सब रूप में सब रंग में तू | रोम रोम अंग अंग में तू ||
क्या कहूं प्रभु/के तू कहाँ नहीं | व्योम व्योम विहङ्ग में तू ||
जो अगजग के पाप को हरे | जो संताप आताप को वरे ||
तरी धरा पे जो स्वर्ग से | उस गिरिवरम् की गंग है तू ||
मेरे प्रेम मेरी प्रीत में | मेरे साँसों के संगीत में ||
तू सात स्वरों के तार में | रागों की जल तरंग में तू ||
तू बाँसुरी की रवकार में | तू झांझती झंकार में ||
तू कंठ की श्री माल में | कर ताली में मृदंग में तू ||
कहीं उड़े गगन तो क्षण लगे | वही राग कण आ चरण लगे ||
जो चढ़े सौभाग्य शीश पर | उस श्रृंगार के सुरंग में तू ||
भाव सिंधु को विस्तार दे | करतार बनके तू तार दे ||
इस संसार के उस सार का | है प्रशान्तमनम् प्रसंग तू ||
मिल दीप्त दिया की रेह में | और डूब उसके स्नेह में ||
बिरहा अगन में जल उठे | ऐसे प्रियतम पतंग में तू ||
कभी डरे डरे डेग भर चलूँ | कहीं दूर कोई डगर चलूँ ||
तब हो फिर क्यूँ किसी का डर | जब हो प्रभो/पिया मेरे संग में तू||
ये जगत की भूरि सम्पदा | रही पास में ना कहीं सदा |
कर वचन जो ये सुविचार दे | उस वाचनीय व्यंग में तू ||
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