पलक भवन खन घन अँधकारी । बरखत रितु हिन् धारिन बारी ॥
जनक सीकर कलस कर जोरे । कासि कसत बाँधइ एक डोरे ॥
पलकों के भवन खण्डों में घना अन्धकार छाया हुवा था । और बिना चौमासे के ही वर्षा धारा प्रवाह स्वरुप में वर्ष रही थी ॥ पितु ने उसकी बूंदों को हथेली में संचित करते हुवे, मुठिका में कस कर उसे एक डोरी से बाँध दिया ॥
अस दरसत धिय लइ अरु सुबुकी । लकत नयन कन लेइ डूबकी ॥
कहि कछु दिन पर भाइ जग आहि । एहि हूँते तुम्ह मोहि बिसराहि ॥
ऐसा दर्शकर बिटिया और अधिक सुबकी लेने लगी अलक्तक नेत्रों से बहते अश्रुजल में डुबकियां लेने लेते हुवे बोली -- कुछ दिवस पश्चात भैया इस संसार में आ जाएंगे इस हेतु आप मेरी अवहेलना कर रहे हो ||
पेम सनेह पयस मह पागी । बोले पितु बानी अनुरागी ॥
दोनउ जन्में जब एक अंगे । मान हठी कल केलएँ संगे ।।
प्रेम व् स्नेह रस में अनुरक्त अनुराग पूरित वाणी से पितु बोले - जब दोनों का जन्म एक ही देह से हुवा हो तब हठ
एके जनक जब एकेइ जाई । काहु तव मन भेद मति आई ॥
भ्रात सों तुम्ह अति मन भाईं। कारन तुम धन भई पराई ॥
तात बाल तनुजा ए सोंह, बुझात कह समुझाइ ।
सोन मुख हंसक हँसोंह, धिय सुहासिनि कहाइ ॥
गुरूवार, १७ अक्तूबर, २ ० १ ३
अतिसय सुख पावत एहि भाँती । रतिरत रीते कछू दिनु राती ॥
दिन मुख उदइत रबि मुख भाला । सँजोइ धिय बधु पठोइँ साला ॥
उत नवल भवन भाटक साईँ । छाँड़ि पुरब भवँ नौनित आईं ॥
सकल भाट जे कर सिध लेईं । नव मंदिर के लागा देईं ॥
इत धिय निसदिन केर पढ़ाईं । लिपि करमन बध ज्ञान बढ़ाईं ॥
भइ दछ ले चित दीछित पाठा । लिख लिख आखर आठ न आठा ॥
मात पिता गुरु जे सिख दिन्ही । केर कृपा कर जोगत लिन्ही ॥
उठाइ देह अलप कर डोली । हिरन नयन मुख मिट्ठू बोली ।।
अब दंपत उद्यत कटि बाँधे । धारन गरू नउ जीवन काँधे ॥
साज समाजत जोइ सँजोई । दोउ जात जनमन पथ जोई ॥
अजहुँत दंपत प्रसुत के अनुभव थोर न होइ ।
ए कारन रहि प्रिय परिजन,छंटन हिन् तिन सोइ ॥
शुक्रवार, १८ अक्तूबर, २ ० १ ३
जगमग जरत जगत उजियारी । हस्त मुकुल मंजुल मनियारी ॥
रज रथ पथ जल कन बरखाती । बहोरि अवाइ एक हिमराती ॥
चक चकइ तिन्ह चितबत दरसे । करस परस रोमावलि हरसे ॥
सोए सकल जन निरवन जोईं । उत बधू गर्भ रवकन होई ॥
बिते प्रसूत समउ सों नाईं । मनहु आपनु आप दुहराईं ॥
बहि रितु सीतर भीतर जारे । रयनहि रय भय पीर पहारे ॥
प्रतन प्रसव पिय गवने जँहहीं । जेहि बारहु पयानै तँहहीं ॥
कहि बैदु तहाँ तनि पथ जोगू । अजहुँ प्रसव न बयस संजोगू ॥
नौ मास दिनु दुइ चंदु चाढ़े । सूल सलग सांती लग ठाढ़ें ॥
भरे बिहान के गवने, चढ़े केतु कर सीस ।
पीर ऊपर पीर पड़े, बढ़े बधू के टीस ॥
शनिवार, १९ अक्तूबर, २ ० १ ३
धरि गर्भोपर सूल असहाहि । औरु थमान के बयस रहि नाहि ॥
बैदु जोग लगि निरिखन कारे । लै गवने पुनि प्रसव दुआरे ॥
पहिलै पहर घरी दुइ छन में । नउ जात जगत रोदित जनमें ॥
बैदु सहाइक अँकबर सेजे । तात मह मात गोदि सहेजे ॥
दरसत मुख छबि बाल मयंके । जननि जनक मह पितु लिए अंके ॥
बदन मनोहर मीर मयूखा । मनहु रयन रइ पत प्रत्यूखा ॥
नील सरोरुह निटिल नयंगे । मीर मौलि मुख मेलि तरंगे ॥
मंजुल तन के मोहकताई । गहन धन्बन घटा घन छाई ॥
लाल ललाम स्याम सुहावन । ललकित लोचन अति मन भावन ।।
जनमत पाए भगिनी कर सीसा । महा जनिक पितु देइ असीसा ॥
चारी फर लाग सुहाए, दम्पत के तरु साक ।
दोइ धरे दोइ सिराए, एक काचा एक पाक ॥
रवि/सोम २०/२१ अक्तूबर, २ ० १ ३
सुखद काल सुभ घरी जन्माए । ध्वजा दिवस सिसु चरण धराए ।
निरुज भवन जे प्रियजन जूरे । केरि सकल पितु बदन मधूरे ॥
बद्धपरब सब देइ बधाबन । अंगजवान भए अंगाजावन ॥
हरष पिय बड़ चरन सिरु नाई । सोंह बयस कर कंठ लगाईं ॥
ढार चार दिन निरुज निबासे । बहुरि बहुरि सिसु सन निज बासे ॥
चहुँतसहुँ मदन परब घन छाए । गुंजत कहत नउ जात अवाइ॥
छठ दिन लालन के छ्ठी आइ । बहु बिधि बादन बाजे बधाइ ॥
जागिन लागिन रागिन रंगे । करहि गान बहु तान तरंगे ॥
मृदु पल प्रसून पालन घारी । कबहुँक को कभु को हरुबारी ॥
बिरध श्रीकर सुमन बरखावहिं । बाल मुकुन के अस्तुति गावहिं ॥
रागि संग सुर भामिनी, कल नाद किये गूँज ।
जेसे मधु स्वर मधुकर, मञ्जुल मन्जरि पूँज ॥
अधराविन्दम् वदनारवींदम् । हस्तारविन्दम चर्णार्विन्दं ।
हृदयार्विंदे नयनार्विंदो । रोमावली श्यामल वर्णं ॥
जिसके अधर अलि वल्लभ के सदृश्य हैं, और मुख नीरज के सदृश्य हैं, जिसके चरणों -पाणि, पंकज और श्री कर के सदृश्य हैं जिसका ह्रदय नलिन के सदृश्य है जिसके नयन हरि नेत्र के सदृश्य हैं उसकी रोमावली श्याम वर्ण की है ॥
पयसार्विंदे कंजार्विंदे । रसिकार्विंदे रसितार्विंदे ।
उदरार्विंदे जठरार्विंदं। भरितावली सुपोटल भरणं ॥
जिसका पीयूष पुण्डरीक के सदृश्य है, वह अमृत अरविन्द के सदृश्य है, जिसकी जिह्वा राजीव के सदृश्य हैं और पीयूष की टपकती बूंदे जलज के सदृश्य हैं, पोषिता स्वरुप नव अन्न उदर में भी प्रकार से शिशु का पोषण कर रहा है ॥
रूपारविन्दम रुदनार्विंदं। स्वरार्विंदं मधुरार्विंदं ॥
कंठार्विंदं गंडार्विंदं । मालावली खमंडल वलयं ॥
जिसका स्वरुप उत्पल के सदृश्य है, उसका क्रंदन भी सरसिज के सदृश्य है,क्रंदन के स्वर सरोज के सदृश्य है, उसकी मधुरता अम्बुज के सदृश्य है, जिसका कंठ अंभोज के सदृश्य है कंठ चिन्ह सरसीरुह के सदृश्य है, कंठ से लिपटी माला में सौर्य मंडल पंक्ति बद्ध है ॥
कनकार्विंदं कणिकार्विंदं । हंसार्विंदं मुक्तार्विंदे ।
गुंजार्विंद: पुंजार्विंद । रसनावली सुमेखल वलितं ॥
स्वर्ण अरविन्द के सदृश्य है स्वर्ण कण अरविन्द के सदृश्य है रजत अरविन्द के सदृश्य है रजत युक्त मुक्तिक अरविन्द के सदृश्य है मोतियों का समूह अरविन्द समूह के सदृश्य है और राशि अरविन्द की ही राशि हैं ।। जो ओरियों से सुन्दर करधनी में वलयित है ॥
भालारविन्दम लक्षणारविन्दम। ललितार्विन्दं लग्नार्विंदं ।
तिलकारविन्दम तेजोर्विंदं । अक्षतावली अखिलखल अक्षितं ॥
मस्तक दृषोपम के सदृश्य है, मस्तक के लक्षण चिन्ह दृशाकांक्ष्य के सदृश्य हैं तिलक रविप्रिय् है के सदृश्य है, तिलक तेज रवि बन्धु के समान है उसके ऊपर् के अक्षत पंक्तियाँ सम्पूर्ण भूमि में अनश्वर है ॥
शीशारविन्दम शिखारविन्दम । असितार्विन्दं लसितार्विन्दं ।
कृतकार्विन्दं करजार्विदं । केशावली सुकुंडल कलितं ॥
शीश-शिखर वनरुह के सदृश्य है, कालिमा भी अरविन्द के सरिश्य है कालिमा की चमक अरविन्द के सदृश्य है जिसकी रचना अरविन्द के सदृश्य उँगलियों से की गई है केश की ऐसी पंक्तियाँ सुन्दर सवरूप कुंडलिका ग्रहण किये हुवे है ॥
वेशार्विन्दं श्रीलार्विदं | सुधितार्विन्दं वसितार्विन्दं |
दोलार्विन्दे चटुलार्विन्दं | पंचावली पल्लवल् पलितं ||
वेश भी अरविन्द के सदृश्य है वेश की शोभा अरविन्द से युक्त है और वह अरविन्द के जैसे ही रचा एवं पहनाया गया है । झूला भी अरविन्द के सदृश्य है उस पर चंचल अरविन्द के सदृश्य बालक को सुन्दर पलकों की सुन्दर पंक्तियों में वृद्ध जन रखे हैं ॥
गीतार्विन्दं अयनार्विन्दं | गीरार्विन्दे वंशार्विन्दे ||
छंदार्विन्दं बंधार्विंदे | विरदावली वयुनकल वृन्दं ||
जिसके गीत श्रीपुष्प के समान हैं, वीणादि साधन सहस्त्रार के सदृश्य हैं और वाणी कुशेशय के सदृश्य है और बाँसुरी इंदिवर के समान है ॥ जिसके छंद पद्म के सदृश्य है, उसका बंध पुष्कर के सदृश्य हैं, गुण कीर्तन कि पंक्तियाँ सुहावनी रीति से कोरस अर्थात समूह गान में आबद्ध हैं ॥
ऐसेउ बाल मुकुन के अंक अंक कल वृंद ।
अलंकरन कर रूपिने सकल सरुप अरविन्द ॥
इस प्रकार बाल मुकुंद कि समस्त सुन्दर देह और देह के समस्त चिन्ह-समूह (दोला, वस्त्राभूषणादि ) अलंकरन करते हुवे उसे अरविन्द के सवरूप में रूपांतरित किया गया ॥
लघु उपबन लघु लघु फुर लाखे । लघु पत पादप लघुकर साखे ॥
लघुत गगन लघु लघु घन छाई । दुइ छन लघु लघु कन बरखाईं ॥
लघुत भवन उत्सव लघुताईं। लघु बालक लघु पालउ पाईं ॥
लघुत पुंज सुर लघुत लगाईं । बहुत भामिनी गात सुहाईं ॥
लघुत काल पर दिन सुभ मंगल । लिखी लघुत पत द्विज लघु पल ॥
रीति कुल कर कूप कल पूजन । सीस कलस धर चक जल वंदन ॥
पूजै जस जनि तात भ्रात बर । जे जा बिथुरै बितै समउ पर ॥
आभरे भवन स्याम मनि सर । चौंक चौं पुर चारु चाँवर ॥
सौंहहि गृह बन पात सुमन फर । मंडित मंडप मंजुल भू तल ॥
प्रिय पुर प्रियजन ग्रहण निमंत्रण । चारु चरन चार करत आगमन ॥
आगत स्वागत तोरन, किए जन बिरध सुहास ।
तिनके सुख श्री बास सन, बासत सकल निबास ॥
मंगलवार, २२ अक्तूबर, २ ० १ ३
पितु भावज सह भ्रात पधारे । बनउन बालकिन्ह कर धारे ॥
अगउने सास ससुर समदाए । तिनके समदन बरनत न जाए ॥
लाए सँजो नाना उपहारे । हंस हिरन हरिमनि सिंगारे ॥
कंकन किंकनि नूपुर नौघर । मुख मधु बँसरी किसन बसन धर ॥
बाजि दुंदुभि बादन बृंदे । पाहुन भरि खान भवन अलिंदे ॥
चले सकल घरी सुभ मंगल । बिबिध बिधि बन पूजन कूप कल ॥
किए प्रबंधन बर जथा जोजन । स्वरुचित कर सकल रस भोजन ॥
भाव बहुँत पर सोभा थोरी । चाव बहुँ कर होड़ा होड़ी ॥
भूषण बसन धन जोग निधाने । सास ननद बधु दिए सनमाने ॥
पाए बयस बहु सूत बिआनी । कहत बचन कर असीस दानी ॥
दिवस सहित रजनी भोग, सहित रसित जल पान ।
बालक परब चरन जोग, चढ़ अंतिम सोपान ॥
बुधवार, २३ अक्तूबर, २ ० १ ३
आगत समद चले निज बासू । गहन असन जल पान सुपासू ॥
बाल परब की भइ सुभ रासी । सकल कार निपटै भल भाँती ॥
हॉट परब का समुझइ नाहीं । बाल मांस पर बहस उछाहीं ॥
फिरि बन मंडप खावत खेरी । बाल कनीका बेलन्हि घेरी ॥
पूछी जनि सन जे जन आहीं । का ए बालक तिन्ह सन जाहीं ॥
कहत जेहि सब अनुज पुकारे । तेहि भवन मह कँह त पधारे ॥
माइ बुझात बिहँस पुचकारी । तँह सन जँह सन तुम्ह पधारी ॥
अब जे रहहि तुम्हरे संगे । चरहि बढ़हि पढ़ि तवहि प्रसंगे ॥
माई बचन श्रवण सुरत, करत बहुस अनुराग ।
पाए हिलोरे धिय गाए, रस मस राग बिहाग ॥
गुरूवार, २४ अक्टूबर, २ ० १ ३
ते सरदा रितु रहि बहु सीतर । सरजु तरंगित अरु सिसु हरुबर ॥
ढक रल्लक तिन करत सिकाई । जस तस कर रितु लेइ बिदाई ॥
एही बिधि बहुस प्रकार सँभारी । जोग निरख बहु पालक पारीं ॥
चारि मॉस तनि काया धराए । कमल कांत कोमल मुख छाए ॥
पुनि एक दिन बधु बालक काखी । बिचित्र चरित्र मुख मुदरा लाखी ॥
जोए दसा मुख रहि लव लेसे । सोए बाल पुनि मूँद निमेसे ॥
मान भरम बधु सुरति न सोई । अहोरि-बहोरि जे बत होई ॥
अब लग बालक मात रस पाए । बाहिर असन कछु मुख न लगाए ॥
पठन पठाबएँ पाहिलै, तब दुज जन्में जोएँ ।
दंपत चरित दिए संदेस, बाल भले एकु दोए ॥
शुक्रवार, २५ अक्तूबर, २० १ ३
अजहुँ भए दुइ बछर पितु माई । जगत जाल समुझत सुरझाईं ॥
गृह के चाक चरइँ भल भाँती । कभु सहूँ सांत कबहु असांती ॥
बासि नगरहिं बसित संबंधी । जिनके सनेह दंपत निबँधी ॥
कबहु कोउ जब आए निबासे । तिनके भेस श्री गह बिलासे ॥
बात बचन कह साँस सुगंधे । गेह सन सकल उपबन गंधे ॥
कहत कहत जब हरुइँ सुहासे । रहे सेष अध् मुकुल बिकासे ॥
बूढ़े बिरध परम हितकारी । तेहि कर सिरु सनातन धारीं ॥
बहिनी भ्रात सह संगवारीं । संगहि सहाए सहक सुखारी ॥
भयउ भवन मुख मलिन प्रभ, लिए कर जोर बिदाए ।
अस जस को बधू भूषन, बसित बपुर परिहाए ॥
शनिवार, २६ अक्तूबर, २ ० १ ३
कबहुक दंपति समउ सुधीते । जाएँ तिनके मंदिर मंडिते ॥
किए पूजन जिमि देउ पधारीं । गेहिनी गेहि भए पूजारीं ॥
बधूटि पितु रहि बहु असहाई । ह्रदय घात पख रोग धराईं ॥
ते कारन पितु आइ ना पाएँ । बधू नाथ सन जा मेलि आएँ ॥
बंधे संबंध को दुइ चारे । बासित बास बसती बहारे ॥
भए को घर अवसरु पुनआही । छठी बरही कि परब बिहाही ॥
तब दंपत लिए जोइ समाजे । गत बाहिन तिन भवन बिराजें ॥
हेल मेल कर सकल प्रसंगे । जोग जुगावइँ सब एक संगे ॥
कह परस्पर सुख दुःख बतियाएँ । असहाइ सामरथ केर सहाएँ ॥
छोटन को दै कर सिरु धारे । लेइ बड़े सों कर उपहारै ॥
चरन फिरत नंदानंद, समद समद समदाए ।
आन मान दान तिनके, बरनन बरनि न जाए ॥
रविवार, २७ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहुरि दिवस एकु मंदिर जेठे । मेल मिलन बधुबर पेठे ॥
सूर किरन सन साँझ सुबरनी । जन संकुल सन पुर पथ सरनी ॥
अरस परस सरि सर फुरबारी । चरत मुदित भइ त्रिबिध बयारी ॥
फिरत गगन सौगंध प्रसंगे । बिहरत रहि तिन संग बिहंगे ॥
कतहुँ चरे जब पूछत कूजे । हमरे ही घर पिय कह बूझे ॥
बरबधु जब गह भीत पेठौनी । किये अगवान बधु जेठौनी ॥
बैसत बत कहीं दुइ जामिनी । एक देउर एक भसुर भामिनी ॥
तनिक समउ लग लोकत अंका । भइ अंगज तईं कहि ससंका ॥
तुहरे पुत भए अध् दस मासे । पर पल उलट पलते न हाँसे ।।
ताहि बय के बाल लीला, करे बहुसहि बिधान ।
कहु अबलग का तुम्हरे, गयउ तिन्पर ध्यान ॥
सोमवार,२८ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहुरै दंपत ले चित चिंतन । बाहि गमन गति रही चितबन सन ॥
जे संका मन रहहि अलपतर । ते भइ पोषित होहि पूर्न कर ॥
उत देउर गह गहस लसाही । पार धरी तिन बयस बिहाही ॥
रहि निहकरमन तिनके सुभाउ । पर निहकामी कलंक कषाउ ॥
गह गह भावज चरनन धारे । कह मात अहा मात पुकारे ॥
भोग असन पितु मात सहारे । ते कारन बस रहहि कुँआरे ॥
बिद्यालय लग बिद्या धारे । नाम बरे श्री कमल कुमारे ॥
धरि ग्रन्थ जुग अनेक बिधाना । धर्म ग्रंथ पावन श्रुति पुराना ॥
पठत पाठत स्तुती भजत मह रहि बहस प्रबीन ।
जे भयउ अकर्मन तिन्ह, कहत जगत मति हीन ॥
मंगलवार, २९ अक्तूबर,२ ० १ ३
बार बार पटु कह समुदाई । पुनि एक कनि पछ भवन पधाईं ॥
लरिकन गुन जोखत सब लोगे । कनियाँ हुँत लागे ते जोगे ॥
दरस कनियाँ समद समदाई । अगन लगन धर भई सगाई ॥
कनियाहु रहि बहु सरल सुभाए । दरसत तिन्ह लोचन सुख पाए ॥
कहत सासु बर हमरे ठोटे । का करि प्रभु मिलाए जब जोटे ॥
बिहँस कहहि तब कछुक पड़ोसी । होहिं बाल ताऊ कहु को पोषी ॥
प्रथम भाग पुनि रचे सरीरे । तिन्ह सासु कहि बहुसहि धीरे ॥
कहि गये भचन तुआसी दासे । सुनत उतरु सब लिए उछ्बासे ॥
एहि भाँति पालन पोषन, भार बरे सब हाथ ।
अनुज लगन जोइ सँजोइ लगे दोउ बर भ्रात ॥
बुधवार, ३० अक्तूबर २०१३
उरझ जाल इत बधु जीवन के । धरि बधु चित चिंतन लालन के ॥
चारिन घरी घटा कर छाई । कासत पुनि तन किरन तपाईं ॥
सिसु बैसन के बयस सिराहीं । अब लग बालक आसत नाहीं ॥
बिबिध तैल लइ साँझ सकारे । हस्त चरन सह तन मल्हारें ॥
प्रात जागे नाना उपाई । पूछत सब सथ करत बिहाई ॥
कभु को कहि ऐसेउ बिठारे । तब मति सरनि तिन्ह अनुसारे ॥
देउँ बहस मंतर मनमानी । जान कि अजान बधू न जानी ॥
कोउ बालक आसत बिलंबे । देइ को बिरध मन अवलंबे ॥
बहुरि दिवस एक साँझ समउ, पियतएँ पियत सनेह ।
तिरछत नयन निर्निमेष, करक बाल किए देह ॥
बृहस्पतिवार, ३१ अक्तूबर, २ ० १ ३
हिचकत बालक लिए उछबासे । आन फँसी साँसत मह साँसे ॥
दोइ पलक लग भइ साकारी । बहुरि बाल देही संचारी ॥
बालक पितु तब अचिरम आहीँ । धावत गवांए बैदक पाहीं ॥
भयउ जे चिन्ह लच्छन बोले । लेखि बैद ते भेषज मोले ॥
कहि बाल ग्रसे झटका रोगे । तिनके पीड़ित बहुसै लोगे ॥
एक दपमट एक बालक जोरी । बैद भवन ते चरन बहोरी ॥
बैद कथन पर मन नहि माने । लै बालक दूज नगरि पयाने ॥
पौर पौर चर देखे भलाए । तँह के बैद सोइ रूज बताए ॥
मंद कांत मुख प्रभ मलिनाइ । हार केर तँह तहुँ बहराइ ॥
आहत कहत बर बधु सउँ, किए बालक अँकवार ।
जीउन बहु लमे अजहुँ त, चरन धरे कुल चार ॥
जनक सीकर कलस कर जोरे । कासि कसत बाँधइ एक डोरे ॥
पलकों के भवन खण्डों में घना अन्धकार छाया हुवा था । और बिना चौमासे के ही वर्षा धारा प्रवाह स्वरुप में वर्ष रही थी ॥ पितु ने उसकी बूंदों को हथेली में संचित करते हुवे, मुठिका में कस कर उसे एक डोरी से बाँध दिया ॥
अस दरसत धिय लइ अरु सुबुकी । लकत नयन कन लेइ डूबकी ॥
कहि कछु दिन पर भाइ जग आहि । एहि हूँते तुम्ह मोहि बिसराहि ॥
ऐसा दर्शकर बिटिया और अधिक सुबकी लेने लगी अलक्तक नेत्रों से बहते अश्रुजल में डुबकियां लेने लेते हुवे बोली -- कुछ दिवस पश्चात भैया इस संसार में आ जाएंगे इस हेतु आप मेरी अवहेलना कर रहे हो ||
पेम सनेह पयस मह पागी । बोले पितु बानी अनुरागी ॥
दोनउ जन्में जब एक अंगे । मान हठी कल केलएँ संगे ।।
प्रेम व् स्नेह रस में अनुरक्त अनुराग पूरित वाणी से पितु बोले - जब दोनों का जन्म एक ही देह से हुवा हो तब हठ
एके जनक जब एकेइ जाई । काहु तव मन भेद मति आई ॥
भ्रात सों तुम्ह अति मन भाईं। कारन तुम धन भई पराई ॥
तात बाल तनुजा ए सोंह, बुझात कह समुझाइ ।
सोन मुख हंसक हँसोंह, धिय सुहासिनि कहाइ ॥
गुरूवार, १७ अक्तूबर, २ ० १ ३
अतिसय सुख पावत एहि भाँती । रतिरत रीते कछू दिनु राती ॥
दिन मुख उदइत रबि मुख भाला । सँजोइ धिय बधु पठोइँ साला ॥
उत नवल भवन भाटक साईँ । छाँड़ि पुरब भवँ नौनित आईं ॥
सकल भाट जे कर सिध लेईं । नव मंदिर के लागा देईं ॥
इत धिय निसदिन केर पढ़ाईं । लिपि करमन बध ज्ञान बढ़ाईं ॥
भइ दछ ले चित दीछित पाठा । लिख लिख आखर आठ न आठा ॥
मात पिता गुरु जे सिख दिन्ही । केर कृपा कर जोगत लिन्ही ॥
उठाइ देह अलप कर डोली । हिरन नयन मुख मिट्ठू बोली ।।
अब दंपत उद्यत कटि बाँधे । धारन गरू नउ जीवन काँधे ॥
साज समाजत जोइ सँजोई । दोउ जात जनमन पथ जोई ॥
अजहुँत दंपत प्रसुत के अनुभव थोर न होइ ।
ए कारन रहि प्रिय परिजन,छंटन हिन् तिन सोइ ॥
शुक्रवार, १८ अक्तूबर, २ ० १ ३
जगमग जरत जगत उजियारी । हस्त मुकुल मंजुल मनियारी ॥
रज रथ पथ जल कन बरखाती । बहोरि अवाइ एक हिमराती ॥
चक चकइ तिन्ह चितबत दरसे । करस परस रोमावलि हरसे ॥
सोए सकल जन निरवन जोईं । उत बधू गर्भ रवकन होई ॥
बिते प्रसूत समउ सों नाईं । मनहु आपनु आप दुहराईं ॥
बहि रितु सीतर भीतर जारे । रयनहि रय भय पीर पहारे ॥
प्रतन प्रसव पिय गवने जँहहीं । जेहि बारहु पयानै तँहहीं ॥
कहि बैदु तहाँ तनि पथ जोगू । अजहुँ प्रसव न बयस संजोगू ॥
नौ मास दिनु दुइ चंदु चाढ़े । सूल सलग सांती लग ठाढ़ें ॥
भरे बिहान के गवने, चढ़े केतु कर सीस ।
पीर ऊपर पीर पड़े, बढ़े बधू के टीस ॥
शनिवार, १९ अक्तूबर, २ ० १ ३
धरि गर्भोपर सूल असहाहि । औरु थमान के बयस रहि नाहि ॥
बैदु जोग लगि निरिखन कारे । लै गवने पुनि प्रसव दुआरे ॥
पहिलै पहर घरी दुइ छन में । नउ जात जगत रोदित जनमें ॥
बैदु सहाइक अँकबर सेजे । तात मह मात गोदि सहेजे ॥
दरसत मुख छबि बाल मयंके । जननि जनक मह पितु लिए अंके ॥
बदन मनोहर मीर मयूखा । मनहु रयन रइ पत प्रत्यूखा ॥
नील सरोरुह निटिल नयंगे । मीर मौलि मुख मेलि तरंगे ॥
मंजुल तन के मोहकताई । गहन धन्बन घटा घन छाई ॥
लाल ललाम स्याम सुहावन । ललकित लोचन अति मन भावन ।।
जनमत पाए भगिनी कर सीसा । महा जनिक पितु देइ असीसा ॥
चारी फर लाग सुहाए, दम्पत के तरु साक ।
दोइ धरे दोइ सिराए, एक काचा एक पाक ॥
रवि/सोम २०/२१ अक्तूबर, २ ० १ ३
सुखद काल सुभ घरी जन्माए । ध्वजा दिवस सिसु चरण धराए ।
निरुज भवन जे प्रियजन जूरे । केरि सकल पितु बदन मधूरे ॥
बद्धपरब सब देइ बधाबन । अंगजवान भए अंगाजावन ॥
हरष पिय बड़ चरन सिरु नाई । सोंह बयस कर कंठ लगाईं ॥
ढार चार दिन निरुज निबासे । बहुरि बहुरि सिसु सन निज बासे ॥
चहुँतसहुँ मदन परब घन छाए । गुंजत कहत नउ जात अवाइ॥
छठ दिन लालन के छ्ठी आइ । बहु बिधि बादन बाजे बधाइ ॥
जागिन लागिन रागिन रंगे । करहि गान बहु तान तरंगे ॥
मृदु पल प्रसून पालन घारी । कबहुँक को कभु को हरुबारी ॥
बिरध श्रीकर सुमन बरखावहिं । बाल मुकुन के अस्तुति गावहिं ॥
रागि संग सुर भामिनी, कल नाद किये गूँज ।
जेसे मधु स्वर मधुकर, मञ्जुल मन्जरि पूँज ॥
अधराविन्दम् वदनारवींदम् । हस्तारविन्दम चर्णार्विन्दं ।
हृदयार्विंदे नयनार्विंदो । रोमावली श्यामल वर्णं ॥
जिसके अधर अलि वल्लभ के सदृश्य हैं, और मुख नीरज के सदृश्य हैं, जिसके चरणों -पाणि, पंकज और श्री कर के सदृश्य हैं जिसका ह्रदय नलिन के सदृश्य है जिसके नयन हरि नेत्र के सदृश्य हैं उसकी रोमावली श्याम वर्ण की है ॥
पयसार्विंदे कंजार्विंदे । रसिकार्विंदे रसितार्विंदे ।
उदरार्विंदे जठरार्विंदं। भरितावली सुपोटल भरणं ॥
जिसका पीयूष पुण्डरीक के सदृश्य है, वह अमृत अरविन्द के सदृश्य है, जिसकी जिह्वा राजीव के सदृश्य हैं और पीयूष की टपकती बूंदे जलज के सदृश्य हैं, पोषिता स्वरुप नव अन्न उदर में भी प्रकार से शिशु का पोषण कर रहा है ॥
रूपारविन्दम रुदनार्विंदं। स्वरार्विंदं मधुरार्विंदं ॥
कंठार्विंदं गंडार्विंदं । मालावली खमंडल वलयं ॥
जिसका स्वरुप उत्पल के सदृश्य है, उसका क्रंदन भी सरसिज के सदृश्य है,क्रंदन के स्वर सरोज के सदृश्य है, उसकी मधुरता अम्बुज के सदृश्य है, जिसका कंठ अंभोज के सदृश्य है कंठ चिन्ह सरसीरुह के सदृश्य है, कंठ से लिपटी माला में सौर्य मंडल पंक्ति बद्ध है ॥
कनकार्विंदं कणिकार्विंदं । हंसार्विंदं मुक्तार्विंदे ।
गुंजार्विंद: पुंजार्विंद । रसनावली सुमेखल वलितं ॥
स्वर्ण अरविन्द के सदृश्य है स्वर्ण कण अरविन्द के सदृश्य है रजत अरविन्द के सदृश्य है रजत युक्त मुक्तिक अरविन्द के सदृश्य है मोतियों का समूह अरविन्द समूह के सदृश्य है और राशि अरविन्द की ही राशि हैं ।। जो ओरियों से सुन्दर करधनी में वलयित है ॥
भालारविन्दम लक्षणारविन्दम। ललितार्विन्दं लग्नार्विंदं ।
तिलकारविन्दम तेजोर्विंदं । अक्षतावली अखिलखल अक्षितं ॥
मस्तक दृषोपम के सदृश्य है, मस्तक के लक्षण चिन्ह दृशाकांक्ष्य के सदृश्य हैं तिलक रविप्रिय् है के सदृश्य है, तिलक तेज रवि बन्धु के समान है उसके ऊपर् के अक्षत पंक्तियाँ सम्पूर्ण भूमि में अनश्वर है ॥
शीशारविन्दम शिखारविन्दम । असितार्विन्दं लसितार्विन्दं ।
कृतकार्विन्दं करजार्विदं । केशावली सुकुंडल कलितं ॥
शीश-शिखर वनरुह के सदृश्य है, कालिमा भी अरविन्द के सरिश्य है कालिमा की चमक अरविन्द के सदृश्य है जिसकी रचना अरविन्द के सदृश्य उँगलियों से की गई है केश की ऐसी पंक्तियाँ सुन्दर सवरूप कुंडलिका ग्रहण किये हुवे है ॥
वेशार्विन्दं श्रीलार्विदं | सुधितार्विन्दं वसितार्विन्दं |
दोलार्विन्दे चटुलार्विन्दं | पंचावली पल्लवल् पलितं ||
वेश भी अरविन्द के सदृश्य है वेश की शोभा अरविन्द से युक्त है और वह अरविन्द के जैसे ही रचा एवं पहनाया गया है । झूला भी अरविन्द के सदृश्य है उस पर चंचल अरविन्द के सदृश्य बालक को सुन्दर पलकों की सुन्दर पंक्तियों में वृद्ध जन रखे हैं ॥
गीतार्विन्दं अयनार्विन्दं | गीरार्विन्दे वंशार्विन्दे ||
छंदार्विन्दं बंधार्विंदे | विरदावली वयुनकल वृन्दं ||
जिसके गीत श्रीपुष्प के समान हैं, वीणादि साधन सहस्त्रार के सदृश्य हैं और वाणी कुशेशय के सदृश्य है और बाँसुरी इंदिवर के समान है ॥ जिसके छंद पद्म के सदृश्य है, उसका बंध पुष्कर के सदृश्य हैं, गुण कीर्तन कि पंक्तियाँ सुहावनी रीति से कोरस अर्थात समूह गान में आबद्ध हैं ॥
ऐसेउ बाल मुकुन के अंक अंक कल वृंद ।
अलंकरन कर रूपिने सकल सरुप अरविन्द ॥
इस प्रकार बाल मुकुंद कि समस्त सुन्दर देह और देह के समस्त चिन्ह-समूह (दोला, वस्त्राभूषणादि ) अलंकरन करते हुवे उसे अरविन्द के सवरूप में रूपांतरित किया गया ॥
लघु उपबन लघु लघु फुर लाखे । लघु पत पादप लघुकर साखे ॥
लघुत गगन लघु लघु घन छाई । दुइ छन लघु लघु कन बरखाईं ॥
लघुत भवन उत्सव लघुताईं। लघु बालक लघु पालउ पाईं ॥
लघुत पुंज सुर लघुत लगाईं । बहुत भामिनी गात सुहाईं ॥
लघुत काल पर दिन सुभ मंगल । लिखी लघुत पत द्विज लघु पल ॥
रीति कुल कर कूप कल पूजन । सीस कलस धर चक जल वंदन ॥
पूजै जस जनि तात भ्रात बर । जे जा बिथुरै बितै समउ पर ॥
आभरे भवन स्याम मनि सर । चौंक चौं पुर चारु चाँवर ॥
सौंहहि गृह बन पात सुमन फर । मंडित मंडप मंजुल भू तल ॥
प्रिय पुर प्रियजन ग्रहण निमंत्रण । चारु चरन चार करत आगमन ॥
आगत स्वागत तोरन, किए जन बिरध सुहास ।
तिनके सुख श्री बास सन, बासत सकल निबास ॥
मंगलवार, २२ अक्तूबर, २ ० १ ३
पितु भावज सह भ्रात पधारे । बनउन बालकिन्ह कर धारे ॥
अगउने सास ससुर समदाए । तिनके समदन बरनत न जाए ॥
लाए सँजो नाना उपहारे । हंस हिरन हरिमनि सिंगारे ॥
कंकन किंकनि नूपुर नौघर । मुख मधु बँसरी किसन बसन धर ॥
बाजि दुंदुभि बादन बृंदे । पाहुन भरि खान भवन अलिंदे ॥
चले सकल घरी सुभ मंगल । बिबिध बिधि बन पूजन कूप कल ॥
किए प्रबंधन बर जथा जोजन । स्वरुचित कर सकल रस भोजन ॥
भाव बहुँत पर सोभा थोरी । चाव बहुँ कर होड़ा होड़ी ॥
भूषण बसन धन जोग निधाने । सास ननद बधु दिए सनमाने ॥
पाए बयस बहु सूत बिआनी । कहत बचन कर असीस दानी ॥
दिवस सहित रजनी भोग, सहित रसित जल पान ।
बालक परब चरन जोग, चढ़ अंतिम सोपान ॥
बुधवार, २३ अक्तूबर, २ ० १ ३
आगत समद चले निज बासू । गहन असन जल पान सुपासू ॥
बाल परब की भइ सुभ रासी । सकल कार निपटै भल भाँती ॥
हॉट परब का समुझइ नाहीं । बाल मांस पर बहस उछाहीं ॥
फिरि बन मंडप खावत खेरी । बाल कनीका बेलन्हि घेरी ॥
पूछी जनि सन जे जन आहीं । का ए बालक तिन्ह सन जाहीं ॥
कहत जेहि सब अनुज पुकारे । तेहि भवन मह कँह त पधारे ॥
माइ बुझात बिहँस पुचकारी । तँह सन जँह सन तुम्ह पधारी ॥
अब जे रहहि तुम्हरे संगे । चरहि बढ़हि पढ़ि तवहि प्रसंगे ॥
माई बचन श्रवण सुरत, करत बहुस अनुराग ।
पाए हिलोरे धिय गाए, रस मस राग बिहाग ॥
गुरूवार, २४ अक्टूबर, २ ० १ ३
ते सरदा रितु रहि बहु सीतर । सरजु तरंगित अरु सिसु हरुबर ॥
ढक रल्लक तिन करत सिकाई । जस तस कर रितु लेइ बिदाई ॥
एही बिधि बहुस प्रकार सँभारी । जोग निरख बहु पालक पारीं ॥
चारि मॉस तनि काया धराए । कमल कांत कोमल मुख छाए ॥
पुनि एक दिन बधु बालक काखी । बिचित्र चरित्र मुख मुदरा लाखी ॥
जोए दसा मुख रहि लव लेसे । सोए बाल पुनि मूँद निमेसे ॥
मान भरम बधु सुरति न सोई । अहोरि-बहोरि जे बत होई ॥
अब लग बालक मात रस पाए । बाहिर असन कछु मुख न लगाए ॥
पठन पठाबएँ पाहिलै, तब दुज जन्में जोएँ ।
दंपत चरित दिए संदेस, बाल भले एकु दोए ॥
शुक्रवार, २५ अक्तूबर, २० १ ३
अजहुँ भए दुइ बछर पितु माई । जगत जाल समुझत सुरझाईं ॥
गृह के चाक चरइँ भल भाँती । कभु सहूँ सांत कबहु असांती ॥
बासि नगरहिं बसित संबंधी । जिनके सनेह दंपत निबँधी ॥
कबहु कोउ जब आए निबासे । तिनके भेस श्री गह बिलासे ॥
बात बचन कह साँस सुगंधे । गेह सन सकल उपबन गंधे ॥
कहत कहत जब हरुइँ सुहासे । रहे सेष अध् मुकुल बिकासे ॥
बूढ़े बिरध परम हितकारी । तेहि कर सिरु सनातन धारीं ॥
बहिनी भ्रात सह संगवारीं । संगहि सहाए सहक सुखारी ॥
भयउ भवन मुख मलिन प्रभ, लिए कर जोर बिदाए ।
अस जस को बधू भूषन, बसित बपुर परिहाए ॥
शनिवार, २६ अक्तूबर, २ ० १ ३
कबहुक दंपति समउ सुधीते । जाएँ तिनके मंदिर मंडिते ॥
किए पूजन जिमि देउ पधारीं । गेहिनी गेहि भए पूजारीं ॥
बधूटि पितु रहि बहु असहाई । ह्रदय घात पख रोग धराईं ॥
ते कारन पितु आइ ना पाएँ । बधू नाथ सन जा मेलि आएँ ॥
बंधे संबंध को दुइ चारे । बासित बास बसती बहारे ॥
भए को घर अवसरु पुनआही । छठी बरही कि परब बिहाही ॥
तब दंपत लिए जोइ समाजे । गत बाहिन तिन भवन बिराजें ॥
हेल मेल कर सकल प्रसंगे । जोग जुगावइँ सब एक संगे ॥
कह परस्पर सुख दुःख बतियाएँ । असहाइ सामरथ केर सहाएँ ॥
छोटन को दै कर सिरु धारे । लेइ बड़े सों कर उपहारै ॥
चरन फिरत नंदानंद, समद समद समदाए ।
आन मान दान तिनके, बरनन बरनि न जाए ॥
रविवार, २७ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहुरि दिवस एकु मंदिर जेठे । मेल मिलन बधुबर पेठे ॥
सूर किरन सन साँझ सुबरनी । जन संकुल सन पुर पथ सरनी ॥
अरस परस सरि सर फुरबारी । चरत मुदित भइ त्रिबिध बयारी ॥
फिरत गगन सौगंध प्रसंगे । बिहरत रहि तिन संग बिहंगे ॥
कतहुँ चरे जब पूछत कूजे । हमरे ही घर पिय कह बूझे ॥
बरबधु जब गह भीत पेठौनी । किये अगवान बधु जेठौनी ॥
बैसत बत कहीं दुइ जामिनी । एक देउर एक भसुर भामिनी ॥
तनिक समउ लग लोकत अंका । भइ अंगज तईं कहि ससंका ॥
तुहरे पुत भए अध् दस मासे । पर पल उलट पलते न हाँसे ।।
ताहि बय के बाल लीला, करे बहुसहि बिधान ।
कहु अबलग का तुम्हरे, गयउ तिन्पर ध्यान ॥
सोमवार,२८ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहुरै दंपत ले चित चिंतन । बाहि गमन गति रही चितबन सन ॥
जे संका मन रहहि अलपतर । ते भइ पोषित होहि पूर्न कर ॥
उत देउर गह गहस लसाही । पार धरी तिन बयस बिहाही ॥
रहि निहकरमन तिनके सुभाउ । पर निहकामी कलंक कषाउ ॥
गह गह भावज चरनन धारे । कह मात अहा मात पुकारे ॥
भोग असन पितु मात सहारे । ते कारन बस रहहि कुँआरे ॥
बिद्यालय लग बिद्या धारे । नाम बरे श्री कमल कुमारे ॥
धरि ग्रन्थ जुग अनेक बिधाना । धर्म ग्रंथ पावन श्रुति पुराना ॥
पठत पाठत स्तुती भजत मह रहि बहस प्रबीन ।
जे भयउ अकर्मन तिन्ह, कहत जगत मति हीन ॥
मंगलवार, २९ अक्तूबर,२ ० १ ३
बार बार पटु कह समुदाई । पुनि एक कनि पछ भवन पधाईं ॥
लरिकन गुन जोखत सब लोगे । कनियाँ हुँत लागे ते जोगे ॥
दरस कनियाँ समद समदाई । अगन लगन धर भई सगाई ॥
कनियाहु रहि बहु सरल सुभाए । दरसत तिन्ह लोचन सुख पाए ॥
कहत सासु बर हमरे ठोटे । का करि प्रभु मिलाए जब जोटे ॥
बिहँस कहहि तब कछुक पड़ोसी । होहिं बाल ताऊ कहु को पोषी ॥
प्रथम भाग पुनि रचे सरीरे । तिन्ह सासु कहि बहुसहि धीरे ॥
कहि गये भचन तुआसी दासे । सुनत उतरु सब लिए उछ्बासे ॥
एहि भाँति पालन पोषन, भार बरे सब हाथ ।
अनुज लगन जोइ सँजोइ लगे दोउ बर भ्रात ॥
बुधवार, ३० अक्तूबर २०१३
उरझ जाल इत बधु जीवन के । धरि बधु चित चिंतन लालन के ॥
चारिन घरी घटा कर छाई । कासत पुनि तन किरन तपाईं ॥
सिसु बैसन के बयस सिराहीं । अब लग बालक आसत नाहीं ॥
बिबिध तैल लइ साँझ सकारे । हस्त चरन सह तन मल्हारें ॥
प्रात जागे नाना उपाई । पूछत सब सथ करत बिहाई ॥
कभु को कहि ऐसेउ बिठारे । तब मति सरनि तिन्ह अनुसारे ॥
देउँ बहस मंतर मनमानी । जान कि अजान बधू न जानी ॥
कोउ बालक आसत बिलंबे । देइ को बिरध मन अवलंबे ॥
बहुरि दिवस एक साँझ समउ, पियतएँ पियत सनेह ।
तिरछत नयन निर्निमेष, करक बाल किए देह ॥
बृहस्पतिवार, ३१ अक्तूबर, २ ० १ ३
हिचकत बालक लिए उछबासे । आन फँसी साँसत मह साँसे ॥
दोइ पलक लग भइ साकारी । बहुरि बाल देही संचारी ॥
बालक पितु तब अचिरम आहीँ । धावत गवांए बैदक पाहीं ॥
भयउ जे चिन्ह लच्छन बोले । लेखि बैद ते भेषज मोले ॥
कहि बाल ग्रसे झटका रोगे । तिनके पीड़ित बहुसै लोगे ॥
एक दपमट एक बालक जोरी । बैद भवन ते चरन बहोरी ॥
बैद कथन पर मन नहि माने । लै बालक दूज नगरि पयाने ॥
पौर पौर चर देखे भलाए । तँह के बैद सोइ रूज बताए ॥
मंद कांत मुख प्रभ मलिनाइ । हार केर तँह तहुँ बहराइ ॥
आहत कहत बर बधु सउँ, किए बालक अँकवार ।
जीउन बहु लमे अजहुँ त, चरन धरे कुल चार ॥
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