Monday, June 30, 2025

----- || राग-रंग 53 || -----,

बिरंची परपंच रचे कहु कछु बिरथा नाहि।

मैला मलिना मल किआ दिआ रसायन ताहि ॥ 

: - -विधाता ने जगत का विस्तार कर इस सृष्टि में कहीं कुछ भी व्यर्थ नहीं रचा मल को यद्धपि मैला मलिना किया तद्वपि उसे रसायनों से युक्त कर दिया | 


मानस खावै मोतिआ निकसावै दुरगंध। 

गउवन पावै पात तृण मय मै देय सुगंध ॥

 : - -मनुष्य मोती खाता है और दुर्गंध निष्कासित करता है गौ माता तृण पत्र खाकर भी सुंगंधित गोमय प्रदान करती है |


दँडक लाढि डाँटि फटके कूड़ा करकट खात । 

हट चौहट् चौंकि बट बट भटके रे गौ मात ॥

 : --कूड़ा करकट डंडे लाठी डांट फटकार खाती चौंक चौहाटो में मार्गो पर भटकती गौ माता का गोमय सुंगंधित कहां से होगा 


मिरदा मिरदुलय भय तब,जब दय गोमय खाद। 

सस संपद अतिसय लहय, गह रस गंध स्वाद ॥ 

: - -गोमय युक्त करने से मृदा मृदुलित होती है जिससे धन धान्य की संपदा पदार्थ के तीनो रूप रस गंध स्वाद को ग्रहण कर प्रचुरता को प्राप्त होती है 


बँध खूँटे आ आपही,कर सरबस का दान।

पालै जग गौ मात तू,समुझत निज संतान॥ 

: - -गौमाता स्वयं खूँटे से बंध कर अपना सर्वस्व दान कर अपनी संतान के सदृश्य जगत भर का भरण पोषण कर देती है ।


Saturday, June 28, 2025

----- || राग-रंग 52 || -----,

कुण्डलाय शिरो कुंतलम् । लसितम् ललित ललाटूलम् ॥ 

नयनाभिराम नलीन सम । श्रीराम श्याम सुन्दरम् ॥ 

जिनके शीश पर कुंडलित केश हैं जो उनके सुन्दर ललाट पर सुशोभित हो रहे हैं | नलीन के समान वह श्रीरामश्याम सुन्दर नेत्रों को प्रिय हैं | 

परम धाम ज्योतिः परो । सर्वार्थ सर्वेश्वरम् ॥ 

सर्वकाम्योनंत लील:। प्रद्युम्नो जगद्मोहनम् ॥

सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम निर्गुण परमात्मा हैं सूर्यादि को भी प्रकाशित करने वाला जिनका सर्वोत्कृष्ट ज्योर्तिमय स्वरूप है महाबली कामदेव के समान अपने अलौकिक लावण्य से सम्पूर्ण विश्व को मोहने वाले |


Thursday, June 26, 2025

----- || राग-रंग 51 || -----,

----- || राग - हिंडोल || -----

पेड़ पेड़ परि चलै फुदकती |

डार डार धरे चरन गौरैया||

देअ सुरुज सिरु घाउँ तपावै आवत छत छाजन गौरैया |

पिबत पयस पुनि दरस कसौरे खावै चुग चुग कन गौरैया ||

बैस बहुरि पवन हिंडौरे पँख पसारे गगन गौरैया |

चरत बीथि बिलखत अमराईं पूछत मालीगन गौरया ||

मधुर मधुर पुनि अमिया खावै गावत मधुर भजन गौरैया |

डगर डगर सब गाँव नगर रे बिहरै सब उपबन गौरैया ||

भरी भोर ते घोर दुपहरी रहै प्रमुदित मन गौरैया|

साँझ सेंदुरि ढरकत जावै फिरै नसत बिनु छन गौरैया ||

 

----- || राग-रंग 50 || -----,

 ----- || राग -बसंत मुकरी || -----

नदिआ प्यासि पनघट प्यासे प्यास मरए तट तट रे |

दै मुख पट धरि चली पनहारी प्यासे घट कटि तलहट रे ||

बिलखि रहँट त रहँट प्यासे बहोरि चरन बट बट लखिते |

परबत प्यासे तरुबर प्यासे पए पए कह सहुँ पत निपते ||

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दहरि प्यासी द्वार प्यासे दीठि धरिँ चौहट तकते |

खग मृग प्यासिहिं प्यास पुकारत तल मीन तुल तिलछते ||

पंथ पंथ परि पथिक पयासे धरतिहि पय पयहि ररै |

पेखत पियूख मयूख मुख पिहु सहुँ मृगु मरीचिक जिहुँ धरैं ||


पलकन्हि परि करतल करि छाँवा हलधर नभस निहारते |

भए हति साँसे पवन कैं काँधे निरख बिहून उदभार ते ||

तापन ऋतु अगजग झुरसावत पगपग जुआला धारते |

ए बैरन जिअ की फिरहिं न फेरे, गए थकि थकि सबु हारते ||


काल मेघ घन लोचनहि अहुरे दरस परि न बरखा बहुरै |

तरसत बूंद कहुँ कंठ ते ए जाचत सबहिं के पानि जुरै ||

हे जगजीवन जग बंदन तुअ घन साँवर कै रूप बरौ |

उठौ देउ हे सिंधु सदन सोंहि गगन सिंहासन पधरौ ||


नदी प्यासी पनघट तट तट प्यास से आकुलित हैं ( सभी को प्यासा देखकर ) पनहारी अपने प्यासे घड़े पानी मेघला के तलहट पर धरे मुख में आँचल दिए चल पड़ी जब कूप की घिरनी को भी प्यासा देखा तो मार्गों में तृप्त स्त्रोत की टोह करते लौट चली | पर्वत देखा पर्वत प्यासे तरुवर देखे तो तरुवर प्यासे और उन प्यासे तरुवरों पत्ते पानी-पानी कहते सम्मुख गिर रहे हैं |

इधर प्यासी देहली और प्यासे द्वार चौपथ पर टकटकी लगाए जल हेतु प्रतीक्षा रत हैं | पशु-पक्षी प्यास प्यास पुकार जलहीन नदी तल की मीन के सदृश्य व्याकुलित हो रहे है | पंथ पंथ पर पथिक प्यासे हैं और धरती पानी पानी की रट लगाए चन्द्रमा का मुख निहारते चातक के समान रसना में मृग तृष्णा धारण किए हैं |

पलकों पर हथेलियों की छाया किए आकाश की ओर निहारते हलधर पवन के कांधों को बादलों से रहित देख कर निराश हो गए | यह ग्रीष्म ऋतू चराचर को झुलसाती मानो चरण चरण पर अग्नि का आधान कर रही है सब इसे लौट जाने के लिए कहकर हारते थक गए किन्तु प्राणों की ये वैरिन लौट नहीं रही |

घने मेघ नभ में व्याप्त न होकर नेत्रों में आ ढहरें हैं यह दर्शकर भी वर्षा ऋतू नहीं लौटती | बून्द बून्द हेतु तरसते कंठ से यह याचना करते सभी हस्त आबद्ध हो गए कि संसार को जीवन प्रदान करने वाले विश्व वन्दित भगवन अब आप ही श्यामल मेघ का रूप वरण करो और अपने सिंधु सदन से उतिष्ठित होकर गगन का सिंहासन ग्रहण करो |

----- || राग-रंग 49 || -----,

 रोला : -

नैन गगन दै गोरि काल घटा घन घोर रे |

बैस पवन खटौले चली कहौ किस ओर रे ||

दोहा : -

नैन गगन दे के गोरि काल घटा घन घोर |

बैस पवन करि पालकी चली कहौ किस ओर ||

----- || राग-रंग 48 || -----,

 ---- || राग -मेघमल्हार || -----

आई रे बरखा पवन हिंडोरे,
छनिक छटा दै घट लग घूँघट स्याम घना पट खोरे |
छुद्र घंटिका कटि तट सोहे लाल ललामि हिलोरे ||
सजि नव सपत चाँद सी चमकत, लियो पियहि चितचोरे |
भयो अपलक पलक छबि दरसै लेइ हरिदै हिलोरे |
परसि जूँ पिय त छम छम बोले पाँव परे रमझोरे |
दए भुज हारे रूप निहारे नैन सों नैनन जोरे ||
बूँद बूँद बन तन पै बरसे अधर सुधा रस घोरे |
नेह सनेह की झरी लगाए भिँज्यो रे मन मोरे ||
चरन धरे मन मानस उतरे राजत अधर कपोरे |
गगन सदन सुख सय्या साजी जलज झालरी झौंरे ||
सुहाग भरीं विभाबरि सोभा जो कछु कहौं सो थोरे |
नीझरि सी निसि रिस रिस रीते भयउ रे रतिगर थोरे ||

----- || राग-रंग 47 || -----,

 ----- || राग-भैरवी || -----

बाबूजी मोहे नैहर लीजो बुलाए,

नैन घटा घन बरसन लागै घिर घिर ज्यों सावन आए,
पेम बिबस ठयऊ सनेहु रस जबु दोइ पलक जुड़ाए..,

भेजि दियो करि ह्रदय कठोरे काहु रे देस पराए,
बैनन की ए बूंदि बिदौरि छन छन पग धुनि सुनाए..,

मैं तोरि बगियन केरि कलियन फुरि चुनि पुनि दए बिहाए,
ए री पवन ये मोरि चिठिया बाबुल कर दियो जाए..,

पिय नगरी महुँ सब कहुँ मंगल चारिहुँ पुर भए कुसलाए,
सुक सारिका अहइँ सबु कैसे पिंजर जिन रखिअ पढ़ाए.....