Thursday, January 16, 2014

----- ॥ सोपान पथ ६॥ -----

जान पाए न काल कँह गमने । सो मंगल दिनहु अगमने ॥ 
एक पुर पुरइन वदन विषादे। दुज नउ गवनु आह्लादे ॥ 
समय खान गया ज्ञात हीई न हो पाया और वह मंगल दिवस भी आ गया ॥ एक ओर  पुरातन ( भवन ) मुख पर नैराश्य उत्पन्न कर रहा था । दूसरी ओर नव भवन का गौना आह्लादित कर रहा था ॥ 

पुरइन नउपवसित रहि भीरे । उपकलपनु गवनु  धीरहि धीरे ॥ 
बिते सुखद जँह बच्छर पाँचे । अनुरागि रँग केतक राँचे ॥ 
पुराना भवन नव भवन के निकट ही था । गृह के समस्त उपकल्प धीरे धीरे नवल उपवसित में जा रहे थे ॥ जहां जो सुखकर पांच वर्ष बिते वे अनुराग के रंग में कितने अनुरक्त थे ॥ 

छाँड़ि जासु तन मन नहि छाँड़े । अस भाव बधु नयन घन गाढ़े ॥ 
मुख हाँ पर चित कारत ना ना । साज सँजोए धारत नाना ॥ 
जिसे देह छोड़े जा रही है किन्तु ह्रदय नहीं छोड़ता । ऐसे भावों ने वधु के नयनों में घन आच्छादित कर दिए ॥ मुख पर हाँ किन्तु न ना कर चित कारते विभिन्न प्रकार की गृह सामग्र संजोए : -- 

बिहानै पिय हरिएँ पट ढारे । कर बध कुंडी दिए एक तारे ॥ 
चरत तरत पुर पौर दुआरी । पार करत हरियर बनबारी ॥ 
अंत में प्रियतम ने उस पुराण भवन के द्वार पट धीरे से आबद्ध ढलका कर आबद्ध कर दिए फिर कुण्डी देते हुवे वहाँ एक ताला लगा दिया ॥ घर के ड्योढ़ी की पौड़ियों पर चल कर उतरते, उासकी वनवाटिका को पार कर : -- 

सीस प्रणमित भाव सहित, किए कर जोग प्रनाम । 
हरिदै बहु सुमिरन गहित, चले चरन नउ धाम ॥           
वधु-वर ने प्रेम सहित शीश नवाकर फिर उसे प्रणाम अर्पित किया ॥ और ह्रदय बहुंत सी स्मृतियाँ संजोए उनके चरण नए धाम को चल पड़े ॥ 


शुक्रवार १७ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                             

पैठ परब बहु सोह न लाहीं । भीत उमगि के सिंधु उछाहीं ॥ 
जोइ आगतिथि पाएँ हूँते । किंचित अहहि रहहि न बहूँते ॥ 
गृह -प्रवेश का उत्सव की शोभा अधिक  नहीं थी । किन्तु अंतर में उमंगो का सिंधु  उत्सादित था ॥ जो अतिथि गण निमंत्रण प्राप्त कर पहुंचे वे बहुंत नहीं थे किंचित ही थे ॥ 

एतिक कि केवल निकेत समाए । तिनके वादन भवन गुंजाए ॥ 
कंज कलस सिरोपर अदानी । अरु बधु भोज भवन अवधानी ॥ 
इतने कि जो केवल उस भवन में समा सके । उनके वार्तालाप से वह भवन गुंजायमान था ॥ अमृत से कलस कलश सिरोपर ग्रहण किये वधु ने फिर उसे भोजन कक्ष में स्थापित कर दिया ॥ 
गावैं  भामिनि मंगल गाने । बड़े बिरध जन असीस दानै ॥ 
जोइ सुजन गन  मान पधारे । कृत कारत किए अल्प अहारे ॥
सुन्दर स्त्रियां मंगल गान किया । बड़े-वृद्धों जनों ने आशीर्वाद प्रदान किया ॥ जिन गणमान्य सज्जनों ने पधार कर वर-वधु को उपकृत किया वे अल्पाहार करने में व्यस्त थे ॥ 

लेइ जोग सन ले ले हारे  । देइ जोग कर दिए उपहारे ॥ 
सबहि कहुँ सब भाँति सनमाने । बहुरत निज निज भवन पयाने ॥ 
प्राप्ति योग्य से उपहार प्राप्त किया ,दान योग्य को प्रदान किया ॥ फिर सभी जन सब प्रकार से मान सम्मान प्राप्त कर अपने अपने भवन को लौट गए ॥ 

जगती जोति जगती बिहाई । जगज नयन जग जगत जगाई ॥ 
जागृत ज्योति का जागरण समाप्त हुवा । जगज्जक्ष सूर्यदेव ने जागृत होकर संसार को जगाया ॥ 

करत उपजल्पित बधु सुधि उदयित गेह गवाखि । 
तटिनी तरित चिर परिचित, ललकित लोचन लाखि ॥ 
तत्पश्चात भरी भोर में वधु जागृत हुई एवं गृहाक्ष से वार्तालाप करते, पूर्व परिचित नदी में तैरती नैय्या को चाह भरे लोचन से निहारने लगी 
॥ 

शनिवार, १ ८ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

तबहि बाल कोलाहल किन्हे । झूरत पाछु कंठ गह लिन्हे ॥ 
पूछी बधु कहु कस नउ धामा । तुर बोलि धिआ जस तव नामा ॥ 
तभी बालकों ने कोलाहल किया । एवं पीछे झूलते हुवे कंठ ग्रहण कर लिया । वधु ने पूछा कहो तो यह नया घर कैसा है ? तब तनया ने कहा जैसा आपका नाम है ॥ 

कहुँ पिय के हँसि देइ सुनाई । संकोचित बधु संगति दाईं ॥ 
अरु कहि दुहु पुरइन मन भाई । जस कौमुदि मन रयनि रिझाई ॥ 
कहीं पर प्रियतम कि हँसी सुनाई पड़ी । वधु ने भी संकोच करते हुवे उस हंसी का साथ दिया ॥ और कहने लगी तुम दोनों को पुराना घर ही अच्छा लगता है । जैसे कौमुद को रयनि ही रिझाती है ॥ 

पर घर भवन न होत पियारे । पिया रे पियारे घरबारे।। 
हीन निर्जन जँह जन श्रुताई । हाट बाट  घर गली कहाई ॥ 
पर घर आगार प्यारे नहीं होते । हे मेरे प्रियतम ही गृहजन ही प्यारे होते हैं । जहां जनशून्यता होती है वह स्थान निर्जन होता है जहां वसति हो, वही स्थान हटवार, बटवार, गृह बीथिका कहलाता है ॥ 

बहोरि बधु असन सन रसोई । लगत जुगत गह साज सँजोइ ॥ 
उहैं रहि अति सकल उपकल्पे । इहँ इत उत गत दरसत अल्पे ॥ 
तत पश्चात वधु लगते-भिड़ते भोज्य पदार्थों से रसोई एवं सज्जा-सामग्रियों से गृह संवारने में व्यस्त हो गई ॥ उस घर जो साज-सामग्री अधिक प्रतीत होती थी  वह इस घर में इधर-उधर हो अकिंचिन  स्वरुप में किंचित लग रही थी ॥ 

सुहँस प्रथमतस अस सरस, भयौ सुखप्रद बिभात । 
अरु गेह के प्रथम दिवस, बीते अति सुखदात ॥ 
हंसते हसाते, सुहास रस से युक्त होकर इस प्रकार में नव निकेत की प्रथम विभोर सुन्दर एवं सुखकारी हुई । एवं प्रथम दिवस सुख प्रदान करते हुवे व्यतीत हुवा ॥ 

रवि/सोम , १९/२० जनवरी , २ ० १ ४                                                                                       

जदपि सासकी गह महि कानन । बासे प्रीतम के अंतर मन ।। 
तदपि सनेहत पुलकित पाखे । नवनित निकेत ललकित लाखे ॥ 
यद्यपि शासकीय भवन उसकी भूमि एवं उसका उपवन प्रियतम के अंतरतम में अधिवासित था ॥ तथापि पुलकित पलकों से स्नेह करते वह नवल निकेत को चाह भरी दृष्टि से निहार रहे थे ॥ 

झरे नीर जँह एकै सँकेते । धारागारा भोजन केते ॥ 
पात पान भर भर अन्हाई । कहुँ कर कंठन तीस बुझाईं ॥ 
यहाँ जल एक ही संकेत में झरने के जैसे झरने लगता । कहीं धारागृह में कहीं  भोजन शाला में ॥ सबने घड़े भर भर के कमण्डलों से मन भर कर स्नान किया । कहीं कंठ में उतार कर तृष्णा को तुष्ट किया ॥ 

 दरसि लवन गह नयन बीथिका । तरे रयन चुप चरन चंद्रिका ॥ 
उदित उषपकर उषा सुरंगी । अंतर भित चित्रकारत रंगी ॥ 
गृह के नयन रूपी  झरोखों की वीथिका अति सुन्दर दर्श रही थी । जहां से रयनि में चंद्रिका के कोमल चरण चुपचाप उतरते ॥ सूर्योदय होते ही अरुणाई उषा भवन की अंतर भित्ति को चित्रकारी करते हुवे उसे रंग देती ॥ 

प्रथमक खन मह टिके अगारे । दुज दुआरि सन लगे दुआरे ॥ 
मिलन सार सुआसिनी बासे । सउँमुख परे त मधुरित भासे ॥ 
भवन, प्रथम खंड पर अवस्थित था । दूजे भवन की द्वारी, इस भवन -द्वार के साथ ही लगी थी ॥ जहां मिलनसार पड़ोसी बसे थे । जो सम्मुख होते ही मधुर भाषा में वार्तालाप करते ॥ 

पालक कही बत कारत, फूरत नहीं समाएँ । 
बालक निरखत केलि रत, किलकत इत उत धाएँ ॥ 
पालक भी परस्पर वार्तालाप करते फुले नहीं समाते । बालक, बालकों को देखकर क्रीडामग्न हो इधर-उधर दौड़ लगाते ॥ 

असन बसन बर आसन बासन । सदन भवन सब सँजुगे धन सन ॥ 
ए कारन जगनमई  सुहाई । मन रंजन कर तन सुख दाई ॥ 
उत्तम उत्तम भोजन, उत्तम वस्त्र, उत्तम ओड़-बिछावन उत्तम गृह-भवन इन सब का संयोग लक्ष्मी के साथ है  अर्थात लक्ष्मी से ही खान-पान रहन-सहन का वैभव आता है । इसी कारण जगन्मयी  पूज्यनीय है । मन को आल्हादित करने वाली वाली एवं तन को निरोग कर सुख देने वाली है ॥ ( कारण कि जगत की सम्पूर्ण वनस्पतियां जीव पर्वत नदी अर्थात समस्त चार-अचर में लक्ष्मी का ही वास है)  

भल भलाइ गह खल निचाई । कीच तरि रह कमल उपराई॥ 
जीव संजीवन सुधा चरिता । गरल बिपरीत चारित गहिता ॥ 
भला भलाई ग्रहण करते हुवे परम पद पर दृश्यमान होता है  दुष्ट बुराई कर नीचे ही दिखता है । जिस प्रकार कीचड़ जल से उत्पान होते हुवे भी जल के नीचे रहता है एवं कमल जल से उत्पन्न होते हुवे भी जल के ऊपर दृश्यमान होता है ॥ 

अवगुन जोगत दूषन कारन । सदगुन जुगत दोष निवारन ॥ 
दुःख आतुर देवन संतापा । सुख आतुर संतप उद्धापा ॥ 
अवगुण सदैव दोष कारण की प्रतीक्षा में रहते हैं । सद्गुण दोषों के निवारण की प्रतीक्षा में रहते हैं ॥ दुःख सदैव संताप देने को आतुर हैं एवं सुख अर्थात शान्ति उस संताप के उद्धरण को आतुर रहते हैं ॥ 

माया कर गहनत मति हीना । पास कसे अरु भयउ अधीना ॥ 
माया गरल लखी संजीवन । एक कर दूषन दुजे निवारन ॥ 
विषय विलासिता की साधन स्वरूपा माया मतिहीन का पाणि-ग्रहण करती है  । एवं अपने पाशों में बाँध ग्रहीता को अपने अधीन कर दास बना लेती है स्वामी नहीं ॥ 

दुहु अपावन दुःख दाई, दुहु पावन सुख दात । 
एक तमो गुन ग्राम गही, एक तमोहन कहात॥ 
लक्ष्मी एवं माया दोनों की ही अप्राप्ति दुःख दायक है एवं दोनों की प्राप्ति सुख दायक है । किन्तु माया आलस्य अज्ञानता क्रोध जैसे अवगुणों को ग्रहण करती है । एवं लक्ष्मी अवगुणों को दूर करती है जगत प्रकाशिनी, जगन्मयी, शक्ति स्वरूपा कहा गया ॥ 

मंगलवार, २ १ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                         

जगत तीस जब धन के ताईं । पानि गहे अरु संतुख पाईं  ॥ 
सेष त मृग के तिसन नियंगे । पाउ ना पाउ मोह न भंगे ॥ 
धन के निमित्त जब तृष्णा जागृत होती है ।  पाणि-ग्रहण किये और तृप्त हो गए ॥ शेष पिपासा मृग -तृष्णा  के जैसी है ।  प्राप्त हो या न हो उससे मोह भंग नहीं होता ॥ 

एहि बिधि ए भाउ श्राइहि रहईं । बर बधु के मन तोष न लहईं ॥ 
अजहुँ त संचै कर संजोगे । अजहुँ बास निबास परिभोगे ॥ 
इस प्रकार उक्त भावों का आश्रय ग्रहण करते वर-वधु के मन में भी संतुष्टि नहीं थी ॥ धन-सम्पति को संचित कर अद्यावधि वे उसके संग्रहकर्त्ता ही थे । अब निवास में वास करते हुवे वे उस सम्पदा के परिभोगी भी हो गए ( वस्त्र-भोजन आदि विषयों के भोग को उपभोग कहते हैं सम्पति के भोग को परिभोग कहते हैं ) ॥ 

असन बसन भूषन परितोषे । पर धन सम्पद लाहन पोषे ॥ 
मोह संतति लोभ पत पानी । क्रोध देवन काम सनमानी ॥ 
भोजन-वस्त्र आभूषण आदि विषयों से वे लगभग संतुष्ट थे । परन्तु धन-सम्पदा के लोभ का वे निरंतर पोषण कर रहे थे । इस असंतोष का कारण संतान के प्रति मोह, प्रतिष्ठा हेतु लोभ सम्मान की कामना थी हाँ किसी को देने से क्रोध भी होता था ॥ 

बालक सन दुहु आपनि कोई । दुःख सों दुखि सुख सों सुखि होईं ॥ 
चलन कलन सब करतब काजा । करत अनुसरन आप समाजा ॥ 
संतति के साथ दम्पति एवं परिजनों में कोई दुःख होता तो दुखी रहते, सुख होता तो सुखी हो जाते वास्तव सुख की परिभाषा है 'संतोष' । अर्थात जब संतुष्ट रहते तो सुखी होते असंतुष्ट रहते तो दुखी हो जाते ॥ रीतियाँ नीतियां सभी कार्य कर्त्तव्य व्यवहार में वह अपने समाज का अनुशरण करते ॥ 

आवन नउ भवन जब तें, सब कहुँ  मंगल छाए । 
जाहिं समउ एहि भाँति जुग , निसदिन मोद उछाए ॥ 
जब से उनका नए भवन में प्रवेश हुवा तब से सभी और मंगल छाया रहा । प्रत्येक दिवस आनंदोत्सव युक्त होकर इस प्रकार समय व्यतीत होता गया ॥ 

बुधवार, २२ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                             

कछुक दिवस अरु जात न जाने । तन मन संतोखन  सुख माने ॥ 
प्रीतम के नउन सेउकाई । तिनके बरनन बरनि न जाई ॥ 
तन-मन में सुख-संतोष का अनुभव करते कुछ दिवस और बीते, पर कहाँ यह ज्ञात न हो पाया ॥ प्रियतम कि नई सेवा-आजीविका थी । उसका वर्णन वर्णनातीत है ॥ 

सत रज तामस अलकौतारी । केतक सरिवर सरनिहि सारी ॥ 
आउ गमन कहूं गर्क न घारें । भली भाँति रच पच गच ढारे ॥ 
सार सत्व के सह धूल कणों एवं श्यामल अलक ( कोल ) उतारे , मार्ग का सार बराबर तो है, यदि नहीं है तो कितना ॥ आवागमन में कहीं गड्डे न हो जाएं । मार्ग रचा खचा भली प्रकार से निर्मित हुवा है कि नहीं ॥ 

धरे जोगतानुभवनुकूलं । प्रज्ञात्मन प्रवीन प्राविधिकम् ॥ 
चयन इ कारन पिय कर धारी । तिन करन भए भाराधिकारी ॥ 
प्रियतम ने अनुकूल योगयता एवं अनुभव धारण किया हुवा था । वे अपने तकनीकि कार्य में परम बुद्धिमान एवं सुयोग्य थे ॥ इस कारन उक्त कार्य विशेष के भार साधक अधिकारी के लिए प्रियतम का चयन हुवा, उक्त कार्य का प्रभार उनके हाथ सौंपा गया ॥ 

गमनागमन अद्भुद गय दाए । कारज भवन प्रारब्धि धराए ॥ 
तिन चरनोपर ढरे गदाला । परख प्रजोगन  धर कलसाला ॥ 
आने-जाने हेतु एक अद्भुद गज-वाहिनी दी गई । जो कार्यालय में गज बांधने के स्थान में बंधी रहती ॥ उसके चरणों के ऊपर एक गदाला ढला हुवा था । जिसमें ( अलकतार्,ईंट, मिटटी आदि के ) प्रयोग एवं परिक्षण हेतु यंत्रों की एक लघु शाला थी ॥ 

अब निरखन पिय कहुँ गवन गाँउ गहन घन घाट । 
ले निरगत पत गजबाहि , गामिन चौकस बाट ॥ 
 अब प्रियतम किसी मार्ग का निरिक्षण करने किसी गाँव गहन वन घाटियों में जाते । तब  महावत उक्त मार्गों पर गजवाहिनी को  कुशलता पूर्वक संचालन करते हुवे निकल पड़ता ( अर्थात अब पूर्व वर्णित दुर्घटना का संशय न रहा ) ॥ 

बृहस्पतिवार, २३ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                 

जान अधिकारि सब बहु माने । सह कर्मी देवत सनमाने ॥ 
पहिले जोइ दरस न पहिचाने । सोइ करै अब जान बखाने ॥ 
वर अधिकारी है यह ज्ञात होते ही सब वर को बहुंत मानने लगे ॥ सहकर्मी सम्मान देने लगे । पहले जो देखकर भी नहीं पहचानते थे अब वह वर से परिचय का बखान करने लगे ॥ 

एक चिंतन रहि बाल मुकुन के । तिनके रोग पीर धी गुन के ॥ 
पल पल निसदिन बयस त बरधए । बूझ न कछुकन सूझ न अर्धए ।। 
एक चिंता थी तो वह बाल मुकुंद की थी । उसकी पीड़ा कि एवं उसके रोग से सम्बंधित प्रज्ञा एवं विचार-बुद्धि के गुणों की थी ॥ उसकी आयु तो प्रतिक्षण बढ़ती गई किन्तु उसे समझ कुछ भी नहीं थी बूझ आधी भी नहीं थी ॥ 

मुख भोजन निज बसन न धारै । जननी जनकहि सकल सँभारै ॥ 
कह बे बिद्या पीठ पठाऊ । कुंठ धरे कहि भवन बिठाऊ ॥ 
वह स्वयं भोजन नहीं करता वस्त्र धारण नहीं करता । उसके समस्त कार्य पालक ही करते ॥ आयु कहती इसे विद्यालय भेजो । मंद मति कहती नहीं नहीं घर में रहने दो ॥ 

सुर धारे  धुनी  न उद्धापे । रहे मगन सो आपनि आपे ॥ 
जगत भर के करत परजासे । एकै ब्रह्म बुद्धिहि के आसे ॥ 
वह स्वर करता किन्तु मुख से कोई शब्द नहीं उठाता । अपनेआप में निमग्न रहता ॥ एक ब्रह्म बुद्धि की आस में पालक ने जगत के सारे प्रयास कर लिए ॥ 

कहुँ  करावत रूज निदान, कहूं देखाई हाथ । 
नाना भाँती बिनइ करत, कहुँ गत नाएसि माथ ॥ 
कहीं रोग निदान-गृह में रोग का निदान कराते, कहीं हाथ दिखाते, कहीं फ़ूँकवाते । विभिन्न प्रकार की याचना कर सभी पूजन स्थलों में मस्तक भी झुकाते ॥ 

शुक्रवार, २४ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

अरु सोइ दिवस जब नन्द भयो । केसव ललना जग जनम लयो ॥ 
 नौमी तिथि सो परम पुनीते । भइ अपराहन प्रातह बीते ॥ 
और वह दिन जब बाल कृष्ण ने जग में जनम लिया और आन्नद हुवा ॥ फिर प्रात: का व्यतित्त होने पर परम पुनीत उस  नवमी तिथि की दुपहरी हुई ॥ 

 बधूटी सास रहहि अवाईं । गोगा पीर पुजावन आईं ॥ 
जनि सुत सन बातन लगि भूरी । बधु गवनन संजोइन जूरी ॥ 
 वधु की सास का घर में आगमन हुवा ॥ गोगा पीर की पूजा अर्चना हेतु आई थी । जननी अपने पुत्र के साथ बातों में लग गई । वधु तैयारी में आगी हुई थी ॥ 

अरु एतिक समउ मह बाल मुकुन । खेलत छाजन पर आपनि धुन ॥ 
उरिन  नीचु तरि गिरे धड़ामा ।  गिरि बालक सब कहि  हे रामा ॥
 और इतने ही समय में बा मुकुंद अपनी धुन में छज्जे पर खेलते खेलते ऊपर तल से नीचे जा गिरा । सब कहने लगे बालक गिर गया हे राम बालक गिर गया  ॥ 

हहरत हंत करत उछ्बासत । पाए भान बधु बर गए धावत ॥ 
धावत प् किए घर घर पारे । छाँड़ेसि बहु आपनु दुआरे ॥ 
बालक के गिरने का संज्ञान होते ही घबराते विषाद व्यक्त करते उच्छवास लेते वधु-वर दौड़े । एवं दौड़ते हुवे पदों से घरों को पार कर बहुंत सी आपण की द्वारों को (पीछे ) छूटते रहे ॥ 

रुआँसहि मुख आह भरहि, आहत लहि हत आस । 
मति सरन्हि सौ मत चरहि, अहि की नहि उर साँस  ॥ 
रूआंसते मुख से आह करते आहात होते हतास स्वरुप में मति किए मार्ग में सौ विचार संचरण करने लगे । बालक के ह्रदय में सांस है अथवा नहीं ॥ 

कारत बिनती बेगि गति, पैठे जब तिन थाइ । 
दया धरत करुना  करत, को निज गोद ल्हाइ ॥ 
विनती करते अति तीव्र गति से जब वर वधु घटना स्था पर पहुंचे तब दया के भाव धारण करते करुणा उत्पन्न करते हुवे बालक को कोई गोद में लिए हुवे था ॥ 

शनिवार, २५ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                            

जन समूह सहुँ चहुँघाँ घेरे । द्रवित हो कहत बालक  हे रे ॥ 
उर घर पाँवर अगिन पिछावर । एक पद बाहिर एक कर अंतर ॥ 
सामने भीड़ बाक को चारों ओर से घेरे हुवे थी । और द्रवीभूत होकर आह रे बाक कह रही थी । ह्रदय भवन के देहली पर एक चरण बाहर एवं एक अंतर करते हुवे आगे पीछे स्वरुप में : --  

चकित चितब तब गामिन आसू । सांस कहे उर बास न बासूँ ॥ 
टेक धरत बर भँवर बिछेदे । पुनि मात मुकुन मर्मन भेदे ॥ 
स्तब्ध एवं विस्मय से युक्त द्रुतगामी सांस  कहे जा रही थी मैं तो भवन में निवास नहीं करूंगी ॥ वर ने आग्रह करते हुवे भीड़ के घेरे को विच्छेद किया फिर माता ने अपने बा मुकुंद के मर्म का भेद लिया ॥ 

हत बालक  टोहत कर टेरे । जोग जोख उर हहरन हेरे ॥ 
तरस परस जब अस्थिहि जोगे । संधि ग्रंथि परस्पर सँजोगे ॥ 
आहत बालक के हाथ की टोह कर उसे खींचा और  निरिक्षण करते हुवे ह्रदय कम्पन को अन्वेषण किया ॥ तरसते हुवे स्पर्श करते जब उसकी अस्थियों का निरिक्षण किया तब समस्त संधि ग्रंथियाँ परस्पर संयोजित थी अर्थात कोई अस्थि भंग नहीं हुई थी ॥ 

धरकत बालक बधु कहुँ भाँती । धरत गोदी लगावति छाँती ॥ 
सुरत ररत मुख प्रभु के नामा । बार बार मन करत प्रनामा ॥ 
भयाकुल हो वधु ने किसी प्रकार से बालक को अपनी गोद में लेकर अपने ह्रदय से लगा लिया ॥ स्मरण कर बार बार जाप करते उसने ईश्वर को मन ही मन में प्रणाम अर्पित किया  ॥ 

दरसत जीअत अह करत, सोही सोह सुभाग । 
निपतित तन निरखन करि  त, लागे तनिकहि लाग ॥ 
बालक को सौभाग्य से अपने सम्मुख जीवित  देखकर माता ने आह भरी । फिर नीचे गिरे बालक का शारीरिक निरक्षण उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि बालक थोड़ा ही चोटिल हुवा है 

रविवार २६ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

बाल भाल कभु कर सिरु रोले । सब सज्जन मुख एक सुर बोले । 
करत प्रीत राखे जिन साईँ । जगत सकैं तिन कौन बिहाई ॥ 
बालक का कभी सिर तो कभी माथा सहलाते सब सज्जन के मुख एक समवेत स्वर बोले । ईश्वर जिससे स्नेह करते हैं ईश्वर जिसका रखवाला हो इस संसार में उसे कौन मार सकता है ॥ 

एतिक उरिन पर गिरे बापुरे । अस्थिहि संधि को जुरे न जुरे ॥ 
भयउ घात को भीत न जाने । लै गवनु अचिरभवन निदाने ॥ 
बेचारा इतने ऊँचे से गिरा है । जाने अस्थि की संधियां जुड़ी हैं अथवा नहीं ॥ जाने कोई अंतराघात आघात हो । इसे विद्युत् गति से निदान भवन ले जाएँ ॥ 

कही बधुबर रे ललन हमारे । हाँ हाँ के मुख बचन निकारे ॥
ममता में किए बाल अँकोरे । गए बैसत बहि बैदक ठोरे ॥ 
तब वधु-वर ने हाँ कर निदान भवन जाने का निश्चय करते हुवे बालक के प्रति स्नेह प्रकट करने लगे ॥ ममता के वश होकर उसे गोद में एकर फिर एक वाहन में बैठ वे चिकित्सालय गए ॥ 

निरखत अखत अंग प्रत्यंगे । बिषय बिसेषज जग एक संगे ॥ 
गिरे पीर  के भेषज लाखे । दोइ दिवस लग भरती राखे ।। 
वहाँ सम्बंधित विषय के विशेषज्ञों ने एक जुट हो बाक के  अंग प्रत्यंगों का परिक्षण किया ॥ गिरने से जो पीड़ा हुई उसकी औषधियां लिखीं । दो दिनों तक उसे निरिक्षण हेतु भरती रखा ॥ 

निदान भवन परिहार पद धरे आप आगार । 
जनि नयन निहार धरि रहि, लालन नयन निहार ॥ 
निदान भवन को छोड़कर जब माता  ने चरणों को जब अपने निवास में धरा तब वह तैरने जलकणों से युक्त नेत्रों से बालक के नेत्रों को निहारने लगी ।। 

सोमवार, २७ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

सीस टरे जब संकट भारी । हत पीर भई तनिक सुखारी ॥ 
जो जन अहहीं सम भगवाने । सब बरनन तब पूछत जाने ॥ 
सिर से जब यह भारी संकट मोचित हुवा  आघात एवं चोट की पीड़ा किंचित सुखमय हुई । जो ओग भगवान के समरूप थे । तब वर वधु ने घटना का विवरण पूछा ॥ 

रहे बँधे कस भाग हमारे । बाल रखे कस राखनहारे ॥ 
कहि जन जन जग जोइ जनावा । रखे साँस जुग सोइ जिआवा ॥ 
यह हमारा सौभग्य हुवा तो कैसे हुवा । रक्षक ने बालक की किस प्रकार रक्षा की ॥ तब  जो जग में जन्म देता है । वही सांस संजोता है और वही जीवन देता है ॥ 

जोइ कृतागम करता सोई । जीवन मरनी कारन कोई ॥ 
एक भल सज्जन बन कारनहारे । पतनत बालक भुज सिरु धारे ॥ 
जो परम आत्मा है वे ही कर्त्ता है । जीवन-मृत्यु का कारन कोई और होता है । एक भले सज्जन कारन हार बने । और गिरते हुवे बच्चे को अपने कंधो ले लिया ॥ 

पतनत रहि पुत भवन बियोगे । गवनत रहि तरि सोइ सँजोगे ॥ 
ए कारन हे मात तव बाला । अकाल जात गहे न काला ॥ 
जब  भवन से वियोजित हो रहा था उसी समय वह भला सज्जन संयोग वश उसके नीचे से जा रहा था ॥ इस कारण हे माता आपका बालक को का ने समय से पूर्व ग्रहण नहीं किया ॥ 

पुनि भेंट करत तिन जन कहे, बर बधु सीस नवात । 
प्रगसे हमहि हुँत अस तस, तुम्ह धन्य के पात ॥   

फिर वर-वधू उस सज्जन से भेंट कर सीस नवा कर बोले । हमारे लिए जिस प्रकार से प्रकट हुवे उस प्रकार से आप धन्यवाद के पात्र हैं ॥ 

मंगलवार, २८ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

कही बर मात संकट टारे । तुहारी बिगड़ी पीर सँवारे ॥ 
अज हुँत दुनउ धिआन करेहु । राखु सदा छाजन पट देहु ॥ 
वर के सम्मुख होते हुवे माता ने कहा चलो संकट टल गया । तुम्हारी बिगड़ी गोगा  पीर ने सँवार दी  ॥ अब से दोनों बच्चे का ध्यान करना । छज्जे के दुवार पट को सदैव बंद रखना ॥ 
  बसत रहि जो सन सुआसिनी ।  सोई अवसरु मृदुल वादिनी ॥ 
तुम्हरे तनय न एक अकेरे । ए पुर पंगत गिरे बहुतेरे ॥ 
जो पड़ोसिनी वहाँ निवासरत थीं । उस समय वे वधु से मधुर स्वर में कहने लगी ।। तुम्हारा पुत्र एक अकेला नहीं है । इन भवन पंक्तियों से पहले भी बहुंत बच्चे (पांच छह:) गिरे हैं ॥ 

बरदानत  जस भुइँ किए पावन । संज्ञान किमि कर न जान कवन ॥ 
गच कारू अस भवन रचाई । छाज मूठ धरि नीचकताईं ॥ 
यह ज्ञात नहीं है कि किस कारण से एवं किसने दिया किन्तु यह भूमि किसी का वरदान प्राप्त कर जैसे पवित्र हो गई है ॥ किन्तु रचयिता ने इन भवनों  को इस प्रकार से रचा कि छज्जे की मूठ को नीचा कर दिया ॥ 

पथ दरसन जो लालन झाँके । धरनि परे ले धमक धमाके ॥ 
एक कहि आँचर कटि कर पोटे । देखु देखु जे हमरे ठोटे ॥ 
अब यदि कोई बालक पथ दर्शन हेतु वहाँ से झांके तो धमाका उठा कर धरती पर आ गिरता है ॥ फिर एक पड़ोसिन ने करधन में आँचल खचते हुवे कहा । देखो देखो ये हमारे बछुआ को ॥ 

ए नपुत निपते दुजन खन ते । द्यु किरन धर पते भू अंते ॥ 
कहि मन महु वधु भइ भलसाई । जे भवन तिज भूमिक न पाईं 
यह नपुत तो दूसरे भूमिक गिरते हुवे बिजली की किरणों पकड़ कर फिर भूमि ऊपर गिरा था ॥  वधु मन में सोची  अच्छा हुवा कि इसकी तीसरी भूमिक नहीं है ॥  

भूमि निपते सो निपते, भयउ न को जन हानि । 
श्रवन बहियर निहाल भइ, सुआसिनी की बानि ॥   
फिर वह पड़ोसिन आगे कहने लगी भूमि में गिरे सो गिरे किन्तु कोई जन हानि नहीं हुई । पड़ोसिन के वचनों को सुनकर वधु निहाल हो गई ॥ 

बुधवार, २९ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                     

जीवन पग पग दै संदेसे । मन मानस लहे न लउ लेसे ॥ 
अभिलाखित मन सौ सुख चाहे । ए त अहहीँ कहे ए नहि काहे ॥ 

सीध उँगरी घिउ न निकसाई । दोष करत कर टेरत खाईं ॥ 
कूट करम के रस  मुख लागे । टिकत घिउ दै ताहु न त्यागे ॥ 

केहि लेख लिख दिए उपदेसे । हारी गए सो लागे न लेसे ॥ 
ऐसेउ चारत बर कु बाटे । दुषित किरिया कीट के काटे ॥ 

अवसरु पात जब तब लिए खाइ । बर कुकर्म बधु बनै सहाइ ।। 
सील चरन सत सद गुन हीना । सुधारत नहि भय दरसन बीना ॥ 

काम क्रोध मद अरु लोभ माया के भ्रम जाल । 
तिनके बस जब लग रहे, जब लग आए न काल ॥ 

बृहस्पतिवार, ३० जनवरी, २ ० १ ४                                                                                          

अजहुँ त हस्त सिद्धि के संगे ।  लाहे ऊरूज सोइ नियंगे ॥ 
पुरइन भवन नयन सपनाई । आगत बै तिन पूरन ताईं  ॥ 

बियहुत परन पिय केकराई । जिनके अंस पितु जननि दाई ।। 

रही जो जीवन रछक प्रतिभूति । अवधी पूरनत पाए बिभूति ।। 

लहि कुल एक अरु अरधन लाखे । अध् दिए भवनन अध् ढुंग राखे ।। 

बहुरी बिय पिय हिय हिलकोरे । रथ के किरन करन कर कोरे ॥ 

बहियार मुख नहि नहि कह हारे । बार सम्मुख बहु अनुग्रह कारे ॥ 

कह जोगे न बिधि अस सँजोगू । फिरिअ फिरिअ अस जोग न जोगू ॥ 

बहुरी बहुरि कहत बुझात, बाक सैम हाथ धारि । 
पाछु परे पिय दिनु रात, बहियर हाँ ना कारि ॥ 

शुक्रवार, ३१ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                    

धुनी बरन के बाटइ बाती ।  उपमित कारत ठकुरसुहाती ॥ 
कभु करकस कभु कहि रस बोरे । कभु कहि करनन करत अँकोरे ॥ 

बधुरी कहु बहुत समुझाई । बात सुनु देखु मोरे साईँ ॥ 
बिषइ बिलासा के जग माही । भोगन अवसरु होवत नाही ॥ 

होत बिकल पिय मनहि न रोकें । ललकित नयन कातर बिलोके ॥ 
जान न तुम मम बालकताई । केत न केत अकाल गहाई ॥ 

बिभूति भरे भवन मन भावा । तिन का कहि जो गहे अभावा ॥ 
देखु तनिक पुर आपनी भ्राता । दरसन पर करू मम सो बाता ॥ 

जीवन अरथ के मनोरथ तब रथ बाहि राजित सोहिते । 
रुचिकर कारन बिनु काज अकारन रथि कहत बिप्रमोहिते ॥ 
बावरा भँवर चित तौ चाँचर बिषई सुमन पर भाँवरे । 
परिहरु रथ लाहन  कास किरन मन कासिहि मोरे साँवरे ॥ 

लिखीनी ना बरन सकै, तिनकी बानी बान । 
एक कान गहन करे जो निस्कासे दुज कान ॥ 




















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