मैं बागे-रु वो चश्में-गुल शबनम के क़तरों की तरह..,
वो ख़्वाब है तो क्यूँ न रख्खूँ उसको मैं पलकों की तरह..,
सफ़हे-आइना-ए-हेरते वो झुकती है कदमों पर मेरे..,
उठता हूँ फिर पेशानी पे उसके मैं सुर्ख़ ज़र्रों की तरह.....
बहारे गुल तरन्नुम छेड़ती और गुनगुनाती है हवा..,
जब पड़ता हूँ उसको क़ाग़ज़े पुरनम के नग्मों की तरह..,
शब् को शम्मे करके रौशन देखूँ जब चिलमन से उसे..,
रख्खे हथेली को निग़ाहों पे वो परदों की तरह
वो ख़्वाब है तो क्यूँ न रख्खूँ उसको मैं पलकों की तरह..,
सफ़हे-आइना-ए-हेरते वो झुकती है कदमों पर मेरे..,
उठता हूँ फिर पेशानी पे उसके मैं सुर्ख़ ज़र्रों की तरह.....
बहारे गुल तरन्नुम छेड़ती और गुनगुनाती है हवा..,
जब पड़ता हूँ उसको क़ाग़ज़े पुरनम के नग्मों की तरह..,
शब् को शम्मे करके रौशन देखूँ जब चिलमन से उसे..,
रख्खे हथेली को निग़ाहों पे वो परदों की तरह
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