Sunday, November 10, 2019

----- || राग-रंग 33 | -----,

                                        ------॥ छंद॥ -----
जागौ सागर सिंधुःशयनम् I जागौ जगमोहन जगन्मयम् ॥ 
उठौ हे देव जगदीस हरे। जोए कर जन जन बिनती करे ॥

जागौ भवभूति बिभूति वरं। जागौ सुदर्शन पाणिर्धरं ॥
माया बसिभूत सबु मूढमति । देएँ जिउ ताप करैं पाप अति॥

भरपूरत सुखसंपद सबही I भरे कोष परि मन तोष नही ॥
उठौ हे देव जग जाग करौ l जागतिक पाप संताप हरौ ॥

अजहुँ मन न भगति भाव भरे। तव चरनन नहि ध्यान परे॥
जागौ सागर सिंधुःशयनम् I जागौ जगमोहन जगन्मयम् ॥

उठौ देव हे जगदीस हरे।जोए कर जन जन बिनती करे ॥ 
जागौ भवभूति बिभूति वरं। जागौ सुदर्शन पाणिर्धरं ॥

माया बसिभूत सबु मूढमति।देएँ जिउ ताप करैं पापअति॥
भरपूरत सुखसंपद सबही I भरे कोष परि मन तोष नही ॥

उठौ हे देव जग जाग करौ l जागतिक पाप संताप हरौ ॥ 
अजहुँ मन न भगतिभाव भरे। तव चरनन नहि ध्यान परे॥

नहि साँच बचन नहि बदन गिरा।भई दारिद दीनहीन धरा॥ 
भमरत बहु पातक भार गही।जासु भय मोचनएकतुम्हही॥

जागौ जगपति जगदानंदम्l जागौ देव दीनदयाकरम्॥ 
उठौ हे भू भार भंजनम्Iत्याजो अजहुँ सिंधु: सदनम् । 

Sunday, October 6, 2019

----- || राग-रंग 32 || -----,

डगर डगर सबु गृह नगर, लघुत त कतहुँ बिसाल | 
मंगल रचना सों रचे,परम बिचित्र पंडाल || १ || 
नगर के सभी मार्गों एवं गृहों में कहीं लघु तो कहीं विशाल रूप में मंगल रचनाकृति से परम विचित्र पंडाल रचे गए हैं| 

ध्वज पताक तोरन सों गइँ सब गलीं सँवारि | 
बंदनबारि बँधाइ के दमकत दहरि दुआरि || २ || 
धवज पताका तथा तोरणादि सामग्रियों से सभी गालियां सुसज्जित हैं बन्दनवाल विबन्धित कर देहली और दीवारी दमक रहीं हैं | 

बर बर भूषन बसन सँग साज सुमंगल साज | 
जगन मई जग मोहनी भीतर रहहिं बिराज || ३ || 
उत्तम वस्त्राभूषाणों व् सुमांगलिक श्रृंगार से श्रृंगारित होकर जगन्मई महामाया उनके अंतस में विराजित हैं | 

बिप्रबृंद अस्तुति करैं गहे आरती थाल | 
ढोलु मँजीरु के संगत करत धुनी करताल || ४ || 
ब्राह्मण देव के समूह आरती थाल ग्रहण किए उनकी स्तुति करने में संलग्न हैं | ढोल मंजीरे की संगती करते करतल से मधुर ध्वनि उत्पन्न हो रही है | 

कलित केस मौली मुकुट तिलक लषन दए भाल | 
कानन कुण्डल सोहिते कंठ मुकुत मनि माल || ५ || 
केशों से विभूषित शीश पर मुकुट तथा मस्तक पर सुन्दर तिलक लक्षित है उनके कानों में कुण्डल तथा कंठ में मणि माल सुशोभित हो रहे है | 

जगमग जगमग जोति जग जगत करत उद्दीप | 
मग मग मनि मंजरी से बरै मनोहर दीप || ६ || 
स्थान स्थान पर मणियों की पंक्तियों से मनोहर दीपक प्रज्ज्वलित हैं जिसकी जगमगाती ज्योति जागृत होकर समूचे संसार को उद्दीप्त कर रही है | 
  
नौ सक्ति कर दरसन हुँत भईं भीड़ अति भारि | 
होत चकित बिलोकि चलत सह बालक नर नारि || ७ || 
नवशक्ति के दर्शन हेतु भारी भीड़ उमड़ पड़ी है | नर नारी बालकों सहित माता की अनुपम झांकी को चकित होकर विलोकते चल रहे हैं | 

आजु नगर मनभावनी छाइ छटा चहुँ ओर | 
कहत नागर एक एकहि सहुँ होतब भाव बिभोर || ८ || 
सभी नागरिक एक दूसरे से कहते चल रहे हैं कि भई आज तो नगर में चारों ओर मनभावनी छटा छाई हुई है | 

छाए गगन आनंद घन चहुँ दिसि भरा उछाहु 
भाव भगति सों भरे भएँ प्रमुदित मन सब काहु || ९ || 
गगन में तो जैसे आनंद से परिपूर्ण हो रहा है चारों दिशाओं में उत्साह भरा हुवा है | भाव भक्ति से परिपूरित आज तो सभी का मन आल्हादित है | 




----- || राग-रंग31 | -----,

------ || राग-यमन || -----
देखु सिआ ए साँझि सेंदूरी | रुनझुन नुपूर चरन अपूरी ||
उतरि घटा ते धीरहि धीरे | चरत जहँ तहँ उठै रँग धूरी ||

कबहुँक आनि पुरट घट लेई | करसेउ रहट मुख पट देई ||
कबहुँ पनघट परि लट बिथुराए | बिहरत बावरि सुध बुध भूरी ||

कर कल कंकन कानन बूंदे | दरसत दरपन पलकनि मूंदे
माथ परि हिरन कनिका |  हंसक देइ अँगूरी ||

निर्झरनि जर मुकुत बखेरे | गह गह आँचर माहि सकेरे ||
बैसत बहुरि पवन करि डोला | बरखावत अह गहे अँजूरी ||

धरत मनोहर दीप दुआरा |  करिअति सबु देहर उजियारा ||
आगत रैनि दरस नभ चंदा | लेइ बिदा पिय गेह बहूरी ||


Monday, September 23, 2019

----- || राग-रंग 30 | -----

भासत भानु भयउ भिनसारा | बिरति रैनि मेटे अँधियारा || 
आँगन आँगन भरे अँजोरा | भोरु भई बोलै तमचोर || 
भानु के भासवंत होते ही प्रभात हुवा रात्रि व्यतीत हुई और अन्धकार विनष्ट हो गया | आँगन प्रकाश से परिपूर्ण हो गए अरुणचूड़ बोल उठे 'भोर हो गई' | '

जागत ज्योति अगजग जागै | जागिहि पुरजन सयन त्याग || 
कासत कंचन कलस कँगूरे | बन बन पुलकित पुहुप प्रफूरे || 
ज्योति के प्रज्वलित रहते तक सारा संसार जागृत हो गया |  पुरजन भी निद्रा त्याग कर जागृत हो गए | (सूर्य की किरणे के स्पर्श करने पर ) मंदिरों के स्वर्णमयी कंगूरे दमकने लगे, वन वन पुलकित होकर पुष्प खिल उठे  | 

जोए पानि जुग सीस नवाए | पुष्कर पुष्कर पदम् उपजाए || 
करत धुनि मुख संख अपूरे | झनकै झाँझरि संग नुपूरे || 
सरोवरों में युगल हस्त को जोड़े शीश झुकाए पद्म निकल आए | मुख में आपूरित शंख ध्वनि करने लगे उनकी संगती करते हुवे नूपुरों के साथ झाँझरी भी झनक उठी | 

प्रमुदित  सबु जन करि अस्नाना | चले देबल पहिर बर बाना ||
गहे थाल जल मंगल मौली | संगत अच्छत सेंदुर रोली || 
प्रमुदित पुरजन स्नान आदि क्रिया से निवृत होकर सुन्दर वस्त्र धारण किए मंदिर की ओर चल पड़े | वह थालों में जल, मंगल मौली के साथ अक्षत सिंदूर रोली आदि पूजन सामग्री ग्रहण किए हुवे थे | 

परस घंटिका प्रबिसि द्वारा | जय जय जय जय सिव ओंकारा || 
भूसुर मधुरिम आरती गाएँ | बाजत मँजीरी ढोलु सुहाए || 
घण्टिका का स्पर्श करते हुवे उन्होंने वह मंदिर में प्रविष्ट हुवे जय जय जय जय शिव ओंकारा, ब्राह्मण देव यह आरती गान कर रहे थे बजते मंजिरे व् ढोल अत्यंत सुहावने प्रतीत हो रहे थे | 

हे गंगाधरं नटेश्वरं हे शङ्करं महदेव हे | 
हे भस्मशायी शशि शेखरं निष्कारणोंदयेव हे || 
हे गणेश शेष शारदा सिंधु शयन जगद्पति लक्ष्मीश हे | 
करै बिनति देहु सुभाशीश कर धारौ हमरे नत शीश हे || 
हे गंगा को धारण करने वाले, नटों  के ईश्वर, हे शंकर, हे महादेव, हे भस्म में शयन करने वाले, भाल में चन्द्रमा को धारण करने वाले आप  बिना कारण ही उदयित होते हैं | हे गणेश शेष शारदा हे सिंधु में शयन करने वाले जगदपति लक्ष्मीश हम आप से विनती करते हैं आप हमारे नत शीश पर हस्त धार्य कर हमें शुभाशीश दें | 

बरधेउ पापि अजहुँ अति, भयो पाप कर भार | 
कहै गौरूप धरनि पुनि लिजै नाथ औतार || 
गौ का रूप धारण कर धरनी कहती है पापियों का वर्धन होने के कारण अब तो पाप का भार अत्यधिक हो चला है | हे नाथ ( मुझे पापमुक्त करने हेतु )आप पुनश्च अवतार लें | 

Sunday, September 1, 2019

----- || राग-रंग 29| -----,

----- || राग-दरबार ||-----
ऐ घटाओं तुम्हेँ और निखरना होगा,
बनके काजल मेरी आँखों में सँवरना होगा,
ऐ संदर मेरी हृदय की धरती से उठो.,
बूँद बनकर तुम्हेँ पलकों से उतरना होगा..,

जिसके होठों की सरगम हूँ शहनाई हूँ..,
कहे रो रो के वो बाबुल अब मैं पराई हूँ.....  

Tuesday, June 4, 2019

----- || राग-रंग 28 | -----

----- || राग-बहार || -----

एक बार कछुक  निबासिहि, बसे रहे एक गाँव |
बहति रहि नदिआ कलकल जहँ तरुवर की छाँव || १ || 
एक बार एक गाँव में कुछ  निवासी निवास करते थे वहां पेड़ों की घनी  छाँव तले कलकल करती नदिया बहती थी  | 

लाल पील हरि नारंगी नान्हि नान्हि चीड़ |
चहक चहक सुठि धुनि करति बसबासत निज नीड़ | २ || 
लाल पिली हरी नारंगी रंग की छोटी छोटी  चिढ़िया भी अपने नीड़ में निवासित रहते हुवे चहक चहक कर  सुन्दर ध्वनि किया करती थी | 

एक निबासिहि तिन्ह माहि  निर्मम गहे सुभाए |
हिंस रूचि होत एक दिबस  मारन तिन्हनि धाए  | ३ | 
उनमें से एक निवासी का स्वभाव नितांत निर्मम था हिंसा में उद्यत हुवा एक दिन वह उनकी ह्त्या करने के लिए दौड़ा | 

पाहि पाहि कहि बिलोकति  कातर नयन निहारि |
सुनि अबरु निबासिहि जबहि चिरियन केरि पुकारि || ४ || 
 कातर दृष्टि से उसे निहार कर वह चिड़िया बचाओ बचाओ की पुकार करने लगी | एक  दूसरे निवासी ने उसकी करुण पुकार सुनी | 

करुनामय संत हरिदै गै तुर ता संकास |
छाँड़ि छाँड़ि पुकारि करत तुरत छड़ाइसि पास || ५ || 
वह करुणामयी संत हृदय तत्काल उसके पास गए और छोडो छोडो की पुकार कर उस चिड़ियाँ को निर्दयी के पाश से विमुक्त करा लिया  | 

दोइ दिवस पाछे दुनहु दरसिहि तरुबर तीर |
राखिहि को को मार चढ़ि परिचिहि अस  तहँ भीर || ६ || 
दो दिवस व्यतीत होने के पश्चात दोनों ही एक वृक्ष के नीचे दिखाई दिए | रक्षा किसने की और  कौन उसकी हत्या करने हेतु उद्यत हुवा यह जनमानस की भीड़ ने उसे इस प्रकार पहचाना | 

देखु देखु चिडि राखिया ब्रह्मन कहँ पुकारि |
देखु रे चिडिमारु ओहि ए कह नाउ सहुँ धारि || ७ || 
देखो देखो वो रहा चिढ़िपाल, इस प्रकार कालांतर में चिढ़िआ का रक्षक ब्राह्मण पुकारा गया  | देखो उस चिड़ीमार को ऐसा कहते हुवे  हत्या को आतुर हुवे निवासी के नाम संगत चिड़ीमार या बहेलिया संलग्न कर पुकारा जाने लगा  | 

रखिया कहत पुकारेसि रखे जोइ सो नीड़ |
कन उपजाए तिन्ह गई बनिज कहत सो भीड़ || ८ ||
अब एक और दयालु उस नीड़ की रक्षा करने लगा उसे छत्रधारी रक्षक कहकर पुकारा जाने लगा | जिसने उस चिड़िया को कण देकर उसके भोजन का प्रबंध किया उसे वाणिज्यक कहकर पुकारने लगे | 

तासोंहि कछु दूरदेस  रहिअब अरु एक गाँउ  |
दरस चिढि तहँ सबहि कहैं धरु धरु मारु रु खाउ || ९ ||
 उस गाँव से कुछ दूरी पर एक दूसरे देस का गाँव था वहां चिढ़िया को  देखकर सभी ने कहा पकड़ो ! पकड़ो ! मारो और खा जाओ | 

तिन्ह माहि रहिअब कोइ रखिता न राखनहारु  |
नहि को कन निपजावना सबहि भयउ चिढि मारु || १० ||
भावार्थ : - उस गाँव में न तो किसी न चिड़िया को बचाया न उसके नीड़ की ही रक्षा की और न  किसी ने कण उपजाया | वहां सभी लोग चिड़ियाओं को मारकर खाने वाले कहलाए |

करत करत अस गाँव भित जाति पाति निपजाइ |
सबहि मारनहार जहाँ रहे तासु बिहुनाइ || ११ ||
इस प्रकार धर्मतस जन समूहों के अंतस से कर्म के आधार पर जातियों का प्रादुर्भाव हुवा जहाँ सभी मारने वाले स्वभाव के हुवे वह मानव वर्ग की इस जातिगत विशेषता से वंचित रहे | 

कर्म बिहुने होत कहा दया धर्म परिहार  | 
हिंस रुचिरत जाएँ होइ  हम सब मारन हार || १२ || 
भावार्थ : -अब आप ही निर्णय कीजिए क्या हम मानवोचित कर्म और दया धर्म का त्याग कर सभी चिड़िया को मारकर खाने वाले हिंसालु के जैसे हो जाएं  ? 

धर्म तहँ चिढि रूप धरे दया बचावन हार  |
हंति तप दान कन दाइ साँच रूप रखवार || १३ ||
भावार्थ : - वहां धर्म ने चिड़िया का रूप धारण किया हुवा था दया ने बचानेवाले का रूप धारण किया था हत्यारे ने तप का रूप धरा था तथा कण देने वाले ने दान का रूप धारण किया हुवा था | 

दया बिहुने दान बिनहि साँच बिनहि संताप |
जहाँ सबहि मारनहार रूप धरे तहँ पाप || १४ ||
भावार्थ : - जो गाँव दया दान सत्य और संताप से रहित था वहां साक्षात पाप ने  धर्म का रूप धारण करने वाली चिड़िया को मारनेवाले का रूप धारण किया हुवा था | 

Monday, May 27, 2019

----- || राग-रंग 27| -----

-----|| भाषा एवं बोली | -----
अन्तर भाव केर परकासन | भाषा एकु केवल संसाधन ||
जासहुं अंतर भाव प्रकासा | सो साधन कहिलावहि भाषा ||


लिपि सोंहि संपन्न को साधन | करत भाष परिभाषा पूरन ||
अवधि लिपिहि नहि गई बँधाई | एहि हुँत सो बोली कहलाई ||


ब्याकरन धन कोष समाना | सम्पन होत गहे अधिकाना ||
साहित्य लिपिहि बधे बिचारू | गह भास् साहितिक गरुवारू ||


कोउ भाषा कि बोली कोई | ऊंच पदासन आसित होई ||
एहि आसंदि करत बिख्याता | होतब प्रगति केर प्रदाता ||


सनै सनै भाषा सोंहि बोली दिए निपजाए |
अरु साहित्य रचाए पुनि प्रगति पंथ कहुँ पाए ||

भावार्थ : - भाषा भावाभिव्यक्ति हेतु साधन मात्र है | भाषा वह साधन है जिससे अंतर भाव की अभिव्यक्ति सम्भव हुई | भावाभिव्यक्ति का कोई साधन लिपि से संपन्न होकर ही भाषा की परिभाषा को पूर्ण करता है | अवधि की लिपि नहीं है इस हेतु यह एक बोली है | व्याकरण भाषाओं की सम्पदा है यह सम्पदा कोष जिस भाषा में जितना अधिक होता है वह उतनी समृद्ध होती है | लिपिबद्ध विचार ही साहित्य है, साहित्यिक गौरव को प्राप्त होकर कोई भाषा अथवा बोली उच्च पद पर अभिषिक्त होती है यह अभिषिक्तता उसे जगत में प्रसद्धि व् उन्नति प्रदान करती है | भाषाओँ से ही शनै:शनै: बोलियों की व्युत्पत्ति हुई और साहित्य रचना से यह उन्नति को प्राप्त हुई…..

Thursday, May 23, 2019

----- || राग-रंग 26 | -----

----- || राग - बसंत मुकरी || -----
नदिआ प्यासि पनघट प्यासे प्यास मरए तट तट  रे | 
दै मुख पट धरि चली पनहारी प्यासे घट कटि तलहट रे || 
बिलखि रहँट त रहँट प्यासे बहोरि चरन बट बट लखिते | 
परबत प्यासे तरुबर प्यासे पए पए कह सहुँ पत निपते || 

दहरि प्यासी द्वार प्यासे दीठि धरिँ चौहट तकते | 
खग मृग प्यासिहिं प्यास पुकारत तल मीन तुल तिलछते   ||  
पंथ पंथ परि पथिक पयासे धरतिहि पय पयहि ररै  | 
पेखत पियूख मयूख मुख पिहु सहुँ मृगु मरीचिक जिहुँ धरैं || 

पलकन्हि परि करतल करि छाँवा हलधर नभस निहारते | 
भए हति साँसे पवन कैं काँधे निरख बिहून उदभार ते || 
तापन ऋतु अगजग झुरसावत पगपग जुआला धारते | 
ए बैरन जिअ की फिरहिं न फेरे, गए थकि थकि सबु हारते || 

काल मेघ घन लोचनहि अहुरे दरस परि न बरखा बहुरै | 
तरसत बूंद कहुँ कंठ ते ए जाचत सबहिं के पानि जुरै || 
हे जगजीवन जग बंदन तुअ घन साँवर कै  रूप बरौ | 
उठौ देउ हे सिंधु सदन सोंहि गगन सिंहासन पधरौ || 

नदी प्यासी पनघट तट तट प्यास से आकुलित हैं ( सभी को प्यासा देखकर ) पनहारी अपने प्यासे घड़े पानी मेघला के तलहट पर धरे मुख में आँचल दिए चल पड़ी जब कूप की घिरनी को भी प्यासा देखा तो मार्गों में तृप्त स्त्रोत की टोह करते लौट चली | पर्वत देखा पर्वत प्यासे तरुवर देखे तो तरुवर प्यासे और उन प्यासे तरुवरों पत्ते पानी-पानी कहते सम्मुख गिर रहे हैं | 

इधर प्यासी देहली और प्यासे द्वार चौपथ पर टकटकी लगाए जल हेतु प्रतीक्षा रत हैं | पशु-पक्षी प्यास प्यास पुकार जलहीन नदी तल की मीन के सदृश्य व्याकुलित हो रहे है | पंथ पंथ पर पथिक प्यासे हैं और धरती पानी पानी की रट लगाए चन्द्रमा का मुख निहारते चातक के समान रसना में मृग तृष्णा धारण किए हैं  | 

 पलकों पर हथेलियों की छाया किए आकाश की ओर निहारते हलधर पवन के कांधों को बादलों से रहित देख कर निराश हो गए  | यह ग्रीष्म ऋतू चराचर को झुलसाती मानो चरण चरण पर अग्नि का आधान कर रही है सब इसे लौट जाने के लिए कहकर हारते थक गए किन्तु प्राणों की ये वैरिन लौट नहीं रही | 

घने मेघ नभ में व्याप्त न होकर नेत्रों में आ ढहरें हैं  यह दर्शकर भी वर्षा ऋतू नहीं लौटती |  बून्द बून्द हेतु तरसते कंठ से  यह याचना करते सभी  हस्त आबद्ध हो गए कि संसार को जीवन प्रदान करने वाले विश्व वन्दित भगवन अब आप ही श्यामल मेघ का रूप वरण करो और अपने सिंधु सदन से उतिष्ठित होकर गगन का सिंहासन ग्रहण करो | 


Tuesday, May 21, 2019

----- || राग-रंग 25 | -----,

----- || राग-मालकोस || -----
फिर मौसमें-गुल खिल खिल के महकें..,
के गुंचों को छूके हवा मुस्कराई..,
फिर वादियों का लहराया दामन..,
दरीचे बिछाए हुवा सब्ज मैदाँ..,
बाग़ों की गुज़रगह परिंदों से चहके
आबशारों के गिरहों से छूटे फिर गौहर..,
शफ़क़ फूल के नरम-बादल पे बिखरी..,
लगी कश्तियाँ फिर बादबाने सजाए ..,
फिर शाम हलके से उतरी सहन में.....

सब्ज =हरा
गिरह = गाँठ
गौहर = मोती
शफ़क़ फूलना  =संध्या/प्रात: की लालिमा का प्रकट होना
बादबान = नावों की पालें
सहन = आँगन


'फिर दहनो- दर में हुई शम्मे-रौशन'





----- || राग-रंग 24 || -----,

----- || राग - हिंडोल || -----
पेड़ पेड़ परि चलै फुदकती |
डार डार धरे चरन गौरैया|| 
देअ सुरुज सिरु घाउँ तपावै आवत छत छाजन गौरैया | 
पिबत पयस पुनि दरस कसौरे खावै चुग चुग कन गौरैया ||
बैस बहुरि पवन हिंडौरे पँख पसारे गगन गौरैया |
चरत बीथि बिलखत अमराईं पूछत मालीगन गौरया ||
मधुर मधुर पुनि अमिया खावै गावत मधुर भजन गौरैया |
डगर डगर सब गाँव नगर रे बिहरै सब उपबन गौरैया ||
भरी भोर ते घोर दुपहरी रहै प्रमुदित मन गौरैया| 
साँझ सेंदुरि ढरकत जावै फिरै नसत बिनु छन गौरैया || 

Sunday, May 19, 2019

----- || काव्यमंडन 4 || -----,

सिर पे चोटी जय जय हो..,
कटी कछोटी जय जय हो..,
देखो साधू चन्दा बाँधै.., 
फेंक लगोंटी जय हो जय हो.., 

सुबहो सबेरे जय हो जय हो..,
धनी घनेरे जय हो जय हो.., 
सिंधु के तट ले उठावै..,
कुत्ते की ..... jay ho jay ho.., 

नेता जी की जय हो जय हो..,
अभिनेता जी की जय हो जय हो.., 
खा खा के हो गई उनकी..,
चमड़ी मोटी जय हो जय हो..,

गय्या मय्या जय हो जय हो.., 
माँगै रोटी जय हो जय हो.., 
खड़ी दुआरे तो उसको मारैं  .., 
ले के सोंटी जय हो जय हो.....

Tuesday, May 7, 2019

----- || राग-रंग 22 | -----,

------ || आम का अचार || ------
ले लो ले लो बाबुजी काचे काचे आम |
भरी बाँस  की टोकरी दोइ टका हसि दाम ||

साक पात फल कंद लिए बैसे बाट किनार |
हाट लगाए तुला धरे हाँक देइ हटबार ||

कोउ  सरौता कर गहे ऊँचे रहैं पुकार |
कटे आम त अचार है न तरु होत बेकार ||

हरदि लौन लगाई के फाँका दियो सुखाए |
सत कुसुमा तिछनक संग मेथी दएँ  मेलाएँ ||

बहुरि तिछ्नक तैल संग मेलत सबहीं फाँक |
काँचक केरे भाँड में भरिके राखौ ढाँक ||

शतकुसुमा = सौंफ
 तीक्ष्णक = पीली सरसौं
काँचक केरे भाँड = काँच का भाजन

----- || राग-ललित || -----
ज्वाल ज्वाल भए दिनकर मुख दरपत दहुँ दिसि दरस रहे |
जारन जिउजन किरन कर छन छन जुआला कन बरस रहे ||
कररत करषि भू त करषक करष करालिक कर गहे |
दहे दव दहे भव त दली नव दवनहि केसवाजुध लहे ||


Saturday, April 13, 2019

----- || राग-रंग 21|| -----,

खेट खेड़ में बहति नहि अजहुँ बायु उनचास |
साजन मोरे देस सों बिछड़ गयो मधुमास || १ ||

बिरवा सँगत डारि बिछड़ी बिछड़े सुमन सुगंध |
संगी संगिनि पलक में बिहुर रहे गठ बंध || २ ||

जलधर जल धारे नहीं नदियन में नहि नीर |
मन में नाही धीर रे नैनन में नहि पीर || ३ ||

बस्ती बस्ती बासिते बसे बिनहि अब गेह |
पुरजन परिजन बीच सो रहे नहीं अस्नेह || ४ ||

साजन आस पड़ोस में दरस परायो बास |
पराधीन होत रहा ए देस दास का दास ||५  ||

अधिबासत बसबासते भीते भीतहि भीत |
तिनकी सिखाई चालनि बिसरि आपनी रीत || ६  ||

सरोबर सरोज बिनु भए मानस बिनु कल हंस |
कुलीन मलिने होत गए बिछुड़े निज कुल बंस || ७  |

जल मलिना बायु मलिनी मालिने ताल नद कूप |
निरबंसि सों बिगड़ गयो भगवन का सरूप || ८ || 

साजन मोरे देस जहँ बहति दूध की धार |
जनमानस अजहुँ तहँ रे खावैं जंतुहु मार || ९   ||

उपज अनाज मीन भई ताल भयउ अब खेत |
किरसक भया कसाइया  उर्बरता गहि रेत || १०  ||

भाषा भूषा बिगड़ गइ बिगड़ा खान रु पान |
दोनहु अजहूँ एकै भए मानस कहा स्वान || ११  ||

नहीं कतहुँ अमराइयाँ नहीं पीपल करि छाँए |
बालक मन फल फूल को दरसनहू तरसाए  || १२  ||

पोथी पत्तर माहि अब पढ़िते एहि सब कोए |
अमराई बौराए के कोयरि-कोयरि होए || १३ ||

भूयसि भव उपभोगते जन जन भए नरनाह |
भौनत भू थकि डोलती गहे तासु दुर्बाह || १४  ||

नीची करनि करनहार बैस ऊँच अस थान |
हँसा नीच बैसाए अब कागा देय ग्यान || १५ ||

न त सीतल चाँदनी अब नही सुनहरी धूप |
साजन मोरे देस का बिगड़ गयो रँग रूप || १६ ||