित्र हों । अर्थात निश्चित अवधि के अंतर्गत जग में जितने भी कौटुम्बिक हों उनके गृह में किसी का न मरण हुवा हो न किसी का जन्म हुवा हो ॥
सब सास्त्र सब बेद पुराने । करतब रूप ते करम बख्नाने ॥
तिन्ह तईं उपदेस उचारे । श्री भगवद गीता अनुहारे ॥
सभी शास्त्रों सभी वेद पुराणों ने कर्त्तव्य स्वरुप में इस कर्म-काण्ड का वर्णन किया है ॥ इसके सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता में किये गए उपदेशानुसार : -
जो पितु करमन सकही कोई । सोइ जनित बड़ भागी होईं ॥
जो पितु मुकुतिहि अभिलाखे । पाए धर्म पद लाखन लाखे ॥
जो कोई संतति पितृ-कर्म काण्ड करने में समर्थ हो वह अतिशय भाग्यशाली होती है । जो अपने पितर जनों की मुक्ति की अभिलाषा करता है वह अधिकाधिक पुण्य का पात्र होता है ॥
सब हेली जोगत, भए सब सहमत दिए सबहि असीस बचन ।
जो जथा बिधाने, जोग प्रदाने, भए सम्भव आयोजन ॥
पुनि बंस चरित के, जोग लिखित के, हेर पुर पट्टन गली ।
मिलजुल सब लोगे, साख सँजोगे, बनि बिटप बिरदावली ॥
फिर सभी कुम्ब जनों ने आह्वान कर सभी की सहमति एवं आशीर्वचन एकत्रित किया ॥ जो जैसे जिस प्रकार से भी योजन प्रदान करने में समर्थ था उसने वैसा किया और फिर यह आयोजन सम्भव हुवा ॥ फिर वंश का इतिहास अन्वेषण कर सभी स्थानों से लिखित में संकलित कर सबने परस्पर मेल करते हुवे उसकी शाखाएं निरूपित कर उसे वृक्ष का स्वरुप दिया ॥
डेढ़ सदी पूर्बीने, जे आयोजन कारि ।
अद्यावधि सोइ कुटुम, बहुरि संकल्प धारि ॥
वधू-वर के कौटुम्बिक ने जिस आयोजन को (लगभग) डेढ़ सौ वर्ष पूर्व किया था, अद्यावधि कुटुंब जनों ने पुनश्चर उसी आयोजन का संकल्प धरा ॥
सोमवार, २ ५ नवम्बर, २ ० १ ३
तिन करम तईं बेद पुराना । लेखि कछुक कर नेम बिधाना ॥
पर पद परसन बर्जित अहहैं । ते अवधि कोउ दाए न लहहैं ॥
इस कर्म-काण्ड के सम्बन्ध में वेद -पुराणों में किंचित नियम-विधान किये गए हैं ॥ जिसमें संकप अवधि में पराए जनों का चरण वंदन वर्जित होता है न किसी से कुछ लिया जाता है, न दिया जाता है ॥
जब लग परिजन किए संकल्पा । सुरति प्रभु मन आहारै अल्पा ॥
जस निगमागम जस श्रुति गाईं । जनम मरन मह कहहुँ न जाईं ॥
जब तक यह सकल्प पूर्ण नहीं होता तब तक अल्प आहार ही ग्रहण कर चित्त में केवल ईश्वर का स्मरण के निर्देश हैं ॥ जैसे वेद-शास्त्रों एवं श्रुतियों ने व्याख्यान किया है कि न तो किसी के जन्म में गमन करें एवं न ही किसी के मरण में गमन करें ॥
तेहि माझ मह पीहर देसे । आए जेइ आरत संदेसे ॥
बधुटि तव पितु रहि न जग माहे । छाड़े तन अरु सुरग सिधाहें॥
इसी बीच के पीहर देस से यह दुखमय सन्देश आया ।। हे वधु ! तुम्हारे पिता अब इस लोक में नहीं रहे, वे देह त्याग कर लोकांतरित हो गए हैं ॥
होत सोकित बधु बै तिपाई । सँदेसी सौं कछु कह न पाईं ॥
कातर दृग भइ सोकत लोकी । अरु वाके मुख लोकत सोकी ॥
( यह सुनते ही ) वधु दुखित होकर पीड़ित अवस्था में संदेशी से कुछ कह नहीं पाई ॥ कातर दृष्टी से शोकपूर्ण होकर वधु उसे और उसके मुख को रात्रि देखती रही ॥
आरत रत बिलाप करत, धारे दुःख उर भीत ।
रयनि श्रवनत सन क्रंदत, बधु के करुणा गीत ॥
दुःख संकुलित ह्रदय से वह दुखपूर्ण विलाप करने लगी । उसके इस करुणा गीत को सुनकर साथ में रयनी भी रो पड़ी ॥
मंगलवार, २ ६ नवम्बर, २ ० १ ३
कवन भाँति बिरती तम राती । आइ भोर पितु जस गुन गाती ॥
किरन सोशन ओस कन कूखे । बधु के पोटल कनक न सूखे ॥
दुखभरी वह अंधेरी रात किसी भांति व्यतीत हुई । जनक के गुण गाती हुई फिर भोर प्रकट हुई ॥ किरणों के शोषण से ओस शुष्क होने के कारण कलपने लगे किन्तु वधु के पलकों की जल बुँदे शुष्क नहीं हुईं ॥
पिहर गवन बात जब आई । करन जनक जग बिदा बिहाई ॥
गृह जन चिंतत पूछ बुझाने । बुधी सुधी सन सोंह सयाने ॥
और जब जनक कि अंतिम विदाई हेतु वधु के पीहर जाने की बात चली तब गृहजानों ने सोच विचार कर बड़े बूढ़ों के साथ बुद्धिवंत विद्वान की राय ली ॥
कहि सब बनउन नेम बनाईं । मानन मैं ही भयउ भलाई ॥
जान समुझ रचि आपन नुग्रहन । एकांग होहि हेतु को कारन ॥
सबने यही कहा जब रचनाकार ने नियम रचे ही हैं तो उन नियमों को मानने में ही भलाई होगी ॥ इन नियमों के रचित करने पीछे उनका अवश्य ही कोई कारण कोई उद्देश्य होगा जो हम कलयुगी जातक नहीं जानते । ये हमारे अनिष्ट के निवारण के िे जान समझ कर ही रचे गए होंगे ॥
पुनि सोंह बधू परिजन कहहीं । सोइ करौ जो तव मन चहहीं ॥
निगम रचिते नेम पुराने । तोर न तोरे मान न माने ॥
फिर वधु के सम्मुख होकर परिजनों ने कहा । जो तुम्हारा मन कह रहा है तुम वही करो ॥ निगमागम में रचे गए नियम यद्यपि पुराने हैं तोड़ना चाहो तो तोड़ दो मानना चाहो तो मान लो ॥
पितु पराए आपन ससुरारी । होइहि संतत पियहि पियारी ॥
बहोरि बधु के बुद्धि सुजाना । बिरध बचन देवत सनमाना ॥
पिता पराए होते हैं, स्त्री कि अपनी उसकी संतान होती है और वह प्रीतम की प्यारी होकर ससुराल की ही होती है ॥ फिर वधु की सुबुद्धित मति ने बड़े बूढ़ों के कथनों का सम्मान किया ॥
निगमागम निगदित नेम, कारत अंगीकार ।
नियमित भई संकल्पित, निज पितृ जन उद्धार ॥
वेद-शास्त्रों में वर्णित नियमों को अंगीकार करते हुवे उनके अधीन हो कर वह अपने पितृ जनों के उद्धरण हेतु कृत संकल्पित हुई ॥ ( पति पक्ष द्वारा आहूत कर्म काण्ड- क्रिया में पत्नी के माता-पिता का भी उद्धरण होता है ऐसा शास्त्रों में वर्णित है )
बुधवार, २ ७ नवम्बर, २ ० १ ३
कैसेउ अहइ एहि बिडंबना । पितु के सिरान बधु गमन मना ॥
अंत समउ भइ मुख नहि देखें । उपल धात कस हरिदै लेखेँ ॥
यह कैसी विडंबना है, पिता का देहांत हो गया पर वधु का जाना मना है ॥ अंतिम समय में पिता का मुख भी न देखें । ह्रदय पर वधु कैसे तो पत्थर रखे और कैसे उसे समझाए ॥
जन्में जग में रज सन तिनके । अजहुँ तरस गए दरसन तिनके ॥
प्रियति पिया नारी धिय धाती । पर मुख मौलि मूर्धन पाती ॥
जिनके राज से इस जगत में जन्म लिया । आज नयन उनके दर्शन को तरस गए ॥ प्रिय को अति प्रिय नारी पुत्री एवं माता होती है । किन्तु मुख मस्तक के शिखर पत्र पर : --
अंतर धर अह सों नर धाता । लिखे लेख का भाग बिधाता ॥
पौरुख के पहराइन नारी । पहरी के को पहरनहारी ॥
भाग्य विधाता ने ऐसे लेख लिखे नरनागर और नारी में अंतर किया ॥ नारी को पुरुष के पहरे में किया किन्तु उस प्रहरी का कौन प्रहरी हो यह उल्लेखित नहीं किया ॥
अस कह जब बधु बहस बिलापी । धुनी बरन सन हरिहर काँपी ॥
बेस निकट पिय कहि समुझाईं । मोह करत निज दिए दोहाई ॥
ऐसा कहते हुवे फिर वह कुछ समय पश्चात अतिशय विलाप करने लगी और शब्द वर्ण भी जब हहर कर कांपने लगे ॥ तब निकट बैठे प्रियतम ने मोह करते हुवे अपनी दुहाई दे कर वधु को समझाया ॥
उत पितु कर कीर्ति करतूती । धर्म सील गुन गात बहूती ।
पुर परिजन सव सिबिका बाँधे । करत सवय धरि पुत के काँधे ॥
उधर पिता के कृत की कीर्ति कर उनकी धर्मशीलता, और गुणों की अतिशय प्रशंसा करते पुरजन एवं परिजन अर्थी जोड़ने लगे और अंतिम क्रिया के समय के समस्त कृत्य करते हुवे पिता के पार्थिव शरीर को पुत्रों के कन्धों पर रखा ॥
राम नाम है साँच, कहत पुत पितु लेइ चरे ।
इत लोचन जल राँच, बिलपत बधु धीर न धरे ॥
राम नाम सत्य है, पुत्र ऐसा कहते हुवे पिता को लिए चले इधर वधु आँखों को अश्रु धारा में अनुरक्त कर धैर्य हिन् होते हुवे विलाप कर रही थी ॥
गुरूवार, २ ८ नवम्बर, २ ० १ ३
जगत परिहरि गयउ सुर धामा । रहे रहि जनक जारन कामा ॥
जिनके असीस रहि सुख दाइ । अनरथ कर तिन काल बिलगाइ ॥
संसार को त्याग कर पिता स्वर्ग धाम को चले गए । केवल उनके दाहन की क्रिया शेष रह गई ॥ जो जीवन हेतु सुखदायक थे ॥ काल ने अनर्थ करते हुवे उस स्नेहाशीष से पृथक कर दिया ॥
कहत बधु आह हे मम पितुरे । नलिन नयन जस सागर उतरे ॥
तपन उटाइँ न दुःख गहराई । धीर आपै आप अधिराईं ॥
ऐसा कहते हुवे वधु ने आह !भरी और उसके आँखों से जैसे अश्रु का सागर ही उमड़ पड़ा ॥ उसके कष्ट की तो ऊंचाई नहीं थी और दुःख की कोई गहराई नहीं थी ॥ धीरज, वह तो स्वयं ही अधीर हो रहा था ॥
तों पिया सोंह गइ न सँभारी ॥ प्रिया तात हा तात पुकारी ॥
बिकल बिलोक ससुर समुझावति । कबहुँक सास छाँति लगावति ॥
उस समय प्रियतम से प्रिया सहेजी न गई, वह बार बार अपने पिता को स्मरण करती ॥ उसे ऐसे व्याकुल देख कर कभी श्वशुर सांत्वना देते तो कभी सास हृदय से लगा लेती ॥
कही धिय काहु बिलपहिं मम माता । कहत तात सिरु फेरत हाथा ॥
रे धिया मातामह तुम्हरे । छाँड़त प्रान अरु सुरग सिधरे ।।
पुत्री ने जब माता को बिलपति देखा तो अपने पिता से प्रश्न किया, मेरी माता बिलाप क्यों कर रही हैं तब उन्होंने उसके सर पर हाथ फेर कर उत्तर दिया ॥
खंड खंड हरिदै किये, दरकन भरत बिषाद ।
फिर फिर धीर धरावहीं, पिया करत संबाद ॥
प्रिया का ह्रदय खंड खंड हुवा जा रहा था उसके दरक रेखाओं में विषाद भर गया था । प्रियतम बातचीत करते हुवे वारम्वार उसे धैर्य बंधाते ॥
शुक्रवार, २ ९ नवम्बर, २ ० १ ३
आन पैठत पितु सव मंदिर । काठ साँठ सन अगरहु चंदिर ॥
नदी तीर रचि चिता पौढ़ाए । क्रिया करमन कर दाहन दाए ॥
पिता का मरघटी में प्रवेश करने के पश्चात । अगर-कर्पूर के सह लकड़ियां संजो कर । नदी के तट पर रचाई हुई शव शयनिका पर सुलाया गया ॥ फिर शास्त्र विहित अंत्येष्टि कर्म कर उन्हें अग्नि के अधीन कर दिया ॥
पूर्णित क्रिया करम कलापे । हवि दान धूम गगन ब्यापे ॥
पाँच भूत जग भयउ सुवाहा । कहत सुता सुत स्वजन आहा ॥
अंत्येष्टि क्रिया कलाप पूर्ण होने पर हवं दान का धुंआ गगन में व्याप्त हो गया ॥ पञ्च भुत कि यह मूर्ति स्वाह हो गई । पुत्र-पुत्रियों के सह परिजनों के मुख से शोक सूचकोद्गार व्यक्त होने लगे ॥
महि मह जनमें महि माह लीने । महि सहि उपजे महिहि मिलीने ॥
महि जनि जननी महतिमहाही । महि के महिमन कहि नहि जाही ॥
( आह। हमारे तात ) धरा में ही जन्म लिए, धरा ही में विलीन हो गए । धरणी से उत्पन्न हुवे धरणी में ही सम्मिलित हो गए । यह धरणी जन्म देने वाली माता से भी महान है । इस धरणी का महात्म्य वर्णनातीत है ॥
कीन्ह त्रयदस गात बिधाने । द्विज गृह गरुढ़ कथा बखाने ॥
बिसुधि पर अनधन धेनु दाने । हेतु पितु चढ़े सुर सोपाने ॥
फिर विधि विधान से उनका त्रयोदश गात्र किया गया । द्विज ने गृह में गरुड़ कथा का आख्यान किया । विशुद्ध होने पर यथायोग्य अन्न धन एवं धेनु आदि का दान किया गया । इस उद्देश्य से कि पिता स्वर्ग की सीडियां चढ़े ॥
सब सुख दरसत जगत के, भै परिपूरन काम ।
कुल करतब पूर्नित कर, गवनै पितु सुर धाम ॥
संसार के समस्त सुख दर्श कर, पूर्णकामी स्वरुप में । कुल के सारे कर्त्तव्य पूर्ण कर फिर पिता स्वर्ग धाम को चले गए ॥
शनिवार, ३० नवम्बर, २ ० १ ३
पुनि सील सरिल सागर सरिसे । जपत श्री रमन रमापति इसे ॥
सब गृह जन उर धारत साँती । कल्हार करहिं कहु न को भाँती ॥
भारत भूमि झारखन देसू । धन नगरि के दुआरि प्रबेसू ॥
बसहीं एक जन घनतम गाँवा । अहहीं झरिया वाके नावाँ ॥
निज सिरु धारे जे अवदाने । जोइ अजोजन कार प्रधाने ॥
ते बहु परिजन बासहिं तहहीं । धर्म चरन रुचि समरथ रहहीं ॥
कार करम किए एक जन धामा । जुग सब तँह तिन सरनइ श्रामा ॥
श्राद्ध पख अरु देव पुकारे । द्विज मुख भगवद कथा बिठारे ॥
बृंदा बन के बाँकुरे, राधा के प्रिय प्रान ।
मुरइधर मनोहर के, कारत गुन जस गान ॥
जोरत कर सब बाहिनि बैठे । सुभ घरि नउ बधु किए घर पैठे ॥
वधु की माता ने उसे दो गुण समझा कर ,बहुंत प्रकार के उपहार देते हुवे फिर उसे विदा किया ॥ सब बाराती भी हाथ जोड़ कर विदा हेतु अनुमति लेते हुवे वाहनों में विराजित हुवे और शुभ घडी में नव वधु ने गृह प्रवेश किया ॥
तासु पूरतस हिल मिल हेले । जामि जुगबन खोरिया खेरे ॥
कोए बनबई बनरा नीके । कोउ बनाउन भरि बनरी के ॥
उसके पहले मेल मिलाप कर राग रंग सहित रास करते हुवे घर की बहु-बेटियां साथ में खोड़िया खेला ॥ किसी को बन्ना बनाया गया । किसी ने बन्नी का वेश धारण किया ॥
नउ बधु बिरध चरन परसावा । आवत बधु कारत बहु चावा ॥
आए पाहुन धरि कर सीसे । लीन्हि बिदा दीन्हि असीसे ॥
नव वधु के आते ही गृहजनों ने बहुंत ही लाड़-चाव किया और वृद्ध जनों के चरण स्पर्श करवाए ॥ जो अतिथि आमंत्रित थे उन्होंने उसके शीश पर हाथ रखते हुवे आशीष देते हुवे विदाई ली ॥
बहुरि बहुरि सब जनमन बिहाइँ । तुहरी सास सुरसरि अन्हाइँ ॥
भरित बियाहु उछाहु अनंदु । जात सराहत कहत बधु चंदु ॥
यह कहते हुवे कि हे बहुओं ! सारी संतानों का विवाह कर अब तो तुम्हारी सास गंगा नहा ली ॥ विवाह का उत्साह और आनंद को ह्रदय में भरे वे जाते हुवे नव वधु को चाँद कि उपमा देते गए ॥
दरसत बधुबर ऐसेउ,जस दुहंस के जोरि ।
नेग सहित रीति निबेर, पुनि का कंकन खोरि ॥
और कहा : -- वर वधु ऐसे दर्श रहे हैं जैसे कोई हंस का जोटा हों । फि नेग सहित रीती पूर्णिंत करते हुवे वर वधु के खोले गए ॥
रविवार, १७ नवम्बर, २ ० १ ३
काल कर्निक पलक जल कृते । पहर करन किए अहिरात सरिते ।।
कलप धरा अस नौका चरिते । प्रीत पूरिते कछुक बय बिते ॥
समय कर्णधार हुवा ,क्षण एवं पल जल स्वरुप हुवे । जब पहर पतवार अनुरूप हुई तो पलों को संजो कर दिवस और रात्रि सरिता प्रतिमान हो गए ॥
तमोगुन गहन किए अँधियारे । तमोहन जग उजरन न हारे ॥
पावनहार देयन उलासे । देवनहार पावन ललासे ॥
अज्ञान और आलस्य जैस दुर्गुण मानस के मन मस्तिष्क में अन्धेरा करते रहे । इस अन्धकार को नष्ट करने वाले प्रतिक हार नहीं मानते और ज्ञान और चैतन्य का उजाला भरते ॥
बहुरि बहुरि खल देइँ उजराए । उपबन फिर फिर फर फूर सुहाए ॥
पाए पवन पखि भरि भर्राटे । बहेलियन के जालन काटे ॥
दुष्ट वारम्वार उअपवन उजाड़ देते परन्तु वह पुनश्च:पुनरुज्जीवित होकर सुहावना हो जाता ॥ बहेलियों के जाल काटते हुवे , पवन का संग प्राप्त कर पक्षी अति तीव्रता पूर्वक उड़ान भरते ॥
तरल तपनोपल धुनन धूरी । गहनई रयनइ दिन को घूरी ॥
मनुज बल सोंह सिंह डिराहीं । ससा हिरन के बरनि न जाहीं ॥
मणि स्वरुप सूर्य की कांति तरलता को, वायु धूल को, गहन रात्रि दिवस की वैरी हो जाती ॥ मनुष्य से स्वयं वांके राजा सिंह को ही भय लगता फिर खरगोश एवं हिरन जैसे निरीह प्राणी तो वर्णनातीत हैं ॥
अगजग लेइ सकल जगत, छाए जीव उत्कर्ष ।
चहुँत दिसा ब्यापत रहि, जीवन के संघर्ष ॥
जगत के समस्त चराचर में जीवन के प्रति उत्कंठा बनी रही । संक्षेप स्वरूप, चारों दिशाओं में जीवन संघर्ष रत रहा ॥
सोमवार, १८ नवम्बर, २ ० १ ३
न्यूनाधिक परस्पर प्रीती । सब जन करहिं सुवारथ नीती ॥
दैहिक दैविक भौतिक तापे । बार बधूटि जीवन ब्यापे ॥
लोगों में आपस की प्रीति थोड़ी-बहुंत ही थी, सभी स्वार्थ परक नीतियां अपना रखी थीं ॥ दैहिक,दैविकऔर भौतिन वर-वधु का जीवन इन त्रयीताप से व्याप्त था ॥
अंगज के रहि रुजित सरीरा । अल्पायु अरु ऐ महा पीरा ॥
दोउ रोग भय सोक अधीना । संतति प्रति सुख लच्छन हीना ॥
वर-वधु के बाल मुकुंद का शरीर रोग ग्रसित था अल्पायु और रोग की यह महापीड़ा ॥ दोनों सुख के लक्षणों से विहीन होकर रोग, भय और शोक के अधीन थे जो संतानों के प्रति था ॥
केतक जलद सुधा बरखाईं । पर बेत प्रफुर फरइँ न पाईं ॥
ऐसेउ बहुस बयस गहाहे । दंपत पुत चलि फिरैं न पाहें ॥
बादल कितना ही सुधा बरसाए । पर बेत प्रस्फुटित होकर फलीभूत नहीं होता ॥ उसी प्रकार वह बालक भी चलने फिरने कि अवस्था पार करता जाता किन्तु पैरों से चल फिर नहीं पाता ॥
रूज गहन कर लिए झटकारे । कछुक दिवस के अंतर पारे ॥
नाना बैदु भवन किए फेरे । मात पिता करि जुगत घनेरे ॥
रोग, झटके देने वाला था और गहरा था । यह झटके उसे कुछ दिनों के अंतर पर आते ॥ विभिन्न प्रकार के वैद्यों एवं उनके भवनों के चक्कर काट काट कर माता-पिटा अतिशय युक्ति करते की किसी प्रकार से यह झटके अवरुद्ध हों ॥
भाँति भाँति के नेम किए, जथा जोग पुनि दान ।
दंपत जोगत जुगे रहि, पुत के साँसत प्रान ॥
अनेको रीतियाँ अपनाईं, यथायोग्य दान-पुण्य भी किया ॥ इस प्रकार बालक के यंत्रणा में फंसे प्राणों की देख-रेख में ही जूटे रहते ॥
मेरा भाव गहे रहे, बहोरि किए पुनि दान ।
जोइ सकल जगती लहे सोइ करै कल्यान ॥
चूँकि किया हुवा पुण्य दान यदि 'मेरा ' भाव ग्रहण किये हुवे हो तो वह सफल नहीं होता । जिस पुण्य दान में समस्त चराचर के कष्ट निवारण की कामना की जाए वही कल्याण कारी होता है ( अत: दंपत का वह कृतकार्य वह असफल सिद्ध होता प्रतीत हुवा ) ॥
मंगलवार, १ ९ नवम्बर, २ ० १ ३
मुखकृति सुठि रहि सौंह साँवरी । पर वाकी बुद्धि रहि बावरी ॥
भोजन जल तौ खालै हेरी । पर रसना कछू धूनि न केरी ॥
बालक की सुनार मुखाकृति सांवरे के सदृश्य थीं । किन्तु उसकी बुद्धि मंद थी । भोजन जल को तो उसकी जिह्वा ढूंड लेती किन्तु शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाती ॥
उदर ज्वाल बूझन ललसाए । उत्सर्जन कछू भान ना पाए ॥
तिन्ह आवइ न कछु जानपनी । रही चित्त भ्रमित वाकी नयनी ॥
क्योंकि उदराग्नि ऐसी है कि वह बूझण को लालायित रहती किन्तु उत्सर्जन का उसे ज्ञान नहीं था ॥ उसे कुछ समझदारी नहीं थीं जो उसकी आयु के बालक को होनी चाहिए उसके नेत्र भी भ्रमित रहते अर्थात नेत्र से नेत्र का मिलान करने पर स्थिरता नहीं आती ।।
आप नींद सुत केलि किलौले । दूजन अनमन कछु नहि बोले ॥
पालक हीं मुख असन धराईं । चरण त्रान तन बसन बसाईं ॥
वह अपने आप में मगन होकर आप अनुसार ही खेल करता दूसरे के भावों को ध्यान नहीं देता ॥ उसे पालक ही भोजन कराते और उसके वेश को भूषित करते ॥
बिहारन उदकत बारहि बारी। चलत बाहि जब त्रिबिध बयारी ॥
धरत उच्चलत उरस उछावा । तिन्ह परस अतिसय मन भावा ॥
वह विहार करने हेतु वारंवार स्वरुप में उत्कंठित रहता । गतिशील अवस्था में चलते वाहन की शीतल मंद और सुगन्धित वायु उसके हृदय को आनंदित करती उसका स्पर्श उसे बहुंत अधिक ही भाता ॥
पेख पालक बालक मुख, सुहेलाहि एहि भाँत ।
पेखत भानु उदयित जस, पदम् मुकुल सकुचात ॥
बालक के ऐसे मुदित मुख को देख कर उसके पालक , सुख की अनुभूति करते हुवे इस प्रकार से प्रसन्न होते जैसे मुरझाए हुवे मुकुलित पद्म पुष्प को देखकर उदितमान भानु प्रसन्न होता है ॥
बुधवार, २० नवम्बर, २ ० १ ३
करत लाल धिय बहु बिधि लालै । सीँच नेह दुहु गृहबन पालें ॥
एक कलिका कल कोमलि अंकी । एक मन मोहक मुकुल मयंकी ॥
दंपत, बाल मुकुंद एवं बालिका का बहुत प्रकार से दुलार करते और अपने स्नेह से सिंचित कर गृह रूपी उस उपवन में उनका लालन पालन करते ॥
कलिका पद पद फुरत बिकासे । मुकुल कंत मुख मलिनइ भासे ॥
जे रत सकल बिषय रस कोरी । यह अधम ग्राम धरत निचोरी ॥
कलिका तो चरण-चरण पर प्रफुल्लित होकर संवृद्ध होती रही किन्तु, मुकुल का मुख मुरझाया हुवा सा धूमिल प्रभा का आभास देता ॥ कालिका संसार के विषयी रसदालिका के सभी रसों में अनुरक्त थी किन्तु मुकुल विषय समूह के अधभागी होते हुवे केवल अवसृष्ट का
अधिकारी था ॥
चलत पयादे पयादेहि धिअ । धरि पद पुत पर अपद अबोधिअ ॥
चाहे जो धिय हठ करि लेईं । बाल मुकुन पुचुकारत देईं ॥
पुत्रिका पैर पैर चलती । पुत्र चरण धारी होते हुवे भी मंद मति के कारण चल नहीं पाता ॥ पुत्रिका हाथ कर जो चाहती ले लेती किन्तु बाल मुकुंद को मात-पिता पुचकार पुचकार कर देते ॥
जाति जनित जग धरम समाजा । बसत भवन करि हित के काजा ॥
बिकसित भाव बिषय गत बोधे । एहि कर मनु पसु बिलग बिरोधें ॥
उत्पत्ति, समूह, सांसारिक धर्म, और समाज गृहस्थ जीवन, कल्याण कारी कार्य,विकसित भाव,विषयों का पूर्णकारी बोध गमन, ये कारक मनुष्य को पशुओं से भिन्न करते हुवे पृथक करता है ॥
ढोर हो चाहे पसु हो, हो को नर को नारि ।
जो प्रानि मतिहिन् का सो, ताड़न के अधिकारि ॥
ढोल हो, चाहे पशु हो, या कोई नर-नागर कि नारी हो । जो प्राणी मति हिन् हैं क्या वे मार खाने के योग्य होते हैं ॥
गुरूवार, २ १ नवम्बर, २ ० १ ३
उत बधु पितु बय बर्धन भूले । परे पालउ धरे रुज सूले ॥
अजहुँ त प्रात करम उहिं कारैं । मिल भावज करि सौच अचारें ॥
उधर वधु के पिता जैसे स्वास्थ का लाभ लेना ही भूल गए रोगों से पीड़ित होकर पलंग ही पकड़ लिया । अब तो नित्य क्रिया भी वही होने लगी । भावज मिल जुल कर उनका शुद्धिकरण करती ॥
जे कभु दंपत के मन आईं । दोउ असुख कर दरसन जाईं ॥
सयनै संजुग जड़ता धारहिं । रसना असन अरसकर अलपतर धारहिं ॥
जो कभी दम्पति का मन होता तो दोनों शोक पूर्णित होकर दर्शन कर आते ॥ पलंग पकड़ने के पश्चात शरीर ने जड़ हो गया । स्वादेंद्रिय अब अल्प मात्रा में ही भोजन गर्हण करने लगी ॥
करक धूनि धरि तीख सुभावा । चार कोस जो देइ सुनावा ॥
बेगि बिहिन अरु गति छिन होई । मंदक सुर धरि धवनिहि सोई ॥
मुख ध्वनि जो कभी कर्कश एवं तीक्ष्ण स्वभाव की थी । जो चार कोस ऊरी पर भी सुनाई देती थी ॥ उसी ध्वनि के स्वर मंद हो गए उसकी गति मद्धम और तीव्रता क्षीण हो गई ॥
झुरत चरम छबि मुख मलिनाई । बिरध सिंधु तरंग धराई ॥
दिए दरस दीन दरपक हीनी । कर्दम भरि काया भइ झीनी ॥
मुख की त्वचा झूलने लगी और उसकी शोभा मलिन हो गई जैसे मुख कोई वृद्ध सिंधु हो और और झुर्रियां तरंग हों ॥ मांस से भरी काया कृषकाय हो कर विकलता दर्शाते हुवे दर्प हीन हो गई ॥
अजहुँत मम दिवस पूरे, कहत बहोरि बहोरि ।
जेइ जगमग जगती जग, अरु तनि बय के होरि ॥
पितु वारंवार कहते अब मेरे दिन पूरे हो गए । इस जगमग करते घर-संसार में, मैं कुछ ही समय का अतिथि हूँ ॥
शुक्रवार, २२ नवम्बर, २ ० १ ३
देखत नातिन बहुस स्नेहे । रोग पीरान हरिदै लेहें ॥
बैस बर्धाहि धीरहि धीरे । कहत धिया सों भै न अधीरें ॥
पिता नातिन को देखते तो बहुंत स्नेह करते उसके रोग पीड़ा को हृदय में लेते हुवे द्रवित हो जाते ॥ यह धीरे धीरे ठीक हो जाएगा , तुम अधीर मत होओं पुत्री को ऐसा कहकर सांत्वना देते ॥
जब तब बधूटि पितु घर जाईं । मात चढत चित अति सुरताईं ॥
सुमिरत तिन्ह लोचन जल छाए । सयन सदन जब जननी न पाए ॥
वधु जब भी अपने पिता के घर जाती । तो माता का ध्यान चित्त में चढ़ जाता ॥ जब शयन सदन में वह नहीं दिखाई देती तब उन्हें स्मरण करते हुवे उसकी आँख भर आती ।
बसन भूषन वाके बिछावन । रहि ऐतक कि उँगरीहि मह गन ॥
धर्म बचन अरु सत सदाचरन । रहि जेतैक के नख नभ अनगन ॥
उनके वस्त्र आभूषण शयनाच्छादन इतने थे की उँगलियों में गिना जा सके । और धर्म पूरित आचरण सत्य सद आचार इतने थे कि जितने आकाश में अनगिनत तारे हैं ॥
धारी मुठिका करन्हि दाना । कबहुँक चौरस कबहु लुकाना ॥
मानख मति जस तस गति पाईं । जस कारज तरु तस फर आईं ॥
जब मन आया मुठिका धरी और दान कर दिया । कभी सबके सम्मुख कभी छीपा कर ॥ मानुष की जैसी बुद्धि होती है उसकी गत भी वैसी ही होती है । उसके जैसे कर्म वृक्ष होते हैं, उसमें वैसे ही फल लगते हैं ॥
जुग सिधाए सती बिहाइ, बिते बरस अह रात ।
तिन्ह संग लोग सिधाए, रह रहि तिनकी बात ॥
युग समाप्त हो जाते हैं शताब्दियां समाप्त हो जाती हैं वर्ष,दिवस, रात्रि बितते जाते हैं । उनके साथ लोग भी परलोक पहुँच जाते हैं रह जाते हैं बस उनके विचार ॥
शनिवार, २३ नवम्बर, २ ० १ ३
एक दिन बैसै सों बर भ्राता । बधूटि करत ऐसोइ बाता ॥
लालइ लाल अंक बैसाई । पुनि एतादिसी पूछ बुझाईं ॥
एक दिन अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ बैठ कर वधु इस प्रकार वार्तालाप कर रही थी वह पुत्र को सस्नेह गोद में बैठाए हुवे उसने प्रश्न भ्राता से किया : -
कभु कछु कभु कछु हेलत बुलाएं । कहु तौ तनुज का नाम धराएँ ॥
दुइ छन ठारत भ्रात बिचारे । तब मधुरित जे बचन उचारे ॥
अभी तक ठोटे को भाँति -भाँति नामों से पुकारते थे । कहो तो इसका क्या नाम रखें ? तब भ्राता ने कुछ समय थाहा कर विचार कर इस प्रकार के मधुरित वचनों का उच्चारण किया ॥
केस सिखर तरि सीस अलिंदे । बैठि भेस भर जस अलि बृंदे ॥
अरुन नयन मुख सुधा अधारे । मनहु कंजन कंज पत धारे ॥
केश शिखर से उतर कर शीर्ष के चबूतरे पर ऐसे विराजित हैं जैसे मधुकर के समूह ने वेश भर लिया हो ॥ अरुणित लोचन और मुख सुधा के आधार हैं विधाता ने मानो वहाँ कमल ही प्रतिष्ठित कर दिया हो ॥
चंचर मन तन बदन स्यामा । तव सुत सुभ लच्छन के धामा ॥
कहत भ्रात एक नाम सुखारे । धरे मात सो भविस कुमारे ॥
मन चंचल है, और शरीर और मुखाकृति सांवल है । तुम्हारा पुत्र शुभ लक्षणों का जैसे धाम ही है ॥ फिर भ्राता ने एक सुख करने वाला नाम बताया । वह नाम था भविष्य कुमार जिसे माता ने ग्रहण कर लिया ॥
एहि भाँति भ्रात के कहे, नाम देइ जनि धार ।
पुचकारत बोलि मुख सन , हे रे भविस कुमार ॥
इस प्रकार भ्राता के कहे अनुसार, माता ने अपने पुत्र का नामकरण किया । औ फिर प्यार से पुकारने लगी हे रे ! भविष्य कुमार !!
रविवार, २४ नवम्बर, २ ० १ ३
उत बधूबर के कुटुंबी गन । श्री गया पुर पितु करमन करन ॥
सब हिल हेरत किये बिचारे । मंगल दिवस संकलप धारे ॥
उधर वधू-वर के कौटुंबिक गण ने हिलमिल कर श्री गया जी श्राद्ध कर्म-काण्ड करने का शुभ विचार किया ॥ और मंगल दिवस में संकल्प धरा ॥
जेइ करमन तबही सँजोई । जब सकल कुटुम जन सुध होईं ॥
को मरनी को जनम न धारें । जग मह रह जेतक परिबारे ॥
यह कर्म-काण्ड हेतु तभी कटिबद्ध होते हैं जब सर्व कौटुम्बिक पवित्र हों । अर्थात निश्चित अवधि के अंतर्गत जग में जितने भी कौटुम्बिक हों उनके गृह में किसी का न मरण हुवा हो न किसी का जन्म हुवा हो ॥
सब सास्त्र सब बेद पुराने । करतब रूप ते करम बख्नाने ॥
तिन्ह तईं उपदेस उचारे । श्री भगवद गीता अनुहारे ॥
सभी शास्त्रों सभी वेद पुराणों ने कर्त्तव्य स्वरुप में इस कर्म-काण्ड का वर्णन किया है ॥ इसके सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता में किये गए उपदेशानुसार : -
जो पितु करमन सकही कोई । सोइ जनित बड़ भागी होईं ॥
जो पितु मुकुतिहि अभिलाखे । पाए धर्म पद लाखन लाखे ॥
जो कोई संतति पितृ-कर्म काण्ड करने में समर्थ हो वह अतिशय भाग्यशाली होती है । जो अपने पितर जनों की मुक्ति की अभिलाषा करता है वह अधिकाधिक पुण्य का पात्र होता है ॥
सब हेली जोगत, भए सब सहमत दिए सबहि असीस बचन ।
जो जथा बिधाने, जोग प्रदाने, भए सम्भव आयोजन ॥
पुनि बंस चरित के, जोग लिखित के, हेर पुर पट्टन गली ।
मिलजुल सब लोगे, साख सँजोगे, बनि बिटप बिरदावली ॥
फिर सभी कुम्ब जनों ने आह्वान कर सभी की सहमति एवं आशीर्वचन एकत्रित किया ॥ जो जैसे जिस प्रकार से भी योजन प्रदान करने में समर्थ था उसने वैसा किया और फिर यह आयोजन सम्भव हुवा ॥ फिर वंश का इतिहास अन्वेषण कर सभी स्थानों से लिखित में संकलित कर सबने परस्पर मेल करते हुवे उसकी शाखाएं निरूपित कर उसे वृक्ष का स्वरुप दिया ॥
डेढ़ सदी पूर्बीने, जे आयोजन कारि ।
अद्यावधि सोइ कुटुम, बहुरि संकल्प धारि ॥
वधू-वर के कौटुम्बिक ने जिस आयोजन को (लगभग) डेढ़ सौ वर्ष पूर्व किया था, अद्यावधि कुटुंब जनों ने पुनश्चर उसी आयोजन का संकल्प धरा ॥
सोमवार, २ ५ नवम्बर, २ ० १ ३
तिन करम तईं बेद पुराना । लेखि कछुक कर नेम बिधाना ॥
पर पद परसन बर्जित अहहैं । ते अवधि कोउ दाए न लहहैं ॥
इस कर्म-काण्ड के सम्बन्ध में वेद -पुराणों में किंचित नियम-विधान किये गए हैं ॥ जिसमें संकप अवधि में पराए जनों का चरण वंदन वर्जित होता है न किसी से कुछ लिया जाता है, न दिया जाता है ॥
जब लग परिजन किए संकल्पा । सुरति प्रभु मन आहारै अल्पा ॥
जस निगमागम जस श्रुति गाईं । जनम मरन मह कहहुँ न जाईं ॥
जब तक यह सकल्प पूर्ण नहीं होता तब तक अल्प आहार ही ग्रहण कर चित्त में केवल ईश्वर का स्मरण के निर्देश हैं ॥ जैसे वेद-शास्त्रों एवं श्रुतियों ने व्याख्यान किया है कि न तो किसी के जन्म में गमन करें एवं न ही किसी के मरण में गमन करें ॥
तेहि माझ मह पीहर देसे । आए जेइ आरत संदेसे ॥
बधुटि तव पितु रहि न जग माहे । छाड़े तन अरु सुरग सिधाहें॥
इसी बीच के पीहर देस से यह दुखमय सन्देश आया ।। हे वधु ! तुम्हारे पिता अब इस लोक में नहीं रहे, वे देह त्याग कर लोकांतरित हो गए हैं ॥
होत सोकित बधु बै तिपाई । सँदेसी सौं कछु कह न पाईं ॥
कातर दृग भइ सोकत लोकी । अरु वाके मुख लोकत सोकी ॥
( यह सुनते ही ) वधु दुखित होकर पीड़ित अवस्था में संदेशी से कुछ कह नहीं पाई ॥ कातर दृष्टी से शोकपूर्ण होकर वधु उसे और उसके मुख को रात्रि देखती रही ॥
आरत रत बिलाप करत, धारे दुःख उर भीत ।
रयनि श्रवनत सन क्रंदत, बधु के करुणा गीत ॥
दुःख संकुलित ह्रदय से वह दुखपूर्ण विलाप करने लगी । उसके इस करुणा गीत को सुनकर साथ में रयनी भी रो पड़ी ॥
मंगलवार, २ ६ नवम्बर, २ ० १ ३
कवन भाँति बिरती तम राती । आइ भोर पितु जस गुन गाती ॥
किरन सोशन ओस कन कूखे । बधु के पोटल कनक न सूखे ॥
दुखभरी वह अंधेरी रात किसी भांति व्यतीत हुई । जनक के गुण गाती हुई फिर भोर प्रकट हुई ॥ किरणों के शोषण से ओस शुष्क होने के कारण कलपने लगे किन्तु वधु के पलकों की जल बुँदे शुष्क नहीं हुईं ॥
पिहर गवन बात जब आई । करन जनक जग बिदा बिहाई ॥
गृह जन चिंतत पूछ बुझाने । बुधी सुधी सन सोंह सयाने ॥
और जब जनक कि अंतिम विदाई हेतु वधु के पीहर जाने की बात चली तब गृहजानों ने सोच विचार कर बड़े बूढ़ों के साथ बुद्धिवंत विद्वान की राय ली ॥
कहि सब बनउन नेम बनाईं । मानन मैं ही भयउ भलाई ॥
जान समुझ रचि आपन नुग्रहन । एकांग होहि हेतु को कारन ॥
सबने यही कहा जब रचनाकार ने नियम रचे ही हैं तो उन नियमों को मानने में ही भलाई होगी ॥ इन नियमों के रचित करने पीछे उनका अवश्य ही कोई कारण कोई उद्देश्य होगा जो हम कलयुगी जातक नहीं जानते । ये हमारे अनिष्ट के निवारण के िे जान समझ कर ही रचे गए होंगे ॥
पुनि सोंह बधू परिजन कहहीं । सोइ करौ जो तव मन चहहीं ॥
निगम रचिते नेम पुराने । तोर न तोरे मान न माने ॥
फिर वधु के सम्मुख होकर परिजनों ने कहा । जो तुम्हारा मन कह रहा है तुम वही करो ॥ निगमागम में रचे गए नियम यद्यपि पुराने हैं तोड़ना चाहो तो तोड़ दो मानना चाहो तो मान लो ॥
पितु पराए आपन ससुरारी । होइहि संतत पियहि पियारी ॥
बहोरि बधु के बुद्धि सुजाना । बिरध बचन देवत सनमाना ॥
पिता पराए होते हैं, स्त्री कि अपनी उसकी संतान होती है और वह प्रीतम की प्यारी होकर ससुराल की ही होती है ॥ फिर वधु की सुबुद्धित मति ने बड़े बूढ़ों के कथनों का सम्मान किया ॥
निगमागम निगदित नेम, कारत अंगीकार ।
नियमित भई संकल्पित, निज पितृ जन उद्धार ॥
वेद-शास्त्रों में वर्णित नियमों को अंगीकार करते हुवे उनके अधीन हो कर वह अपने पितृ जनों के उद्धरण हेतु कृत संकल्पित हुई ॥ ( पति पक्ष द्वारा आहूत कर्म काण्ड- क्रिया में पत्नी के माता-पिता का भी उद्धरण होता है ऐसा शास्त्रों में वर्णित है )
बुधवार, २ ७ नवम्बर, २ ० १ ३
कैसेउ अहइ एहि बिडंबना । पितु के सिरान बधु गमन मना ॥
अंत समउ भइ मुख नहि देखें । उपल धात कस हरिदै लेखेँ ॥
यह कैसी विडंबना है, पिता का देहांत हो गया पर वधु का जाना मना है ॥ अंतिम समय में पिता का मुख भी न देखें । ह्रदय पर वधु कैसे तो पत्थर रखे और कैसे उसे समझाए ॥
जन्में जग में रज सन तिनके । अजहुँ तरस गए दरसन तिनके ॥
प्रियति पिया नारी धिय धाती । पर मुख मौलि मूर्धन पाती ॥
जिनके राज से इस जगत में जन्म लिया । आज नयन उनके दर्शन को तरस गए ॥ प्रिय को अति प्रिय नारी पुत्री एवं माता होती है । किन्तु मुख मस्तक के शिखर पत्र पर : --
अंतर धर अह सों नर धाता । लिखे लेख का भाग बिधाता ॥
पौरुख के पहराइन नारी । पहरी के को पहरनहारी ॥
भाग्य विधाता ने ऐसे लेख लिखे नरनागर और नारी में अंतर किया ॥ नारी को पुरुष के पहरे में किया किन्तु उस प्रहरी का कौन प्रहरी हो यह उल्लेखित नहीं किया ॥
अस कह जब बधु बहस बिलापी । धुनी बरन सन हरिहर काँपी ॥
बेस निकट पिय कहि समुझाईं । मोह करत निज दिए दोहाई ॥
ऐसा कहते हुवे फिर वह कुछ समय पश्चात अतिशय विलाप करने लगी और शब्द वर्ण भी जब हहर कर कांपने लगे ॥ तब निकट बैठे प्रियतम ने मोह करते हुवे अपनी दुहाई दे कर वधु को समझाया ॥
उत पितु कर कीर्ति करतूती । धर्म सील गुन गात बहूती ।
पुर परिजन सव सिबिका बाँधे । करत सवय धरि पुत के काँधे ॥
उधर पिता के कृत की कीर्ति कर उनकी धर्मशीलता, और गुणों की अतिशय प्रशंसा करते पुरजन एवं परिजन अर्थी जोड़ने लगे और अंतिम क्रिया के समय के समस्त कृत्य करते हुवे पिता के पार्थिव शरीर को पुत्रों के कन्धों पर रखा ॥
राम नाम है साँच, कहत पुत पितु लेइ चरे ।
इत लोचन जल राँच, बिलपत बधु धीर न धरे ॥
राम नाम सत्य है, पुत्र ऐसा कहते हुवे पिता को लिए चले इधर वधु आँखों को अश्रु धारा में अनुरक्त कर धैर्य हिन् होते हुवे विलाप कर रही थी ॥
गुरूवार, २ ८ नवम्बर, २ ० १ ३
जगत परिहरि गयउ सुर धामा । रहे रहि जनक जारन कामा ॥
जिनके असीस रहि सुख दाइ । अनरथ कर तिन काल बिलगाइ ॥
संसार को त्याग कर पिता स्वर्ग धाम को चले गए । केवल उनके दाहन की क्रिया शेष रह गई ॥ जो जीवन हेतु सुखदायक थे ॥ काल ने अनर्थ करते हुवे उस स्नेहाशीष से पृथक कर दिया ॥
कहत बधु आह हे मम पितुरे । नलिन नयन जस सागर उतरे ॥
तपन उटाइँ न दुःख गहराई । धीर आपै आप अधिराईं ॥
ऐसा कहते हुवे वधु ने आह !भरी और उसके आँखों से जैसे अश्रु का सागर ही उमड़ पड़ा ॥ उसके कष्ट की तो ऊंचाई नहीं थी और दुःख की कोई गहराई नहीं थी ॥ धीरज, वह तो स्वयं ही अधीर हो रहा था ॥
तों पिया सोंह गइ न सँभारी ॥ प्रिया तात हा तात पुकारी ॥
बिकल बिलोक ससुर समुझावति । कबहुँक सास छाँति लगावति ॥
उस समय प्रियतम से प्रिया सहेजी न गई, वह बार बार अपने पिता को स्मरण करती ॥ उसे ऐसे व्याकुल देख कर कभी श्वशुर सांत्वना देते तो कभी सास हृदय से लगा लेती ॥
कही धिय काहु बिलपहिं मम माता । कहत तात सिरु फेरत हाथा ॥
रे धिया मातामह तुम्हरे । छाँड़त प्रान अरु सुरग सिधरे ।।
पुत्री ने जब माता को बिलपति देखा तो अपने पिता से प्रश्न किया, मेरी माता बिलाप क्यों कर रही हैं तब उन्होंने उसके सर पर हाथ फेर कर उत्तर दिया ॥
खंड खंड हरिदै किये, दरकन भरत बिषाद ।
फिर फिर धीर धरावहीं, पिया करत संबाद ॥
प्रिया का ह्रदय खंड खंड हुवा जा रहा था उसके दरक रेखाओं में विषाद भर गया था । प्रियतम बातचीत करते हुवे वारम्वार उसे धैर्य बंधाते ॥
शुक्रवार, २ ९ नवम्बर, २ ० १ ३
आन पैठत पितु सव मंदिर । काठ साँठ सन अगरहु चंदिर ॥
नदी तीर रचि चिता पौढ़ाए । क्रिया करमन कर दाहन दाए ॥
पिता का मरघटी में प्रवेश करने के पश्चात । अगर-कर्पूर के सह लकड़ियां संजो कर । नदी के तट पर रचाई हुई शव शयनिका पर सुलाया गया ॥ फिर शास्त्र विहित अंत्येष्टि कर्म कर उन्हें अग्नि के अधीन कर दिया ॥
पूर्णित क्रिया करम कलापे । हवि दान धूम गगन ब्यापे ॥
पाँच भूत जग भयउ सुवाहा । कहत सुता सुत स्वजन आहा ॥
अंत्येष्टि क्रिया कलाप पूर्ण होने पर हवं दान का धुंआ गगन में व्याप्त हो गया ॥ पञ्च भुत कि यह मूर्ति स्वाह हो गई । पुत्र-पुत्रियों के सह परिजनों के मुख से शोक सूचकोद्गार व्यक्त होने लगे ॥
महि मह जनमें महि माह लीने । महि सहि उपजे महिहि मिलीने ॥
महि जनि जननी महतिमहाही । महि के महिमन कहि नहि जाही ॥
( आह। हमारे तात ) धरा में ही जन्म लिए, धरा ही में विलीन हो गए । धरणी से उत्पन्न हुवे धरणी में ही सम्मिलित हो गए । यह धरणी जन्म देने वाली माता से भी महान है । इस धरणी का महात्म्य वर्णनातीत है ॥
कीन्ह त्रयदस गात बिधाने । द्विज गृह गरुढ़ कथा बखाने ॥
बिसुधि पर अनधन धेनु दाने । हेतु पितु चढ़े सुर सोपाने ॥
फिर विधि विधान से उनका त्रयोदश गात्र किया गया । द्विज ने गृह में गरुड़ कथा का आख्यान किया । विशुद्ध होने पर यथायोग्य अन्न धन एवं धेनु आदि का दान किया गया । इस उद्देश्य से कि पिता स्वर्ग की सीडियां चढ़े ॥
सब सुख दरसत जगत के, भै परिपूरन काम ।
कुल करतब पूर्नित कर, गवनै पितु सुर धाम ॥
संसार के समस्त सुख दर्श कर, पूर्णकामी स्वरुप में । कुल के सारे कर्त्तव्य पूर्ण कर फिर पिता स्वर्ग धाम को चले गए ॥
शनिवार, ३० नवम्बर, २ ० १ ३
पुनि सील सरिल सागर सरिसे । जपत श्री रमन रमापति इसे ॥
सब गृह जन उर धारत साँती । कल्हार करहिं कहु न को भाँती ॥
भारत भूमि झारखन देसू । धन नगरि के दुआरि प्रबेसू ॥
बसहीं एक जन घनतम गाँवा । अहहीं झरिया वाके नावाँ ॥
निज सिरु धारे जे अवदाने । जोइ अजोजन कार प्रधाने ॥
ते बहु परिजन बासहिं तहहीं । धर्म चरन रुचि समरथ रहहीं ॥
कार करम किए एक जन धामा । जुग सब तँह तिन सरनइ श्रामा ॥
श्राद्ध पख अरु देव पुकारे । द्विज मुख भगवद कथा बिठारे ॥
बृंदा बन के बाँकुरे, राधा के प्रिय प्रान ।
मुरइधर मनोहर के, कारत गुन जस गान ॥