Monday, June 30, 2025

----- || राग-रंग 53 || -----,

बिरंची परपंच रचे कहु कछु बिरथा नाहि।

मैला मलिना मल किआ दिआ रसायन ताहि ॥ 

: - -विधाता ने जगत का विस्तार कर इस सृष्टि में कहीं कुछ भी व्यर्थ नहीं रचा मल को यद्धपि मैला मलिना किया तद्वपि उसे रसायनों से युक्त कर दिया | 


मानस खावै मोतिआ निकसावै दुरगंध। 

गउवन पावै पात तृण मय मै देय सुगंध ॥

 : - -मनुष्य मोती खाता है और दुर्गंध निष्कासित करता है गौ माता तृण पत्र खाकर भी सुंगंधित गोमय प्रदान करती है |


दँडक लाढि डाँटि फटके कूड़ा करकट खात । 

हट चौहट् चौंकि बट बट भटके रे गौ मात ॥

 : --कूड़ा करकट डंडे लाठी डांट फटकार खाती चौंक चौहाटो में मार्गो पर भटकती गौ माता का गोमय सुंगंधित कहां से होगा 


मिरदा मिरदुलय भय तब,जब दय गोमय खाद। 

सस संपद अतिसय लहय, गह रस गंध स्वाद ॥ 

: - -गोमय युक्त करने से मृदा मृदुलित होती है जिससे धन धान्य की संपदा पदार्थ के तीनो रूप रस गंध स्वाद को ग्रहण कर प्रचुरता को प्राप्त होती है 


बँध खूँटे आ आपही,कर सरबस का दान।

पालै जग गौ मात तू,समुझत निज संतान॥ 

: - -गौमाता स्वयं खूँटे से बंध कर अपना सर्वस्व दान कर अपनी संतान के सदृश्य जगत भर का भरण पोषण कर देती है ।


Saturday, June 28, 2025

----- || राग-रंग 52 || -----,

कुण्डलाय शिरो कुंतलम् । लसितम् ललित ललाटूलम् ॥ 

नयनाभिराम नलीन सम । श्रीराम श्याम सुन्दरम् ॥ 

जिनके शीश पर कुंडलित केश हैं जो उनके सुन्दर ललाट पर सुशोभित हो रहे हैं | नलीन के समान वह श्रीरामश्याम सुन्दर नेत्रों को प्रिय हैं | 

परम धाम ज्योतिः परो । सर्वार्थ सर्वेश्वरम् ॥ 

सर्वकाम्योनंत लील:। प्रद्युम्नो जगद्मोहनम् ॥

सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम निर्गुण परमात्मा हैं सूर्यादि को भी प्रकाशित करने वाला जिनका सर्वोत्कृष्ट ज्योर्तिमय स्वरूप है महाबली कामदेव के समान अपने अलौकिक लावण्य से सम्पूर्ण विश्व को मोहने वाले |


Thursday, June 26, 2025

----- || राग-रंग 51 || -----,

----- || राग - हिंडोल || -----

पेड़ पेड़ परि चलै फुदकती |

डार डार धरे चरन गौरैया||

देअ सुरुज सिरु घाउँ तपावै आवत छत छाजन गौरैया |

पिबत पयस पुनि दरस कसौरे खावै चुग चुग कन गौरैया ||

बैस बहुरि पवन हिंडौरे पँख पसारे गगन गौरैया |

चरत बीथि बिलखत अमराईं पूछत मालीगन गौरया ||

मधुर मधुर पुनि अमिया खावै गावत मधुर भजन गौरैया |

डगर डगर सब गाँव नगर रे बिहरै सब उपबन गौरैया ||

भरी भोर ते घोर दुपहरी रहै प्रमुदित मन गौरैया|

साँझ सेंदुरि ढरकत जावै फिरै नसत बिनु छन गौरैया ||

 

----- || राग-रंग 50 || -----,

 ----- || राग -बसंत मुकरी || -----

नदिआ प्यासि पनघट प्यासे प्यास मरए तट तट रे |

दै मुख पट धरि चली पनहारी प्यासे घट कटि तलहट रे ||

बिलखि रहँट त रहँट प्यासे बहोरि चरन बट बट लखिते |

परबत प्यासे तरुबर प्यासे पए पए कह सहुँ पत निपते ||

*****

दहरि प्यासी द्वार प्यासे दीठि धरिँ चौहट तकते |

खग मृग प्यासिहिं प्यास पुकारत तल मीन तुल तिलछते ||

पंथ पंथ परि पथिक पयासे धरतिहि पय पयहि ररै |

पेखत पियूख मयूख मुख पिहु सहुँ मृगु मरीचिक जिहुँ धरैं ||


पलकन्हि परि करतल करि छाँवा हलधर नभस निहारते |

भए हति साँसे पवन कैं काँधे निरख बिहून उदभार ते ||

तापन ऋतु अगजग झुरसावत पगपग जुआला धारते |

ए बैरन जिअ की फिरहिं न फेरे, गए थकि थकि सबु हारते ||


काल मेघ घन लोचनहि अहुरे दरस परि न बरखा बहुरै |

तरसत बूंद कहुँ कंठ ते ए जाचत सबहिं के पानि जुरै ||

हे जगजीवन जग बंदन तुअ घन साँवर कै रूप बरौ |

उठौ देउ हे सिंधु सदन सोंहि गगन सिंहासन पधरौ ||


नदी प्यासी पनघट तट तट प्यास से आकुलित हैं ( सभी को प्यासा देखकर ) पनहारी अपने प्यासे घड़े पानी मेघला के तलहट पर धरे मुख में आँचल दिए चल पड़ी जब कूप की घिरनी को भी प्यासा देखा तो मार्गों में तृप्त स्त्रोत की टोह करते लौट चली | पर्वत देखा पर्वत प्यासे तरुवर देखे तो तरुवर प्यासे और उन प्यासे तरुवरों पत्ते पानी-पानी कहते सम्मुख गिर रहे हैं |

इधर प्यासी देहली और प्यासे द्वार चौपथ पर टकटकी लगाए जल हेतु प्रतीक्षा रत हैं | पशु-पक्षी प्यास प्यास पुकार जलहीन नदी तल की मीन के सदृश्य व्याकुलित हो रहे है | पंथ पंथ पर पथिक प्यासे हैं और धरती पानी पानी की रट लगाए चन्द्रमा का मुख निहारते चातक के समान रसना में मृग तृष्णा धारण किए हैं |

पलकों पर हथेलियों की छाया किए आकाश की ओर निहारते हलधर पवन के कांधों को बादलों से रहित देख कर निराश हो गए | यह ग्रीष्म ऋतू चराचर को झुलसाती मानो चरण चरण पर अग्नि का आधान कर रही है सब इसे लौट जाने के लिए कहकर हारते थक गए किन्तु प्राणों की ये वैरिन लौट नहीं रही |

घने मेघ नभ में व्याप्त न होकर नेत्रों में आ ढहरें हैं यह दर्शकर भी वर्षा ऋतू नहीं लौटती | बून्द बून्द हेतु तरसते कंठ से यह याचना करते सभी हस्त आबद्ध हो गए कि संसार को जीवन प्रदान करने वाले विश्व वन्दित भगवन अब आप ही श्यामल मेघ का रूप वरण करो और अपने सिंधु सदन से उतिष्ठित होकर गगन का सिंहासन ग्रहण करो |

----- || राग-रंग 49 || -----,

 रोला : -

नैन गगन दै गोरि काल घटा घन घोर रे |

बैस पवन खटौले चली कहौ किस ओर रे ||

दोहा : -

नैन गगन दे के गोरि काल घटा घन घोर |

बैस पवन करि पालकी चली कहौ किस ओर ||

----- || राग-रंग 48 || -----,

 ---- || राग -मेघमल्हार || -----

आई रे बरखा पवन हिंडोरे,
छनिक छटा दै घट लग घूँघट स्याम घना पट खोरे |
छुद्र घंटिका कटि तट सोहे लाल ललामि हिलोरे ||
सजि नव सपत चाँद सी चमकत, लियो पियहि चितचोरे |
भयो अपलक पलक छबि दरसै लेइ हरिदै हिलोरे |
परसि जूँ पिय त छम छम बोले पाँव परे रमझोरे |
दए भुज हारे रूप निहारे नैन सों नैनन जोरे ||
बूँद बूँद बन तन पै बरसे अधर सुधा रस घोरे |
नेह सनेह की झरी लगाए भिँज्यो रे मन मोरे ||
चरन धरे मन मानस उतरे राजत अधर कपोरे |
गगन सदन सुख सय्या साजी जलज झालरी झौंरे ||
सुहाग भरीं विभाबरि सोभा जो कछु कहौं सो थोरे |
नीझरि सी निसि रिस रिस रीते भयउ रे रतिगर थोरे ||

----- || राग-रंग 47 || -----,

 ----- || राग-भैरवी || -----

बाबूजी मोहे नैहर लीजो बुलाए,

नैन घटा घन बरसन लागै घिर घिर ज्यों सावन आए,
पेम बिबस ठयऊ सनेहु रस जबु दोइ पलक जुड़ाए..,

भेजि दियो करि ह्रदय कठोरे काहु रे देस पराए,
बैनन की ए बूंदि बिदौरि छन छन पग धुनि सुनाए..,

मैं तोरि बगियन केरि कलियन फुरि चुनि पुनि दए बिहाए,
ए री पवन ये मोरि चिठिया बाबुल कर दियो जाए..,

पिय नगरी महुँ सब कहुँ मंगल चारिहुँ पुर भए कुसलाए,
सुक सारिका अहइँ सबु कैसे पिंजर जिन रखिअ पढ़ाए.....

----- || राग-रंग 46 || -----,

 -----|| भाषा एवं बोली | -----

अन्तर भाव केर परकासन | भाषा एकु केवल संसाधन ||

जासहुं अंतर भाव प्रकासा | सो साधन कहिलावहि भाषा ||

लिपि सोंहि संपन्न को साधन | करत भाष परिभाषा पूरन ||

अवधि लिपिहि नहि गई बँधाई | एहि हुँत सो बोली कहलाई ||

ब्याकरन धन कोष समाना | सम्पन होत गहे अधिकाना ||

साहित्य लिपिहि बधे बिचारू | गह भास् साहितिक गरुवारू ||

कोउ भाषा कि बोली कोई | ऊंच पदासन आसित होई ||

एहि आसंदि करत बिख्याता | होतब प्रगति केर प्रदाता ||

सनै सनै भाषा सोंहि बोली दिए निपजाए |

अरु साहित्य रचाए पुनि प्रगति पंथ कहुँ पाए ||

भावार्थ : - भाषा भावाभिव्यक्ति हेतु साधन मात्र है | भाषा वह साधन है जिससे अंतर भाव की अभिव्यक्ति सम्भव हुई | भावाभिव्यक्ति का कोई साधन लिपि से संपन्न होकर ही भाषा की परिभाषा को पूर्ण करता है | अवधि की लिपि नहीं है इस हेतु यह एक बोली है | व्याकरण भाषाओं की सम्पदा है यह सम्पदा कोष जिस भाषा में जितना अधिक होता है वह उतनी समृद्ध होती है | लिपिबद्ध विचार ही साहित्य है, साहित्यिक गौरव को प्राप्त होकर कोई भाषा अथवा बोली उच्च पद पर अभिषिक्त होती है यह अभिषिक्तता उसे जगत में प्रसद्धि व् उन्नति प्रदान करती है | भाषाओँ से ही शनै:शनै: बोलियों की व्युत्पत्ति हुई और साहित्य रचना से यह उन्नति को प्राप्त हुई…..

----- || राग-रंग 45 || -----,

 ----- || राग-बहार || -----

एक बार कछुक निबासिहि, बसे रहे एक गाँव |

बहति रहि नदिआ कलकल जहँ तरुवर की छाँव || १ ||

एक बार एक गाँव में कुछ निवास करते थे वहां पेड़ों की गहनों छाँव तले कलकल करती नदिया बहती थी |

लाल पील हरि नारंगी नान्हि नान्हि चीड़ |

चहक चहक सुठि धुनि करति बसबासत निज नीड़ | २ ||

लाल पिली हरी नारंगी रंग की छोटी छोटी चिढ़िया भी अपने नीड़ में निवासित रहते हुवे चहक चहक कर सुन्दर ध्वनि किया करती थी |

एक निबासिहि तिन्ह माहि निर्मम गहे सुभाए |

हिंस रूचि होत एक दिबस मारन तिन्हनि धाए | ३ |

उनमें से एक निवासी का स्वभाव नितांत निर्मम था हिंसा में उद्यत हुवा एक दिन वह उनकी ह्त्या करने के लिए दौड़ा |

पाहि पाहि कहि बिलोकति कातर नयन निहारि |

सुनि अबरु निबासिहि जबहि चिरियन केरि पुकारि || ४ ||

कातर दृष्टि से उसे निहार कर वह चिड़िया बचाओ बचाओ की पुकार करने लगी | एक दूसरे निवासी ने उसकी करुण पुकार सुनी |

करुनामय संत हरिदै गै तुर ता संकास |

छाँड़ि छाँड़ि पुकारि करत तुरत छड़ाइसि पास || ५ ||

तो वह करुणामयी संत हृदय तत्काल उसके पास गए और छोडो छोडो की पुकार कर उस चिड़ियाँ को निर्दयी के पाश से विमुक्त करा लिया |

दोइ दिवस पाछे दुनहु दरसिहि तरुबर तीर |

राखिहि को को मार चढ़ि परिचिहि अस तहँ भीर || ६ ||

दो दिवस व्यतीत होने के पश्चात दोनों ही एक वृक्ष के नीचे दिखाई दिए | रक्षा किसने की और कौन उसकी हत्या करने हेतु कौन उद्यत हुवा यह जनमानस की भीड़ ने उसे इस प्रकार पहचाना |

देखु देखु चिडि राखिया ब्रह्मन कहँ पुकारि |

देखु रे चिडिमारु ओहि ए कह नाउ सहुँ धारि || ७ ||

देखो देखो वो रहा चिढ़िपाल, उस चिढ़ियाओं के रक्षक ब्राह्मण कहकर कहकर पुकारा | देखो उस चिड़ीमार को ऐसा कहते हुवे हत्या को आतुर हुवे निवासी के नाम संगत चिड़ीमार या बहेलिया संलग्न कर पुकारने लगे |

रखिया कहत पुकारेसि रखे जोइ सो नीड़ |

कन उपजाए तिन्ह गई बनिज कहत सो भीड़ || ८ ||

अब एक और दयालु उस नीड़ की रक्षा करने लगा उसे छत्रधारी रक्षक कहकर पुकारा जाने लगा | जिसने उस चिड़िया को कण देकर उसके भोजन का प्रबंध किया उसे वाणिज्यिक कहकर पुकारने लगे |

तासोंहि कछु दूरदेस रहिअब अरु एक गाँउ |

दरस चिढि तहँ सबहि कहैं धरु धरु मारु रु खाउ || ९ ||

से कुछ दूरी पर एक दूसरे देस का गाँव था वहां देखकर सभी ने कहा पकड़ो ! पकड़ो ! मारो और खा जाओ |

तिन्ह माहि रहिअब कोइ रखिता न राखनहारु |

नहि को कन निपजावना सबहि भयउ चिढि मारु || १० ||

भावार्थ : - उस गाँव में न तो किसी न चिड़िया को बचाया न उसके नीड़ की ही रक्षा की और न किसी ने कण उपजाया | वहां सभी लोग चिड़ियाओं को मारकर खाने वाले कहलाए |

करत करत अस गाँव भित जाति पाति निपजाइ |

सबहि मारनहार जहाँ रहे तासु बिहुनाइ || ११ ||

इस प्रकार धर्मतस जन ग्रामों के अंतस से कर्म पके आधार पर जातियों का प्रादुर्भाव हुवा जहाँ सभी मारने वाले स्वभाव के हुवे वह मानव वर्ग की इस जातिगत विशेषता से वंचित रहे |

----- || राग-रंग 44 || -----,

 ----- || राग-दरबार ||-----

ऐ घटाओं तुम्हेँ और निखरना होगा,

बनके काजल मेरी आँखों में सँवरना होगा,

ऐ समंदर मेरे हृदय की धरती से उठो.,

बूँद बनकर तुम्हेँ पलकों से उतरना होगा..,

जिसके होठों की सरगम हूँ शहनाई हूँ..,

कहे रो रो के वो बाबुल अब मैं पराई हूँ.....

Wednesday, June 18, 2025

----- || राग-रंग 42 || -----,

युद्ध की विभीषिका में आयुधो की चिंघाड़ l 

धृष्टता का द्वंद्ध दृश्य धमाकों की दहाड़ ॥

 

चट्टानों के चीथड़े उड़ उड़के गिर पड़े ll 

गिरा कहीं धड़ धड़ा के धड़ाके से पहाड़ ll 


क्रूरता की ज्वाल छन छटक सामने अड़े । 

थर थर्रा के झाँकते झाड़ो के झंझाड़ ॥ 


विध्वंशिका के ध्वस्तिचर्य धड़े लिए खड़े । 

हृदय विदीर्ण धड़कनें धड़कती धाड़ धाड़ ॥ 


तड़फड़ाते ध्वजी पर क्रुद्ध दंष्ट्रि आ गड़े । 

चीखती घृणा का घोष धड़े से दो उखाड़ ॥ 


देही देही दग्ध व्रण मनुजता रक्तसार । 

नाड़ियों से लिपटे हुए जीर्ण शीर्ण हाड़ ॥ 


भग्न होके यत्र तत्र भाग उठी भगदड़े | 

भड़काके भड़ भड़ाके खड़ा चिता का भाड़ ॥ 


खड़ खड़ाती खड्ग धार से चिंगारियां झड़े । 

तुंड दंड व्यूह बढ़े , मंडलकों को फाड़ ॥ 


हृदय का एक प्रांत था सौम्य शील शांत । 

लगा कंठ फड़फड़ाते नीड़ का एक निवाड़ ॥


Monday, June 16, 2025

----- || राग-रंग 41 || -----,

 तोरी कुंज गली बिनसाए रे, सम्हारो रे साँवरिआ..... 

सम्हारो रे साँवरिआ रखधारो रे साँवरिआ.....


गोरखपुर ते आया जोगी गोरख वैकें धँधे,

रँग भवन करे रँगरलिआ, पड़ माया के फँदे....


पीले पँजे से डर दिखलाए रे सम्हारो रे साँवरिआ... ..

राग रंग मे डुबकी लगाए,तन बैरागी चैला । 
मल मल साबुन तन उजियारा मन मटियारा मैला....

हढ धर्मि का जोग लगाए वो सम्हारो रे साँवरिआ .....


कपट भेष भर रे नगर फिरे वह ढोंगी पाखंडी,
लाज वाज सिर धरे टोकरी,बैठा बेचे मंडी.....

मानत ना वो कोई उपाए रे मनवारो रे साँवरिआ.....

गली गली जोगी फिरे चाहे जो रख लेय | 
ये सेवक ताहि के जो मोल कहे सो देय || 

Sunday, June 15, 2025

----- || राग-रंग 40 || -----,

 l| राग दरबार ll

कहो प्रेम से राम राम जी,
जा रहा है ये समय बितता l काल आए नहि किसी को बता ll पलक हो कि छन पहर हो कि दिन l  सब घड़ी लो प्रभु का नाम जी ll हो उपकृत सत्य के साथ से l हो सुकृत्य नित्य ही हाथ से ll राम का नाम रहे अधर पर l नहि और कोइ रहे नाम जी ll प्रभु वंदना नित करते चलो l दुखि जग की वेदना हरते चलो ll करके पुण्य का काम एक फिर l करो दूसरा कोइ काम जी ll नाम राम का जपे मरण में lरहे सदैव मन हरि मगन में करो शरण उन प्रभु की जिनके  l चरण में हैँ चारों धाम जी |
| दुख हो कि सुख हो धन संपदा  lकष्ट व्यथा विपदा में सदा ll
रहो मगन में करो हरि भजन l एक पल भी हो ना  विश्राम जी ll

----- || राग-रंग 39 | -----,

|| राग भैरवी ||

प्रभु जी छूटि ना ए माया,
किन्हा निसि दिन सुमिरन जग का हरि सुमिरन बिसराया l सोई कर्मन करतब माना, जब जस जौ मन भाया l पद पद भरमते कुपथ चरिया सद्पथ तै भरमाया l कहि फिरा मैं परम परबोधा पत कइ ना पतियाया l बुध कइ बतियाँ सुधि सुधि बाहुर बहुर बहुर बिहुराया l भूरि भूरि भव भोगन भोगा पहिरा सोया खाया l धरणि परबत लए उत्खंदिया काँकरि चुग चुग लाया l हरियारी थल मरूथल किन्हा भू भू भवन रचाया l जोड़ि जोड़ि कै भया करोड़ी एकै न धरम लगाया l जिअ निकसावत न गयउ पयादहि चातुर कंध बुलाया l मन भर लाकर दाहन माँगा धरिअ चिता जबु काया |

----- || राग-रंग 38 | -----,

 || राग भीम पलासी ||


आयो फागुन मास जू पीटै नगर ढिंढोर l
पूछ रहा री राधिका छुपे कहाँ चित चोर ll देखे द्वारि द्वारका पेखे पौरी पौर l निकुंज पंथ कुंज गली ढूँढ फिरा चहुँ ओर l ज्योतिमंडल जुहारै छानै छिति का छोर l बैकुंठ लोक बिलोकया सोधै सुर के ठोर ll जमुना तट कि बंसी बट घट घट लिया टटोर l पनघट पनघट टोह लिए मिले न नंद किसोर ll हार फिर फिर पूछ फिरा ले गोपिन कै नाम l कहु कह मिलेंगे स्याम कह मिले घन स्याम ll कहु कह मिलेंगे स्याम कह मिलेंगे स्याम, पग पग फागुन पूछ फिरे करे न क्षण विश्राम   पनघट पनघट ढूंढ लिया ढूँढा जमुना कारी लिया जुहारा द्वारी द्वारी पर मिले नहीं बनवारी हे री मोहे दरसे नहीं दरसिया चारो धाम फिर दो छन को जा बैठा बंसी बट की छैया पूछा रे बल दाउ भैया कहाँ छुपे कन्हैया अग जग में मैं देख निहारा मिले न नैनाभिराम तीन लोक का भ्रमण किया क्या मथुरा क्या कासी   देखा सारा तारा मंडल देखी लख चौरासी देखी असुर की नगर सारी देखा सुर का ग्राम कहु कह मिलेंगे स्याम कहु कह मिलें स्याम, कहो कह मिले घन कहो तो मिले कहाँ घन स्याम
नैन कुंज राधिका के बैसे पलक हिंडोर l लेय हिलोरा साँवरे गह नेहन की डोर ||

----- || राग-रंग 37 | -----,

 || राग मालकोंस ||


मंदिर मंदिर मूरति तोरी,
सुरपथ रबिरथ किरन संभारे l परबत परबत चरन उतारे ll
भिद अँधियारा भै भिनसारा l जागि जगति हे जग पति तोरी ll निसरत ताल कमल कर जोरे l देय पलक पट नयन निहोरे ll
जागो हे जग बंदन जागो l करत बिनयाबत बिनति तोरी ll लाग निसि लग देहरि द्वारी l जागती जोति जग थकि हारी ll
दिसि उजियारति जगमग जगमग lजरति प्रकीरति कीरति तोरी ll अवध पुरी बृंदाबन कासी l सागर संगम सुख कर रासी ll धीगुनि धुरीनि धर्म कइ धुरी l तीरथ तीरथ संपति तोरी ll तट तट निद्रालस बट छावा l लए करवट जमुहारहिँ नावा ll
पाख पसारत कूजहि पाखी l समपूरन है प्रकृति तोरी ll कुंज कुंज तुम रास बिहारी l बन बन तुम रघुबर बन चारी ll आँगन आँगन तुलसी सोहे l मन माहि मोहिनि सुरति तोरी ll
नगर नगर सब गेह झरोके l जगत बिहासत तुअहि बिलोके ll पंच सबद संगत सुर गावाँ l गावहि श्रुति सुख आरति तोरी ll

----- || राग-रंग 36 | -----,

 II राग दरबारी II

जगमग दीप जले मंदिर में, कासै कंचन कलस कंगुरे l चौंक पुरावत सजै गोपुरे ll रतिकर सुन्दर साँझ सैंदुरी lप्रबसत चरन ढले मंदिर में ll करत नाद मुख संखअपूरे l खनकत खंखन झांझ नूपुरे ll पनब पखावज ढोल मजीरे l बाजत संग मिले मंदिर में ll पहिर पीत पट पुरट पटोरे l भर भूषन बर दुहु कर जोरे ll पुरपुर पथपथ गलीगली ते l प्रमुदित भगत चलेमंदिर में ll गंध पुष्प जल मंगल मौली I अछत कर्पूर चंदन रौली II जोए मंजुल आरती बंदन l करत थाल कर ले मंदिर में ll

Friday, June 13, 2025

----- || राग-रंग 35 | -----,

 सब रूप में सब रंग में तू | रोम रोम अंग अंग में तू || 

क्या कहूं प्रभु/के तू कहाँ नहीं | व्योम व्योम विहङ्ग में तू || 


जो अगजग के पाप को हरे | जो संताप आताप को वरे || 

तरी धरा पे जो स्वर्ग से  | उस गिरिवरम् की गंग है तू || 


मेरे प्रेम मेरी प्रीत में | मेरे साँसों के संगीत में || 

तू सात स्वरों के तार में | रागों की जल तरंग में तू || 


तू बाँसुरी की रवकार में | तू झांझती झंकार में || 

तू कंठ की श्री माल में | कर ताली में मृदंग में तू || 


कहीं उड़े गगन तो क्षण लगे | वही राग कण आ चरण लगे || 

जो चढ़े सौभाग्य शीश पर | उस श्रृंगार के सुरंग में तू || 


भाव सिंधु को विस्तार दे | करतार बनके तू तार दे || 

इस संसार के उस सार का | है प्रशान्तमनम् प्रसंग तू || 


मिल दीप्त दिया की रेह में | और डूब उसके स्नेह में || 

बिरहा अगन में जल उठे | ऐसे प्रियतम पतंग में तू || 


कभी डरे डरे डेग भर चलूँ | कहीं दूर कोई डगर चलूँ || 

तब हो फिर क्यूँ किसी का डर | जब हो प्रभो/पिया मेरे संग में तू|| 


ये जगत की भूरि सम्पदा | रही पास में ना कहीं सदा | 

 कर वचन जो ये सुविचार दे | उस वाचनीय व्यंग में तू ||