Monday, May 19, 2014

----- ॥ सोपान पथ १४ ॥ -----

जब निरनय दृढ़चेतस भयऊ । मात पिता पहि प्रीतम गयऊ ।। 
बात करत गत बात बताई । कछु कारन बस हेतु गुँठाई ॥ 
जब प्रवास का निर्णय दृढ़ हो गया । तब प्रियतम माता-पिता के पास गए । बातो बातों में ही उन्हें प्रवास की बात बता दी  । कुछ कारणों से प्रवास के उद्देश्य को छुपाए रखा ॥ 

सुनत गत बचन नयन भर आए । मात उर अंतर कहि नहि जाए ॥ 
कथन करुक पर मन की भोली । एक पलक लग कछु नाहि बोली ॥ 
उन्होंने जैसे ही यह बात सुनी उनके नेत्र जल से भर गए माता के अंतरतम के भाव वर्णनातीत हैं  ।  कथनों से कड़वी किन्तु मन से अबोध माता एक पल को अवाक रह गई ॥ 

 ब्याकुलित पुनि होत अधीर । सोक जनत उर कहि बहु धीरे ॥ 
जाकी सींउँ  आपनी धामा । जान न सो जग दाहिन बामा ॥ 
फिर व्याकुल होते हुवे अधीर स्वरूप में शोक जनित ह्रदय से बहुंत ही धीरे से बोली । जिसकी सीमा अपने घर तक ही सिमित हो वह संसार के दाएं-बाएं को  क्या जाने ॥ 

होए बिधि जो तुहरे नयाऊ । करिए समझ सुत सोइ उपाऊ ॥ 
हमारी काया बिरधा जोही । बे हानि कृत बयोगत् होही ॥ 
जो विधायन तुम्हारे लिए हितकर हों हे पुत्र समझते बुझते हुवे तुम वही उपाय करना । हमारी काया तो वृद्ध अवस्था को प्राप्त हो गई है । आगे और आयु की हानि होगी और यह वयोवृद्ध होती जाएगी ॥ 

चोट चपेट कि को रुज धरहीं । बिना ठोट को जोहन करहीं ॥
लोचन तव दरसन तरसाहीं । सुबारथ  मन सेउ सब चाहीं ॥  
कोई चोट के चपेट में आने  अथवा रोग ग्रस्त हो  बिना तुम्हारे हमारी  देखरेख कौन करेगा ॥ ये नेत्र  पुत्र के दर्शन को भी तरस जाएंगे । यह मन बहुंत ही स्वार्थी है जो अपने सभी पुत्रों की सेवा चाहता है ।। 

-अकुलाइ  मात प्रिय जात, होरत सबहीँ भाँति । 
जात सोंह अवनत सीस, बर मुख मलिनै काँति ॥  
 व्याकुल माता अपने प्रिय पुत्र को सभी भांति से रोकती हैं । किन्तु पुत्र शीश अवनत किए है उसकी मुख की कांटी मलिन स्वरूप हो गई हैं ॥ 

मंगलवार, २० मई, २ ० १ ४                                                                                                             

प्रिय  मात केहि बिधि समुझाई । सिथिर चरन सह पिय बहुराई ॥ 
निज सम्मति सबहि तुलन तोले ।  पहुंचत गेह बधु सोंह बोले ॥ 
प्रिय माता को किसी भांति समझाकर प्रियतम शिथिल चरणों के सह लौटे । अपने प्रवास के विचार को  भली भांति परखते  घर पहुंचे और वधु से बोले ॥ 

जुगाउन सबइ साज समाजू । गवन परन पुर लागहु काजू ॥ 
बरे मुख परम गम्भिरि बानी । सह सम्मत  बधु आयसु मानी ॥ 
कार्य में लग जाओ, पराए नगरी में प्रवास हेतु सभी साज सामग्री एकत्र करो । प्रियतम के मुख ने गंभीर वाणी वरण की हुई थी उनके सम्मति से सहमत होकर वाणी को आज्ञा स्वरूप मानकर : -- 

बहुरि निसदिन भोर मह जागए  । गेहस जोग जमोगन लागए ॥ 
चिन्हत  एक एक सँजुग सँजोवए ।  होइ जोग जो सो सो जोगए ॥ 
प्रतिदिवस भोर ममें ही जागृत हो गृहस्थी की सभी आवश्यक साज-सामग्री एकत्र करती ॥ चिन्हित करते हुवे एक  सामग्री संजोती जो उपयोग के योग्य होता उसे संकलित कर लेती ॥ 

 गमन उदंग पाए संकासू । करत नेह भए बहुस निरासू ।। 
कहत बाल सों रे बड़ भागी । तुहरे गत हम भयउ एकागी ॥ 
प्रतिवेशी को जब प्रस्थान का सन्देश प्राप्त हुवा तब वह बहुंत ही निराश हुवे  एवं  स्नेह करते बालकों से कहने लगे हे रे सौभाग्यशील तुम्हारे जाते ही हम तो एकाकी हो जाएंगे ॥ 

संग करे सुठि हेरत हेली । जे अँगना को करिही केली ।। 
बाटिक बिटप बेलि कुम्लाहीं । जे जावन तो देखि न जाहीं ॥ 
 अपने सुन्दर साथियों का संग किए इस आँगन में अब कौन खेल करेगा । वाटिका के विटप एवं वल्ल्लरियां कुम्हला सी जाएंगी तुम्हारा जाना किसी से देखा नहीं जाएगा ॥ 

कहत पिया सों सब भाँति, सोचत निरनै कारु । 
जामे तुहारे हो भलइ, सोई बात बिचारू ॥   
फिर प्रियतम के सम्मुख होकर कहने लगे सभी भाँती से सोच कर प्रवास का निर्णय कर जो तुम्हारे हित में हो उसी बात पर विचार करो ॥ 

बुधवार, २१ मई, २०१४                                                                                                   

ऐसिहु सम्मति रहि प्रियजन की । सुनि सब की किए आपन मन की ॥ 
गवन पिया पुनि लय प्रभु नामा । देखि अबर पुर एक सुठि धामा ॥ 
प्रियजनों के भी ऐसे ही विचार थे । किन्तु प्रियतम ने सब के विचार सुने और अपने विचार का अनुशरण किया फिर प्रियतम  ईश्वर का नाम स्मरण करते हुवे पराए नगर गए  वहां निवास एक सुन्दर आवास देखा ॥ 

बनत भरैत भवन भरतारे । अगहन भाटक दे दृढ कारे ॥ 
बहुरि सुकुँअरी  सोई देसे । बिद्या निकेतन किए प्रबेसे ॥ 
भाटक वासी बनकर भवन -स्वामी को अग्रिम भाट प्रदाय कर भवन निवास हेतु सुनिश्चित किया ॥ फिर सुकुमारी को उसी देश के विद्या निकेतन में प्रवेश सुनिश्चित किया ॥ 

निबास नगर फिरैं तत्काला । लेइ अधिकोष मह एक आला ।। 
आभूषन सोन सकल धराऊ । आला महही धरे ढकाऊ ॥ 
फिर तत्काल ही निवास नगर लौट कर अधिकोष में एक लघु कोषागार लिया ॥ आभूषण सहित भूमि के पंजीयन पत्र आदि सभी आवश्यक समस्त संचयित धन को उस कोषागार में ही सुरक्षित रख दिया ॥ 

अधिकोष के प्रबंधन करता । धरे धराउन के भए धरता ॥ 
बहुरि एक धूरबाहिनी हेरे  । गेह संजुग  सब जोग सकेरे ।  ॥ 
अधिकोष के प्रबंधन कर्त्ता ही उस धरोहर के  धर्त्ता बने ॥ फिर एक भारवाहक वाहन ढूँडे । गृहस्थी का एकत्रित की गई सभी सामग्री को : -- 

जोगत सारथि भली भाँति  ,  सोइ बाहनी माहि । 
चरत वाके चरन चाँड़ आन नगर पथ लाहि ॥ 
 सारथी ने  साज-सामग्री को भली प्रकार से जोड़कर उस वाहिनी के चरणों को तीव्र गति से संचारित कर पराई नगरी के पथ पर ले गया ॥ 

बृहस्पतिवार, २२ मई, २०१४                                                                                           

बैठ प्रीतम सँग मह गवने । छाँड़त गह संजुग फिरि अवने ॥ 
मात-पिता के प्रनमत पावा । आसिर सिरु जल नयन लहावा ॥ 
प्रियतम साथ में ही बैठ कर गए । और भाटभवन में गृहस्थी साधन को छोड़ लौट आए । फिर माता-पिता के चरणों में प्रणाम किये और शीश पर आशीष एवं नयन में जल प्राप्तकर : - 
  
जोहत पुनि संजोइन सेसा । दे प्रतिबेसी गवन सँदेसा ॥ 

बालकिन्ह सँग चढ़ि रथ माही । अब भवन उठि बिदित कछु नाही ॥ 
पून: शेष सामग्री को संकलित किये  प्रतिवेशी को प्रस्थान का सन्देश देते हुवे बालकों के संग रथारूढ़ हुवे और कब जन्म भूमि से चना-चबेना उठ गया, विदित ही नहीं हुवा ॥ 

चरि प्रजवन रथ चरन प्रपाथा । बिकल धूरि पग लागए साथा ॥ 

नगज नदी तट देउ दुआरू । धरनि धाम धन पुर परिबारू ॥  
रथ वाहिनी के चरण द्रुत गति से लक्ष्य वीथी पर बढे जा रहे थे । धूल कनिका व्याकुल हो चरणों को पकड़े साथ हो ली थीं । पर्वत नदी देवल-द्वार निवास, भूमि, सम्पद, नगरी, परिवार : - 

जहँ जनम जहँ प्रारब्ध जूरे । हरिअरि होइ नयन सोन दूरे ॥ 

बास सोइ जहँ गहसी बासें । न त भए सव मंदिर संकासे ॥ 
जहां जन्म जुड़े था जहां  भाग्य जुड़ा था वह स्थान धीरे धीरे दृष्टि से ओझल हो रहा था । गृह वही हैं जहां गृहाथी बसी हो । अन्यथा वह मंदिर शव मंदिर के सदृश्य है  ॥  

जननी जनित्र  छाँड़ चले, निन्दत आपन आप । 
सोचत जेइ बत दम्पति , उरस भरे परिताप ॥  
जननी को जन्मभूमि को छोड़ जा रहे हैं  स्वयं की निंदा करते हुवे दम्पति का ह्रदय संताप से भरकर इसी विचार में निमग्न था  ॥ 

शुक्रवार, २३ मई, २०१४                                                                                                     

खेह खेड़ बन बाटिक छाँड़त । जूँ जूँ बाहिनि आगिन बाढ़त ॥ 
लागसि जस कहुँ हिय हेराहीं । सुरति बहु पाछि छुटत जाहीं ॥ 
ग्राम, क्षेत्र, वन एवं वाटिकाएं छोड़ते हुवे ज्यों ज्यों रथ वाहिनी आगे बढ़ती ॥ ऐसा गता जैसे कहीं ह्रदय छोड़ आए हैं । उसके सह बहुंत सी स्मृतियाँ भी पीछे छूट गई हैं ॥ 

जुगल उरस अस होहि दुखारे । जस पात कोउ तरु परिहारे ॥ 
छाँड़त पुर बिरहा दव ढाड़े । ताप धरत लोचन घन बाड़े ॥ 
युगल का ह्रदय इस भाँती दुखित था जैसे कोई पत्र अपने वृक्ष को त्याग कर दुखित  होता है ॥ 

पथिक चरन नव नगरी जोगे । करम प्रधान सत्य कहि लोगे ॥ 
सारथी चाँढ़ चरन  संचाए । दिवावसान पूरब पहुँचाए । 

जोरत कर हिचकत लउ लेसे । करें बहुरि नव भवन प्रबेसे ॥ 
बिबिध बसन उपधान तुराईं । कहुँ आसन कहुँ  पलन डसाई ॥ 

 मंदिर देवा मूरत धारी । मंजुल मनि दीपक उजियारी ॥ 
सुभोगमय भोजन भंडारे । बाँध मोच सब साज सँवारे ॥ 

बास  भवन जब नैन उघारी । रैन घिरि छाए अँधियारी ॥ 
अँध्यारिनु बिभावरी घेरे । विभासिनी मुख कांति हेरे ॥ 

दरसे ना कोउ परिचित दूर गगन परिवार । 
देवतीदेव धाम रचित न कहूँ नदी कठार ॥ 

शनिवार, २४ मई, २ ० १ ४                                                                                                       

तिरत कहुँ दरसत न नौका ।  उद्हारिनि न उरत नभौका ।। 
चौपथ पथि  निर्झर गिरिगन । पाए न लोचन को सुख दरसन ॥ 

गहन सांस ले पलक प्रनाई । गहन रैन भइ नयन लगाई ॥ 
जोइ जिउन माह प्रियतम संगे । सोइ निलयन भए सबहि रंगे ॥ 

प्रिया संग प्रिय रहत सुखारी ।  प्रियजन्हि सुरति गइ न बिसारी ॥ 
जब कभू पिय मन करत बिचारी । भ्रात बहिन सह पितु महतारी ॥ 

बालकिन्हि सोन सम्मुख प्रीता । लगन कहत कछु कथा पुनीता ॥ 
जब मन आवइ पर्सन चरने । मात-पिता प्रियजन पहि गवने ॥ 

अस मणिकाम मनोरथ हिना । गाढि परस्पर प्रीत निस दिना ॥ 
एही बिधि दाम्पत्य आन निबासे । पराइ नगरि पराए अबासे ॥ 

आन भए बस चारि दिवस, अरु मन भयउ उचाट । 
सुरताहि निज नगरी के कुञ्ज गली बट हाट॥ 

रविवार, २५ मई, २ ० १ ४                                                                                                         

निकटहि रहै निबास भवन सन । पिआ धीआ के बिदिआ केतन ॥ 
पोथि पंथ धिअ धार एक झोरे । भरे गनबेस गवनइ भोरे ॥ 

पठनसील  निज पितु के नाईं । दोइ पहर पाछिन बहुराई । 
पितु जो दुइ सेउकाए कीन्हि । दोनहु हुँत याचं पत्र दीन्हि ॥ 

लिखे कछुक बिबसता हमारू । ते कर हमहि थानांतर कारू ॥  
सेबक जब मुख भराइ धारे । चरन चाक कृत काज सँवारे ।। 

बिदया गाहन  अस मनि दाने । चन सदमन मन बिपनी जाने ॥ 
श्रमित पिया कहि मोरे भाऊ । अस कुबयबस्था अगन धराऊ ॥  
विद्या ग्रहण करने हेतु जो विद्याधन दिया उसे विद्व्ता हेतु प्रख्यात सदन को व्यापारी मान कर दिया ॥ 


अस नगर परबासँ माहि, लगे बहुतक लागि । 
लागए जैसे हबिर भुक,  गेह धूम धर आगि ॥ 

सोमवार, २६ मई, २०१४                                                                                                      

बहनिहि जोइ धरोहरू राखे । जोग धरत भै अठारि लाखे ॥ 
चारि लाख कंधन कर भारा । देइ पिया बधु कहत उधारा ॥ 

तप ब्रत नेम नीति सब डोलहि । माया पद जब खन खन बोलहि ॥ 
धरम चरन  बेसम अस्थूना । बिपरीत हरिए देवै धूना ॥ 

धरम गर्भ अन्याई लागे । रहे सदा न्याय के सागे ॥ 
सहज जीवन सरलै सुभावा । सनेहिल नयन मन प्रीत भावा ॥ 

काम क्रोध मद लोभ परायन । निर्दय कपटी कुटिल मलायन ॥ 
बयरु अकारन सब काहु सों । जोइ करि हित अनहित ताहु सों ॥ 

बेन चबेन लेन देन, जाके झूठइ झूठ । 
वाके हस्त मुकुल धरे, धाराधर बिनु मूठ ॥  

शनिवार, ३१ मई, २०१४                                                                                                   

एक तौ अपस्मार रुज तापर । भंजित पद पुत परे पलन पर ॥ 
पटिक जनित वके अकुलाई । मात-पिता सों देखि न जाई ॥ 

अधम बुद्धि मुख बानिहि हीना । धरत धुनी उर पीर कही ना ॥ 
राम राम कर जे दिन बीते । एक सुभ दिवा पटिका मोचिते  ॥ 

बदन के बचन धीर बँधाई । कछुक काल पर भल जुग जाही ॥ 
बारहि बार करत अभ्यासा । हरियर कर पद चले सुपासा ॥ 











Friday, May 2, 2014

----- ॥ सोपान पथ १३॥ -----

शुक्रवार, ०२ मई, २ ० १ ४                                                                                         

साँझ बहुरि कर पौन पलौनी  । पाँतिहि  अवतर रैन सलौनी ॥ 
हरि करि केहरि हिरन बिलौनी । बाल बहुरि लय केलि खिलौनी ।। 
अरुण की सेवा-टहल कर साँझ लौट गई । स्वजन वर्ग श्याम सलौनी रैनी के अवतरित होने पर लौटे । बालक वर्ग बन्दर, हाथी, सिंह, हिरन बिलौटने के खेल खिलाङी लेकर लौटे ॥ 

बहुरि भुजा दुहु तनय गहाई । धरि करज धिए पलन पौड़ाई ॥ 
भँवर दिनभर सिथिर भए सोई । छन भर सपन नगर मह खोई ॥ 
भुजांतर में पुत्र को औऱ धीया की उन्गली पकड़ें माता ने उन्हें पालने पर सुलाया । दिनभर से भ्रमणरत वह  फ़िर थक हार कर सो गए । और क्षण भर में ही स्वपनों की नगरी में खो गए ॥ 

बासक बासक बास सजावै । बास बास जुग  सेज रचावै ॥ 
पाँति पिया दे अर्पन लेखी । पयस मयूख मुख दर्पन देखी ॥ 
पटावरण ने शयनागार को सुसज्जित कर रहे हैं । वस्त्र और गंध परस्पर मेल कर सेज रचा रहे हैं ॥  पत्रपर्ण में समर्पण लिख कर प्रियवर को अर्पित कर वधु  चन्द्रमा को ही दर्पंण किये अपना मुख देखने लगी ।। 

 अपलक तक अरु अलक झुकाई । बास सजित पथ पलक बिछाई ॥ 
 देइ पिया पद चाप सुनाई । कंठ हार बन बाहु समाई ॥ 
अपलक निहारते हुवे  नयन पटल पर अलकावली अवनत हो गई । श्रृंगार कर  प्रतिक्षा में  प्रेयषी ने पथ पर पलक पांवड़े बिछा दिए ॥ कि तभी प्रियतम के पद चाप सुनाई दिए, प्रेयषी जिनके कंठ का हार बनकर बाहु मेँ समा गई ॥ 

भरे हरिदै जोइ अनुरागे । आन कुसुम कपोल मह लागे    
प्रात पिया बिन रयन अधूरी । सजनी साँवर के रँग घूरी ॥ 
हृदय में जो अनुराग भरा हुवाँ था वह कसुम-कपोलों में उतर आया ॥  प्रियकांत प्रभात के बिना रैन अधूरी रही । किन्तु  वधु अपने सांवरे के रंग में घुलती चली गई ॥ 

सेज सागर प्रस्तर जर, लिखे तरंग तरंग । 
गाहि गहनई बधु अरु बर, रंगे एक ही रंग ॥   
सेज सागर हो गई, जल आच्छादन हो गया, उसपर तरंग ही तरग उल्लेखित होती गई ॥ जिसमें वधु-वर एक रंग होकर गहरे अवगाहित होते चले ॥   

शनिवार, ०३ मई, २०१४                                                                                                                

 पलक के बाहु नयन समाही ।  निदिरा चली सपन के बाही ॥ 
प्रात संजोगित कर रयन चली । सुम गंध मेल मिल पवन चलीं ॥ 
 पलकों की भुजाओं में नयन का बसेरा हो गया ,सपनो की भुजाओँ में निद्रा समाहित हो गई ॥ प्रभात से अनुरक्त होने रयन प्रभात मेन अनुरक्त होने को रयन चली । कुसुम की कल सुगंध पवन से मेल करने चली ॥ 

 सप्तास्व के रथ पर रोही । प्रभा पल्लबित लावन होहीं ॥ 
 नदी ऊपर चरन धर उतरी ।  तरनिहि सङ्ग तैर तरन चली ॥ 
सप्ताश्व के रथ पर आरोहित हो प्रभा कांत युक्त होकर आउर अधिक लावण्यित हो गई ॥ वह  नदियों के ऊपर चरण रखकर उतरी एवम अपने सूर्यकांत के साथ तैरती हुई उद्धरण हेतु चली ॥ 

रागारुन लिए  रंजन जागे । मंदिर मंजरी रवन लागे ॥ 
लावनई श्री उठि सुधियाई । जगावन सयनई रमन चली ॥ 
राग की अरुणाई लेकर सँगीत जागृत हो गया । मंदिरों में मंजरियाँ रवन करने लगी । इस प्रकार लावण्या श्री भरी भोर मेँ  ही जागृत हो गई । और अपने निद्रामग्न प्रियवर को जगाने की तैयारी करने लगी॥ 

 प्रात पिया पुनि पूजन किन्हे । कि तबहि दूर भास् रवनिन्हे ॥ 
करि सौं मुख पिय हां हाँ कारी । पियाजी के कहनि सुनन चली ॥ 
प्रात: काल में नित्य क्रिया सम्पन्न कर प्रीतम पूजन क्रिया से निवृत्त हुवे ही थे कि तभी चलित  दूरभास रवनमयी हो गया ॥ जिसे अपने सम्मुख किए प्रीयतां हाँ हाँ करते गे । फिर वधु पिया जी की कथनी सुनने में व्यस्त हो गई ॥ 

प्राबिधि के बिदया पीठ , देइ जेहि सनदेस । 
स्नातक उतरु क्रम पाठ, होहिहि पिया प्रबेस ॥   
प्राविधिक के विद्या पीठ  ने उन्हें यह सन्देश दिया कि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में प्रियतम  का प्रवेश हो गया ॥ 

रविवार, ०४ मई, २० १ ४                                                                                                              

तासु पहिले बधु सोइ तांईं ।  पिया सोंह कछु पूछ बुझाईं ॥ 
कहे पिय अजहुँ मौनइ धरहू । सो संजुग बत बहुरत  कहहू ॥ 
इससे पहले वधु इस सम्बन्ध में प्रियवर से कुछ पूछ परख करती । प्रियतम ने कहा अभी तो म्याउं ही साधो ।  लौटने पर ही इस सम्बन्ध में हम वार्तालाप करेंगे॥ 

सरन थरी महुँ कर जर पाना । निकसे भँवरन चढ़त बिहाना ॥ 

जान जीबिक जल तल उतारे । नभस नभौकस कलरव कारे ॥ 
शरण स्थली मेन ही जलपान ग्रहण कर, दिन चढ़े सभी पुन: भ्रमण पर निकले । जलयान के आजीविक, यान को जल में  उतार रहे थे  मेन नभस्चर कोलाहल कर रहे थे ॥ 

रबि संगिनि मुख जोबनु जोई । सघित्रित छबि जो पयोनिधि होई ॥ 

 दूरए धुनी जर दिए सुनाई । नियरि तरंग चरन गहि आई ।। 
रवि की संगिनी प्रभा के अपने मुख पर यौवन संजोए 

धरनि आपनी गति सन भौरे।  मीर मुदित मन ले हिलौरे ॥ 
किरनाकर्षन दाण्डिक दानी । जैसे कोउ बिलौरत पानी ॥ 
पृथ्वी अपनी गति से भ्रमणरत थीं । सागर का मन प्रमुदित स्वरुप में हिलोरे ले रहा था । आकर्षण रूप दन्ड समाहित किए किरणो से जेसे कोई उसके जल का मंथन कर रहा था ।।  

अम्बर धरि दिग अन्त की सौहा जोग निहार । 
दरसनार्थी भरि कर, दरसन के सुख सार ॥ 
(उस समय) क्षितिज द्वारा वरण की हुई वेशभूषा की शोभा दर्शन योग्य थी । वह इस शोभा से युक्त होकर दर्शानार्थियों के कर में दर्शन के सुख का सार धर रही थी ॥ 

सोमवार, ०५ मई,  २ ० १ ४                                                                                               

संवत्सर देसाबर आया। मानक मानत जगत मनाया ॥
जोइ दिए जिन्ह रूप उछाई । नउ बछर परे देउ बधाई ॥
यह संवत भारत देश का नहीं था यह परदेश से आया था । जिसे अखिल विश्व, मानक संवत्सर मान कर इसे उत्सव स्वरुप  मनाता है । इसे उसी ने एक उत्साह दिवस का रूप देते हुवे यह कहा कि नव वर्ष के आगमन दिवस पर सभी परस्पर बधाई देवें ॥  

तीज तौहारु सोइ बनावा । जोइ रहे आनंद अभावा ॥
उत्सउ कि रहि हमरिहि बानी । बरस मास हो पग पग आनी ॥
और इसे एक त्यौहार का रूप दिया । जो आनद उत्सवों के वंचित रहा होगा ॥  क्योंकि हमारे देश को तो ऐसे त्याहारों की बानि रही है । वर्ष हो की कोई मास हो यहां पग पग  त्यौहार आते हैं ॥ 

भारत खन की जेइ पाहूमि । उत्सउ महुत्सउ की यह भूमि ॥
कोउ तौहारु जोंग निहारै । इहाँ जोगे आप तौहारे ॥
भारत खंड की यह भूमि उत्सव-महोत्सवों की भूमि है । कोई तो त्योहारों की प्रतीक्षा करता है कि वह कब आए। यहाँ त्यौहार प्रतीक्षाकर  पूछते हैं मैँ कब आऊँ ॥ 

सोइ बछर सब साज सँजोई ।  आगंतुक सरनी  पथ जोई ॥
मनोहारि मनि मञ्जरि  झुरई । अरुनोपल अरुनाए अँगनई ॥
 उसी नव वर्ष के उत्सव हेतु शरणस्थली सभी साज-सजाओं से युक्त होकर अपने अतिथि गन की प्रतिक्षा कर रही थी ॥ मन को हरण करने वाली  मणि कि वल्लरियाँ झूल रही थी जिसके अरुण उपल से सारा प्रांगण  अरुणित हो उठा था ॥ 

बनउनहरु रचइ जेउनारे । आउ भगत कर किएसत्कारे  ॥ 
रचइत रही जो रंगरेला । हमहि बानि सों मेल न मेला ॥     
रसोइये ने रसोई तैयार कर रखी थी । संयोजक सभी की आवभगत करते हुवे स्वागत सत्कार कर रहे थे ॥ जिस प्रकार की रंगरीला रची गई थीं । वह हमारी रंग लीला से मेल नहीं खा रही थी ॥ 

चरत पवन जहँ सींत तरंगे । सीतर रितु हहरत मन रंगे ॥
एक पुर अभरित अगनित बासे । देइ तपन सुख बरत निबासे ॥
वायु शीतल तरंगों को ग्रहण कर प्रवाहित हो रही थी शीत-ऋतु कंपकपाते हुवे मन के रंजन को वर्द्धित कर रही थी ॥ एक और अग्नि अपने संपूर्ण वेश में विराजित थी । जो प्रज्वलित होकर उस शीतल वातावरण मेँ  इस भाँती की तापमयी अनुभुति दे रही थीं ॥ 

हबिर धूम धर हबि रसन, जेसे हबित्र इ होए । 
हित कारी भाव लिए पर, होम करे ना कोए ।। 
जैसे कोई हवित्र मे हविर् धूम्रवरन किये अग्नि प्रज्वलित हो रही हो । किन्तु वह हविरकुंड  कल्याण के भाव से रहित था और वहाँ कोई हवन कर्त्ता भी नहीं  थे  ॥ 

मंगलवार, ०६ मई, २ ० १ ४                                                                                                       

नवल बछर कर मह कर धारे । लाए रैन जग धरा दुआरे ॥ 
 अगुआन आन किए अगुवाई । वादित राग सुभागम गाईं ॥ 
रयन नवल वत्सर के हस्त को हस्त गत किए जगत के द्वार पर ले आई । अगुवानी करने वाले आगे आ कर नव वर्ष की अगुवानी की । वाद्य यन्त्र राग शुभागम् गाने लगे ॥ 

मंगल कारिन भीं सुभावा  देइ परस्पर लोग बधावा॥ 
गगन दुनहु कर नख बलिहारे । कहुँ को करतल  चाँद उतारे ॥  
सब की मंगल- हुवे एक स्वभाव होकर लोग परस्पर बधाई देने लगे । गगन दोनों हाथों से तारे न्यौछवार कर रहा था कहीं किसी हथेली पर चाँद को ही उतार रहा था ॥

अगज-जगज निंदिया कर हारे । नवल केतु लिए भए भिनसारे ॥
नंदन प्रभवत नव नव  नलिने । बरे नव जोबन कमन कलि ने ॥ 
सारा संसार जब नींद से हार गया । तब नई किरणों का संग किए नया सवेरा हुवा ॥ नलिनी नंदन में नए नए  उत्पन्न हो रहे हैं । सुन्दर कलियों ने भी नव युवा हो गई हैं ॥  

फुरित नयन बन बारि सुगंधै । करत कबिबर कबिता प्रबन्धे ॥ 
नील बरन नौ लोहित रंगी । सौम सिंधु गह नवल तरंगी ॥ 
वन वाटिकाएं प्रसन्नचित होकरसुगन्धित हो गई । कविवर कविताओं की रचना करने में व्यस्त हैं ॥ नाइल वर्ण से वर्णित हो नौ लोहित अनुभूति को प्राप्त होकर सौम्य सिंधु नवल तरंगों को ग्रहण किये था ॥ 

नव नव जल चल नव नव नउका । नवल बीथि गत नवल नभउका ।।
नवल नवल नभ नौ अवरेखे । दिब्य दिरिस अर्थी दृग् देखे ॥ 
नव नव जल के तल पर नई नई नौकाएं विहार कर रही थीं नव नव विहंग  नवल वीथी पर गमन कर रहे थे ॥ 
 नवन नभ नव चित्रकारी से युक्त था और दर्शानार्थी के दृग इस दिव्या दृश्य का दर्शन पान कर रहे थे ॥ 

रजस कनिका के कर पर, अरनौ लिखै आलेख । 
रे तटिनी तुँहर पथ यह ह्रदय रहा है देख ॥  
रजस कणिकाओं के हस्त पत्र पर अर्णव ने एक आलेख लिखा हे री नदिया यह व्याकुल ह्रदय तुम्हारी प्रतीक्षा में है ॥ 

 बुधवार, ०७ मई, २ ० १ ४                                                                                                       

जोगनिहार उर प्रीति राखें । जलधि के भाखा जलहि भाखे ॥ 
 उठि स्वजन चरन तट चीन्हि । लावनारनौ निमज्जन कीन्हि ॥ 
 हृदय में प्रीत संजोए हुवे प्रतीक्षारत जलधि की भाषा जल ही जानता है । उस दिन स्वजन समूह के चरण पास के त -रेणु को चिन्हित किए । और उस लावण्यमय जलधि में स्नानं किये ॥ 

करत जल संग कौतुक  केली । बालक गन हेरत निज बेली ॥ 
सोंह रजस तन चरं गहि आए । बाल जल कुण्ड मह धूरियाए ॥ 
बालकसमूह अपने साथियां को हेला दे दे कर जल के संग बहुंत सी लीलाएं करते ॥  उनके इस हेले को सुनकर देह के संग कुछ धूली  कणिकाएं  भी संग चली आई  । बालकों ने  जिसे आश्रय स्थली के निर्मल जल के कुण्ड में दूर किया ॥ 
  ऐसेउ भै दुदिनु के बासा । बहोरि गंतुक आप निबासा ॥ 
फिरैं समउ आनए भूनेसर । दरसत नगरी भँवरे दिनभर ॥ 
इस प्रकार यह दो दिन की यात्रा पूर्ण हुई और सभ गन्तुक अपने-अपने निवास को लौट चले ॥ लौटते समय भुवनेश्वर  नगरी में आकर दुवासभर उस नगरी का भ्रमण करते हुवे उसके दिव्य दर्शन का सुख पाया ॥ 

बसिजहन समदिन दुघरी हौरे । करे भोजन रयनए बहोरे ॥ 
सस केतु गगन उडुगन पिरोए । बधु चितबन् बहु सुमिरन सँजोए ।। 
जहां निवासित समधी के यहां दो गहरी के लिए विश्राम किया । भोजआदि से निवृत होकर रात्रिकाल में ही गंतव्य स्थान को चल पड़े ॥ 

निरव रयन उद्घोष करत, बहिअर के कर कास। 
 देहर बाहिर गिर मिले, जो चलित दूरभास ॥ 
उस शांत रात्रि में वधु के हस्त मुकुल में कसा हुवा चलित दूरभास उद्घोषित हो उठा जो उसे जगन्नाथ -मंदिर के बाहर गिरा हुवा मिला था ॥ 

बृहस्पतिवार, ०८ मई, २ ० १ ४                                                                                             

पाए जहँ सों बाजए निरन्तर । लघुबर खंकन जस घन घन कर ॥ 
कूजै घरि घरि देइ न कानए। पथ गिरि सम्पद आपनि मानए ॥ 

देख धाम हरि सागर सुन्दर । दरसत माया के कौतूहर ॥ 
बास  पुरी मध्यान्हि पैठे  ।  श्रमित भए पथी बैसहि बैसे ॥ 

दोइ दीठ बर बरनन  नाना । पुनीत धाम के करत बखाना ॥ 
सास ससुर जोहारिहि कीन्हि । जथा जोग दायन कर दीन्हि ॥ 

जीवन रथ के रस्मी धारत । अस दम्पत् जग पथ संचारत ॥ 
नाथ दुआरी दुइ छन हौरे । गह आसन दुहु चले बहोरी ॥ 

जगजमोहन नाथ भजन, गाहिहि जोइ सुजान । 
ज्ञान बिज्ञान के बिभूति, तिन्हहि देहि भगवान ॥  

शुक्रवार, ०९ मई, २०१४                                                                                                          

रहि  पिया के रुचि अध्ययन में । स्नातक उतरु उपाधि जोगन मेँ ॥ 
थाइहि सेउकाइ नहि साधा । आन प्रबास अस भइ बाधा ॥ 
 उपाधि के योगवर्द्धन का हेतु किए प्रियतम की रुचि यद्यपि अध्ययन में रही किन्तु उनकी अस्थायी सेवा-नियोजन एवम अन्यत्र प्रवास मार्ग की बाधा बनी हुई थी ॥ ( अब वह बाधा नहीं रही  ) 

ज्ञान पीठ के धानी  जोई । बॉस नगर सन दूरहि होई ।। 
जहाँ लोह पथ गामिनि । भोर चले पैठए दुइ जामिनि ॥ 
( स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम हेतु ) प्राविधिक ज्ञान पीठ जिस धानी में स्थित थी वह निवास नगरी से दूर ही थी । जहां लौह पथ वाहिनी से यदि भोर मेन चले तब वह दुसरे पहर को ही पहुँच सकते थे ॥ 

जब सों  प्रीतम पाए सँदेसा । प्राबिधिक पीठ होइ प्रबेसा ॥ 
कहै बधू पुनि लेय बिचारी । पिय प्रबास के चिन्तन धारी ॥ 
जब से प्रियतम ने प्राविधिक पीठ में प्रवेश का सन्देश प्राप्त हुवा था । तब से वधु  अनुत्तरा प्रवास कि चिन्ता धरे वधु कहती रही इस पर एक बार पुन: विचार कर लो ।  

बिचार बिनु सँजोउन लम्भे । अचरम सिखनई बरस अरंभे ॥ 
कबहु जाए कभु जाइ न जाई । कबहु पयाई तुरत अवाई ॥ 
फिर बिना कोई विचार किए पाठन सामग्री प्राप्त की शीघ्र हि शैक्षणिक वर्ष आरम्भ हो गया ॥ जहां प्रियतम कभी जाते कभी जाते न जाते  वाली नीति अपनाते कभी जाते तो तत्काल ही लौट आते ॥ 

एक कोत जीउति  चिन्तन,  दूजी अध्ययन घारि । 
लागे देहि दोए चरन, करम जोंग चक बारि॥
एक और आजीविका की चिन्ता दुसरी अध्ययन की घर कर ली । देह तो दो ही पैरों वाली थी, उनका  कार्य चक्के वाली देहि के योग्य था ॥ 

शनिवार, १० मई, २ ० १ ४                                                                                                 

उत बधु  परिनेता के प्रेरी । पोथी पुरान के कर ढेरी ॥

जतन पूर्वक जोंग निपुनाइ  । एक अनखौही परीछा दाइ  ॥
उधर वधु परिणेता की प्रेरित करने पर पोथी-पुराण की ढेरी किए थी । जिससे चेष्टापूर्वक निपुणता धारण कर एक प्रतियोगी परीक्षा दायी ॥ 


खेह खेड़ जोगन हारी के । भरन पद राउ पटबारी के ॥ 
राज पात मह ज्ञापन दीन्हि । बहु अभ्यर्थी याचन कीन्हि ॥
गाँव-खेड़े की भूमि का रक्षा करने वाले लेखापाल के पद पूर्ति हेतु राजा  राजपत्र में सूचनाऍ प्रकाशित की  । जिसे देखकर बहुंत से अभ्यर्थियों ने याचना की । 

पढ़इ लिखइ जौ पहलहि जोई । निर्धारित बिषय रही सोई ॥
पूरब पाठत भइ तनि ज्ञानी । पड़त पड़त परिपाटी जानी ॥
जो पढ़ाई पहले से ही पढ़ी हुई थी उसका पाठ्यकम वही था । पूर्व में पाठाभ्यास कर वधु विषय की किंचित विशारद हो गई थी और पढ़ते-पढ़ते पढ़ाई कि परिपाटी का भी ज्ञान हो चला था ॥ 

 करत भयउ परिनाम उजागर । सकल सुफल के नाम उजागर ॥ 
देखे पिया जब बधु के नामा । पाए काम कह रे बिनु कामा ॥
चयनित अभ्यर्थियों के साथ जब परिणाम उजागर हुवा ।  प्रीतम न उन नामों में वधु का नाम देखा तब वह कह उठे हे रे अकर्मण्य् को कर्म मिल गया ॥ 

हर्षातिरेक कहे हे लवनई श्री सरूप । 
दरसाए पत बहु नाम पर, तुहारे एकै अनूप ॥   
और हर्षातिरेक में  कहते चले गए हे लावण्य श्री का स्वरुप । इस परिणाम पुस्तिका में बहुंत से नाम प्रकाशित  हैँ किन्तु तुम्हारा यह एक नाम अभिनव है ॥ 

रविवार, ११ मई, २०१४                                                                                                      

आखर जननी पत बिय बोई । ज्ञानोदक से सींचत सोई ॥ 
प्रफुरत् फूर सुफल फल देखे । होहि पिया हिय हरख बिसेखे ॥  

चैनित किए पतर ब्यौहारी  । साछात करन हूँत हँकारी ॥ 
 सकल उपाधि पाँति कर जोगे । तहवाँ पधारि चयनित लोगे ॥ 

पद हुँत जो जुगता रहि चाही । सोइ बहोरि पूरन न लाही ॥ 
गहे पढ़ सबहि उपाधि साँची । एकै सनगनक के नहि बाँची ॥ 

कठिनइ ते जे अवसर पाई । रे हत भागिन सोइ गवाईं ॥ 
कहत पिया अस  भएउ निरासे । भए बिरथा पाठन अभ्यासे ॥ 

नहि जोगे एकइ उपाधि, कहत बधुरि सकुचाइ ।  
मुँहू भराई रीत सौं, होहि सकल पुरताइ ॥ 

सोमवार, १२ मई, २ ० १ ४                                                                                                    

श्रुत जे बचन क्षोभ मुख छावा । कहे मोहि छल कुसल दिखावा ॥ 
जुगता जग जो मोल बिसाहू ।  रहिहु जग माहि जोग न काहू ॥ 

कोप करत पुनि करक निहारै । धूत धूत कह बहु दुत्कारे ॥ 
दुइ सौ प्रतिभागी मह ऍका । भयउ तुअँ अति प्रबीन प्रबेका ॥ 

तिन मह होहि सनदेह न काहू । श्रम कारत अरु ज्ञान लहाहू ॥ 
आगिन पुनि पुनि परिखा दाहू । लोक सेवा पार कर जाहू ॥ 

जब को नयन ज्ञान छबि छावै । सफलोदर्क अर्क दरसावै ॥ 
 तव लोचन दर्पन मैं देखउ । दृढ़ पाठ हुँत समर्पन देखउँ ॥ 

बहु भाँति के बचन सोंह पिय बरधाए उछाह । 
पर वधु के मनो चितबन्, परि प्रभाउ को नाह ॥    


मंगलवार, १३ मई, २ ० १ ४                                                                                               

जे सेउकाई फेउकाई । साँची कहे हमहि न सुहाई ॥ 
हमरे करम तव गेह जोहे । बालक जनि के अचरा टोहे ॥ 

अबुध तनय अधबुद्धि अहाहीं । जोग रखें जो आपनु नाही ॥ 
देहिहि बास बसाउन  जोगे । खवाए बिनु तो भूखन भोगै ॥ 

भयउ तृषालु ताल जल चाहे । देइ कुलीनस कंठ लहाहे ॥ 
तन बिनु बसन रसन बिनु बानी । अजहुँ त माता बोल न जानी ॥ 

करि जेतक जतन  महतारी । तेतक तात सकै ना कारी ॥ 
अपस्मार के रोग कठोरा । माँगे जननी गोद हिंडोरा ॥ 

मृगनयनी नेह दरस पिय, भयऊ भाउ बिभोर । 
अश्रु कन उतरन चाह किए, सोंह नयन के कोर ॥     

बुधवार, १४ मई, २ ० १ ४                                                                                                    

प्रिया प्रेम मूर्ति उर माही । कहत नयन पिय मुख कहि नाही ।। 
मुखरिते पुनि कंठ कर भारी । पूजन जोग रूप जे नारी ॥ 

भरे बधु हुँत भाव मन जेता । कही न जात लिख्या सों तेता ॥ 
निलयन नंदन नैन प्रफूरे । सोंह नलिन दुइ जल कन झूरे ॥ 

बिपल सम दिनु पलक सम राती । कछुक मास बिरते एहि भाँती ॥ 
पढ़न अबर पुर आवन जाई । समउ नसए अरु बिघनि पढ़ाई ॥ 

एक दिन पाठक बोल पठावा । कहाँ निबास तव पूछ बुझावा ।। 
बासी निलय भेद जब खोले । पीठ नगरि निबासँन बोले ॥ 

गाहे एक कूट सँकेत , गिरा गहन गंभीर । 
प्रियतम सों अवनत नयन, जी जी कहई धीर ॥    

बृहस्पतिवार, १५ मई, २ ० १ ४                                                                                                 

गेह बाहर बहु सोचि बिचारी । सूझे नहि अजहुँ त का कारीं ॥ 
बसथ जसस् सथ बसे बसेरा । पालक छाईं  अपने डेरा ॥ 

गेह उठौनी सहज न होई  आन बसति बसि जान न कोई ॥ 
पुरंतर पुनि दूजे बसेरे । कहँ दरसैं  कहँ गवनत हेरे  ॥ 

रुजित तनय के मुख जब ताके । प्रियं बचन पुनि मात पिता के ॥ 
सिरु कर धार जस धीर धराईं । सुख फुर प्रफुरै दुःख भूराईं ॥ 

जे जग बिदित कह गए बिदुरबर । जननि जनि भुइँ सुरग सों गरिबर ॥ 
बिनहि बोलाइ संकट आई । समाधान सुझई कछु नाई ।। 

एहि जनम निबासा बहस सुपासा  जहां  परिचित आपने । 
 जहँ बरबधु दोई जनमन होई जननि सबहि जात जने ॥ 
जहां सबहि सम्पद बसती सुखप्रद भाइ बंधु सौं हरिदै । 
जहँ खेलन कीन्हि सुरता चीन्हि पथ पथ बालक पन के  ॥ 

जाए न जाए पूछ बुझत, सुबुध स्यान सुजान । 
सबहि अभिप्राइ सँजोवत, आपनि मति मत मान ॥ 

मंगलवार, २७ मई, २०१४                                                                                                 

एकु दिवा बधु जब भरी भोरी । हेतु उषा दुआर पट खोरी ॥ 
देखि देहरी बिपदा ठाढ़ी । धचकत पट घर भीतर बाढ़ी ॥ 

इत उत जित तित फिर तनि बेरी । पास गहन को कण्ठं हेरी ॥ 
बिगलित केस कपट कुट भेसी । धीरहि बैसक चयन प्रबेसी ॥ 

सबहि कोत झाँकत अनुरेखी । तबहि सोंह रुगनित सुत देखी ।। 
बिना अर्थ के बाधा बाधन । चौकि धरि दूरदर्सन साधन ॥ 

कुंठक सुत तिन जस का धारे । परम क्रोध बस पग दे मारे ॥ 
आप काज कर बिपदा भागी । सुत के अंतर पीरा जागी ॥ 

चोट जनित पीर जनमित, रोदन सुन जब मात । 
धाइ आइ धरि भुजंतर, चोटिल सुत के गात ॥ 

बुधवार, २८ मई, २ ० १ ४                                                                                                           

चोटिल सुत मुख रोदन रागी । उलट पग बधु जिउद पहि भागी ।। 
धाइ जब करे घोर चिकारा । पैठी रोग निदान दुआरा ॥ 

टीस धरत बहु तड़फत कलपे । घरी पलक भए भारि बिपल पे ॥ 
चलत बेगि बधु सुनत जे धुनी । चोट चपेट अह गहन अधुनी ॥ 

निरख बैद अंतर चित्ररेखे । जंघास्थि भै दुइ टुक लेखे ॥ 
संधि बंध पटि जोग संहिते । दिए परामर्स बायस क्रृत हिते ।। 

कछु त्रुटि बस जौ होहि न आढी । जस जस बाढ़ी होही गाढ़ी ॥ 
कहत बचन यहु साँतव बँधाए । अजहुँ त सून के बालताए ॥ 

तदपि गहनइ पीर भरी, चोट भए गंभीर । 
बिनु हिडोल राखत होहि सुखकर धीरहि धीर ॥ 

बृहस्पतिवार, २९ मई, २०१४                                                                                                 

भरे नयन जब सुत मुख लाखी । पीर भाव उर आपहि भाखी ॥ 
मंद कंत अस रहि मलिनाई । काल घटा जस निभ नभ छाई ॥ 
भरे नयन से वधु ने जब पुत्र का मुख देखा । तब उसके मुख के भाव ह्रदय की पीड़ा को स्वमेव उद्भाषित कर रहे थे ॥ वह  मंद कान्त हो कर ऐसा मलिन हो गया था जैसे उज्जवलित आकाश में काली घटा छा गई हो ॥ 

बाँध करक दुहु पद पटि जोगे । रुदन कहत हा कोउ बिजोगे ॥ 
बोलति मृदुलित हाँ रे हाँ ललना । झोलावत पलकन के पलना ॥ 
जीवद  ने दोनों पदों को संधि बंध पटिका से कड़कता पूर्वक बाँध दिया था उसका रोदन कह रहा था हां कोई इसे विमुक्त करे ॥ वधु मृदुल स्वरूप में हाँ रे हाँ रे ललना कहे जा रही थी । और पलकों के पालने में उसे झूला कर भुला रही थी ॥ 

तपत उर सिंधु घटा उठावै । नयन धनब करुना  बरखावै ॥ 
देख दसा पीड़ित सुत गाता । होत दुखित भै बिचलित माता ॥ 
दुःख से सन्तापित हृदय रूपी सिंधु से उठती घटा  नयनों के अम्बर से करुणा बरस रही थी । पुत्र की पीड़ित शरीर एवं उसकी दुर्दशा देखकर वधु दुखित होकर व्यथित हो गई ॥ 

बिपद काल यह रे दुर्भागी । किमि कारन बस पिय सों लागी ॥ 
तेहि समउ पितु रहे न संगा । गवाने जाने को नभ गंगा ॥ 
विपदा काल और यह दुर्भाग्य की वह किसी कारण वश प्रीतम से शत्रुता बाँध बैठी ॥ उस समय पुत्र के संग पिता नहीं थे वे इतने बड़े हो गए थे कि किस आकाश गंगा की यात्रा पर थे वधु को ज्ञात ही न था॥ 

दुर्दसा गहि कातर बधु , चरण अघात प्रसंग । 
दौर ठिया जान बिनु पिय देइ सके न उदंग ॥ 
दुर्दशा से ग्रसित निरीह वधु प्रीतम की स्थिति जाने बिना पुत्र के चरण आघात की घटना का समाचार पहुचाने में असमर्थ रही॥ 

शुक्रवार, ३० मई, २ ० १ ४                                                                                                       

अघात उदंत दिए ससुराई । पिय कहँ गवने पूछ बुझाई । 
सास ससुर जे सुचना दयऊ । कछु कारण बस धानी गयऊ ॥ 

संपर्क के साधन न साधे । आन परे जे बिरथा बाधे ॥ 
करत जुगत बहुतहि कठिनाई । पिय पहि सँदेसु पैठाईं ॥ 

पैह सँदेस पुनि सिरुनत अवने । सुत निबासित भवन लिए गवने ॥ 
चारि दिवस हुँत राखेहि भृते । बहुरि जीवद उन्मोचित कृते ॥ 

सोक सन्तापत तेहि समऊ । कोमल चित पिय बिकलित भयऊ ॥ 
कठिनइ बिरतइ सोइ काला । तनय  भाग सुख भयउ अकाला ॥

बधे पटिक पद परे न चैना । न दिवस सुपास नींद न रैना ॥
   
मन माहि प्रबास चिंतन, उत पुत के पद पीर । 
घिरे संकट सों दम्पति, सोच करे धरि धीर ॥