Wednesday, June 27, 2018

----- || प्रभात-चरित्र १ || -----

बुधवार, २८ जून, २०१८                                                                           

सरिदबरा की धार ते, पयदबान जौ देस | 
तीन देउ रच्छा करें ब्रम्हा बिष्नु महेस || १ || 

पद पद सदोपदेस इहँ ग्रंथ ग्रंथ सद ग्रंथ | 

भगवन पाहि पहुँचावैं दरसावत सत पंथ || २ || 

कहत भूमि निज मात जहँ रतनन कइँ आगार | 

भवन भवन भव भूति सों भरे पुरे भंडार || ३ || 

धौल गिरि के मौलि मुकुट जाके सीस सिँगार | 

तीन सिंधु कर जोरि के करिते चरन पखार || ४ || 

सील चरित के भूषना भाव भगति के भेस | 

बास बास हरि बास जहँ परम पवित परिबेस || ५ || 

यह देस सो देस जहां रहँ सब जीअ सुखारि । 
राम रमे बन बन तहाँ कुञ्ज कुञ्ज गिरधारि ॥६ ॥ 


जेहि देस कर मानसा रहे सहित परिबार | 
ताहि सीस नवाई के बन्दै चरन जुहार || ७ || 

भावार्थ : - गंगा जी की पवित्र धाराओं से जो देश सदैव पयस्वान ( जल से परिपूर्ण ) रहता है | ब्रह्मा, विष्णु महेश  जिसकी रक्षा करते हैं || १ || जहाँ पद पद पर सदोपदेश मिलते हैं, जहाँ के प्रत्येक धर्म ग्रन्थ धर्म के चार चरणों पर स्थित होकर सत्ग्रन्थ है जो  सन्मार्ग को दर्शाते हुवे ईश्वर के पास पहुंचाते हैं || २ || जिस देश में धरती को माता कहकर पुकारते हैं वह रत्नों की खान है वह धन धान्य से सम्पन्न है भंडारों को परिपूर्ण रखती है || ३ || जिस देश का शीश हिमालय पर्वत के शिखर मुकुट से श्रृंगारित  है, तीन सिंधु करबद्ध होकर जिसके चरण का प्रक्षालन करते हैं || ४ || शील व् चरित्र ही जिसके आभूषण हैं भाव -भक्ति जिसकी वेशभूषा है जहाँ का प्रत्येक निवास ईश्वर के निवास के समतुल्य है जहाँ का परिवेश परम पवित्र है || ५ || यह देश वह देश है एक समय जहाँ संसार के सभी जीवंतकों को जीवन का अधिकार था यहां वन वन में भगवान श्री राम का व कुञ्ज कुञ्ज में गिरधारी का वास हुवा ॥६ ||विद्यमान काल में भी जिस देश का जनमानस कुटुंब सहित निवास करता है  नतमस्तक होकर हम उस देश की चरण वंदना करते हैं || ७ || 

बृहस्पतिवार, २९ जून , २०१८                                                            

सत सत बंदन सो बिद्बाना | साधक गुरु जग सिद्ध सुजाना || 
आखरि ग्यान देयब मोही | कीन्हि धनि बिद्या मनि सोंही || 
उन विद्वानों का सत् सत् अभिवंदन है जो साधक है ज्ञानी है व् जगत सिद्ध गुरु है | जिन्होंने मुझे अक्षर ज्ञान देकर विद्या रूपी धन से धनवान किया | 

जाके बल मसि धरिअ उजासा | धर्म बिकासत पाप बिनासा || 
तासु कृपा सुर बिंजन माला | रररत होइँ मूक बाचाला || 
उस विद्या मणि की शक्ति से ही मलिन मलिनांबु ने उज्वलता धारण कर अधर्म का विनाश और  धर्म का विकास किया | उनकी कृपा से ही  स्वर व् व्यंजन मालाओं का अध्ययनोभ्यास कर यह मूक मुख भी वाचाल हो गया | 

सो गुरु दीप सीख भै जोती | पोथी सीप बरन कर मोती || 
चुनि चुनि पुनि मोरे कर धरयो | तामस अंतर गेह उजरियो || 
वह गुरु दीप स्वरूप व् उनकी  शिक्षा ज्योति स्वरूप है सीप स्वरूप पुस्तकों व ग्रन्थों से जिन्होंने शब्दों के मुक्ता को चुन चुन कर मेरे करतल पर अवधारित कर मेरे अंधकारमय अन्तर गृह को ज्योतिर्मय कर दिया || 

आन आन रतनन सन लस्यो  | रचत भनित मय भूषन बस्यो || 
बचन देसु रह निपट कुबेसा | भाष भेस दए कियउ सुदेसा || 
यह मुक्ता अन्यान्य रत्नों के संग सुशोभित होकर काव्यमय रचना के आभूषणों में निवासित हुवे | मेरा वाक्य देश का वेश नितांत ही निकृष्ट था किन्तु गुरुजनों ने भाषा के उत्कृष्ट वेश देकर इस देश को सुन्दर व् रमणीक देश में परिणित कर दिया |  

जानब सो सब सुबुधजन मम हरिदय तम घोरि | 
चरन चरन सचेत कियो चेतत जड़ मति मोरि || 
मेरे ह्रदय के घोर अन्धकार को भानते हुवे वह सभी सुबुद्ध जन मेरी जड़तम बुद्धि को चैतन्य कर चरण-चरण पर मुझे संज्ञावान करते रहे | 

शनिवार, ३० जून, २०१८                                                                                             

यहु अनंत अम्बर इब अंका | गुरूगह ताल जगति जस पंका || 
सकल गुरुजन अरबिंदु बृंदा | सिस अलि गन ग्यान मकरंदा || 
यह अनंत अम्बर एक स्थली के व् मानवीय संसार कीचड़ के समरूप है जहाँ गुरुशाला सरोवर के समान है | सभी गुरुजन कमल स्वरूप हैं,  शिष्य भ्रमर के तथा ज्ञान मकरंद के सरिस है | 

जौ सिस मिरदा गुरु घटकारा  | सार देइ घट लेइ अकारा || 
तीर तलावा जल भरि लावा | तृषा हरत सो जगत सुहावा || 
शिष्य यदि कच्ची मृदा है तो गुरु कुम्भकार है उसकी शिक्षा रूपी सार के द्वारा शिष्य कुम्भाकृति को प्राप्त होता है | इस आकृति के पश्चात वह पात्र स्वरूप हो जल स्त्रोतों से जल भरने में समर्थ होकर जिज्ञाषा रूपी पिपाशा को शांत करते हुवे संसार में सुशोभित होता है | 

अंक तंत्र गुरु मोहि जनावा | काल गतिहि पुनि गनि मैं पावा || 
भौनत भूमि भानु के मंडल | भूतमय भौति जगत चलाचल || 
गणित शास्त्र के गुरु के ज्ञान मकरंद ने  मुझे काल की गणना करने में समर्थ किया | भूमि सौर्य मंडल में घूर्णन करती है यह भौतिक जगत पदार्थमय है जो चल व् अचल दो प्रकार की गतियों से युक्त है यह भी मुझे गुरु के ज्ञान मकरंद से ही ज्ञात हुवा | 

नगर नगर बन नग नद नावा | देस दिसा कर पुनि सुमिरावा || 
जान रसायन जगि जिग्यासा | जानेउ सबहि जग इतिहासा || 
नगरों तथा नगरों में स्थित पर्वतों नदियों के देशों के तथा विभिन्न दिशाओं के नामों का स्मरण करवाया | रसायन विज्ञान का ज्ञान ग्रहण जब जिज्ञासा जागृत हुई तब मैने समूचे विश्व के इतिहास का परिचय प्राप्त किया | 

पाहन कर एहि जग निरजीवा | जीउ जंत ते होइँ सजीवा || 
अर्थ बिदूषक सीख दिए मोहि | अजहूँ त जगत अरथ गत होंहि || 
 जीव है जंतु है तभी यह संसार सजीव है अन्यथा यह पाषाणमय संसार निर्जीव है | अर्थ विदूषक ने मुझे शिक्षा दी कि अधुनातन यह जगत अर्थ पर आश्रित है (धर्म पर नहीं है ने यह ज्ञान गुरुओं की वाणी ने दिया )| 

बहिर जगत तेउ परचत दिए सीख ब्यौहारि | 
सकल बिद्याकर के कर अनगढ़ घट कृत कारि || 
बाह्यजगत का परिचय देकर मुझे इस गुरुशाला में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हुवा  | इसप्रकार सभी विद्याकरों के ज्ञान  ने मुझ अनगढ़ को गढ़ कर  कुम्भ की आकृति प्रदान की | 

वीरवार, ०१ जुलाई, २०१८                                                                                                

दिसि बिनु नयन श्रवन बिनु काना | तन बिनु प्रान अर्थ बिनु दाना | 
धन ते पीन धरम ते दीना | होत कुम्भ तस कंज बिहीना || 
जल से विहीन कुम्भ की प्रकृति दृष्टि रहित नयन, श्रवण रहित कर्ण, प्राण रहित देह,  दान रहित अर्थ के तथा  धन से पुष्ट किन्तु धर्म से दीन धनवान के जैसे ही होती है | 

गुरु बिन गुन ग्यान नहि होई | कहिअ ए सुधि बुधिजन सब कोई || 
ग्यान बिनु जौ करिए बखाना | होइब फर बिनु बान समाना || 
 गुरु बिना ज्ञान उपलब्ध नहीं होता ऐसा सुबुद्ध जनों का कहना है | ज्ञान रहित व्याख्यान फल रहित बाण के समान होता है जो वांछित परिणाम नहीं देता | 

बिदयाकर दए घट आकारी | दूषन धारि कि गुन रस वारी || 
एक घट माया मद के गाही  | दूजे बरखत नभोद्बाही || 
विद्याकर अपने शिष्य को कुम्भ की आकृति प्रदान करते  है वह कुम्भ गुण व् दोष दोनों से युक्त  हो सकता है | एक कुम्भ माया रूपी मदिरा का धारक  तो दुसरा श्रावण मास के बरसने वाले बादलों जैसा हो सकता  है | 

भरोस बिनु न प्रीति के पोषा | ज्ञान दिसि बिनु दिसै न दोषा || 
पेम भक्ति सो अमरित धारा | तासों रहित सकल जल खारा || 
विश्वास से रहित होकर प्रेम पुष्ट नहीं होता और ज्ञानदृष्टि के बिना दोष दर्शित नहीं होते | प्रेम भक्ति से युक्त ज्ञान जल अमृत धारा के समान है उससे विहीन समस्त ज्ञान खारापन लिए होता है | 

निर्मल जल बरखाए ते बिकसै भनित निकुंज  | 
कबित कुसुम रस पाए के मधुप निकर करि गुंज || 
 प्रेम व भक्तिमय ज्ञान रूपी निर्मल जल के वर्षा से ही (युगकालीन )रचनाओं के निकुंज प्रस्फुटित होते हैं | कवित के कुसुम रस का पानकर उसपर कविता रसिक मधुकर के समूह सदैव गुंजन करते हैं, अर्थात प्रीति व् भक्ति मई ज्ञान रचनाए युग युग तक पठनीय होती हैं | 

सोमवार, ०२ जुलाई, २०१८                                                                                

धर्म ग्रन्थ श्रुति बेद पुराना |  अहँ पनियन केरे तट नाना || 
परम पुरुख सुभ कीन्हि चरिता | मोरे कलस हुँत भयउ सरिता || 
श्रुति वेद पुराणों सहित समस्त धर्मग्रंथ ज्ञान जल के विभिन्न स्त्रोत हैं इनके सहित महापुरुषों द्वारा कृत चरित्रावलियाँ मेरे कलश हेतु ज्ञान सरिता हुवे | 

साधु सुजन संतन करि बानी | होत गुनद अति निर्मल पानी || 
अस तौ बहत बहुंत परनाला | ताहि बरत जग करिअ कुचाला || 
साधू, सज्जन तथा संतों की वाणी भी अतिशय गुणदायक व् निर्मल जल स्वरूप है जहाँ से मुझे ज्ञानजल प्राप्त हुवा | ऐसे तो बहुंत से परनाले भी बहते दर्शित होते हैं जिसका उपयोग कर ही लोग कुत्सित आचरण करते हैं | 

अजहुँ त साधू संत भए थोड़े  | अधिक जोइ कहँ दिए जग छोड़े || 
कामिनि काँचन बासहि मन में | जति बलकल बसबासिहि तन में || 
विद्यमान समय में  साधू संत भी अत्यल्प हो गए | वह साधू संत अत्यधिक हो गए जो विरक्ति व् वैराग्य का दम्भ भरते हैं जिनके तन में तपस्वी का वेश विराजित रहता है किन्तु मन में स्त्री व् धन सम्पदा के प्रति कामासक्ति निवासित रहती है | 

बिनु सत्संग न होत बिबेका | बिबेक बिनु गुन दोषु रहँ एका || 
कलिमल सब अनभल संगोठी | काल कलुष कलंक करि कोठी || 
सत्संग के बिना हंस विवेक नहीं होता, विवेक से गुण- दोष को विभक्त करने का ज्ञान नहीं होता, इसके बिना यह एक से प्रतीत होते हैं | कलयुग की सभी संगोष्ठियां असाधुओं  की हो चली है ये सभी पापमयी व् दोषों से परिपूर्ण हैं अत: इस काल में सत्संग कठिन है | 

जाकी बानी बान समाना | जाकर पानि कटै पाषाना || 
सो सब जगगुरु सतगुरु मोरे | ता सहुँ रहौं सदा कर जोरे || 
जिसकी वाणी बाण के समान हो जिनके ज्ञान रूपी पाणी  (पानी इतना पैना होता है जो पाषाण को भी काटने में समर्थ  होता है युग के पाषाण काटने में वह भी असमर्थ होता है, पानी से पैना ज्ञान होता है ) युगों के पाषाण को  भी काटने में सक्षम है, वह सब जगत- गुरु मेरे सतगुरु हैं उनके सम्मुख ये हस्त सदैव जुड़े रहते हैं | 

बायन केहु दाहिन रहँ साँचा जिनका नाम | 

लोह परस भए पारसा तिनको सदा प्रनाम || 
जो अपने प्रतिकूल के भी अनुकूल रहते हैं सत्य जिनका नाम है जिनके स्पर्श से कुधातु स्वर्ण न होकर पारस हो जाता है उनको सदैव प्रणाम है |  

मंगलवार, ०३ जुलाई २०१८                                                                                   

अधुनै सब गुरु न कोइ चेला | करिअ मान मद संगत मेला || 
माया काया के भए  दासा | हिलग नित कीन्हसि सो हेला || 
अधुनातन तो शिष्य कोई नहीं है, सभी गुरु हैं जो नित्य मान मद के साथ इनका मेल-मिलाप है , ये माया व् काया के दास होकर इसके साथ नित्य ही राग-रंग में मग्न रहते हैं | 

अहहि जगत सत गुरु जो कोई | ता चरनन सब तीरथ होईँ || 
पग पग सन मारग दरसावै | अनुहारिहि  भगवद पद पावैं || 
इनमें में भी यदि कोई सतगुरु हैं तब निश्चित ही उनके चरणों में सब तीर्थ होंगे | वह चरण-चरण पर सन्मार्ग दर्शाते होंगे उनके अनुशरणकर्ता को अवश्य ही भगवद पद प्राप्त होगा | 

अजहुँ त जग जगदीस दुरायो | खेलन खावन माहि रमायो || 
जनजन धन सम्पद कै भूखे | गुन लच्छन नहि रस तै रूखे || 
विद्यमान समय में संसार से ईश्वर विलुप्त होते जा रहे हैं | समूचा संसार ही विषय भोग में ही संलिप्त हैं, जन-जन धन सम्पति की क्षुधा से ग्रस्त हैं अनीश्वरवादी होने के कारण उनमें गुण लक्षण का अभाव लक्षित होता है उनका जीवन नीरस प्रतीत होता है | 

कीरति कबित सुसम्पद सोई | जौ अग जग हुँत हितकर होई || 
भगतिमई कि ग्यान बिरागा | जासु बोध सोवत जग जागा || 
कीर्ति, कविता व् सम्पदा वही उत्तम है जो संसार भर के लिए कल्याणकारी हो | वह भक्तिमय हो अथवा ज्ञान मई हो या वैराग्य जनित हो जिसके बोधन से शयनरत जगत जागृत हो जाए | 

कीरत कबित सम्पत अस जे भगवद जन पाहि | 

सो अपार भव सिंधु सहुँ तरन हेतु जलबाहि || 
ऐसी कीर्ति, कबिता व् सम्पदा जिस भगवद जन के पास है | वह इस अपार भव सिंधु के पारग हेतु जलयान के समान है || 

बुधवार, ०४ जुलाई, २०१८                                                                                       

सबते मह बागीस बिधाता | सतगुरु साधु संत सुखदाता || 
जासु कीरत करत सब कोई | ता सहुँ जग कोबिद नहि होई || 
सबसे महतिमह कवि जगद्विधाता हैं वह सतगुरु व् साधु-संत स्वरूप सुख के प्रदाता हैं | जिसकी कीर्ति सभी सुबुद्धजन किया करते हैं उनके जैसे कविकुशल इस जगत में नहीं है | 

लिखे प्रथमतम अवनि अगासा | अनल अनिल पुनि दिए चहुँ पासा || 
चरन चरन जौं अरन न्यासा | ता संगत  एहि जगत बिकासा || 
सर्वप्रथम उन्होंने धरती व् आकाश लिखा ततपश्चात उसे वाय व् अग्नि से व्याप्त किया | चरण चरण पर जल न्यासित किया जिसके सनगत इस संसार का विकास हुवा | 

रचत नखत पथ रबि रजनीसा | बिरचिहि अहिर्निस दिसा बिदिसा | 
सिंधु सरित सर बन नग नाना | पुरयो भुइँ भव भूति निधाना || 
नक्षत्र का परिभ्रमण मार्ग रचकर सूर्य व् चन्द्रमा को रचा दिवस व् रजनी को रचकर ततपश्चात दिशा व् दिशाओं के कोण को रचा | समुद्र, नदी, सरोवर, वन व् अनेकानेक पर्वतों को रचकर इस भूमि को प्राकृति संपदाओं के भंडार से परिपूरित किया | 

रचत बहुरि भव सागर सरिबर | कीन्हेसि पुनि तिहु लोक उजागर | 
रचे जीवन मरनि के मंचा | दोषु गुन सन रचै परपंचा || 
इस संसार को सागर की भांति रचकर तत्पश्चात तीन लोकों को प्रकट किया | जीवन-मरण के  मंच की रचना कर दोष व गुण से युक्त सृष्टि को सृजित किया  | 

कीरत देह कबित सम प्राना | बिधस सम्पद हेतु कल्याना || 
गह अवगुन परिहर गुन कोषा | आपुनि भीत भरै सो दोषा || 
कीर्ति जीव देह हो गई प्राण कविता हो गए इस प्रकार विधाता की सम्पति देहधारियों के कल्याण हेतु नियोजित हो गई | फिर जिसने इस संसार में गुण कोष को त्यागकर अवगुण ग्रहण किए उसने अपने भीतर दोषों को संकलित कर लिया | 

कबहुँ भाग बिपरीत बिधि लेखिहि ससि सो राहु | 
अंत परै त  होइ भलो सो सब बिधि सब काहु || 
भाग्य के विपरीत विधाता ने कभी शशि के साथ उसे ग्रसने वाला राहु भी लिख दिया किन्तु अंत में यह भी सभी के लिए सभी प्रकार से कल्याणकारी ही सिद्ध हुवा | 

बृहस्पति/शुक्र, ०५/०६  जुलाई, २०१८                                                                                

जौ जगजीवन जग करतारा | बागिसरेसर जगदाधारा  || 
नमउँ अजहुँ सो अनंत अनादि | बंदत जिन मुनि देउ सनकादि || 
जो जगत के जीवन रूप परमेश्वर हैं जो जगत के कर्ता हैं जो जगत के आधार स्वरूप (जिनके आधार पर ही ब्रह्मा ने जगत की रचना की थी ) होकर ब्रह्मा के भी ईश्वर हैं जिसका नकोई अंत है न आदि है उन परमात्का को मेरा सादर नमस्कार है |  सनकादि (सनक= ब्रह्मा के पुत्र ) देव व् मुनिजन भी जिनके चरणों की वंदना करते हैं | 

सातु भुवन तिहु लोक उदारा | अबिनसवर अबिदित अबिकारा || 
बंदउँ कारज कारन रूपा | अनंद मय हरि बेद सरूपा || 
जिनके उदार में सप्त भुवन व् त्रिलोक अवस्थित हैं जो अविनाशी, अविदित व्  विकार से रहित हैं उन कार्य व् कारण स्वरूप आनंदमय वेदस्वरूप ईश्वर की में वंदना करती हूँ | 

भए पुरुषोतम हरि गुन सीला | औतर जग किन्ही बहु लीला || 
जबु जबु बरधिहि भू अघ भारा | तबु तबु प्रभु  लीन्हि औतारा || 
जगत में अवतरित होकर जिन्हें अपार लीलाएं की और गुण व् शील के निधाता होकर पुरुषोत्तम कहलाए | जब जब पृथ्वी पर पापों का भार बर्द्धित हुवा तब तब उन प्रभु ने अवतार ग्रहण किया | 

जासु कथा अगजग अनुहारिनि | पबित अतुल कलि कुल उद्धारिनि || 
अकुलीन को हो कि कुल हीना | कलुष हरत सो करत कुलीना || 
और अवतार स्वरूप उनकी कथाएं संसार भर के लिए अनुकरणीय हैं यह अत्यधिक पवित्र व् कलि तथा कुलों का उद्धार करने वाली हैं | 

भए स्वजन संकुल ए देस सब कुल कथा चरित नुहार के | 
राम रीति नीति निहछल प्रीति जोग लोक ब्यौहार के || 
ए चरित सोंहि भरेपूरे सबसुख साधन साम भयो | 
गेहनी सुहा गेहि स्वामिन गेह गेह सुरधाम भयो | 
इन कथाओं में विहित भगवान के अवतार चरित्रों का अनुशरण कर इस  देश के कुल स्वजनों से परिपूरित हुवे | दशम अवतार श्रीराम की रीति-नीति और निश्छल प्रीति तो सम्पूर्ण विश्व के व्यवहार योग्य है | इस चरित्र से से इस देश के गृह गृह सुख के साधन सामग्रियों से युक्त हुवे | गृहणी घर की शोभा कहलाई गृही को गृहस्वामी का पद प्राप्त हुवा और इस देश के घर घर देवधाम में परिणित हो गए | 

जहाँ नारी श्री सरूप पुरुख रूप श्रीमान | 
सुघड़ता गह होत तहाँ सीलवान संतान || 
जहाँ नारी शोभा व् विभूति व् सौंदर्य का स्वरूप होती है और पुरुष उसका धारक होता है|  सुसभ्यता ग्रहण कर वहां संततियां शील व् चरित्रवान होती है | 

शनिवार, ०६ जुलाई, २०१८                                                                                             

सत सत नमन सो शशि शेखरं | शिव शम्भु प्रभु गंगाधरं || 
जटालू धारी बाघाम्बरं | कंबु कर्पुर वपुर्धर धवलं || 
शीश शिखर पर चन्द्रमा एवं गंगा को धारण करने वाले प्रभु शिव-शम्भू को सत सत नमन है जटा धारण करने वाले, बाघ वस्त्र ग्रहण करने वाले, शंख व् कर्पूर से श्वेत श्री विग्रह वाले, 

भुजगेन्द्र हारं आत्मकं | कंबोज कंठ्य नील लक्षणं || 
भस्मभूति श्री अंग भूषणं | गरलपान कृतं त्रिलोचनं || 
गरल पान के कारण नील लक्षणी  शंख आकृति कंठ्य है जो  सर्प माल्य से युक्त है, उन त्रिलोचन धारी के अंग में भस्मविभूति भूषण स्वरूप है |  
जौ गौरी गिरि राज कुमारी | उमा पते बिरति तपोचारी || 
सर्वदेवमय सर्व कामदं | सर्व धनविन मर्दनं सर्वप्रदं || 
जो गौरी, गिरिराज कुमारी उमा के प्रियतम हैं तथा विरक्त तपस्वी हैं | सर्वदेव  निवास स्वरूप , समस्त कामनाओं को पूर्ति करने वाले, कामदेव का मर्दन करने वाले, सर्वस्व देने वाले वह प्रभु-  

बिधिस परपंचु कर संहारी | भव अपार कर प्रलयं कारी || 
कासी पति कैलास निवासी | रुद्रा पति शव भूमिहि वासी || 
विधाता द्वारा रचित जगत प्रपंच के संहारक है | जो इस अपार संसार को प्रलय द्वारा लय करने वाले हैं,| काशी व् कैलाश में निवास करने वाले रुद्रा के स्वामी व्  शव भूमि वासी हैं 

मो पर कृत कृपा नयन शंकर तपो निधान | 
जासु सकल रूप सरूप सर्व हेतु कल्यान || 
जिनका समस्त रूप स्वरूप सभी के लिए कल्याणकारी है वह तपोनिधान भगवान शंकर मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि करें | 

सोमवार, ०८ जुलाई, २०१८                                                                                  

वन्दे वरदायिनी शारदे | सर्व श्रुति: सर्व काम: प्रदे || 
प्रनमउ मातु जोए कर साथा | जा सहुँ नितहि रहउँ नत माथा || 

बरन छंद रस वीना पानी |  सरसति बिद्या बधु सुर बानी || 
मैं अध घट मम मतिहि बिमूढ़ा |  तुम हंसाधिरुढ़ा || 

बुद्धि कर देई परम पबिता | मोर गुरु गिरा ग्यान सरिता || 
होइ जासु बल मोहि भरोसा | कबित्त कर्तन रूचि परिपोषा || 

कुसल कला कृत चहिअब आनी | उदार रूप मोहि बरदानी || 
आखर अरथ छन्द लंकारू | भाव करष रास भेद अपारू || 

बिचार बिनहि त परहि न पारा | अरु मो पहि नहि  एकउ बिचारा || 

निज मुखनि निज होनी जूँ  कहन चहइ रूचि मोरि | 
छमिब देब मम भोरि सो बिनति करौं कर जोरि || 

बृहस्पतिवार, १२ जुलाई, २०१८                                                                            

ए जग ए जिउ जग जीउन ज्याए  |  जननि जनक सहुँ जनमु बस पाए || 
एहि जग जातक जेतक होईं | जननि जनक बिहीन नहि कोई || 
यह जगत यह जीवन जगत जीवन स्वरूप ईश्वर द्वारा ही व्युत्पन्न हुवा है जननी जनक से केवल उसने जन्म प्राप्त किया है | इस संसार में जितने भी जातक हैं वह जननी जनक से विहीन नहीं है | 

जनम दात जाके प्रतिपालक | अति सोभाग सील सो बालक || 
मातुपिता बिरधा बट छावाँ | ताहि न आतप ताप सतावा || 
जन्म दाता ही जिनके पालक हैं वह बालक अत्यंत ही सौभाग्यशाली हैं ||  माता,पिता, बड़े वृद्ध वैट वृक्ष की छाया स्वरूप होते हैं इस छाया से जीवन पंथ में दुःख रूपी आतप का ताप कष्टकारी नहीं होता | 

प्रनमउ जनम दात पितु माता | जासों जीउ प्रान मम गाता || 
प्रथमहि गुरु मम मातु स्नेही | बदन ज्ञान सबद मुख देही || 
मैं अपने जन्मदाता माता पिता को प्रणाम करती हूँ जिनसे मेरा जीवन है प्राण हैं यह देह है | मेरी प्रथम गुरु मेरी स्नेहिल माता है जिन्होंने मेरे मुख को अभिभाषण का ज्ञान देकर मेरी वाणी को शब्दमय किया || 

ताकर गुनद पयद करि पाना | भयउ मतिहि मम सुमति सुजाना || 
ताके धरे धरनि पगुधारी | बिरद रहत होयउँ पदचारी || 
उनके गुणकारी पयस रस के पान से मेरी बुद्धि ज्ञान से युक्त होकर प्रवीण हुई | उनके द्वारा ही  मेरे चरण धरा आधारित हुवे और दंतहीन अवस्था में ही मैने परिचालन सीखा || 

नगरी नागर नदी नेह से | दीप दीप्ति दुगध स्नेह से || 
अधम अधर्मिन माहि धरम से | अकरमि माहि करतब करम से || 
जो नगरी में नागरिक के जैसे नदी में नीर के जैसे  दीपक में दीप्ती के जैसे दुग्ध में नवनीत के जैसे  अधमी व् अधर्मियों में धर्म  के जैसे अकर्मण्य में कर्त्तव्य कर्म के जैसे होते हैं | 

ते जनक जननि के चरन प्रनमन बारहिबार | 
जाकी कृपा सों डीठि ए दरस रहे संसार || 
उन मातापिता के चरणों में वारंवार प्रणाम है जिनकी कृपा से आज यह दृष्टि संसार के दर्शन कर रही है || 

शुक्रवार, १३ जुलाई, २०१८                                                                                             

अजहुँ नमत गज बदन बिनायक | सिद्धि प्रद गौरीज गन नायक || 
रचना जगत कहुँ प्रनत बिसेसु |  आत्म चरित करत श्री गनेसु | 
सिद्धियों के प्रदाता गौरी पुत्र गजमुखी गण  के स्वामी श्री गणेशजी को नमन कर रचना जगत को विशेष प्रणाम करते हुवे अपनी आत्मकथा का श्री गणेश करते हुवे 

कृति कृत भुवन भनिति कर देसा | कबित भेस भर करउँ प्रबेसा || 
बसैं बासि जहँ देसि बिदेसी | सुरुचित सुचरित सुचित सुदेसी || 
 कविता का वेश धारण किए रचनाओं के लोक में स्थित कथाओं के देश में प्रवेश करती हूँ जो सुव्यवस्थित, चरित्रवान, पवित्र-पावन होकर वास करने योग्य स्थान है जहाँ देशज के सह विदेशी भी निवासरत हैं | 

नागर संकुल नगर निकेता | गाउँ पुरा यहँ केतनिकेता || 
मन मन महुँ मनि मंदिर रेखे | अराध्य देउ मूरति लेखे || 
इसके नगर निकेत नागरिकों से भरे पुरे हैं यहाँ कितने ही ग्राम व् पुर हैं ( यह रचना धर्मियों से परिपूर्ण कृति बाहुल्य देश है ) | यहाँ प्रत्येक मन में मणिमय मंदिर आरेखित हैं जहाँ  वह अपने आराध्य देव की मूर्ति प्रतिष्ठित किए हुवे हैं | 

देउ गिरा के अभरत बानी | रचइहि कतहुँ रामरज धानी || 
कबि हिय छबि धरि मुख हरि नावा | ग्रामगिरा कृत सरु बर गाँवा || 
देवगिरा संस्कृत से वाणी आभूषित किए यहाँ कहीं पर रामचंद्र की राजधानी रचित है | ह्रदय में जगत कारण भूत भगवान  की छवि व मुख पर उनका का नाम आधारित किए कवि का ग्रामीण भाषा के सरोवर से युक्त ग्राम है | 

कीरति करत सेबत हरि चरन | रचेउ भिति भिति ब्रज बृंदाबन || 
निगमागम कथ सत पथ चीन्हि | अमरितमय अमरावति कीन्हि || 
जगत ईश्वर  की कीर्ति कर उनके चरणों की सेवा में अर्पित उस देश के अन्तस्थ में ब्रज व् वृन्दावन भी रचित हैं | सन्मार्ग को संसूचित करते धर्म व दर्शन ग्रन्थ की  आख्यायिकाओं का अमृतमय स्वर्ग भी रचित है | 


चारि बेद रचत रचइता रचेउ चातुर धाम | 
धाम धाम धनीमानी गह सुख सम्पद साम  || 
रचयिता ने चार वेदों को रच कर यहाँ चार धामों की रचना की | प्रत्येक धाम साहित्यिक सुख सम्पति की साधन भूत सामग्री से युक्त हो समृद्ध व् प्रतिष्ठित हैं | 

शनिवार, १४ जुलाई २०१८                                                                       

जेहि देस मम चरन प्रबेसिहि | जनम भुइँ सो मोर स्वदेसिहि ||
जगत बिदित जाकर इतिहासा | रचिता तहँ बोलिहि बहु भासा ||
(इसप्रकार) जिस देश में मेरी प्रविष्टि हुई, मेरी जन्मभूमि के सह वह मेरा मूलगत देश है | जिसका  जगत विख्यात इतिहास है यहाँ के रचना धर्मी बहुभाषी हैं | 

बरनिका ताल तूलि तमाला  |  सबदाकर कर सैल बिसाला  || 
बिंजन माल मनोहर श्रेनी   | सुर सरिता की सुन्दर बेनी  ||
वर्णिका के सरोवर तमाल वृक्ष सी लेखनियाँ के सह यहाँ शब्दों  के भंडार स्वरूप  विशाल पर्वत  हैं जो व्यंजनमाला की मनोहर श्रेणियों से आबद्ध व् स्वरों की सरिता रूपी सुन्दर शिखा से युक्त हैं  | 

भवन कृतिहि बहु खन गचि ढारी | गगन परसि अति तुंग अटारी || 
द्योतिर्मई दुरग दुवारा | ग्यान मनिमत दीप अधारा || 
जो परिपक्व आच्छादन से युक्त कृतियों के बहुखंडीय भवन व् गगनस्पर्शी ऊँची अट्टालिकाएं हैं | ज्ञान माणिक्य रूपी दीपक  को आधारित किए यहाँ प्रकाशमय दुर्ग व् गोपुर है || 

अधुनै नगरु पुरा पुर सोभा | बिलोकत मोर मन अति लोभा || 
कबित नदि तट भनित बट छाँवा | बसाए चहइ सोइ तहँ गाँवा || 
आधुनिक नगरों व् पुरातन पुरों की शोभा देखकर मेरा मन भी लालायित हो गया | कविता की नदी के तट पर कथनों के वट की छाया में वह भी एक गाँव बसाने हेतु अभिलाषित हो उठा | 

जोइ काल प्रबिसिहि मम पाऊ | कबिन्दु मुख अधुनात कहाऊ || 
जद्यपि रहँ सो काल अधूना | कलि कलुषावत जौ दिन दूना || 
रचनाओं के देश में जिस काल में मेरा प्रवेश हुवा उस काल को श्रेष्ठ कवियों द्वारा आधुनिक काल कहा गया | वह काल  यद्यपि आधुनिक ही था जो कलियुग को शीघ्रता से कलुषित कर रहा था | 

नरनारी भूषन भरे परधन भेस बिसेसि | 
भूति बर्धि बिभूति बरे भाषै भाष बिदेसि || 
नरनारी,भूषणों से आभरित विशिष्ट वेश धारण किए हुवे थे ऐश्वर्य का वर्द्धनकारने वाली विभूतियों को वरण किए वह विदेशी भाषा के भाषिक थे | 
  वीरवार/सोम, १५/१६ जुलाई, २०१८                                                                                         

ग्राम गिरा अटपटि मम बानी | समुझ परै न भरम महुँ सानी || 
मोरी भनिति रीतिगत होई | अनगढ़ गाउँ गँवरु जस कोई || 
ग्रामीण भाषा होने के कारण मेरी वाणी विचित्र थी यह बोधमयी न होकर भ्रम से संलिप्त थी | मेरी कथा भी रीतिकालीन होते हुवे ऐसे प्रतीत होती थी जैसे वह कोई असभ्य ग्रामीण ही हो | 

अह अति गरुबर मम अभिलासा | हरुबर भासु जोग उपहासा || 
सोन बरन न त भूषन भारू | रूप कुरूप बिनहि लंकारू || 
मेरी अभिलाषा अत्यंत गुरुत्वमयी थी मेरी भाषा अतिशय लघु थी | न मेरा वर्ण स्वर्ण था न मैने  कोई भूषण आभरित किए हुवे थे मेरा कविता का रूप अलंकार विहीन होकर कुरूपता को प्राप्य थी || 

धीगुन हीन मलिन मन भावा | कबित कला मोहि एकु न आवा || 
गिरा ग्यान कर गोट न गारा | दीन दारिद न गाँठि बिचारा || 
मेरे काव्यगत मनोभाव मलीन व् श्रुश्रुषा श्रवण आदि बुद्धि के आठ धर्मों से वियुक्त थे | मुझे कविता की एक भी कला नहीं सिद्धि प्राप्त नहीं थी | ज्ञान रूपी गोटियों व गारों से विपन्न मेरी वाणी की  ग्रंथि उत्तम विचारों से भी रिक्त थी इस हेतु वह दीन व् दरिद्र थी | 

बसइ चलेउ गाह के गाँवा | चढ़न चहै गिरि जिमि बिनु पाँवा || 
भए धरनि बहु धुरीन धुरंदरु | कबित गिरि चर कलित कृति सेखरु || 
पंगु के द्वारा पर्वत लंघन की अभिलाषा के जैसे मैं ऐसी दरिद्र वाणी से गाथा का ग्राम अधिवासित करने हेतु अभिलाषित हूँ | इस धरती में अतिशय  प्रवीण व् कोविद कवि हैं जो कविता के पर्वत पर निरंतर आरोहण करते हैं उनकी कृतियां इस कवितामय पर्वत शिखर के आभूषण स्वरूप हैं | 

रूचि उपजात चितहि जौ चाहा | ताके बस सो करिए न काहा || 
पेम पयधि मन चहि औगाहन | सुख सुभागु मुकुता के लाहन || 

गुरुजन चित चिंतन करत सुरत जगत करतार | 
जोरि पानि नत सिस करौं बिनती बारहिबार || 

कबित खन खेह खेट घरु जौ करि चहैं बिहार | 
सद्गुन मोरे गहि लियो दुरगुन दियो परिहार || 

बुए बिआ कहनिहि लीक खीचें | देइब फर करनिहि जर सीँचे || 
रचेउँ परनकुटी दुइ चारी |  कथा केरि गढ़ि करनक ढारी || 

भगतिमय सुठि प्रीति की रीति | नीति मृण्मलि दियउँ भलि भीती || 
कुंज गली कृत कुसुम वाटिका | बरनाबलि सों लसे अंतिका || 

धरे दोइ पट दोहु द्वारा | परे छंद कर बंदनबारा || 
चौंक पुरावत चातुरि पाई | अंतर गेह पियहि पौढ़ाई || 

अर्थागन अर्थापन जेतू  | कछु निज कछु परमारथ हेतू || 
जा संगत जौ उपजै भावा | जीवन जोवन जोग जुगावा || 

तुलसी कृत मानस नहि दूरे | कलि महुँ निर्मल जल भर भूरे || 
बिरदाबली कहत सिय पी के | संग लगे बन बाल्मीकि के || 

बधिअ गौ सो पुण्य करम पापकरम सरि साँप | 
या संगत सुखसार है या संगत संताप || 

मंगलवार, १७ जुलाई, २०१८                                                                                        

रीति नीति सुठि प्रीति राम की | धरा धुरज धर धर्म धाम की || 
अवतार रूप पुनीत पबिता | कीन्हेसि नाना बिषद चरिता || 

रचिहि सुपंथ चरत  दे चीन्हि   | पुरबजहु तहाँ पायन्हि दीन्हि || 
पुर्बज पथ बिरधा अनुहारिहि | बिरध पथ पितु मात अनुसारिहि || 

हमहि तासु चरनहि अनुगामी | भए सुखि सुखसाधन सामी || 
सुकृता केर चरित चरितारथ | होत जीउ हित हेतु परारथ || 

होत जोग जग देसु समाजा | तरत पारग करत कृत काजा || 
सुचितात्मन पुरइनी जाके  | होइँ चरितबअ जीवन ताके || 

सुचिता पुर्बज पुरइनी भा हमरे बढ़ भाग | 
अजहुँ के अस चलन दियो तिनके पंथ त्याग || 

बुधवार, १८ जुलाई, २०१८                                                                                            

सुपंथी तेउ भयउ कुपंथा | गुपुत गिरि भए लुपुत सद ग्रंथा || 
अब न कहंत नहि श्रुतिबंता | साधु साध बिनु भए सतसंता || 

 रहत बिदेसि कहत जबु देसी | देसज होतब गयउ भदेसी || 
दुर्गुन करिअ जहाँ उपनिबेसा | बिगरै तहाँ सकल परिबेसा || 

रहँ मलीन सो होएं कुलीना | कुलीन होइब दीन मलीना || 
भाषन भाष न भेस न भूषन | दरसि दहुँ दिसि दूषनहि दूषन || 

कवन कहा हम कहँ सोंहि आए | सनै सनै एहि सुरति बिसराए || 
साखि कहाँ कहँ हमरे मूला | जासु बिआ हम जिनके फूला || 








 



































Monday, June 25, 2018

----- || राग-रंग ४ | -----


----- || राग-मालकौंस || -----


श्री रामायन कलिमल हरनी.., पुनीत पबित जगत अनुसरनी.....


सिय के पिय की प्रीति सुठि रीति कल कंठ कलित कर बरनी.., 
थकै पंथि हुँत तरुबर छाईं तिसनित हुँत यहु निरझरनी.., 
एहि भव सागर सरिस अपारा तासु तरन हेतु यह तरनी.., 
जगति राति की जरति जोत सी अगजग जोतिर्मय करनी.., 
अधबर पंथ अँधियारे पाँखि महुँ यह उजियारा भरनी.., 
श्रवन मृदु मधुरिम श्रुति रंजन गायन मंजुल मनहरनी.., 
 भगवन्मय यहु भगति भगवती सरूप भगवद पद परनी.., 
भव बंधन मुकुति कर मुकुता गहै याके मारग चरनी.., 
साधू सज्जन संत जन सहित दीन दुखियन केरि सरनी..,

Thursday, June 21, 2018

----- || राग-रंग ३ | -----,


----- || राग -मियाँ की तोड़ी || -----

हे जग बंदन अब अवतरौ तुम्ह..,
कलि काल कर कलुष हरौ तुम्ह..,

हिय संताप नैन भर बारी | धेनु रूप धर धरति पुकारी ||
तरस प्रभु दृग दरस परौ तुम्ह..,

तलफत भू कलपत बहु रोई | तुम्ह सोंहि प्रभु अबर न कोई ||
मोर हरिदय चरन धरौ तुम्ह..,

बोहि बोह सिरु पाप अगाधा | गहबर पंथ चरन गहि बाधा ||
पातक भारु हरन करौ तुम्ह..,

गिरि सरि सागर हरुबर मोही | भा गरुबर एक धर्म बिद्रोही ||
प्रगस सगुन सरूप धरौ तुम्ह..,

दुःख दारुन कर रैन मँझारे  | धरै दीप सम नैन दुआरे || 
दिनकर के रूप अभरौ तुम्ह.., 

चारिहुँ ओर घोर अँधियारा | निद्रालस बस भयो संसारा || 
करत भोर अँजोर भरौ तुम्ह.., 

लोग भयऊ मोर बिपरीता | अपकरनि ते भयहु भयभीता ||
भवहि केरि बिभूति बरौ तुम्ह.....

भावार्थ : - हे जगत वंदनीय ईश्वर अब आप अवतार लो | और अवतार लेकर कलियुग की कलुषता से मुक्त करो || ह्रदय में संताप और नेत्रों में जल भरकर  गाय रूप धारण की हुई  धरती ने आर्त होकर भगवान को पुकार कर कहा -- हे भगवन ! अब दया कर इन अश्रुपूरित नेत्रों को अपना दर्शन दो || तड़पती हुवे रूदन के द्वारा  अपनी अंतर वेदना को व्यक्त करती हुई भूमि ने फिर कहा हे प्रभु! आपके अतिरिक्त इस संसार में मरा कोई नहीं है मेरे ह्रदय में अपने चरण धरो | मेरे शीश पर अगाध पाप के गठरी का बोझ है मेरा भ्रमण पंथ दुर्गम है उसपर मेरे चरण आपदा स्वरूप बाधाओं से बंधे हैं, प्रभु! अब आप इन पापों का हरण करो | पर्वत, सरिताएं और सागर भी मेरे लिए भारहीन हैं किन्तु एक धर्म विद्रोही का भार मुझे अतिशय भारी प्रतीत होने लगा है | हे अन्तर्यामी ! अब प्रकट होओ और सगुण स्वरूप धारण करो | दुःख व् दरिद्रता की अर्ध रात्रि में द्वार पर धरे दीपक के समान ये नयन प्रतीक्षारत है  | हे प्रभु ! अब आप दिनकांत के रूप का आभरण करो | चारों और घोर अन्धकार व्याप्त है संसार निद्रा व् आलस्य के वशीभूत हो गया है हे भगवन ! अब भोर कर अपनी दीप्ती से जगत में उजाला भर दो | ये सांसारिक लोग मेरे विपरीत हो चले  है इनके कुकर्मों सेस्वयं भय भी भयभीत है अब इस लोक की वैभव विभूति को आप ही वरण करो हे राम अवतरण करो.....