कहत पिया पुनि लै उछ्बासे । कुंजी धरि कल नवल निवासे ॥
गह बसन मन माह ललासे । पर बय़ अस नहि कि जाएं बासे ॥
अजहूँत पानि करम दृढ नाही । का भरोस कब कर छुट जाहीं ॥
आगिन कारज करतल देवक । का जन मिलि न को पद सेवक ॥
होनिहार जी न जान अब की । न जान कस समउ आन अब की ॥
समझ बूझ बहु सोच बिचारू । मति पुर्बक तुम गह संचारू ॥
कहि बधू प्रभु तुम अंतर जामी । हम तव सेवक तुम्ह भए स्वामी ॥
पूरत आयसु जस तुम दिन्हा । चरन चरहि तुहरे पद चिन्हा ॥
तेहि बेर बर बधु संवादे । अस जस को मुनि दम्पत वादें ॥
ज्ञान मई गम जोगित बानी । जोगित गुन सुभ लखन निधानी ॥
जिन गृह श्री मद हिन् रहे, रहे बहुस प्रद कार ।
तिन गृह श्री जुग बर लहे, निसदिन करत बिहार ।।
बुधवार, ०२ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहुरि भवन भरु किए बिनु देरी । भाटक देवन निरनइ केरी ॥
कहि भवन भाट रासि उगाहीं । गृह चारन ते होहि सहाहीं ॥
भवन भूयसह भबिल भबीला । तिन कर्षन जस कासित कीला ॥
भवन नयन जब लगे निहारे । दरसत चौंक चौंक चौबारे ॥
आए भवन के लेवनहारे । भूरिहि बहुसह दरस दुआरे ॥
आँगे बाँगे बन बहुरूपिये । करखन करून धन दिये न दिये ॥
जोगत जिखत आए एक सजन । पठ पाठन के सुठि कार करन ॥
तिनके सुभकर भवनन देई । मह्बर करक करषीनि लेई॥
जोग करत भवन निज पत, लोचन पंथ लगाए ।
अवाइ पराइ ए श्रवनत, मलिन प्रभा मुख छाए ॥
गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३
निज स्वामि सेवा अभिलाखे । भाउ भवन मन ही मन राखे ॥
ललसत पत पद पदुम परागा । बसित बसथ सथ बसति बिरागा ॥
भवन सुता सुठि बसन दसाई । केर नयन पट पलक निचाई ॥
सोचि अजहूँ लगि चौंक सगाहीं। जाने कब पितु लगन लगाही ॥
दुचंदु दिन जब चौंक न दरसे । लखन कखन सों दरसन तरसे ॥
बहुरि एक दिवस पलक उघारी । भाउ प्रबन पुर चौंक निहारी ॥
अदरस कारन पूछ बुझाईं । कखन बयस पल कह समुझाई ॥
भए बहु भाउक चौंक कथनाए । तव दरसन बिनु भव कछु न भाए ॥
छन भर कख प्रिय संगमन, नयन निवेदन दाए ।
पुनर मिलन के ले बचन, दूइ प्रनई बिलगाए ॥
शुक्रवार, ०४ अक्तूबर, २ ० १ ३
मात-भ्रात पितु रहि नहि भाना । लवन नउ भवन दिए नहि काना ॥
कारन तिन मन भरि भीरुताइ । लेव न दइ भूमि हिन् भवनाइ ॥
लेवन गृह तिन परतइ काना । दरसत प्रबचन देवति नाना ॥
भइ केवल गह तीन कोठ खन । कहूँ बैठन न एकहु सुठि आँगन ॥
कहते चलन ए दरसे कहि ना । देहरि द्वार भू भित धरि ना ॥
तेइ बय कह तिन्ह समुझाना । बहस कठिन रहि कहत बुझाना ॥
नगर बीच बट धरनी धराए । एहि हूँते भवन भूहिन सुहाए ॥
बाट बीच भू मूलइ लैने । बचे न अजहूँत को कर ठेने ॥
जे रही ते बहु मोल धराईं । ता पर लगि धन भवन बनाई ॥
सोचि करन चरन प्रबेस, अजहूँत भइ बहु बेर ।
तब लग कान देइ देहि, तिन मन हेरन फेर ॥
शनिवार,०५ अक्तूबर, २ ० १ ३
एहि भाँति बधू जीवन साथे । धारइ निज कर करतल नाथे ॥
प्रीत पूरित तनि दिवस बिताइ । सूरत धरत पिय जगत परिहाइ ॥
उत बिरंचक छन छन चुन के । जोगत जुगबन दिन दिन बुनके ॥
सकल काल सुठि माल पिरोईं । बरस कोष के भाल सँजोईं ॥
फिरत थिरत थर गृह बन ठोटी । मृदुल मुकुल मइ लवनइ होंटी ॥
कभु तात कभु मात कह हांक़ी । दिसत दिसत दुइ बरख नहाकी ॥
भोजन रस तन सारत सोषी । मनु कुमुदनि रस कौमुदि पोषी ॥
काइ कलेबर कोमलि कूटे । निभ नलिनी नउ पल्लउ फ़ूटे ॥
केस कुंडल कलिक अलिक,अलक पलक बल बृंद ।
लालनी लख लखे ललित, अंजन सार अलिंद ।।
रविवार, ०६ अक्तूबर, २ ० १ ३
काल गति सन सकल जन लोले । जड़ चेतन का धरनिहू रोले ॥
धिय तातहु बए भै पैतीसा । मातहु बए भइ भीरइ तीसा ॥
धिय अब लग सुठि नाउ न धारी । मनिया मुनिया कहत पुकारीं ॥
लवन नयन अरु राग कपोले । नाम करन कर आपएँ बोले ॥
धुलइ बदन जिमि धवालित धूपा । लालनी लबनइ लखि सरूपा ॥
माता गुनि तिन लाख अनुरुपा । सोच बिचार अनेक अनूपा ।।
कनिक मानिक पोषन करि जोई । धरिअ नाम धिय कृषि अस होई ॥
धरत तिन बदन तात दुलारइ । कहत लालनइ बारहि बारइ ॥
अब अंगजा मुद पितु सन, बिहरन बाहन बाह ।
नाना रस चपल चितबन, खावन केरइ लाह ॥
सोमवार , ०७ अक्तूबर, २ ० १ ३
अरु बहियर बहोरि एक बारे । गर्भ धानि एक जीवन धारे ॥
मधुर मास सुधि पाख बिहानइ । पर दम्पत जेठे लग जानइ ॥
धियहु सवा दू बरख अहनाई । सुभ गुन लखन सकल समराई ॥
धुनी दूइ चंदू चरन उचेरे । पठन पठावन चिंतन घेरे ॥
पीठ भवन लगि पालक हेरे । पुनि किए भरती एक बर डेरे ॥
मात तात तब हटउ पठोई । लवन पेट पठि जोइ सँजोई ॥
एक तो बालक फिर मुख भोरे । तापर कंधर धर लघु झोरे ॥
चरन त्रान तन सुठि गनबेषा । लगि अति लावन धिय तिन भेषा ॥
सिस सूत सिखाकन शेखर बंधन गुंफन घन घन घारी ।
लेपित अलि अंजन, अरुनइ लोचन, केसिनि किलक निहारी ॥
कह जोटन जुगबन दिए जल भोजन, जोजित बहि बैठारी ॥
केर बाला बिदाई, हस्त फिराई, माता भइ बलिहारी ॥
पलकन पथरावत धिय के आवत जोगत रहि डहारी ।
प्रिय धिय जब आई भर अँकबाई कहि आ राज दुलारी ॥
ममतै सिरु रोरी पूछी हो री कहु त उहाँ तुम लिखि का ।
तब बूझत डोरी, तोतरि बोरी, जे लिखबाई सिखिका ॥
श्रवनत तिन्ह उतरु माइ, मन ही मन मुसुकाइ ।
तात गहि गोद रतियाइ, अच्छर लेख दिखाइ ॥
मंगलवार, ०८ अक्तूबर, २ ० १ ३
उत पिय पुनि पुट माया मोही । कहत प्रिया कहु अब का होही ।।
का तुमकौ कछु दरसत चिन्हे । पिय बूझ प्रिया उतरु न दिन्हे ॥
अगहु समउ सुध दृग फुरबारी । सोष ओस पत ढारि दुआरी ॥
उठि मुख उपबन दहन दवारी । बरख बुझाइ नयन जल बारी ॥
बदन भवन तरु लावन लाखा । दहर दहर भै कलुखित राखा ॥
पलक पवन जे सपन बिहंगे । बालक सन बन बरनन रंगे ॥
अवतर चितछत छतर छितराए । एक रंग आए एक रंग जाए ॥
भई भयाकुल सोहहि होही । जे भए पहिले होहहि सोई ॥
माई ममता कर धरे, गवनइ हरिदे पास ।
हरिदे तर्क बितर्क किए, मतिहि न्याय निवास ॥
बुधवार, ०९ अक्तूबर, २ ० १ ३
प्रियजन परिजन बिरुध समाजा । तिन्ह सन जितन भा बड़ काजा ॥
सुमत कुमत दोनौ किए आँठी । रीति-नीति मति दिए गाँठी ॥
संतति बिनु जी साठन नाठे । सुत हिनू जीवन आँट न आँठे ॥
कहत बचन एहि ते प्रिय लोगे । प्रदर्सन भवन दरसन जोगे ॥
बिहा पर नउ जीवनारम्भे । दू चंद बरख बिरधन अवलंबे ॥
जिन डगरी ते चारत आईं । तेइ सका कुल कुटुम चराईं ॥
को कुरीत जदि को बिरुधाई । तो मानौ दिए छेड़ लराई ॥
अनुचित मति मत कुटुम समुदाए । कहाबत समुझत हरि हरि बिहाए ।।
रीति नीति जे जोग बनाई । बिरुदाबली कहत चलि आई ।
परमा मति मत हरत बुराई । अनुसर तिन जग होहि भलाई ॥
पुरखे पुरनइ जन रहत, अनुभव बोधि निधान ।
हमरे सों तिन्ह के दृग, दरसे जग अधिकान ॥
गुरूवार, १० अक्तूबर, २ ० १ ३
तनि पुर प्रिय जन बल दामा । बहुरि बधुटि तनि निज मन कामा ॥
बार बार जब प्रिय बल देईं । गर्भन परखन निराने लेईं ॥
परखन भ्रूनन बैद भवन गत । बधु निज लाखन कोसत निन्दत ॥
मन ही मन मति मंथत रोई । का मोरे हथ एक अरु हत होई ॥
केर बैद पुनि भ्रूण परीखा । दिसि अनुरेखन रेख सरीखा ॥
न जान का तिन निरखन किन्ही । कहत लिखत कछू लरिकन चिन्ही ॥
इत बधु भय हत कसकत साँसे । कम्पत हिय लइ एक उछ्बासे ॥
दरस मुदित पिय नयन अटारी । दोष भाग बन पलकन ढारी ॥
एक परखन किए पपर अपरापन । एक परखन किए पुनि अपराधन ॥
एक अपराहन पुतएँ अपूरन । एक अपराहन पतइ अपूतन ॥
जाम घोष घोषित करे, बजे साँझ के पाँच।
इत बधु एक अरु भ्रून के, करन हतन गइ बाँच ॥
शुक्रवार, ११ अक्तूबर, २ ० १ ३
हर्ष नन्द बर घर बहुराईं । बधु मुख ब्यंग बान चराई ॥
कहि लो किए तुम अंगज रचना । कहु न कछुकन मनोहर बचना ॥
हमरे श्री मुख मधुरित धूरी । लय बढ़ गायां लावन लूरी ॥
दे गूँज मधुर रुर सुर बारी । तव कन करुखन लागत गारी ॥
जे तौ कहु तुम निज समुझएँ का । गरूइ गवइ गुरु कंठ कलइ का ॥
कहि बधु सों पिय तनि दौ काना । सुनु तव प्रियतम के गुन गाना ॥
करक धुनी रुनि राग रसाला । हमरे थापर धारी तिन ताला ॥
करत ओह बधू कर धर माथे । फिर किन कह बरछी सर भाथे ॥
कहत पिया ए साँच बचन, करत कुटिल कटि काख ।
भा जयन बहुस कठिन कर, जे नारि सोंह भाख ॥
शनि/रवि, १२/१३ अक्तूबर, २ ० १ ३
हँसत ठठहात भइ गंभीरे । छन मह बधु घनबर घन घीरे ॥
कहि बधु अब बस भा अधिकाई । कहहु न अज सों जनित जनाईं ॥
मनु के पूरन काम न होई । जिउते लग रहि कोइ न कोई ॥
पहिले जनो बहोरी पालौ । चित चिंतन कर देखो भालौ ॥
सोचु करु कब धुनी उच्चरहीँ । चारु चरन कब धरनी चरहीं ॥
चढ़ मति अम्बर पुनि मत गाढ़ी । हमरे लइकन कबहुँक बाढ़ी ॥
बाड़ बढ़े नउ लालस लाही । को सुभ बेला लगन लगाहीं ॥
बिहाउ परे मुख दरस लुभाहहि । जनि जनिमन कब जनित जनाहहि ॥
तिन्हहिं कहत भाव बंधन, तिन काह दहुँ भउ चाक ।
फेर फिरत जोनि जीवत जिउ चौरासी लाक ॥
सुत बर दान प्रभु सुनि बिनइते । एहि कर पिया भा प्रसन्नचिते ॥
दंपत जीवन जासु अभावा । गर्भ धान पद पूरन पावा ॥
पर जब गए सुत दूइ सुरताही । मन दर्पन तिन मुख छबि छाई ॥
ते हिन् दम्पत तरपत कैसे । बछर बिना गौ तिलछत जैसे ॥
सों सुत सौंमुख जिउते रहते । अरु के जे मन लाह न लहते ॥
चरत कुपथ धर दोशित चारन । तनय लाह मह केरि भ्रून्हन ॥
को कर बिधि जे बयस रचाई । जानन मन के बंचकताई ॥
काल सकल जी बाँधत धारी । नहि त तिन्ह को पूछन हारी ॥
बयस महा रचना कार, काल महा बलिआर ।
का भगत जन का भगवन, तिन सों गए सब हार ॥
सोमवार, १४ अक्तूबर, २ ० १ ३
जब दम्पत बिनु आगिन बाढ़े । दरसे पाछिन एक छनु ठाढ़े ॥
सुख दुःख सों दूइ रंग समेटे । बीते पलछिन पूरत भेंटे ॥
छाँड़ लाए का खोए का पाए । का बिसराए धन का सुरताए ॥
का बिगराए अरु का रच आए । गुना भाग कर जोरे घटाए ॥
दिवस जाम जब पहर बिलोके । आगिन पाछिन मापत जोखे ॥
पाछिन जीवन लेइ लघुताए । अगहुन अगोरत पंथ लमाए ॥
जथारथ समउ दरसन गोचर । पाए दम्पत तिन्ह तनि सुखकर ॥
सकल सुभ फल देइ गोसाईं । धन सम्पद संतति सब नाईं ॥
गुना भाग फल दरसाए, कतहूँ परब कहूँ सोक ।
कतहूँ कोत सुख अधिकाए, कतहूँ दिसित दुःख लोक ॥
मंगलवार, १५ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहोरि आगिन चरन बढाई । बनत बधुटि पिय के परछाई ॥
जस जस चरनिहि चरनी चिन्हें । तस तस गर्भहु बढ़तइ लिन्हे ॥
कालहु करमन कृति सब रीते । रितु रुप अंतर कलित सुधीते ॥
एक दिन धियाहू अंतर कारी । केलि कल ले एक कोत डारी ॥
माई बूझी काहू रि काहू । बोली मधुर अब हमहू बिहाहू ॥
होइ बड़ि बात यह मुख छोटे । कहत मात हठ धरि भू लोटे ॥
कहु को सन जनि भर अँकबारी । पूछी राम सम कि गिरिधारी ॥
लाज लवन लहि बदन सकुचाहि । कहि मृदुलइ ए मम तात बताहि ॥
भुज कंठन घारी भाग दुआरी पितु जब साँझ अवाई ।
कहि माई मारी कथना कारी निकसत बदन रुराई ॥
कर कुतिलक भोंही माता सोंही फ़ुरावत मुख फिराई ।
श्रुत मधुरित भासा भाव प्रकासा पिय दरसत मुसुकाईं ॥
लघुकर लोचन बिलोकत ललनी पितु मुख हास ।
करि क्रंद हिचकी बाँधत, घरि घरि लै उछ्बास ॥
गह बसन मन माह ललासे । पर बय़ अस नहि कि जाएं बासे ॥
अजहूँत पानि करम दृढ नाही । का भरोस कब कर छुट जाहीं ॥
आगिन कारज करतल देवक । का जन मिलि न को पद सेवक ॥
होनिहार जी न जान अब की । न जान कस समउ आन अब की ॥
समझ बूझ बहु सोच बिचारू । मति पुर्बक तुम गह संचारू ॥
कहि बधू प्रभु तुम अंतर जामी । हम तव सेवक तुम्ह भए स्वामी ॥
पूरत आयसु जस तुम दिन्हा । चरन चरहि तुहरे पद चिन्हा ॥
तेहि बेर बर बधु संवादे । अस जस को मुनि दम्पत वादें ॥
ज्ञान मई गम जोगित बानी । जोगित गुन सुभ लखन निधानी ॥
जिन गृह श्री मद हिन् रहे, रहे बहुस प्रद कार ।
तिन गृह श्री जुग बर लहे, निसदिन करत बिहार ।।
बुधवार, ०२ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहुरि भवन भरु किए बिनु देरी । भाटक देवन निरनइ केरी ॥
कहि भवन भाट रासि उगाहीं । गृह चारन ते होहि सहाहीं ॥
भवन भूयसह भबिल भबीला । तिन कर्षन जस कासित कीला ॥
भवन नयन जब लगे निहारे । दरसत चौंक चौंक चौबारे ॥
आए भवन के लेवनहारे । भूरिहि बहुसह दरस दुआरे ॥
आँगे बाँगे बन बहुरूपिये । करखन करून धन दिये न दिये ॥
जोगत जिखत आए एक सजन । पठ पाठन के सुठि कार करन ॥
तिनके सुभकर भवनन देई । मह्बर करक करषीनि लेई॥
जोग करत भवन निज पत, लोचन पंथ लगाए ।
अवाइ पराइ ए श्रवनत, मलिन प्रभा मुख छाए ॥
गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३
निज स्वामि सेवा अभिलाखे । भाउ भवन मन ही मन राखे ॥
ललसत पत पद पदुम परागा । बसित बसथ सथ बसति बिरागा ॥
भवन सुता सुठि बसन दसाई । केर नयन पट पलक निचाई ॥
सोचि अजहूँ लगि चौंक सगाहीं। जाने कब पितु लगन लगाही ॥
दुचंदु दिन जब चौंक न दरसे । लखन कखन सों दरसन तरसे ॥
बहुरि एक दिवस पलक उघारी । भाउ प्रबन पुर चौंक निहारी ॥
अदरस कारन पूछ बुझाईं । कखन बयस पल कह समुझाई ॥
भए बहु भाउक चौंक कथनाए । तव दरसन बिनु भव कछु न भाए ॥
छन भर कख प्रिय संगमन, नयन निवेदन दाए ।
पुनर मिलन के ले बचन, दूइ प्रनई बिलगाए ॥
शुक्रवार, ०४ अक्तूबर, २ ० १ ३
मात-भ्रात पितु रहि नहि भाना । लवन नउ भवन दिए नहि काना ॥
कारन तिन मन भरि भीरुताइ । लेव न दइ भूमि हिन् भवनाइ ॥
लेवन गृह तिन परतइ काना । दरसत प्रबचन देवति नाना ॥
भइ केवल गह तीन कोठ खन । कहूँ बैठन न एकहु सुठि आँगन ॥
कहते चलन ए दरसे कहि ना । देहरि द्वार भू भित धरि ना ॥
तेइ बय कह तिन्ह समुझाना । बहस कठिन रहि कहत बुझाना ॥
नगर बीच बट धरनी धराए । एहि हूँते भवन भूहिन सुहाए ॥
बाट बीच भू मूलइ लैने । बचे न अजहूँत को कर ठेने ॥
जे रही ते बहु मोल धराईं । ता पर लगि धन भवन बनाई ॥
सोचि करन चरन प्रबेस, अजहूँत भइ बहु बेर ।
तब लग कान देइ देहि, तिन मन हेरन फेर ॥
शनिवार,०५ अक्तूबर, २ ० १ ३
एहि भाँति बधू जीवन साथे । धारइ निज कर करतल नाथे ॥
प्रीत पूरित तनि दिवस बिताइ । सूरत धरत पिय जगत परिहाइ ॥
उत बिरंचक छन छन चुन के । जोगत जुगबन दिन दिन बुनके ॥
सकल काल सुठि माल पिरोईं । बरस कोष के भाल सँजोईं ॥
फिरत थिरत थर गृह बन ठोटी । मृदुल मुकुल मइ लवनइ होंटी ॥
कभु तात कभु मात कह हांक़ी । दिसत दिसत दुइ बरख नहाकी ॥
भोजन रस तन सारत सोषी । मनु कुमुदनि रस कौमुदि पोषी ॥
काइ कलेबर कोमलि कूटे । निभ नलिनी नउ पल्लउ फ़ूटे ॥
केस कुंडल कलिक अलिक,अलक पलक बल बृंद ।
लालनी लख लखे ललित, अंजन सार अलिंद ।।
रविवार, ०६ अक्तूबर, २ ० १ ३
काल गति सन सकल जन लोले । जड़ चेतन का धरनिहू रोले ॥
धिय तातहु बए भै पैतीसा । मातहु बए भइ भीरइ तीसा ॥
धिय अब लग सुठि नाउ न धारी । मनिया मुनिया कहत पुकारीं ॥
लवन नयन अरु राग कपोले । नाम करन कर आपएँ बोले ॥
धुलइ बदन जिमि धवालित धूपा । लालनी लबनइ लखि सरूपा ॥
माता गुनि तिन लाख अनुरुपा । सोच बिचार अनेक अनूपा ।।
कनिक मानिक पोषन करि जोई । धरिअ नाम धिय कृषि अस होई ॥
धरत तिन बदन तात दुलारइ । कहत लालनइ बारहि बारइ ॥
अब अंगजा मुद पितु सन, बिहरन बाहन बाह ।
नाना रस चपल चितबन, खावन केरइ लाह ॥
सोमवार , ०७ अक्तूबर, २ ० १ ३
अरु बहियर बहोरि एक बारे । गर्भ धानि एक जीवन धारे ॥
मधुर मास सुधि पाख बिहानइ । पर दम्पत जेठे लग जानइ ॥
धियहु सवा दू बरख अहनाई । सुभ गुन लखन सकल समराई ॥
धुनी दूइ चंदू चरन उचेरे । पठन पठावन चिंतन घेरे ॥
पीठ भवन लगि पालक हेरे । पुनि किए भरती एक बर डेरे ॥
मात तात तब हटउ पठोई । लवन पेट पठि जोइ सँजोई ॥
एक तो बालक फिर मुख भोरे । तापर कंधर धर लघु झोरे ॥
चरन त्रान तन सुठि गनबेषा । लगि अति लावन धिय तिन भेषा ॥
सिस सूत सिखाकन शेखर बंधन गुंफन घन घन घारी ।
लेपित अलि अंजन, अरुनइ लोचन, केसिनि किलक निहारी ॥
कह जोटन जुगबन दिए जल भोजन, जोजित बहि बैठारी ॥
केर बाला बिदाई, हस्त फिराई, माता भइ बलिहारी ॥
पलकन पथरावत धिय के आवत जोगत रहि डहारी ।
प्रिय धिय जब आई भर अँकबाई कहि आ राज दुलारी ॥
ममतै सिरु रोरी पूछी हो री कहु त उहाँ तुम लिखि का ।
तब बूझत डोरी, तोतरि बोरी, जे लिखबाई सिखिका ॥
श्रवनत तिन्ह उतरु माइ, मन ही मन मुसुकाइ ।
तात गहि गोद रतियाइ, अच्छर लेख दिखाइ ॥
मंगलवार, ०८ अक्तूबर, २ ० १ ३
उत पिय पुनि पुट माया मोही । कहत प्रिया कहु अब का होही ।।
का तुमकौ कछु दरसत चिन्हे । पिय बूझ प्रिया उतरु न दिन्हे ॥
अगहु समउ सुध दृग फुरबारी । सोष ओस पत ढारि दुआरी ॥
उठि मुख उपबन दहन दवारी । बरख बुझाइ नयन जल बारी ॥
बदन भवन तरु लावन लाखा । दहर दहर भै कलुखित राखा ॥
पलक पवन जे सपन बिहंगे । बालक सन बन बरनन रंगे ॥
अवतर चितछत छतर छितराए । एक रंग आए एक रंग जाए ॥
भई भयाकुल सोहहि होही । जे भए पहिले होहहि सोई ॥
माई ममता कर धरे, गवनइ हरिदे पास ।
हरिदे तर्क बितर्क किए, मतिहि न्याय निवास ॥
बुधवार, ०९ अक्तूबर, २ ० १ ३
प्रियजन परिजन बिरुध समाजा । तिन्ह सन जितन भा बड़ काजा ॥
सुमत कुमत दोनौ किए आँठी । रीति-नीति मति दिए गाँठी ॥
संतति बिनु जी साठन नाठे । सुत हिनू जीवन आँट न आँठे ॥
कहत बचन एहि ते प्रिय लोगे । प्रदर्सन भवन दरसन जोगे ॥
बिहा पर नउ जीवनारम्भे । दू चंद बरख बिरधन अवलंबे ॥
जिन डगरी ते चारत आईं । तेइ सका कुल कुटुम चराईं ॥
को कुरीत जदि को बिरुधाई । तो मानौ दिए छेड़ लराई ॥
अनुचित मति मत कुटुम समुदाए । कहाबत समुझत हरि हरि बिहाए ।।
रीति नीति जे जोग बनाई । बिरुदाबली कहत चलि आई ।
परमा मति मत हरत बुराई । अनुसर तिन जग होहि भलाई ॥
पुरखे पुरनइ जन रहत, अनुभव बोधि निधान ।
हमरे सों तिन्ह के दृग, दरसे जग अधिकान ॥
गुरूवार, १० अक्तूबर, २ ० १ ३
तनि पुर प्रिय जन बल दामा । बहुरि बधुटि तनि निज मन कामा ॥
बार बार जब प्रिय बल देईं । गर्भन परखन निराने लेईं ॥
परखन भ्रूनन बैद भवन गत । बधु निज लाखन कोसत निन्दत ॥
मन ही मन मति मंथत रोई । का मोरे हथ एक अरु हत होई ॥
केर बैद पुनि भ्रूण परीखा । दिसि अनुरेखन रेख सरीखा ॥
न जान का तिन निरखन किन्ही । कहत लिखत कछू लरिकन चिन्ही ॥
इत बधु भय हत कसकत साँसे । कम्पत हिय लइ एक उछ्बासे ॥
दरस मुदित पिय नयन अटारी । दोष भाग बन पलकन ढारी ॥
एक परखन किए पपर अपरापन । एक परखन किए पुनि अपराधन ॥
एक अपराहन पुतएँ अपूरन । एक अपराहन पतइ अपूतन ॥
जाम घोष घोषित करे, बजे साँझ के पाँच।
इत बधु एक अरु भ्रून के, करन हतन गइ बाँच ॥
शुक्रवार, ११ अक्तूबर, २ ० १ ३
हर्ष नन्द बर घर बहुराईं । बधु मुख ब्यंग बान चराई ॥
कहि लो किए तुम अंगज रचना । कहु न कछुकन मनोहर बचना ॥
हमरे श्री मुख मधुरित धूरी । लय बढ़ गायां लावन लूरी ॥
दे गूँज मधुर रुर सुर बारी । तव कन करुखन लागत गारी ॥
जे तौ कहु तुम निज समुझएँ का । गरूइ गवइ गुरु कंठ कलइ का ॥
कहि बधु सों पिय तनि दौ काना । सुनु तव प्रियतम के गुन गाना ॥
करक धुनी रुनि राग रसाला । हमरे थापर धारी तिन ताला ॥
करत ओह बधू कर धर माथे । फिर किन कह बरछी सर भाथे ॥
कहत पिया ए साँच बचन, करत कुटिल कटि काख ।
भा जयन बहुस कठिन कर, जे नारि सोंह भाख ॥
शनि/रवि, १२/१३ अक्तूबर, २ ० १ ३
हँसत ठठहात भइ गंभीरे । छन मह बधु घनबर घन घीरे ॥
कहि बधु अब बस भा अधिकाई । कहहु न अज सों जनित जनाईं ॥
मनु के पूरन काम न होई । जिउते लग रहि कोइ न कोई ॥
पहिले जनो बहोरी पालौ । चित चिंतन कर देखो भालौ ॥
सोचु करु कब धुनी उच्चरहीँ । चारु चरन कब धरनी चरहीं ॥
चढ़ मति अम्बर पुनि मत गाढ़ी । हमरे लइकन कबहुँक बाढ़ी ॥
बाड़ बढ़े नउ लालस लाही । को सुभ बेला लगन लगाहीं ॥
बिहाउ परे मुख दरस लुभाहहि । जनि जनिमन कब जनित जनाहहि ॥
तिन्हहिं कहत भाव बंधन, तिन काह दहुँ भउ चाक ।
फेर फिरत जोनि जीवत जिउ चौरासी लाक ॥
सुत बर दान प्रभु सुनि बिनइते । एहि कर पिया भा प्रसन्नचिते ॥
दंपत जीवन जासु अभावा । गर्भ धान पद पूरन पावा ॥
पर जब गए सुत दूइ सुरताही । मन दर्पन तिन मुख छबि छाई ॥
ते हिन् दम्पत तरपत कैसे । बछर बिना गौ तिलछत जैसे ॥
सों सुत सौंमुख जिउते रहते । अरु के जे मन लाह न लहते ॥
चरत कुपथ धर दोशित चारन । तनय लाह मह केरि भ्रून्हन ॥
को कर बिधि जे बयस रचाई । जानन मन के बंचकताई ॥
काल सकल जी बाँधत धारी । नहि त तिन्ह को पूछन हारी ॥
बयस महा रचना कार, काल महा बलिआर ।
का भगत जन का भगवन, तिन सों गए सब हार ॥
सोमवार, १४ अक्तूबर, २ ० १ ३
जब दम्पत बिनु आगिन बाढ़े । दरसे पाछिन एक छनु ठाढ़े ॥
सुख दुःख सों दूइ रंग समेटे । बीते पलछिन पूरत भेंटे ॥
छाँड़ लाए का खोए का पाए । का बिसराए धन का सुरताए ॥
का बिगराए अरु का रच आए । गुना भाग कर जोरे घटाए ॥
दिवस जाम जब पहर बिलोके । आगिन पाछिन मापत जोखे ॥
पाछिन जीवन लेइ लघुताए । अगहुन अगोरत पंथ लमाए ॥
जथारथ समउ दरसन गोचर । पाए दम्पत तिन्ह तनि सुखकर ॥
सकल सुभ फल देइ गोसाईं । धन सम्पद संतति सब नाईं ॥
गुना भाग फल दरसाए, कतहूँ परब कहूँ सोक ।
कतहूँ कोत सुख अधिकाए, कतहूँ दिसित दुःख लोक ॥
मंगलवार, १५ अक्तूबर, २ ० १ ३
बहोरि आगिन चरन बढाई । बनत बधुटि पिय के परछाई ॥
जस जस चरनिहि चरनी चिन्हें । तस तस गर्भहु बढ़तइ लिन्हे ॥
कालहु करमन कृति सब रीते । रितु रुप अंतर कलित सुधीते ॥
एक दिन धियाहू अंतर कारी । केलि कल ले एक कोत डारी ॥
माई बूझी काहू रि काहू । बोली मधुर अब हमहू बिहाहू ॥
होइ बड़ि बात यह मुख छोटे । कहत मात हठ धरि भू लोटे ॥
कहु को सन जनि भर अँकबारी । पूछी राम सम कि गिरिधारी ॥
लाज लवन लहि बदन सकुचाहि । कहि मृदुलइ ए मम तात बताहि ॥
भुज कंठन घारी भाग दुआरी पितु जब साँझ अवाई ।
कहि माई मारी कथना कारी निकसत बदन रुराई ॥
कर कुतिलक भोंही माता सोंही फ़ुरावत मुख फिराई ।
श्रुत मधुरित भासा भाव प्रकासा पिय दरसत मुसुकाईं ॥
लघुकर लोचन बिलोकत ललनी पितु मुख हास ।
करि क्रंद हिचकी बाँधत, घरि घरि लै उछ्बास ॥
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