Sunday, July 22, 2018

----- || प्रभात-चरित्र २ || -----

बुधवार, १८ जुलाई, २०१८                                                                                            

सुपंथी तेउ भयउ कुपंथा | गुपुत गिरि भए लुपुत सद ग्रंथा || 
अब न कहंत नहि श्रुतिबंता | साधु साध बिनु भए सतसंता || 
सन्मार्गी से जब वह कुमार्ग गामी हो गया तब सद्ग्रन्थ किसी गुप्त गिरि में जाकर विलुप्त होगए | अब न तो उत्तम वक्ता ही रहे न श्रोता | साधू साधना से विहीन होकर संत व् सज्जनों की पदवी को प्राप्त होने लगे | 

रहत बिदेसि कहत जबु देसी | होत  गयउ तब  देसि  भदेसी || 
दुर्गुन बसै जहँ उपनिबेसा | बिगरै तहाँ सकल परिबेसा || 
भिन्न देश के होते हुवे भी जहाँ विदेशी भी देशी कहलाते हों वहां भद्र देशी भी अभद्रता को प्राप्त होते चले जाते हैं  | जहाँ उपनिवेशों में दुर्गुण निवास करते हैं उस देश का समूचा परिवेश ही विकृत हो जाता है | 

रहँ मलीन सो होएं कुलीना | कुलीन दिन दिन होइँ मलीना || 
भाषन भाष न भेस न भूषन | दरसि दहुँ दिसि दूषनहि दूषन || 
सुकृत परिवेश के विकृत होने से मलीनता सद्गुण ग्रहण कर कुलीनता में व् कुलीनता दुर्गुण ग्रहण कर दिनोंदिन मलीनता में परिवर्तित होती चली गई |  जब सर्वत्र  दोष ही दोष दर्शित होने लगे  तब भाषा भाषा नहीं रही, भेष भेष नहीं रहा, भूषण भूषण नहीं रहे |  इस दूषित परिवेश के प्रभाव में ये भी दोषयुक्त हो गए | 

भूमि सुर जोधिक ब्यौहारी | अलपहि मति अतिसै श्रमहारी || 
कहँ सो ऋषिमुनि कोल किराता | रहँ जौ हमरे जनिमन दाता || 
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, अल्पमति किन्तु अत्यधिक श्रम सहिष्णु वह क्षुद्र कहाँ हैं वह ऋषिमुनि कहाँ हैं वनों में विचरण करते वह आदिवासी कहाँ हैं जो हमारे जन्मदाता हैं | 

साखि कहाँ कहँ हमरे मूला | जासु बिआ हम जिनके फूला || 
कहँ सो फूरन के बनबारी | पुनि बुए कहँ तहँ संग उपारी || 
कुञ्ज कुञ्ज सो कलित निकेतू | तहँ सोंहि उपरे केहि हेतू || 
कवन कहा हम कहँ सोंहि आए | सनै सनै एहि सुरति बिसराए || 

हम कहाँ से व्युत्पन्न हुवे कहाँ फलीभूत हुवे हम जिनके बीज है, फूल हैं, हमारा वो मूल कहाँ है हमारी वे शाखाएं कहाँ है, फूलों का वह उपवन कहाँ है वहां से उखड़ कर फिर कहाँ वपन हुवे, उपवनों से सुसज्जित उस वसति से हम किस हेतु उत्खात किए गए | हम कौन थे क्या थे कहाँ से आए थे फिर शनै:शनै: यह स्मृति भी हमें विस्मृत हो गई | 

बिछुरत संगत आपुने भए बिनु छादन बास | 
बिनहि जल बिनु खाद पुनि बसे केहि बसबास || 
अपनों से वियोजित होकर वासनाच्छादन से वियुक्त, भरण पोषण से वंचित फिर हम किस निवास के वासी हुवे | 

परबसिया जहँ दरसिया बसबासत सब कूल | 

कहँ भारत कहँ भारती कहँ भारत के मूल || 
सीमावर्ती प्रदेशों में जहाँ तक देखो वहां पराई शाखाएं ही निवास करती दिखाई देती हैं ऐसी परिस्थिति में भारत कहाँ है, भारतीय कहाँ हैं, और भारत की वह जड़ें कहाँ हैं जिनसे यह राष्ट्र परिपोषित हुवा यह समृति भी हमें विस्मृत हो गई | 


बृहस्पतिवार, १९ जुलाई, २०१८                                                                                     

अजहुँ त अहैं सहित हम मूला | बसत बिनस मुखि बिधि कर कूला || 
अजहुँत समउ भरे कठिनाई | होवनहारि कहा कहि जाई || 
मौलिकता के विनाशोन्मुखी विधान के निकट निवास करते हुवे भी हम अभी तो मूल सहित हैं | अधुनातन समय की चाल अत्यंत कठिन  है आगे के विषय में यह अनिर्वचनीय है कि उसका भी मूल संरक्षित रहता है अथवा नहीं   || 

दिसा भरमी दसा दुर होई  | दिग्दरसकहु दिसै न कोई || 
जाएँ चरन कहँ  केहि न सूझै | पंथ कुपंथ चरन न बूझैं || 
 वर्तमान में दिशा भ्रम को तथा  दशा दुर्दशा को प्राप्त है कोई मार्गद्रष्टा भी दृष्टिगत नहीं होता और कोई  पंथ कुपंथ में  नहीं होता  ये चरण जाएं कहाँ यह किसी को नहीं सूझता | 

नगरि अँधेरी चौपट राजा |  स्वतोबिरोधि देस समाजा || 
ताते पूरब भएँ निरमूला | परे धूरि मुख बिथुरै पूला || 
समाज अपने ही स्वत्व का विरोधी हो चला है  देश का द्वार पट विहीन है यहाँ  नीति व् न्याय का अभाव है  जो चाहे जब चाहे  इस पर शासन कर सकता है इससे पूर्व की हमारी मौलिकता नष्ट हो जाए,हमारी अस्मिता धूमिल हो जाए और हमारा अपना समुदाय छिन्न-भिन्न हो जाए | 

होत सजागर सजग सचेता | रहँ जागरूक जोग निकेता || 
हेर लगे निज स्वताधारा  | अरु कह सकै ए देस हमारा   ||  
हम अपने राष्ट्र की सुरक्षा के प्रति सजग सचेत व् सावधान रहे | जो समय के साथ  विस्मृत हो गया  उस स्वकर्तव्य के विषय में सतर्क रहते हुवे अपने उस स्वत्व के आधार को ढूंढे जिसके बल पर  हम गर्व से कह सकें कि ये देश हमारा है |  

अचेतन होत जहँ जन मानस रहे उदास | 

तहँ की सब सुख सम्पदा बसे परायो बास || 
(क्योंकि ) जहाँ जनमानस अपने अस्तित्व के बौद्धिक तत्वों से अनभिज्ञ होते हुवे सुषुप्त अवस्था को प्राप्त  होता है वहां की सभी सुख सम्पदाएँ पराए देशों में जा बसती हैं और वहां निर्धनता का वास हो जाता है |

होत जात सो देस निज संप्रभूत तैं दूर || 
मौलि अधिकृति ते अधिकृत भवतु परायो मूर | 
(क्योंकि ) वह राष्ट्र अपने सम्प्रभुत्व से दूर होता चला जाता है जिसके संविधान में स्वयं से भिन्न अन्योदर्य मूल, मौलिक अधिकारों से संपन्न हों |  

शुक्र/शनि, २०/२१  जुलाई, २०१८                                                                                  

सकुचित मानसन्हि अनुहारी | भएँ श्रुति बिरोधि सब नर नारी || 
देस धर्म जब देइ त्याजू | राजत तब दिग भरम समाजू  || 
संकुचित मानसिकता का अनुशरण करते हुवे विद्यमान समय में हम भारतीय अपने ही धर्म ग्रंथों के विरोधी हो गए | जब देश में प्रचलित आचार-विचार त्याज्य हो जाते हैं तब दिशा विभ्रमित समाज उसपर शासन करने लगता  हैं | 

जन्मद जेहि देस जनमावैं  | जातकहु तहाँ केर कहावैं || 
धरमचरन अनुहरत चलि आए | लोकगत रीति देस गति पाए || 
जिस देश में जन्मदाता जन्म लेते हैं उसके जातक भी वहीँ के कहलाते हैं |  पीढ़ियां जब धर्म के आचरण का नियमपूर्वक परिपालन करती चली आती हैं तब किसी देशविशेष में लोक मान्यताएं व् लोक प्रथाएं प्रचलित होती हैं | 

जीउनाचरन होतब जैसे  |  अचारबिचार होतब तैसे || 
धर्मन चारन  होतब जैसे | देसाचारहु प्रचरत तैसे || 
जीवन चर्या जैसे होती है मनुष्य के आचार विचार भी वैसे ही होते हैं  | उसी प्रकार धर्मचर्या जैसी होती है देश विशेष में वैसे ही आचार-व्यवहार प्रचलित होते हैं | 

देस भूमि जौ पटतर खेहा | सुघडपन संस्कृति सम नेहा   || 
देसधरम जल पवन सरूपा | जन जन तासु उपज समरूपा || 
कोई देश भूमि यदि कृषिक्षेत्र के समान हो तो सभ्यता व् संस्कृति उसकी मीट्टी के पोषक  तत्त्व के समान होती हैं ॥  देश विशेष में  प्रचलित आचार-व्यवहार उसकी जलवायु के जैसे व्  राष्ट्रजन उस क्षेत्र की उपज के समरूप होते हैं  ॥ खेत जैसा होगा उपज भी वैसी ही होगी ॥ 
भूखन जस जल पोषन पावा | उपज रूप तस जन निपजावा || 
भूषा भाष भेष जहँ जैसे  | पनपे परिबेसु तहँ तैसे  || 
देस रूपी खेत को जैसा जल व् पोषण प्राप्त होता है जन स्वरूप में वहां वैसी ही उपज होती है | जहाँ जैसी भाषा व् वेशभूषा होती है वहां परिवेश भी वैसा ही पनपता है | 


धर्म चर्जा गरभ गहि पावै | सँस्कार संस्कृति जनमावै || 
जेहि धर्म चहु चरनाधारै | होनहार तेहि होनिहारे ||  
धर्म चर्या के गर्भ को प्राप्त होकर ही संस्कार व् संस्कृति व्युत्पन्न होते हैं | धर्म जब सत्य, तप, दया, दान इन चार चरणों पर स्थित होता है तब उसके द्वारा व्युत्पन्न संतति उत्तम होती हैं | 

जन्मद जहँ जन्माइया जनिमन तहँ कि कहाए | 
संस्कृतिहु तहँ केरि कहँ जहाँ धरम प्रगसाए   |  
जन्मदाता जहाँ जन्म लेते हैं संतान भी वहीँ की कहलाती है धर्म का जहाँ प्राकट्य होता है संस्कृति भी वहीँ की कहलाती है | 

बिचु बिच उरेहु बिंध्य पहारा | बहति गईं जहँ सुरसरि धारा || 
खेह खेह गत हल हल हेले | बीर भूमि गत सागर मेले  || 
मध्यभाग को विंध्याचल पर्वत श्रेणी से अवरेखित कर जहाँ गंगा की धारा प्रवाहित होती हुई खेत खेत के हल हल से परिचित होते हुवे वीर भूमि से होती हुई सागर में समाहित हो जाती है | 

तीनि सिंधु जुग चरन पखारें | पूरब दुआरकेस दुआरे || 
उत्तरु सर्ब निलै कैलासा | हिमगिरि आबरति न्यासा || 
तीन सिन्धुओं का संगम जिसके पदप्रच्छालन करता है पूर्व में द्वारकेश का द्वार में तो उत्तर में सर्ववासी कैलाश को स्थापित किए यह गिरिराज हिमालय के चारों ओर के क्षेत्र में विन्यासित था | 

चारि काल सहुँ छहुँ रितु राजै | जनु पर्कृति तहँ साखि बिराजै || 
रहँ बन बिटप बिरउ बहु भाँती | बिचरहि जंतुहु अगनित जाती || 
चारों काल के संगत षड ऋतू की उपस्थिति के साथ मानो प्रकृति यहाँ साक्षात विराजमान थी || वनों में भाँती भाँती के विटप व् पौधे सुशोभित थे जहाँ अनगिनत जाति के जीव-जंतु विचरण किया करते थे | 

चलिए चहुँ पुर पवन पुरबाई |  मलय गिरि बन  गंध अपुराई || 
भयउ सुखद सम्पद सबकाला | कतहुँ आपद न भयउ अकाला || 
चारों ओर यहाँ पूर्वी हवाएं चलती जो मलयगिरि में स्थित चन्दन वन के गंध से परिपूर्ण रहती | यहाँ सभी काल सम्पद काल होते हुवे सुखमई होते आपदा होती न किसी वस्तु का अकाल ही होता || 

परबत जहँ  प्रगसाइहीं भुईँ सम्पदा भूरि 
बहतिं रहति जित तित सरित निर्मल जर भर पूरि || 
भावार्थ : - जहाँ पर्वत अतिशय भू सम्पदा प्रकट करते हैं , निर्मल जल से भरीपूरी सरिताएं जहाँ-तहाँ प्रवाहित रहती थीं |  

हम बासिहि ता देस के सरजत  जगत बिधात | 
जग महुँ सबते पाहिले जनमिहि जहँ मनु जात || 
सृष्टि की रचना करके विधाता ने मानव जाति  को विश्व में सर्वप्रथम जहाँ जन्म दिया हम उस देश के निवासी है 

तीर तीर बसबासिहि बासी | सुरुचित भेस भूस मधु भासी || 
धरम परायन सहित सुग्रंथा | करम जुगत कर चरन सुपंथा || 
तटवर्ती क्षेत्रों में सुरुचित वेश भूषा धारण किए मधुर भाषी भारतवासी निवासरत थे |  ये धरम परायण थे  सद्ग्रन्थों से युक्त इनके हस्त की कर्मों में अनुरक्ति थी चरण सन्मार्गगामी थे | 



बासहि जग जब घन बन गूहा  | भाषहि बिनु बर बैनत हू हा || 
प्रगसि तहाँ  बुद्धिन कहुँ देई | रागमई सरगम सहुँ सेई || 
जब विश्व का मानव समुदाय भावाभिव्यक्ति के साधन से विहीन हूँ हा के घोर शब्द करते हुवे बीहड़ वनों एवं दुर्गम गुहाओं में निवास कर रहा था तब इस देश में  रागमयी सप्त स्वरमालिका से सेवित बुद्धि की देवी का प्राकट्य हुवा | 

ग्यानदीठि देइ बरदाना | भयउ अंतस ज्योतिष्माना || 
कलित करत कल बीना पानी | बदन देइ वांग्मय बानी ||  
उसने ज्ञानदृष्टि  का वरदान देकर उसके अंतस को ज्योतिर्मय व् हस्त को मधुरिम वीणा से सुसज्जित करते हुवे वदन को वांग्मय वाणी से युक्त किया | 

बरन समूह सों संपन्न  सुर सम्पद कर जोग । 
सरित रूप प्रगसित भई देउ गिरा कहँ लोग ॥ 
 इस संस्कृति के संग वर्ण समूह से संपन्न हस्त कमल में स्वरों की सम्पदा संकलित किए सूत्र रूप में फिर एक समृद्ध भाषा देव गिरा प्रकट हुई, जो प्राचीनतम् भाषा के पद पर प्रतिष्ठित होकर सस्कृत नाम से प्रसिद्ध है ॥ 

वीरवार, २२ जुलाई, २०१८                                                                                          
                                                                                                                                 

जेहि जुग पाषानु जग जाना | मानसहु जहँ लहउ पाषाना || 
अमिष भुक को निरामिष कोई | सारंगज सियारु जस होई || 
संसार में जो युग पाषाणयुग के नाम से विख्यात है जहाँ मनुष्य परिष्कृत न होने कारण स्वयं पाषाण के समतुल्य था | सारंग व् शेर-शियार जाति  के समान ही कोई अमिष भक्षी  तो कोई निरामिष था | 

मानस जाति निरामिष होई | कहत भारति जनहि सब कोई || 
अधर संगत पयस जौ पावै | साक पात सो जीव पवावै || 
मनुष्य जाति प्रारम्भ से निरामिष रही, ( होंठ से जल ग्रहण करने के कारण )  ऐसा भारत के सभी जनों का कहना है क्योंकि जो जीव होंठ से जल ग्रहण करता है वह शाकपत्र का आहारी पाए गए  | 

 भरिअब जब जग बिपिन ब्याला | जनमि मनुस ते आरंभ काला 
बहुस समउ लगि रहिइ लमाना  || कहइँ जाब सो काल पषाना  ||
जब संसार सघन वनों और  वन्यप्राणियों से पूर्णित था और मानव जाति की उत्पत्ति के उस प्रारम्भिक काल को पाषाण काल कहा गया वह काल बहुताधिक लम्बे समय तक रहा | 

ताहि जुग करि बयस अनुमाना | पाँचि लाह बत्सर बिद्बाना || 
मानस तब गहेउ जड़ताई | पाहन जुग एहि हुँत कहाई || 
विद्वानों के अनुमानानुसार उस काल के आयु पांच लाख वर्ष थी | मनुष्य की बुध्दि उस समय जड़त्व को प्राप्त थी इसलिए उसे पाषाणकाल कहा गया | 

घिरे घोर घन बन हिंसि  जन्तु लाखन्हि लाख | 
पाहन के आजुध गढ़े राखन आपुनि राख || 
सघन दुर्गम वन लाखों लाख हिंसालु जंतुओं से घिरा हुवे मनुष्य ने अपनी सुरक्षा हेतु पाषाणों के आयुध गढ़े | 
   
पलौ उहारन पलौ बिछावा | पलौहि परधन देह बसावा ||
जग बन मानुष जबहि कहावा | निपट सो उज्जड पन गहावा || 
वृक्ष के पल्लव आच्छादन व् पल्लव के ही अंगवस्त्र धारण कर  विश्व जब वनमानुष की संज्ञा धारण कर नितांत उज्जडता को प्राप्त था | 

निकसत बन सों भारत बासी  | बसा बसति भय तासु निवासी 
बसे बिपिन बसन बिनु बासा | बसा बसति एहि बसत निबासा  || 
तब भारत वासी वन से निष्कासित होकर बस्तियां बसा कर निवासी की संज्ञा को प्राप्त हो चुके थे  जब वह दुर्गम वन में वेश व् वास विहीन होकर जब विश्व बेहड़ वनों में निवास करता था तब यह देश वसतियाँ अधिवासित कर निवासों में वास करने लगे थे |

सरजत कर्षिनि अन्न ज्यायो  |  पाहन सोध धातु जग दायो || 
पाहनहि सों अगन प्रगसायो | भाजन सोंहि जगत परचायो || 
कृषि का आविष्कार कर इन्होने  अन्न व्युत्पन्न किया व् पाषाण का शोधन कर संसार को धातुमय किया |पाषाणों से ही अग्नि को प्रकट किया और संसार को भाजन से परिचित करवाया | 
बसति बसति पुनि बसत सुपासू   | भयउ पुरा पुर नगर निवासू || 
भोजन संग अगन बसबासी | भू लख्मी गह माहि निवासी || 
वस्तियों में सुखपूर्वक निवास करते हुवे तदनन्तर ग्राम पुर व् नगरों का निवासी हो चले थे  | इस प्रकार भोजन के संग अग्नि का निवास हुवा तब भूमि पर व्याप्त धन- लक्ष्मी गृहों में प्रतिष्ठित हो गई | 

बस्ति बस्ति रहेउ बसत नव पाहन जुग सोह | 
अबर बसन बिन बास जब रहे सघन बन खोह || 
पाषाण से नवपाषाण युग में प्रवेश करते हुवे वह भारत तब बस्तियों में निवासरत था, जब अन्य देश के निवासी वस्त्र व् आवास से रहित होकर सघन वनों के भीतर गुफाओं में रहा करते थे ||



भयऊ तब सो नागर जूहा | बसिहि जबहि जग जन बन गूँहा |  


छायँ उरेहु लिखे जस खाँचे  | दरसिहि अयताकारित ढाँचे || 
बासु बसति पंगति दरसाई | कहिब मानस बसहि अस्थाई || 
छायाचित्र में जिस प्रकार के खांचे चित्रित हैं और आयातकार ढांचा दर्शित होता है वह पंक्तिबद्ध आवसीय वसति को दर्शाता है यह उद्घोषणा करते हुवे कि मानव अब स्थायी निवासी हो चला था | 

जूह समूह समोए के पुरबल रहँ बन बासि । 
बसे नगर भए नागरी मानस रहैं सुपासि ॥ 
छोटे छोटे झुंड व् समूह में समेकित जो जनमानस वनों में अधिवासित था अब वह कर्मशील होकर समष्टि में रूपान्तरित हो गया और एक समृद्ध वसति में सुखपूर्वक निवास करने लगा ॥ 

तजत पसुता जोए जिउत करि करि जबु श्रम कर्म । 
धी  गुन धरे प्रगस भया धीर रूप में धर्म ॥ 
नगर और निवास में निवासित मानव अब पशुता का त्याग कर  जीवन यापन के लिए श्रम और कर्म करने लगा । कर्म के साथ बुद्धि के आठ गुणों को धारण किए संतोष स्वरूप में धर्म का प्राकट्य हुवा | 


प्रथम बुद्धि पुनि आए ग्याना | दिसि दिसि दरसत दियउ ध्याना || 
निस्पृह नैन निरखि चहुँ पासा | भए चित्र लिखि से चितब अगासा || 
सर्वप्रथम बुद्धि आई तत्पश्चात ज्ञान आया तब उसने दृष्टिआक्षेप कर दिशाओं का ध्यान पूर्वक अवलोकन किया | निश्पृह नेत्रों ने चारों ओर के वातावरण का निरिक्षण कर जब आकाश की ओर दृष्टि की तब वह चित्रवत रह गए | 

एहि बन परबत एहि पुरबाई |  ए बहति नदिया कहँ ते आई | 
आए पथ्यापथ्य करि ग्याना | कृत्याकृत ते होइ सुजाना | 
(फिर उसने विचार किया ) ये वन ये पर्वत ये पूर्वी पवन ये नदी का आगम कहाँ से हुवा | फिर खाद्याखाद्य का ज्ञान आया तब कर्त्तव्याकर्त्तव्य के बोध से वह सचेत हो गया || 

चेतस मानस कियउ बिचारा | अहहि जगन को सरजनहारा || 
सर्जन सक्ति सामरथि कोई  | जीवाजीउ जनक जौ होई ||
चैतन्य मनो-मस्तिष्क ने विचार किया कि इस संसार का कोई सृजनकर्ता है अवश्य ही कोई भवधरण है जो सृजन शक्तियों से सामर्थ्यवान हो इस जीवाजीव का जनक स्वरूप है | 

जटाजूट धर पुनि सिव संकर | पसु पति नाथु रूप जोगेसर || 
मानस दरस दियो भगवाना | त पूजहि परम् पितु अनुमाना || 
तदनन्तर मानव को पशुपति नाथ जटा जूट धारी शिव शम्भू के योगेश्वर रूप में ईश्वर दृष्टिगत हुवे जगत के कारण स्वरूप परम पिता परमेश्वर अनुमान कर वह उनका वंदन करने लगा | 

मंद मति जग ग्यान बिहीना  | रहिब पसु सम धर्म ते हीना || 
बुद्धि मंत पद होत असीना | भगवन महु ए रहब लय लीना || 
ज्ञान विहीन, अल्पधी विश्व जब पशु के सदृश्य धर्म से निरपेक्ष था तब बुद्धिमन्त के पद पर आसीत होते हुवे यह देश ईश्वर का निरूपण कर ईश्वर में लयलीन था || 

मरनि देहि दहन किरिया करम दिए चिन्हारि | 
संबिद सों संबिदि होत भयो पुनि संस्कारि || 
मृतप्राय देह की दहन के द्वारा अंत्येष्टि यह संसूचित कराती है कि यह देश अपनी सम्यक अनुभूति के फलस्वरूप सर्वप्रथम संज्ञा पद को प्राप्त होते (नामधारक : - जैसे ये राम है, ये कृष्ण है ये शिव है )हुवे संस्कारित होता चला गया | 

जान जलहि सो बुझहि पिपासा  | बायु संगत चलहि जिमि साँसा  || 
बसत चले  तरंगिनि तीरा | तीर तीर भए मानस भीरा || 
जल ही जीवन है जल से ही तृष्णा का क्षय होता है वायु के संगत स्वास का संचरण होता है  यह संज्ञान कर प्रथम सभ्य मानव जाति अनूपग्राम में अधिवासित होती गई  इस प्रकार नदियों के समस्त तटवर्ती क्षेत्र मानव समूह से संबाधित हो गए | 

प्राग भारउ पारु परजंता | लेखि  सिंधु सरित सीमांता  || 
मझारि भाग लिखि सुर गंगा | चली परसति बीर भू बंगा || 
हिमालय पर्वत के अग्रभाग के उस पार तक सिंधु नदी ने इस देश की सीमारेखा उल्लेखित कर तत्पश्चात  मध्य भाग को देवनदी ने रेखांकित किया गया जो वीरभूमि ( बंगाल का प्राचीन नाम ) वंग-प्रदेश को स्पर्श करती हुई प्रवाहित होती है | 

हेलमिली सागर सों आनी | सीँव किए त्रय पयधि के पानी || 
उतुंग सिखर गगन करि चिन्हा | पर्कृति जनु पाहरु बर दिन्हा ||
और आकर सागर से सम्मिलत हो जाती है त्रिसिंधु के जल से इसकी सीमाएं आबद्ध होती है | हिमालय का ऊँचा शिखर गगन पर की सीमाऍं को चिन्हित करता हुवा इसके ऊँचे शिखर से युक्त हिमालय पर्वत को प्रकृति ने जिसे वरदान स्वरूप दिया है | 

प्राग समउ कृसानु परजारा | रहि अतिसय सो कारज भारा  || 
तासु सजोवन कुंड बनाईं | काल परे हबि गेह कहाईं || 
प्राचीन समय में अग्नि को प्रज्वलित रखना कठिनाई से भरा हुवा कार्य था इसके संकलन हेतु कुंड की रचना की गई कालान्तर में यही कुंड हवन कुंड में रूपांतरित हो गए || 

दियो जगत कर हल रु हथौरे  | काठि करित बहु कटक कठौरे || 
पूजत तरु अरु पशुपतिनाथा | भूमि मातु कह नायउ माथा || 
हल-हथौड़े देकर विश्व को यंत्रों से युक्त किया | वृक्ष और  पशुपतिनाथ वंदना कर भूमि को माता कहकर  सैधव नतमस्तक होता | 

करम खेत हलमारग रेखे | भाग रेख निज निजहि उलेखे || 
इष्टका चित भवनु गच ढारिहि | गढ़े चाक गहि बसहा गारिहि || 
कर्मों ने  खेतों में हलमार्ग अवरेखित कर अपनी भाग्य रेखा को आप ही उल्लेखित किया |  इष्टिका निर्मित परिपक्व भवनों को संरचित किया | चक्र गढ़े  वृषभ वाहन ने ग्रहण  | 

करषत भूमि हलहि कर धारी ससि संपन्न जग करे | 
भवन भरयारी भयउ भंडारी भूति केर भंडार भरे || 
मधु मकरंदु सोंहि मधुरि गहत रसन रसन मधुरई बसे | 
दिसा दरसावत सदन सदन सुभ सुवास्तिका लषन लसे || 
हल धारी हाथों से भूमि का कर्षण कर  इस विश्व को अन्न से समृद्ध किया |  भरेपूरे भवनों के भण्डारपति होकर संसार को ऐश्वर्य से परिपूर्ण किया | मधुरस से माधुर्यता ग्रहण की तब जिह्वा जिह्वा में मधुरता वास हुवा  को दर्शाते हुवे सदन सदन में स्वास्तिका का मंगल चिन्ह सुशोभित होने लगा || 

भेष भूषन बसाए तन भाष बिभूषित भास् | 
करत करषि निपजाइआ जौ कन कनक कपास ||  
भेषाभूषण आभारित देह थी और भाषा अलंकारों से सुसज्जित थी | कृषि करते हुवे वह जौ कणिकाएं गेहूं और कपास की उपज व्युत्पन्न करते  | 

बासन संग बसे पुनि भूषन  | बरतत  कतिपय सील आचरन || 
त बसि श्री भए श्रील सब देहा | धरे भूति श्रीधर भए गेहा  || 
तत्पश्चात उत्तम वेशभूषा के साथ भूषणों का निवास हुवा | और मनुष्य सभ्य होते हुवे यत्किंचित शील व् सदाचरण का  व्यवहार करने लगा तब मानव देह शोभा से संपन्न हो गई  और जगत विभूति को धारण किए समस्त गृह- गृह  गृहस्वामियों से सुशोभित होने लगे | 

पर्कृति रूप तोय तरु पूजत | गढे देइ कह मृण्मय मूरत || 
सिल्प कला संगत धनवाना  | पूरबल किएँ कलाकृति नाना || 
प्रकृति के प्रतिक स्वरूप जल व् वृक्ष की वह वंदना करते मृण्मय मूर्तियां गढ़कर उन्होंने उसे देवी कहकर पुकारा | शिल्प कला के तो वह धनी ही थे उस प्रागकाल में भी नाना भांति की कलाकृति करते  | 

चहु पुर सुरुचित नगरु प्रबन्धन  |  बनाइ नाव करिहि नौकायन || 
कतहुँ त चलिहि चरन धर चाके | जोरि भवनन इष्टिका पाके || 
चारों ओर एक सुव्यवस्थित नगर प्रबंधन था यातायात के साधन हेतु नौका निर्मित कर वह नौकायन करते | कहीं कहीं तो वह चक्रयान द्वारा परिचालन किया करते  | उनके भवन परिपक्व इष्टिका से संरचित थे | 

परिघा परसु कि छुरपर आरा | रचे आजुध रचत कुलहारा || 
मंगल परब बजावहि ढोला | दियो जगत ए ग्यान अमोला || 
कुल्हाड़ी की रचना के साथ ही  परिघा, फरसा, क्षुरप्र व् आरे आदि आयुधों का आविष्कार किया | मंगल पर्व में वह ढोल बजाते हुवे संसार को अनमोल यह ज्ञान दिया | 

जीवन धन सहुँ साधन धारत  | धरम सापेख  बहुरि ए भारत || 
प्रचरत चोख चरन संसारत | उन्नति गिरन्हि सिखर बिराजत || 
 तदनन्तर जीवन धन के संगत सुख साधनों को धारण कर द्रुतगति से संचालित होते हुवे यह भारत धर्मसापेक्ष होकर उन्नति गिरि के शिखर पर विराजमान हुवा | 


बाहि परच दए चले अगाड़ी | पूजत बैला बिरचत गाड़ी || 
जब जग धरनि धरै नहि पाँवा | तासु चरनन्हि चाक बँधावा || 
भारत  ने वृषभ की चरण वंदना  कर बैलगाड़ी की रचना की और वाहन से परिचित हुवा  जब अन्य देश अपने चरणों पर स्थित भी नहीं हुवे थे तब वह चरणों में चक्र विबन्धित किए अग्रदूत के पद पर प्रतिष्ठित होकर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता गया  |


अर्थ ते बड़ो धर्म किए नेम नियत यह देस |

प्रगति केरे पंथ रचत देत जगत उपदेस || 
अर्थ की अपेक्षा धर्म को प्रधानता देकर इस देश ने प्रगति के पंथ का निर्माण किया  व् कतिपय नियमों का निबंधन कर विश्व को उपदेश देते हुवे कहा : - 

अर्थ तै रचित एहि पंथ  धरम करम कृत सेतु |
जीवन रखिता होइ के बरतिहु जग हित हेतु || 
पथ की अपनी मर्यादा होती है अर्थ के द्वारा निर्मित यह प्रगति पंथ भी धर्म व् कर्म की मर्यादा से युक्त हो |  जीवमात्र की रक्षा करते हुवे विश्व कल्याण के हेतु इसका व्यवहार हो |

मंगलवार,०१ जनवरी २०१९ सम्पादित                                                                                       

सैंधु सुघरपन जेसिउ पावा | बैदिक धर्महि किअउ प्रभावा || 
लखि गिरादि देउता देई | तासु ए धर्म भवन गहि नेईं || 
 सिंधु सभ्यता जिस भांति ज्ञात हुई उससे वैदिक युग भी प्रभावित रहा | लक्ष्मी,सरस्वती आदि देवी देवता ने इस युग में प्रादुर्भूत धर्म के भवन की नींव रखी |  

भाजन माहि किन्ही अहारा | प्रसाधन सों करत सिंगारा ||
मनिमय मुकुता मनकाभूषन | रचत बसन भए भूषित जन जन ||
भाजनों में भोजन करते हुवे यह नाना प्रसाधनों से अपना श्रृंगार करते | वस्त्रों की रचना के सह मणिमय मुकुता व् मनकों के आभूषणों से इस सभ्यता के लोग सुसज्जित रहते | 

परबोत्सव रु बाजैं ढोला | धरे देह सुठि सुन्दर चोला || 
तरु सिउ पूजन सथिया चिन्हा | कहत ताहि विद सैंधव दिन्हा || 
पर्वोंत्सवों में ढोल बाजे का प्रयोग देह में सुरुचित सुन्दर वस्त्रों धारण करना | वृक्षों एवं भवगवान शिव का पूजन के साथ स्वास्तिक का चिन्ह आदि सिंधु सभ्यता की देन है ऐसा विद्वानों का कहना है | 




सोमवार, ३० जुलाई, २०१८                                                                                           

सहस चतुरारध बत्सर आगे | तीनी अरध पूरबल लागे || 
उदयत सिंधु सरित तट सोंही | एहि सुघरता अस्तगत होंही || 
सिंधु सरिता के तट से इस सभ्यता उदयास्त का काल साढ़े चार सहस्त्र वर्ष पूर्व से लेकर साढ़े तीन सहस्त्र वर्ष पूर्व तक रहा || 

किछु कलिसाइ बरत निज भासा | लिखेउ ए भारत के इतिहासा || 
भूति भवन कि जन जीउनाई | गयउ कालन्हि गरक समाई || 
कतिपय आंग्लभाषी ईसाईयों ने अपनी व्यवहार जनित भाषा से भारत का यह इतिहास उद्धृत किया | वह ऐश्वर्य हो भवन हो कि जनजीवन, सभी काल के गर्क में समाहित हो गए | 

सिंधु सुघरता कस बिनसायो | बुद्धिजीबि मत भिद भरमायो || 
प्रवान बिनु कीन्हि अनुमाना | अनेकानेक जगत बिद्बाना || 
सिंधु सभ्यता का पतन कैसे हुवा इस सम्बन्ध में बुद्धिजीवों के मतों में भेद है जो सटीक न होकर भ्रम जनित हैं | अनेकानेक जगत पुरातात्विक वेत्ताओं ने प्रमाण विहीन अनुमान किए | 

सिंधु नगर बसेउ भा कैसे | कत कब गै कैसेउ बिनैसे || 
को कहँ बाढ़ कोउ भूचाला | को कहिब आपस जनित अकाला || 
सिंधु नगरी कैसे वासित हुई फिर यह क्यों कब व् कैसे विनष्ट हो गई | किसी इसका कारण बाढ़,  भूकंप कहा तो किसी ने आपदा जनित अकाल को इसका कारण संज्ञापित किया  | 

सँस्कारगत भारत पुनि  एक संस्कृति सँजोए । 
जगत सिरोभूषन होत  पूरन उदयित होए ॥

भावार्थ : -- पाषाण युग के भारत की मानसिक शिक्षा सहित समय समय पर परमार्जन व् सुधारीकरण के पश्चात पुनश्च एक सभ्य-संस्कृति ने जन्म लिया और विश्व  के सिरमौर होते हुवे भारत-वर्ष के रूप में इसका पूर्ण अभ्युदय हुवा ।|

मंगलवार, ३१ जुलाई, २०१८                                                                                                      

जेहि प्रगति पथ ए  देस रचाए | जाग बिनहि जग धावतहि जाए ||
चढ़े सिरोपर बिकासि भूता | होड़त बनन बिनास के दूता || 
इस देश ने जिस  प्रगति पंथ की रचना की थी जागरूकता के अभाव में वर्तमान जगत उस पंथ पर  दौड़ता ही चला जा रहा है उसके शीश पर मानो विकास का भूत आरोहित हो गया है और विनास का दूत  बनाने के लिए एक अंधी स्पर्धा हो रही है | 

आँग्लभाषि कै ए मत आही  | बसत नगर जौ भवनन माही || 
भूति बिभूति भौति भव भोगा | समरथ सील सुघर सो लोगा || 
पाश्चात्य संस्कृति के आविर्भावक  आंग्लभाषियों का एक ही सिद्धांत है जो भवनों में निवासरत नगरों के निवासी  है जो सांसारिक ऐश्वर्य के भोक्ता है एवं अतिसय भौतिकवादी है वही सामर्थ्यशील  हैं वही  सभ्य व् सुसंस्कृत  हैं | 

बसत गाँव सो होत गँवारू | अनगढ़ सब बसबासित बनहारू || 
तन बर बसन न भोग बिलासी | अनपढ़ ताहि कहत उद्भासी || 
 ग्रामीण  जन उज्जड व् जो घने जंगलों के निवासी नितांत ही असभ्य होते हैं | जो उत्तम उत्तम वस्त्र धारण नहीं करते जिनकी जीवन चर्या में भोग विलासिता नहीं है उन्हें वह अशिक्षित कहकर उद्भाषित करते हैं | 

जौ मनमानस मति ते दूरा | जीव हंतु ब्यालु इब क्रूरा || 
हित साधन हुँत पसुवत होई | अनगढ़ अनपढ़ जग महुँ सोई || 
वस्तुत: जो मनोमस्तिष्कसम्यक ज्ञान से रहित है जो जीवों के हत्यारे हिंसक जंतुओं के समान क्रूर स्वभाव के हैं, अपनी स्वार्थसिद्धि हेतु जो पशुवत आचरण करते हैं संसार में वही अशिक्षित व् असभ्य है |  

सुघरपनहु जिन दरस लजावा | परनकूटि कृत करनिक छावा || 
बेस बिपिन ऋषिमुनि हाथा | रचे बेद ग्यान मय गाथा || 
सभ्यता जिनके दर्शन कर लज्जित हो जाए कोपलों व टहनियों से निर्मित पर्णकुटी में निवासरत  वनों के वासी उन  ऋषिमुनियों परम ज्ञानमय वेदों की रचना की गई जोआंग्लभाषियों के सिद्धांत पर प्रश्नचिन्ह हैं  | 

आए बहुरि सो काल जब रचे बेद बिद बेद । 
पुनि आँगुल भाषिया बर भेद नीति करि भेद ॥ 
तदनन्तर  उस काल का आगमन हुवा जब वेदों की रचना हुई । भारत और भारतीयों में विभेद कर आंग्लभाषी ईसाईयों ने पुनश्च भेद नीति का प्रयोग किया विभाजन पश्चात् भारत के तात्कालिक सत्ता धारियों ने इसका अनुमोदित किया || 

हीन दीठि ते दरसत बेदा | भेद नीति सहुँ करिअ बिभेदा || 
कछुकन असाहितिक परसासी | आर्य पर दुइजाति सँभासी || 
 वेदों पर हीन दृष्टि निक्षेप करते हुवे कतिपय असाहित्यिक प्रशासियों ने भेदनीति का आश्रय लेकर आर्यों को विभेदकर उसे द्विजाति कहा | 
  बेद बचन कहँ भदरजन जेतु | एहि सबद ताहि संबोधन हेतु || 
भंग देस कर सत्ता धारी | अधभरमनआ  कहत पुकारी || 
जबकि वेदों में आए वचन अथवा मन्त्रों में जितने भद्रजन थे यह आर्य शब्द उनके सम्बोधन हेतु उच्चारित किया गया | 

मूलगत कहुँ करत निर्मूला | मौलिकपना केर प्रतिकूला || 
कतहुँ त लिखिया यहु पसुचारी | कतहुँ लिखे नहि नहि बैपारी || 
इस प्रकार  निर्मूल करते मौलिकता के प्रतिकूल होकर कहीं तो इन्हें पशुचर उल्लेखित किया गया, कहीं कहा गया नहीं नहीं ये व्यापारी थे || 

सिंधु तीर बुए बिअ गह मूरा | बैदिक जुग अरम्भत अँकूरा || 
दिवस गहत बिरतत गै काला | बिकसत गत भए बिटप बिसाला || 


बरन हीन जग रहे जब आखर ते अग्यान | 

भूषन भूषित भाष ते लेखे बेद पुरान || 


शब्दहीन यह विश्व जब अक्षरों से भी अनभिज्ञ था तब इस देश ने स्वर-व्यंजनों व् अलंकारों द्वारा विभूषित भाषा से वेद पुराण जैसे ग्रन्थ लिखे | (कालान्तर में औपनिवेषिक शोषण के कारण यह देश अशिक्षित होता चला गया )

ऋग यजुर साम अथर्व रहेँ वेद कुल चारि | 
भूसुर क्षत्री बनिज क्षुद्र ए चातुर बरन अधारि || 

शुक्रवार, ०३/६ अगस्त, २०१८                                                                                           

रचेउ जेहि धर्म धुर धीरा | ऋषिमुनि बसि बन परन कुटीरा || 
ब्यास पीठ भूसुर सुजाना | बाँचत देइ जाके ग्याना || 
जिन्हें वनों में निवासित व् पर्ण कुटीर में अधिवासित धर्म की धुरी धारण करने वाले ऋषि मुनियों ने रचा था | व्यास पीठ पर
विराजकर सुबुद्ध ब्राह्मण देव  जिन ग्रंथों का व्याख्यान कर जनमानस को ज्ञानवान करते हैं ये वही वेद-पुराण हैं | 

अचलाधिप कर तलहटि पासा | बिँध्याचल परबत संकासा || 
पूरबापर सिंधु तट खेता | बसेउ द्विजप देस निकेता || 
हिमालय के तटवर्ती क्षेत्र से लेकर विध्याचल पर्वतके निकटवर्ती क्षेत्र व् पूर्वी समुद्र तट से लेकर पश्चिमी समुद्री तट का क्षेत्र आर्यों का निवास-स्थान था | 

कतहुँ त जगोपबित अभिजाता | कतहुँ निबासीहि कोल किराता || 
बसे जदपि कुटि जाति ए दोई | एक सुग्घड़ दुज उज्जड होई || 

ताम काँस सुबरन करि टोहा | बैदि जुग गत टोहेउ लोहा || 
करत बहुरि पाहन परिसोधा |  किए सो लौह कुसल जग जोधा || 
तांबा, कांसा व् स्वर्ण का अन्वेषण कर पाषाण का पुनश्चा परिष्करण करते हुवे  इस देश ने वैदिक युग में लोहे का अन्वेषण कर विश्वभर के योद्धाओं को अस्त्र-शास्त्रों से युक्त किया | 


जबहि जगत कर  धातु लहावा  | अधुनै काल धरिअ तब पाँवा || 
संगत यन्त्र तंत्र संयंता | भय पुनि प्रगति पंथ के गंता  || 
भारत ने जब जगत को धातु से युक्त किया तभी उसका आधुनिक काल में प्रवेश हुवा व् यन्त्र-तंत्र- संयंत्र के संगत वह भी प्रगति पंथ पर संचरण के योग्य हुवा | 

करतब कर पुनि पाइये यह उपधारन धार । 
बनचरनी अपावन मन सोधन करे विचार ॥
कर्म करो तत्पश्चात ही फल का सेवन करो  सम्यक चिंतन के पश्चात् यह बुद्धि आई किन्तु ज्ञान नहीं आया । मनुष्य का पशुवत स्वभाव जब यथावत रहा तब उसने वनचारी अपवित्र मन को पवित्र करने का विचार किया ॥ 

भाजन सोहि अगन बसबासी  | जदपि श्रील सब गेह निबासी || 
भूषन बसन तनु बास बसाए | रहेउ मलिन मन बिहुन धुराए || 
भजनों के संग अग्नि का निवास  के साथ यद्यपि सभी गृह शोभवान  हो चले थे देह रूपी निवास  में वस्त्राभूषण को वासित  करने के पश्चात भी  मनुष्य का परिशोधन से रहित अंतरतम मलिन था | 

जब लग धातु गहे मलिनावा | धोवत तासु न मल बिलगावा || 
तब लग कहे न निज गुन गाना | पाषान सहुँ रहे पाषाना || 
 धातु जब तक मलिनता से युक्त होती है व परमार्जन द्वारा मल से पृथक नहीं होती  तब तक वह अपना धात्विक गुण प्रकट नहीं करती और पाषाण के संगत पाषाण ही रहती है || 

मानस पाहन एकै सुभावा | धोए बिनहि धिग मर्म न पावा || 
कछु बुध प्रबुध पठत संसारा  | ताहि सोधन किन्ही बिचारा || 
 कतिपय बुद्ध प्रबुद्धों की बुद्धि ने  विश्व का सम्यक चिन्तन व् अध्ययन कर निष्कर्ष निकाला कि मलिनता से युक्त यह मानव  देह व्  पाषाण  का एक ही धर्म है एक ही स्वभाव है | सम्यक शुद्धि के बिना उसके मर्म को प्राप्त करना असंभव है एतएव मानव  को भी परिष्कृत होकर शुद्ध होना चाहिए |  

धातु संग सो होइब धाता | होतब गयउ जातिमत जाता || 
एहि बिधि द्विजप तैं निर्माना | उदइत भए नव जुगहि बिहाना || 
इस परिमार्जन के पश्चात ही भारतीय जनमानस धातुमय होते हुवे पालन पोषण करने वाले मातृत्व व् पितृत्व भाव को प्राप्त हुवा  जो पशु व् पाशविक प्रवृत्ति के मनुष्य में न्यूनतम पाया जाता है इस शुद्धिकरण के फलतस उसकी संतान अभिजात्य होती चली गई | इस प्रकार कतिपय अभिजात्य वर्ग द्वारा निर्मित इस वैदिक सभ्यता के अभ्युदय के फलस्वरूप मानव जाति के एक नए युग का प्रारम्भ हुवा | 

नर नारिसु सँजोग करत  रचे सुधित परिबारु  । 
समुदाय पुनि समाज भए, परिबारु समाहारु || 
स्त्री-पुरुष के सम्यक एवं पारस्परिक सु-सम्बन्ध पारिवारिक इकाई का निर्माण किया, परिवारों के समाहार से कालान्तर में समुदाय एवं समाज निर्मित हुवे  ॥ 

मंगलवार, ०७ अगस्त, २०१८                                                                                       

समबहारित समित समूहा | लोकत नाउ धरत जन जूहा || 
बसा बसति जब बसिहि सुखारा | बहुरि सुधिजन कीन्हि बिचारा || 
प्रबुद्ध जनों की बुद्धि ने फिर यह विचार किया  आवासों में अधिवासित यह मानव अब जन (प्यूपिल )की संज्ञा को प्राप्त हो गया अब इसका एक बाह्यजगत व् दूसरा अंतर्जगत हैं ॥ 

अजहुँ त तिनके दुइ संसारा | एक अंतर गह एक बहियारा || 
भीत जगत करत संस्कारित | बहियर कीन्हि करम अधारित || 
अब मानव के दो संसार हो चले थे, एक अंतर्जगत का तो एक बाह्यजगत का संसार | अंतर्जगत के संसार को उसने संस्कारों का आधार प्रदान  करते हुवे बाह्यजगत के संसार को कर्म  पर आधारित किया | 

भूषन बासन बसन सँवारे | लेख बद्ध कृत दुनहु सिँगारे || 
कछु नेम धर्म सहुँ घर बाँधे | कृत्याकृत्य सोंहि कर साधे || 
आवास, वस्त्राभूषण भूषण  से सुसज्जित कर लेखाबद्ध करते हुवे दोनों ही जगत श्रृंगारित हुवे | कतिपय नियम  धर्म के पालन की परिपाटी से गृह को अनुशासित  कर बाह्यजगत हेतु हस्त को करने  न करने योग्य कार्यों से  प्रतिबंधित  किया | 

अनूप गाउँ बसत चलि आईं | बहुरि जनपद माहि परिनाई || 
जनपद नगरिहि रूप धरायो | बासित जन नगरीअ कहायो || 
नदी तट पर समूह  में निवास करते चले आए कालान्तर में यह ग्राम्य जनपद में परिणित हो गए शनै: शनै: इस  जनपद ने नगर का आकार ग्रहण कर लिया और इस प्रकार नगर में निवासित जन समूह नागरिक की उपाधि को प्राप्त हुवा  | 

अजहुँ नगर चहिब को जन संचारन परबन्ध | 
बसि जनहि जौ बाँध सकै रचत नेम अनुबंध || 
अब इस नगर को एक जनसंचालन तंत्र की आवश्यकता अनुभूत होने लगी जो किंचित नियम-निबंधों की रचना कर निवासित जन समूह को अनुशासित कर सके | 

बुध/गुरु , ०८/०९ अगस्त, २०१८                                                                                                       

देस धुजा कि धुजीनि कि धानी | रहि ए भारत देसु कहुँ बानी || 
तासु बखानत बेद पुराना  | प्राग रूप महुँ देइँ प्रमाना || 
 'राष्ट्र' शब्द की परिकल्पना हो चाहे राज्य अलंकरणों की, एतिहसिक चिन्ह व् वृत्तांत इसका प्रमाण हैं कि ये राज्यांग ( राजा, अमात्य,राष्ट्र,  दुर्ग कोष बल मित्र  ध्वज आदि ) भारत की ही संस्कृति रही है,जिसका व्याख्यान वेद-पुराण करते हैं | 

लोक राज सासन बिधि दोईं | दुहु जनमानस हित हुँत जोईं || 
राज जहँ तहँ राज कै नीती | लोक जहँ तहँ बिपरीत रीती || 
लोक व् राजतंत्र ये दो प्रकार की  शासन प्रणाली प्रचलित थीं दोनों प्रणाली जनसामान्य के कल्याण का उद्देश्य सन्नद्ध थीं जहाँ राज तांत्रिक प्रणाली प्रचालन में थी वहाँ शासन की नीतियां  तो जहाँ लोकतांत्रिक प्रणाली प्रचलित वहां अनुशासन के नियम निबंधन थे | 

हेरत सासक बैदिक काला | करत सुगमतम जन परिचाला ||  गठत किछुक नै नेम नियंता | रचि सो जन पालक जन कंता || 
जनसामान्य के सुगम संचालन हेतु कतिपय नियम व् निबंधंन की रचना करते हुवे वैदिक काल ने जनपालक व् लोकपति के रूप में शासक का निरूपण किया | 

कहत सरब मानी इतिहासा | मानस कर जन रूप बिकासा || 
भारत खंड माहि सो भयउब | जन संचारन तंत्रन दयउब  || 
यह सर्वमान्य इतिहास का कथन है कि विश्व को जन संचालन तंत्र प्रदत्त करते हुवे मानव जाति का सम्पूर्ण विकास भारत खंड में ही हुवा || 

राज कि जन तंत्र एहि बिधि, हेरे बैदिक  काल । 
घन बन बसति बसाइ के बासत बीच ब्याल || 
इस प्रकार वर्तमान में प्रचलित राज व् लोक सहित समस्त शासन प्रबंधन तंत्र सघन वनों में एवं हिंसक जंतुओं के मध्य वासित वस्तियों में निवासित वैदिक युग का ही अन्वेषण है |