Friday, November 1, 2013

----- ॥ सोपान पथ १ ॥ -----

एक बार त बाल कठिनाई । लागै कोउ सपन के नाईं ॥ 
दरस प्रगस भए सोच बिमोचन । दारित मन भरे जल लोचन ॥
एक बार तो बालक का कष्ट, ऐसे प्रतीत हुवा जैसे कि वह कोई स्वप्न हो ॥ किन्तु विचार श्रंखला के भंग होने पर जस सब साक्षात देखा तो ह्रदय विदारित हुवा और आँखें जलयुक्त हो गई ॥ 

अजहुँत बय जुग भै नउ मासे । घरे उरस गिनती के साँसे ॥ 
लघुत पदम् सम लघुत पद भुजा । बिरलइ तन मन गहनइ रूजा ॥ 
अभी तो बालक कि अवस्था कुल नौ मास की हुई है । और ह्रदय में गिनती की ही साँसे संचित हुई है ॥ कमल मुकुल के सदृश्य उसके छोटे पाणि और चरण हैं । तन और मन विरल  है और रोग अति अविरल है ॥ 

सकल अंक बर अंकुर जोरे । कौतूहर पर कारत थोरे ॥ 
गहे न बाल पूरनित भावें । देखि जिन्ह पालक सुख पावें ॥ 
उस अंकुर के सारे अंग श्रेष्ठ है अर्थात कहीं रिक्ततता नहीं है ॥ किन्तु वह मोद-विनोद केलि-क्रीड़ा नाम मात्र के ही करता है ॥ और उसकी भाव भंगिमाएं भी पूर्णत:नहीं है कि जिसको देखकर पालक सुख प्राप्त करते हैं ॥ 

पिय चित निसदिन बालक सुमिरै । जीवन धन सन हेतु जुगावै ॥ 
जनि रहि जन्मन जोगन माही । सुरत मन तिन्ह अरु कछु नाहीं ॥ 
प्रियतम का चित्त प्रत्येक दिवस बालक की ही स्मृति लिए जीवन की आधार भूत आवश्यकताएं एकत्र करते ॥ और माता संतति की देखा भाल में ही लगी रही मन में और कुछ भी ध्यान नहीं आता ॥ 

पालक संतति दिए जनम, नित नउ सुखु के आस । 
पर कुकरम काख के सह, कारें तिनके बिहास ॥ 
माता-पिता संतति को जन्म देते ही उसकी नित्य नए सुख की आस में रहते हैं किन्तु पीछे के किए कुकर्म होते कटाक्ष के साथ उन सुखों का परिहास करने से नहीं चूकते ॥ 

शनिवार, ०२ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

जेहि जेहि कारज किए राखा । तेहि तेहि तरु फर धरि साखा ॥ 
बोए न बिटप त होहि न छाईं । रहहि तिस जल ब्यर्थ बहाईं ॥ 
मनुष्य अपने जीवन में जो जो कार्य करता है यथार्थ के वृक्ष की शाखाओं में वही फल लगते हैं ॥ यदि विटप ही नहीं बोया तो फिर छाया नहीं मिलेगी, यदि जल व्यर्थ बहा तो प्यास शेष रहेगी ॥ 

बयस बरस बस पूरत राधे । पाए धुनी न पथ पद पयादे ॥ 
मुकहि रहि कछु बोले न चारे । आपै मन माहि किए हुँकारें ॥ 
(इसके ही फलस्वरूप) बालक की आयु एक वर्ष पूर्ण करने को है किन्तु पथ ने अभी तक उसके चरण चिन्हों के ध्वनी को नहीं सूना है ॥ बालक का मुख भी मौन मुद्रा लिए है,  उसमें शब्द प्रवेश नहीं किये हैं वह अपने मन से ही हुंकारे लेता है ॥ 

वाके बयसई इत उत भागे। तनुज अलप तर आसन लागे ॥ 
पालक लिखित बेर न कारे । बालक मन को  अहहैं बिकारे ॥ 
उसके समायु बालक इधर उधर भागने लगे हैं । पर वर-वधु का वह पुत्र, बैठने भर लगा हैं ॥ मात-पिता अब बिना देर किये यह समझ गए कि बालक के मानस में कोई रोग अथवा विकृति है ॥ 

लालन पालन लग बय लाहा । आरत जनि जन करइ न काहा ॥ 
जगत लबध सब केर उपाई । साँस बिहाइ न आस बिहाई ॥ 
रोगी बालक के पालक, संतति के पालन पोषण और उसके स्वास्थ प्राप्त करने हेतु क्या नहीं करते ।  संसार में जो उपाय उपलब्ध हैं  वे सारे उपाय कर  जब तक सांस होती है वे तब तक संतानों कि सुख की आस में रहते हैं ॥ 

बिधि रचित अरु काल बंच, लपट लहे सब कोइ । 
का धनी मन का निर्धन, वाके बस मह होइ ॥ 
जगत नियंता की रचना से और समय कि कुटिलता के लपेटे में सभी कोई आते हैं । क्या धनी और क्या निर्धन, इनके वश में तो सभी हैं ॥ 

सोमवार, ० ४ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                               

फिरअ निज गति काल चाका । कोउ हुँते सिध को हुँत बाँका ॥ 
बिलग बिलग जन बिलग कहानी । लेखत लेखनि बहुस बखानी ॥ 
समय का चक्र अपनी गति से घूमता रहा । जो किसे के लिए सीधा तो किसे के लिए कुटिल चलता ॥ अलग-अलग जनों अलग आत्म कहानी है जिसे लेखनी ने लिख लिख कर बहुंत प्रकार से कहा है ॥ 

सत साधन जे जोग जुगावें । तिनके करमन सब सहरावैं ॥ 
संयम पथ चर जो दिए दाईं । तिनके गुन जग जुग लग गाईं ॥ 
सत्य के साधन से जो दहन की व्यवस्था करता है उसके शुभ कर्मों को सभी सहराते है । और जो संयम के पथ पर चलते हुवे उसका नियंत्रित प्रयोग कर दान देता है ऐसे जनों के गुणों को यह संसार युगों तक बखान करता है ॥ 

सृजन सहायक जग जन पोषक । गहस जीवन जदपि धन सोषक ॥ 
बिषय भोग रत काम बिलासे । को जन रह माया के पासे ॥ 
यद्यपि गृहस्थ जीवन धन का शोषक होकर सृष्टि सृजन में सहायक होते हुवे जगत के प्राणियों का पोषण करता है ॥ फिर भी कोई जन होते हैं जो माया के मोह पाश में बांध कर विषय के भोगों में अनुरक्त हो नित्य विलासों की ही कामना करते हैं ॥ 

दंपतहु रही तिन सों जोरे । अधिक नहीं तौ थोरइ थोरे ॥ 
नाम धरे बर माया होही । भरण भरे बहु नाचत मोही ॥ 
दंपत भी उन्ही के जोड़ी मित्र थे । अधिक  नहीं तो थोई थोड़े अवश्य ही थे ॥ माया ने नाम ही ऐसा श्रेष्ठ रखा था भेष भरे नृत्य करती जो  अत्यधिक लुभावनी लगती ॥ 

बिधि रचियाए रूपहि ऐसे । अपहरइँ चित कैसे न कैसे ॥ 
विधि ने उसका रूप ही ऐसा रचा है कि वह किसी भी विधि से चित्त का हरण करने में समर्थ है ॥ 

बिप्रबुध हो सुबुधित हो, चाहे परम प्रबीन । 
माया मोह जाल लिये, कारे सकल अधीन ॥  
चाहे ज्ञानी हो या बुद्धिमान हो या परम प्रवीण क्यों न हों माया अपने मोह का जाल लिए सभी को अधीन कर लेती है ॥ 

मंगलवार, ०५ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                        

लागे दंपत भावी जोगन । कछु आप हुँत कछुक बालकन्ह ॥ 
नवल भवन के देवन रोके । मिता चरन मित ब्ययित होके ॥ 
फिर दम्पति अपने भविष्य की योजनाओं में लग गए । कुछ अपने लिए तो कुछ संतति के लिए ॥ (पहले) नए भवन के अंश दान को रोका फिर संयमित दिनचर्या एवं मित व्ययिता बरत कर : -- 

लिए मोल दुहु लघु धामा । रहहि दोउ पहले के दामा ॥ 
सासन बसति सन दूर बनाए । एहि कारन को गाहक न पाए ॥ 
दो छोटे छोटे भवन मोल लिए जो पूर्व में लिए गए भवन की रीत और उस एक भवन के मूल्य में दो थे ॥ यह छोटे भवन वसति से कुछ दूरी पर थे इस कारण से शासन को इसके ग्राहक नहीं मिल रहे थे ( अत: यह दम्पति को सरलता पूर्वक मिल गए)॥ 

अस दिवस एक बैठेइ ठारे । गृहस रहस पिय बचन उचारे ॥ 
जेइ नीति बर कहत अवाईं । बहोरि बधु सन्मुख दुहराईं ॥ 

हस्त सिद्धि घर पोष न पोषे । मम सेउकाइ राम भरोसे ।। 
छुटत काज जदि बिपद  सिरु परहिं । भाटक सह भाल घर त संचरहिं ॥ 
प्राप्त पारश्रमिक घर का पोषण करे ना करे मेरी यह नियोजन नियुक्ति भी स्थायी नहीं है ॥ यदि यह काम छूट गया और कोई वीपा सर ऊपर आ गई तो इन भवनों का भाड़े से घर तो भली प्रकार संचालित रहेगा ॥ 

भान न कोउ समउ के फेरे । बिपदा नउ झट कहुँ लै घेरे ॥ 
अजहुँत भए दुखि पुत लगि रूजा । जाने न कबहुँक आवै दूजा ॥ 
समय के फेर का कुछ पता नहीं है कोई नई विपदा कहीं से आए और घेर ले ॥ अभी तो हैम तनुज के रोग से ही दुखी है । अभी तो जाने और क्या समस्या उत्पन्न हो जाए ॥ 

सुनत बधु पिया के बचन, हाँ मह हाँ मेलाइ । 
सोची यहु पिय जी जान, कैसन करत कमाइ ॥ 
प्रियतम के ऐसे वचन सुनकर वधु केवल हाँ में हाँ मिलाती रही । सोचने लगी यह तो प्रियतम का जी ही जानता है कि कमाई कैसे की जाती है (और घर कैसे चलता है ) ॥ 

बुधवार, ० ६ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                         

चरन परस किन सों कर जोगे । खावै  कहुँकर डपट अजोगे ॥ 
कह निष्कासन को दिए धोंसे । मनहु सोइ जग पालै पोषें ॥ 
किसी के पैर पड़ो किसी के हाथ जोड़ो, कहीं पर किसी अयोग्य की फटकार खाओ । कोई काम से निष्कासन की धौंस दे रहा है मानो समस्त संसार का पालनहार वही है ॥ 

सिहान बस कहुँ को किए निंदा । धरत दोष परिहर गुन बृंदा ॥ 
तात-भ्रात करतन बनियाई । जान न सेवा जुग के नाईं ॥ 
कहीं पर कोई ईर्ष्या वश गुण समूहों का परित्याग कर केवल दोष ग्रहण करते हुवे कोई निंदा करता है । हमारे पिता और भ्राता का कार्य वाणिज्य करना है वो सेवा नियोजन की कुटिलता को नहीं जानते ( अत:अपनी भेद हे प्रिये तुम किसी से न कहना ) ॥  

देइ दान कर रहसइ निज घर । जोइ कहि न पर कँह तिन नागर ॥ 
कहत पिया सोई सुख पाई । घर के भेदी लंका ढाईं ॥ 
दिये हुवे दान और अपने घर के रहस्य का जो प्रचार नहीं करता वह चतुर कहलाता है ॥ और पीया कहते हैं वही सुखी भी रहता है । अपना भेद देने वाले अपने ही घर का नाश करते हैं (ऐसी कहावत है ) ॥ 

जाए कह कछु मात बहनाहीं । तिन्ह के उदर गाहे नाहीं ॥ 
हमरे घर के सकल कहानी । जाने सब तिनहि की बखानी ॥ 
यदि माता-बहनों को कुछ जाकर कहोगी तो उनका उदार भी कुछ ग्रहण नहीं करता ॥ अपने घर की सारी खानी जो जग जानता है इन्ही की तो बखानी हुई है ॥ 

जोगे का बरताएँ, का धरे रहे का दाए, । 
का कहे का ढकाएँ, रहहि पिया अस लेखी बहु , ॥ 
क्या रखें क्या दान करें क्या संभालें क्या उपयोग करें । क्या कहें क्या न कहें प्रियतम इन विषयों में बहुंत समझदार हैं ॥ 


गुरूवार, ०७ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

कहत पिया मुख सुमिरत आगे । सुरति चरन पथ पाछिन भागे ॥ 
कछुकन कथनन बैनइ नैने ॥ कछु कथनन अधरन सन बैने ॥ 
स्मरण करते हुवे प्रियतम आगे आगे कहते जाते और स्मृति के चरण पीछे छूटे पथों पर भागते जाते ॥ कुछ कथन  नयन वर्णित कर रहे थे, और कुछ कथन अधर वर्णन कर रहे थे ॥ 

दुइ अच्छर सुख दुःख के बाते । दुइ बच्छर बिरते दिन राते ॥ 
दुइ टहल दोइ जोग जुगावा ।  दुइ लहल दोइ प्रीत पिरावा ॥ 
दो अक्षर में सुख दुःख की बातें थी । दो अक्षरों में बीते हुवे दिन और रातें थी ॥ दो अक्षरों में सेवा-नियुक्ति की बाते थीं दो अक्षरों में योजन की बाते थीं ॥ दो में उधार तो दो अक्षरों में प्रेम और उसकी पीड़ा की ॥ 

बिहा परत पर भए छह माही । कर अनाथ बधु मात सिधाही ॥  
धरे बिछोहन उर पहिलौठे । भ्रून हतन के दूषन ओटे  ॥ 
परिणय पश्चात छह:मास में ही वधु को अनाथ कर माता स्वर्ग वासी हुईं । फिर ह्रदय पर पहले पुत्र का वियोग का दुःख फिर भ्रूण हत्या के दोष का भार को धारण किया ॥ 

पितु पछ घाते सास ससुराए । तिनके कलह कलि बरनि न जाए ॥ 
भई धिया एक  गह रुप भारी ॥ दूजन ठोटे भव रुज धारी ॥ 
पिताको पक्ष घात का रोग और सास स्वसुर उनकी तो काह क्लेश का वर्णन ही नहीं हो सकता । फिर एक स्वरुप श्री बालिका का जन्म  और फिर दूजा रोगी पुत्र का जन्म ॥ 

कहत दंपत लेख कलप , छह बच्छर के जोग । 
जीवन एक मेला भयो, जामे मिलन बिजोग ॥ 
लगभग छह:वर्षों के अपने वैवाहिक जीवन का लेखा जोखा कर दंपत कहते हैं । यह जीवन एक मेला है जिसमें मिलन के सह वियोग है ॥ 

शुक्रवार, ०८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                      

जनसागर लहि बहु आकर्षन । पद पद दरसन लागे लावन । 
जहाँ सुख कंद सम हिंडोले । जीवन साधन रस के गोले ॥ 
समुद्रवत् विशाल जन समूह बहुंत ही आकर्षण लिए है ।  और देश, राज्य, नगर, ग्राम-भाग और वहाँ के वासी देखने में बहुंत ही सुन्दर लगते हैं ॥ जहां सुख देनेवाले (भाव) हिंडोलों के जैसे हैं और जीवन के साधन सम्पदा रस के गोलों  के जैसे है ॥ 

भोग बिषय के साजहि ठेले । गतागत कीरी सोंह रेले ॥ 
मानख सिंह पख भालु कपिसे । भव बंधन के घारे फनिसे ॥ 
भोग विषय के रेहड़ियां लगी हैं । जीवन-मरण तो जैसे चींटी के पंक्तियों के सरिस आवागमन कर रहा है ॥ मनुष्य, सिंह पक्षी, भालु , बन्दर आदि प्राणी जगत,ही वह चीटियां हैं जो इस सांसारिक चक्र की फांस को अपने कंठ में वरण किये हुवे हैं ॥ 

जो एक बार तर्जन बिहाईं । भयउ दूर बिछुरत बिलगाईं ॥ 
केतक हेरत हेली लगाएँ । बहोरि तिन्हैं मेली न पाएँ ॥ 
इस मेले में जो भी एक बार तर्जनी उँगली चूड़ा लेता है, वह बिछड़कर दूर होका वियोजित हो जाता है ॥ फिर उसे कितना ही ढूंडो, कितनी ही पुकार लो वह वापस नहीं आता ॥ 

रति रानि सिंगार रस राजा । भाव प्रबन समुदाए समाजा ॥ 
प्रानि जाति दुइ नर एक नारी । मानख सबके पालनहारी ॥ 
यहाँ रस राज श्रृंगार ही राजा है और उसका स्थायी भाव रति ही रानी है ॥ यहाँ का समुदाय और समाज उससे भावविभूत है ॥ प्राणियों की प्रथम दो ही जाति हैं एक नर दूजी मादा । और प्राणी जगत का मनुष्य ही पालन हार है ॥ 

ना यह रहे न वह रहे, रह यह रेलम पेल । 
चार दिवस का चाँदना, चार दिवस का खेल ॥ 
न यह रहा न वह रहा केवल यह जन समुद्र ही रह गया । चार दिनों का यह मेला है चार दिनों का ही यहाँ खेलना-खाना है ॥ 

जन्में जगत सब बँधाए, मरनी जगत छुड़ाए । 
धन धाम जे पुर पट्टन,सबहि यहहि रहि जाए ॥  
भाव सिंधु में यह जन्म ही बंधन का कारण है । मृत्यु बंधन से मुक्ति है ? यह धन संपत्ति यह बीथि ये  नगरी ये देस यह सारा संसार (एक दिन) यहीं रह जाता है ॥ 

शनिवार, ०९ नवम्बर, २०१३                                                                                            

अस दंपत परस्पर बतियाए । सोच के गहन सिंधु गहियाए ॥ 
पुनि कलपत बधु गहरइ राता । कहतई कही हमरे सुत गाता ॥ 
इस प्रकार दम्पति पासपर वार्तालाप करते विचारों के गहरे सागर में डूबते चले गए । फिर गहन रात्रि में वधू आह !किये कहती चली गई हमारे पुत्र का शरीर : -- 

लेइ अंक तुम गवनै कहहीं । सयनइ हमरी जननी जहहीं ॥  
लिए चलौ न देखाउब सोईं । पाए पयद ते पावन रोईं ॥ 
जिसे गोद में लिए तुम कहीं गए थे क्या वहाँ जहां हमारी माता सो रही हैं ॥ एक बार मुझे वहाँ ले जा कर उनके दर्शन करा दो वह प्यास और गोद प्राप् करने के लिए रो तो नहीं रहा है ॥ 

तासु रुदन आवइ मम काना । कहि भूखन जनि दौ ना दाना ॥ 
चारि चरन चर घर घर पारे । कंठी कल कूलिनी कगारे । 
उसका क्रंदन मेरे कानों में सुनाई दे रहा है वह कह रहा है हे माता भूख लगी है भोजन दो ना ॥ सुमधुर स्वर निकालती हुई नदी का तट, चार पग चलते हुवे कुछ घर पार करके ही तो है ॥ 

ठाढ़े हम देख़उ एक कूला ॥ दूज मम लल्लन झुरत झूरा ॥ 
कहत लाल भुज दंड पसारे । हे मात मोहि अंतर धारे ॥ 
मैं एक कगार पर खड़े होकर देख रही हूँ, दूजे कगार पर मेरा लाल झूला झूल रहा है ॥ और वह  भुजा प्रलंबित कर कह रहा है, हे माता !मुझे गोद में ले लो ॥ 

निर्झरी नलिन नयन पर, चमके जल की बूँद । 
तलहटी तर घनबर पथ, धारे अधर समूँद ॥  
पहाड़ के सदृश्य स्थिर हो चुकी वधु की आँखों में जल की बुँदे चमक उठी । और तलहटी से उतरते हुवे मुख पथ से होते हुवे, वे बुँदे अधरों के सागर में समा गईं ॥

रविवार, १० नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                          

अरु कहि बधु सोइ भवन निरुजा । धरे अंतर बस चारहि भुजा ॥ 
तँह गत कहऊँ बैद गुहारे । हमरे जनित हमहि हतियारे ॥ 
और वधु कहती है वह औषधालय जो कि केवल चार हाथ की दूरी पर स्थित है ॥ वहाँ चलो वहाँ मैं वैद्य को गुहार लगाकर कहूंगी कि हमारी संतति के हम ही हत्यारे हैं ॥ 

अरु वाके मैं चरन धराऊँ । बिनइत तिन सों पूछ बुझाऊँ ॥ 
सो बालक सह तोतरि बाता । त्राहि मोहि कहि का मम माता ॥ 
और उनके चरण पकड़ कर विनय पूर्वक उनसे पूछूंगी क्या वह बालक जिसकी मैने हत्या की थी, हे माता मेरी रक्षा करो वह तोतली भाषा में ऐसे वचन कह रहा था क्या ॥ 

सीस चरण कर अंगीकारे । हरहराहत का हिय हँकारे ॥ 
तासु प्रान कहु कास बिधि हेरे । पातत तिन तुम कहु कँह केरे ॥ 
क्या उसके शीश और चरण आदि अंग आकारित हो गए थे और उसका हृदय स्पंदित होकर चीत्कार रहा था ॥ फिर उसके प्राण किस प्रकार निकले ।  पतन करने के पश्चात  तुमने उस भ्रूण का क्या किया ॥ 

अधम कुटिल मम मति कुबिचारी । जो ऐसेउ कलुख कृत कारीं ॥ 
कहि बधु मम सम पापि न होई । अस कुकरमन कारे न कोई ॥ 
मेरी बुद्धि उस समय अधम और वक्र हो गई थी जो उसने मेरे हाथों से ऐसा कुकृत्य करवाया  ।। वधु कहती है कि, मेरे समान जग में कोई पापी न होगा ऐसा कुकर्म तो कोई भी न करे ॥ 

कछु अस कहबत बहियर रोवत मनो भावइ बोलहीं । 
बदन अलिंदाधर पट बृंदा धुतत दमकत दोलहीं ॥ 
गहियत रैना बधु के नैना सुभ्रा सलौने साँवरे । 
अपलक ठाढ़े घन रस गाढ़े भरे बिंदुक बावरे ॥ 
कुछ ऐसा कहकर वधु ने भावुक होकर अपने मनो भावों का वर्णन किया । मुख के चबूतरे पर अधरों के द्वार स्वरुप  पल्लव समूह, दमकते, एवं कांपते हुवे हिलने-डुलने लगे ॥गहरी रात्रि में सुन्दर भृकुटि एवं लावण्ययुक्त युक्त श्यामल नयन अपलक होकर स्थिर हो चले उनमें जल गहराने लगा , फिर वे बावरे नैन बिंदुओं से भर गए ॥ 

हरिदै बिकल नयनारुन, छाई अश्रु की धूँद । 
श्रवन बार बहियर बचन, लिए निज नयनन  मूँद ॥ 
व्याकुल ह्रदय एवं अरुण नयन पर अश्रु  की धूँध छा गई  । वधु की बातों को सुनकर वर ने ( दुखित होकर) अपनी आँखें मूँद ली ॥ 

सोमवार, ११ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

पुनि हरिहर बर लिए उछ्बासे । धारे बधु भुजअंतर कासे ॥ 
अधीर हरिदै धीर धराईं । मृदुल बचन सन कही समुझाईं ॥ 
फिर वर धीरे से गहरी साँस लेते हुवे वधु को भुजाओं के अंतर ग्रहण कर उसके अधीर  ह्रदय को धीरज धराते हैं । और मृदुल वचनों के सह यह कहते हुवे समझाया ॥ 

लखन लहे जिन तुहरे लोचन । कहत जगत तिन थरि पितु कानन ॥ 
न कोउ रुदने न बाहु पसारे । होहि बस चित्त भरम तुहारे ॥ 
तुम्हारे लोचन जिसे देखना चाह रहे हैं । संसार भ में उस स्थान को शव मंदिर कहते हैं ॥ वहाँ न तो कोई क्रंदन कर रहा है न ही कोई बाहु पसारे हैं ॥ यह केवल तुम्हारे चित्त का भरम है ॥ 

जे जीवन पथ जी पथचारी । पथ दर्सक नख इंदु तमारी ॥ 
चरत आए तँह बहु सरनाई । पर मरन सोइ सरन बिहाई ॥ 
यह जीवन एक पथ है और यह जीवात्मा एक पथिक हैं । ये चाँद सूर्य तारे पथ प्रदर्शक हैं ॥ इस पथ पर आगमन पर बहुंत से पड़ाव आते हैं  पर जब मृत्यु आती है तो यह अंतिम पड़ाव सिद्ध होता है ॥ 

जो एक बार पैठि तिन आधी । सोइ सदा हुँत लहै समाधी ॥ 
 मरनी पर धर पार्थिव वपुरधर । तँह गवनै बस भुज अंक सिखर ॥ 
इस स्थान पर जिसका एक बार प्रवेश हुवा वह फिर वह यहाँ सदा के लिए समाधिस्थ हो जाता है ॥ मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर को लिये, यहाँ केवल गोद एवं कंधे ही आते हैं ॥ 

कातर करुणा सोक भर, हिय पर पाथर धार । 
रोवत रोवत रह जाएँ, वाके रोवनहार ॥ 
कातर स्वरुप में करुण होकर अति शोकाकुल हुवे ह्रदय पर फिर पत्थर धारा जाता है । और मरने वाले के प्रियजन केवल रोते ही रहा जाते हैं ॥ 

मंगलवार, १२ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                 

जो जे जग जब लग जिउताई । सो बहु जीवन करम बँधाई ॥ 
माया कहुँ छल छाया छाई । पुनि का पातक जानत नाहीं ॥ 
 इस जगत में जो जब तक जीता है तब तक वह बहुंत से जीवन कर्मों के साथ बंधा रहता है ॥ कहीं मोह कारिणी शक्ति तो कहीं यथार्थ को छिपाए हुवे छ कपट की छ्या छाई है ॥ 

अग लग जोइ रीति चली आई । कु चाहे सु जोइ पंथ चराईं ॥ 
रहत माझ कुल कुटुम समुदाए । तिन्ह ते हम सकै ना पराए ॥ 
प्रारम्भ से ही से जो रीतियाँ चली आईं है । चाहे कु हो या सु जिस मार्ग पर चलते आए ॥ कुटुम्बियों एवं समाज के मध्य रहते हम उनका विरोध नहीं कर सकते ॥ 

अखिल बिस्व निज कुटुम पुकारे । पर पीरन मह होहिं दुखारे ॥ 
जन जन जो जन आपनु करईं । सकल बाल निज संतति कहईं ॥ 
जो समस्त विश्व को अपना कहे । पराई पीड़ा में जो दुखित होए । जो कोई सभी जनों को अपना बना ले । और संसार की समस्त संततियों का संरक्षक हो जाएं ॥ 

जनम न हरषएँ मरन न रोवें । तिनके सम कहु को जन होवें ॥ 
जोइ हरिदै सकल हित चाही । सोइ पदक को पावत नाही ॥ 
जो जन्म होने से हर्षित न हों और मृत्यु पर शोक न करे । कहो तो उसके सामान कोई है ॥ जो ह्रदय सभी का हित चाहे उसके स्थान को कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता ॥ 

आप कि पराई जन्मन जिन हूँते एक समान । 
तिन सों नाहि को उपमा, तिन सों नहि उपमान ॥ 
अपना कि पराई संतति, जिनके लिए एक ही समान है । उसके सदृश्य कोई नहीं है न वह किसी के सदृश्य है ॥ 

बुधवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                 

ऐसेउ दोउ गहनइ राता । करत करत दुःख सुख के बाता ॥ 
पैठि जस सोन सपन दुवारे । निसा सिरानी भयौ भिनुसारे ॥ 
इस प्रकार से दोनों गहरी रात्रि में सुख-दुःख की बातें करते करते स्वपनों की सवर्णों द्वारी में प्रवेश किये निशा का समापन हुवा और भोर हो गई ॥ 

इहाँ मनोहर सुठि साँवर के । सास ससुर ननंद देवर के ॥ 
अगित लगित दुआर लग्नाहे । मोद मुदित पयोधि अवगाहे ।। 
इधर मन को हरण करने वाले सुन्दर श्यामल देवर का,वधु की स्नेही सास,श्वसुर, नन्द, लग्न तिथि के द्वार पर  आ लगने से हर्ष एवं प्रसन्नता के सागर में डूबने लगे ॥   

जुग  परस्पर दोउ बर भाई । बिय भव भावज भई सहाई ॥ 
जोइँ सँजोइ रहि जग जेते । परतस  परि जन दिए हूत जनेते ॥ 
दोनों बड़े भाइयों ने मिलकर, दोनों कुशल भौजाइयों की सहायता लेते हुवे । जग में जितनी वैवाहिक तैयारियाँ होती हैं उतनी तैयार कर फिर परिजनों को बारात का न्योता दिया ॥ 

भरे भरन बहु भवन अटारी । चारु चँवर अम्बर पट घारीं ॥ 
स्याम मनि सोन सँजोगित लरी । लगि कगारी सुन्दर मंजरी ॥ 
भवन खण्डों ने बहुंत से  आभरण भरे सुन्दर झालर वाले द्वारावरण से सुसज्जित हुवे नीलम के सदृश्य स्वर्ण आभा से युक्त लड़ियाँ भवन के कगारों पर लगी सुन्दर मंजरियों सी प्रतीत होती ॥ 

आवत-जावत भवन छबि, लोग बिलोकन लागि । 
रंग संग घुरत सुर रस, बिहाउ राग बिहागि ॥ 
आते -जाते लोग भवन की शोभा को निहारने लगते  । और विवाह के बिहाग राग, वाद्य यंत्रों के संग प्राप्त कर सुर का रस में घुलते जाते ॥ 

बृहस्पतिवार, १४ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                          

मध्य दुल्हाति सोह सुहावा । बहिनैं भावज रीति पुरावा ॥ 
तेल चढ़ाएँ बहोरि उतारैं । कलाई लगन कंकन घारैं ॥ 
बहनें और भोजाइयाँ रीतियाँ पूरी कर रही थीं । दुल्हा, बीच में अति सुशोभित हो रहा था ॥ तेल हल्दी चढ़ाई गई फिर उतारा गया । कलाईयाँ लग्न कंकण आभरित हुई ॥ 

पूछैं भावज सकुचत थोरे । कहु तौ छबि कस लागत मोरे ॥ 
सुन्दर सुखद नीकि चकिताई । यह कह भावज मुसुकाई ॥ 
फिर दुल्हे ने अपनी भावजों किंचित संकोच करते हुवे पूछा कहो तो मेरी शोभा केसी दर्श रही है ॥ तब भौजाइयों ने मुस्काते हुवे ऐसा कहा : --  'सुन्दर, सुखकारी, बहुंत अच्छी,विस्मयकारी,॥ 

देखु बिरंचि के बर काजा । एक दिवस के भयउ सब राजा ।। 
धर दुल्हा के भूषन भेसा । रूप कि कुरूप लगे रुपेसा ॥ 
देखो विधाता ने कितना सुन्दर प्रपंच किया है कि एक दिन के लिए सभी पुरुषों को राजा  होने का शौभाग्य प्राप्त होता है ॥ और फिर दुल्हे के वेश भूषा धारण करने से रूपवान हो या कुरूप हो सभी श्री रूप के स्वामी दर्शित होते हैं ॥ 

दरसत मुख छबि तुहरी कैसे । चले बिछावन नारद जैसे ॥ 
एक बार जोइ लेहु निहारी । दिन मलनाएँ रयन उजियारी ॥ 

तेइ समउ चित्र लेख उतारी । भावज बहु बिधि कौतुक कारी ॥ 
ब्यंग समझ उकसत अकुलाए । देउर दसा लिख कहि न जाए ॥ 

हाँस उराई भावज पर, धरे उरस बहु हेत । 
साँझ बरबधु के मस्तक, तेज तिलक मुद देत ॥ 

शुक्रवार, १ ५ नवम्बर, २०१३                                                                                  

चले बिहाउन देउर राजे । बोलएँ बहु बिधि बाजत बाजे ॥ 
झाँझ संख सन बाजि निसाना । साध सुधा सुर रागिन नाना ॥ 

बाजि तुरही किए मधु गायन । बृंद मिलि चले नारि नरायन ॥ 
बाज बहुसह दुंदुभी सुहाए । मानहु बरियातन दिए बधाए ॥ 

करत रीति सब दुआरि ढुकाइ । जँह तँह जुबतिन्ह मंगल गाइँ ॥ 
समधिक सब सादर सनमाने । समधियान समदत अगवाने ॥ 

जो काल रहि रयनि अँधियारी । जन शोभन सन जगमग कारी ॥ 
भेष भूषन किए कलाकारी । सकल सखिन्ह दुलहिन सँवारी ॥ 

सप्त पदिक सन भाँवरन , दंपत जोरे गाँठ । 
जस जस भँवर पँवर परे, तस तस गहनइ आँठ ॥ 

मंजु मुकुलित मंजरित, मंडल मंच बिलास । 
दुल्हा दुल्हन भाँवरे, मंजुल गति कर कास ।। 












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