Saturday, February 1, 2014

----- ॥ सोपान पथ ७ ॥ -----

श्रवनत समुझत कहत बिहाना । छीड़े लघुबर रन घमसाना ॥ 
एक पुर बधु एक बर राजे । बाजे सकल जुझाउ बाजे ॥ 
सुनते समझते कहते, अंत में एक छोटा किन्तु घमासान युद्ध छिड़ गया । एक ओर वधु तो एक ओर वर विराजमान थे । लड़ाई के सारे बाजे बजने लगे ॥ 

दुहु के रन अनुभूतिहि अइसिहुँ । करमन कौसल जूथिहि जइसिहुँ ॥ 
भेरि श्रवन करनन संकासे । दरस रनक मुख अचरज बासे ॥ 
दोनों को लड़ाई का अनुभव ऐसा था जैसे युद्ध कारी सेना को युद्ध में कुशल होती है ॥ रण की भेरि का स्वर पड़ोसीयों के कानों तक पहुंचा । ऐसी अशांति देखकर वे भी आश्चर्य चकित हो गए ॥ 

लगे लगित लउ लागन जानी । जे तिन्हकी निसदिन की कहानी ॥ 
लागन रन जो बिराम न पाए । तात -मात पहि बात पैठाए ॥ 
लगे सम्बधी इस लाग की आग को जानते थे उनके लिए यह प्रतिदिन की कहानी थी ॥ जब लड़ाई विश्राम की और उन्मुख न हई । तब यह बात माता-पिता के पास पहुँच गई ॥ 

आन भवन बधु जनि सन भेंटी । मोह बस तिनकी कहनि मेटी ॥  
बछलता लगी हिय हुलसानी ।  बोलि मात सन कोमल बानी ॥ 
जब वधु जननी भवन जाकर उनसे भेंट की । तब जननी मोह के वश होकर वधु के सारी कहनी मिटा दी ॥ पुत्र-प्रीत हृदय को उत्साहित करने  लगी । तब माता कोमल वाणी से युक्त होकर बोली : -- 

प्रियतम मन चितबन हठ पाहीं । पूरित करि देहु काहु नाही  ॥ 
तुअँकू अहहीं कवन कमाउन । हमरे पुत जुग लाइहि आपन ॥ 
जब प्रियतम मन छतवन ने हठ पकड़ ही लिए हैं । तब उसे पूरा क्यों नहीं कर देती ॥ तुम्हें कौन सा कमाना है । ये हमारे सपूत आप ही जुगाड़ कर लावेंगे ॥ 

मातु बचन प्रसंग पात, गहि गहबर पिय पाखि । 
बहुरि बदन अरगानि दिए, बहुरी कछु नहिं भाखि ॥ 
माता के वचनों का प्रसंग प्राप्त कर प्रियतम का पक्ष भारी हो गया । फिर वधु का मुख पर चुप्पी साध ली और कुछ नहीं कही ॥ 

रविवार, ०२ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                             

करिहि जोइ प्रीतम अनुरंजन । होहि सोइ हरिदै अनुबंधन ॥ 
बाहु जोध दिए दइत दुरियाए । तिनकी गवन कहु को बहुराए ॥ 
जो प्रियतमा प्रिय को प्रसन्न करती हैं । वही प्रिय होकर प्रिय के ह्रदय संयुक्त रहती है ॥ जो मल्लयुद्ध करते प्रियतम की नेत्रों से ओझल रहती हैं,कहो तो उनकी बिगड़ी फिर कौन बना सकता है ॥ 

कोउ माने न कोहू पूछे । जो पतिनी धन जो पत छूछे ॥ 
प्रान पियारी जो पिय को है । पावत पटतर सिय पद सौहै ॥ 
जो पत्नीहिन् होते हैं एवं जो पतिहिन होती हैं उनका समाज में न तो सम्मान होता है न उनकी कोई पूछ होती है ॥ जो अपने प्रियतम को प्राणों से प्यारी हैं वे सीता की उपमा प्राप्त कर सीता के ही पद पर सुशोभित होती हैं ॥ 

सास दु गुन की बात बताई । चरण परस बधु लेइ बिदाई ॥ 
किमि कारन भए घर रन आँगन । निज करमन पिय मम  मत पावन ॥ 
इस प्रकार सास ने वधु को दो गुण की बात बताई । फिर उनके चरण स्पर्श कर वधु ने विदाई ली ॥ किस कारणवश घर रन का क्षेत्र बन गया । अपने कार्यों के लिए मेरी अनुमति प्राप्त करने हेतु ॥ 

जिन सुख के रहे न अधिकारी । जे बिषै बस्तु भोग अचारी ॥ 
रहहि सदा पर पिय की बानी । किए सोइ जो प्रिया मत दानी ॥ 
जिस सुख का उन्हें अधिकार प्राप्त नहीं एवं जो भोग आचरण की विषय-वस्तु है ॥ किन्तु प्रियतम की यह भी सदा की रीति रही कि वह वही करते जिसमें प्रिया की सम्मति होती ॥ 

रयनी दिन मुख सोच बिचारी । मति कहि परिहरु हाँ कहु हाँरी ॥ 
एक रयनी एवं एक प्रात तक वधु न यह सोचा । उसकी मति कहाँ लगी जाने दो छोडो हाँ कह दो री ॥ 

बहुरि बहु कहि परत चरन, मैं दासी तुम नाहु । 
करत समर्पन अपनपन, सौपत सकल सनाहु ॥  
तत्पश्चात वधु ने प्रियतम के चरण स्पर्श कर कहा मैं तो तुम्हारी दासी हूँ तुम स्वामी हो । (हार स्वीकार कर युद्ध विराम की घोषणा कर )फिर स्वयं के समर्पण के साथ युद्ध के समस्त चिन्ह सौंप दिए ॥ 

सोमवार, ०३ फ़रवरी, २ ० १४                                                                                                

किमि को कारू किमि  को कारे । परखे पुनि रथ बहु चित्र धारे ॥ 
लख  लावन लह गह गुन  नाना । सुठि सुमुख सुनयनइ  सुहसाने ॥ 
किसी रथ का रचना कार कोई था तो किसी का कोई था । फिर बहुंत से चित्रों द्वारा रथ की परीक्षा हुई ॥ अतिशय सुंदरता प्राप्त किये एवं गुणों से युक्त होकर सारे रथ सुन्दर सुरचित मुख धारण किये चमकीली दृष्टी के सह हँसमुख दर्शित हो रहे थे ॥ 

करत सम्परक एक अधिकोषे  । लिए रिन दुइ लख चहुँ पुर तोषे ॥ 
गवने पुनि पिय एक रथ साला । लागे रुचिकर सुबरनि लाला ॥ 
एक अधिकोष से संपर्क कर प्रियतम ने रूपए दो आख ऋण अर्जित किया ॥ फिर एक राठशाला में पधारे । जहां उन्हें सुन्दर अनुराग वर्ण रुचिकर प्रतीत हुवा ॥ 

सहस एका दस कुल त्रै  लाखे । सकल जोग दे लिए रथ पाखे ॥ 
धर कर घर सौंमुख दिए बाँधे । गाँठ के अरध आँखिनु आँधे ॥ 
( पंजीकरण सहित ) कुल सहस्त्र एकादश एवं तीन लाख का वह रथ था । फिर वर ने सकल धन राशि शाला के स्वामी को सौंपकर  रथ एवं उसके पत्र ग्रहण कर उस आँख के अंधे एवं गाँठ के आधे ने रथ की रस्सियों को पकड़ घर के बाहर लाकर बाँध दिया ॥ 

हाँस कहि बधु देखु रे लोगू । रिन ले ले भव बिभूति भोगू ॥ 
पहिले हाहू हाहाकारी । हां हां कर कहि पिय पुनि हारी ॥ 
वधु हंसते हुवे कहने लगी देखो रे लोगों इस ऋण ले ले कर विभूतियों का सेवन करने वाले को ॥ पहले तो घर को रन खेड़ा करते हुवे हाहाकार मचा दी  हा हा करते हुवे हुवे प्रियतम कहने लगे और अंत में हार गई ॥ 

देखु पियारी प्रीत की, प्यार भरि एक रीत । 
भार्या सोंह जीत भरु, भये भार्याजीत ॥ 
देखो प्यारी प्रीत की एक प्यारी सी रीति । भार्या से जीत कर भी प्रियतम भार्याजीत कहा रहे हैं ॥ 

अस कहत बछुअन धारत , बैठी बधु पिय बाम । 
ता परतस दुहु जननि लिए, गवने देई धाम ॥  
ऐसा कहते हुवे बाल-बच्चों को धरे, वधु प्रियतम के बाईँ  ओर बैठ गई ।ततपश्चात दोनों जननी को साथ लिए देवी के धाम को प्रस्थान किये ॥ 

मंगलवार, ०४ फ़रवरी,  २०१४                                                                                             

प्रथमक उरझे पिय टुंब माहि । पुनि रख राखन कौटुम्ब माहि ॥ 
हँसि हँसि रथ तौ किए सिरु धारैं । एक अरु लहनी पंथ जुहारै ॥ 
प्रियतम प्रथमतस रथ वाहिनी के आभूषणों में उलझे । फिर उसके रखरखाव एवं कुटुंब रखने की समस्या आ गई ॥ हँसी हँसी रथ को अंगीकार तो कर लिए । उधर एक और ऋणदाता प्रतीक्षा करने लगा ॥ 

जदपि करम धरि पिय के कंधे । तदपि बधु कर गहि गृह प्रबंधे ॥ 
बसे भवन अध् मूल मूलिके । ब्याजु रहे सो अधिक अधिके ॥ 
यद्यपि श्रम क्रिया कर हस्त सिद्धि का भार वर के कन्धों पर था,  तथापि गृह का प्रबंधन वधु के हाथ में था ॥ जिस भवन में आ बसे थे वह भी प्रधान मूल्य के आधे मूल्य का भुगतान कर ग्रहण किया  । शेष आधे का ब्याज था वह बहुंत अधिक था ॥ 

दंपत अधपत पूरन भूपा ।  दे दे हरहरि भरे न कूपा ॥ 
मन ही मन बधु कोसत राजा । अधिकोष के त अध् ब्याजा ॥ 
दम्पति उस भवन के आधे पति थे, पूरे तो राजा ही थे । पूरा पति बनने के लिए वे मूल सहित ब्याज दे दे कर थक जाते किन्तु उस राजा का कुआँ था कि भरता ही नहीं था, वधु मन ही मन में उस राजा को कोसते हुवे कहती अधिकोषों में तो ऐसे ऋण पर ब्याज लगभग आधा है ॥  

भूप दरस कर तिर्यक भौंहे ।  बोली पुनि एक दिन पिय सोहें ॥ 
कोउ अधिकोष थानंतरिते । भवन समूल हम काहु न कृते ॥ 
फिर उस राजा को तिर्यक दृष्टी से देखते हुवे एक दिन वधु अपने प्रियतम से बोली । क्यों न हैम इस ब्याज चढ़े मूल को किसी अधिकोष में स्थानांतरित कर दें ॥ 

कहि पिय देखु सुनु समझु बिचारु । हित चित धरत अनहित परिहारु ॥ 
बहु भँवरे पहिले एक बारे । पतर माल कर कंठी घारे ॥ 
प्रियतम ने सूत्तर दिया देखो, सुनो समझो फिर विचारो, हित को धारण करो अनहित को छोड़ो और भूल जाओ ॥ पत्रों की माला कंठ में धारण कर पाहिले भी एक बार इस कार्य हेतु अधिकोषों के चक्कर लगा चुके हैं ॥  

भँवर भँवर भए बावरे, तूल तेरह तिराजु । 
गाँठ गवाएँ सो बिलग, साधे ना कछु काजु ॥ 
तेरा ठो तराजू में तोले गए (ये लाओ वो लाओ) ,फिर चक्कर लगा लगा कर, लगा कर हम बावरे भंवरे हो गए । गाँठ गवाईं वह अलग, और कोई कार्य भी सिद्ध नहीं हुवा ॥  

बुधवार, ०५ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                            

को इत उत को सूती जोई । किमि धन निज बिबरन दिए कोई ॥ 
भंजित हार पत्र सकल सँजोए । लिए एक सूतक सूतित पिरोए ॥ 
कोई इधर उधर रखे थे, कोई जलसुत के जैसे सीपी में सम्भाले थे । किसी में आय-व्यय  का विवरण तो किसी में स्वपरिचय उल्लखित था ॥  इस प्रकार पत्रों की उस भंजित हार को एकत्रित कर वधु ने संगृहीत किया । फिर उन्हें सूत्र में क्रमवार से पिरोया ॥ 

थानांतरन पत अधिकारे । जोग लिखि बिबरन ब्यबहारे ॥ 
लगे हार मह दरसत कैसे । ललित ललामित लटकनि जैसे ॥ 
ऋण के स्थानांतरण का अधिकार पत्र जिसमें में भवन के लेन-देन  का समस्त विवरण उल्लखित था वह उन पत्रमाला में ऐसे सुशोभित हो रहा था जैसे कि सुन्दर लाटिका लटक रही हो ॥ 

हठबति बधु पति अनुमति लेई । कोष भवन की फेरी देई ॥ 
हार बनाउन  लख लख हरषी । गत अधिकोष भवन प्रदर्सी ॥ 
वधु ने हठपूर्वक प्रियतम की सहमति ली ।  माला फेर फेर के अधिकोष भवन के फेरी लगाने लगी ॥ हार की बनावट को वह जीभर भर कर देखती । और अधिकोष भवन में प्रदर्शित करती ॥ 

लेखि फुरी कछु बहुकन साँचे । देउ न रिन अधियाचत बाँचे ॥ 
पत्रों में कुछ बाते झूठी लिखी थी,  बाक़ी सारी बाते सत्य लिखी थी ॥ अब वह अधिकोष के पप्रबंधक सहित अन्य कर्मीयों के सम्मुख याचना करते हुवे इस प्रकार कहती : -- 
कैसे : -- 
गठ गढ़ो बड़ो सोहनों हार, बंधु जी थारी पइयाँ धरूँ । 

पइयाँ धरूँ थारी बिनति करूँ । प्रभो जी थारो चरना धरूँ ॥

मारो धरन करो स्वीकार । प्रभो जी थारी पइयाँ धरूँ ॥

चुन चुन पतियाँ सकल सँजोई । लग दिनु रतियाँ सूत पिरोई ॥
गुंफ गुंफ गच गाँठी सँवार । प्रभो जी थारो पइयाँ धरूँ ॥

रुचि रुचि छापन भोग बनायो । पयसन सोरन संग सजायो ॥
रची रुचि रसबती जेवनार। प्रभो जी थारो पइयाँ धरूँ ॥

तहवाँ अटक लटक कर कासे । छान फटक कहुँ चहुँ पुर पासे ॥
वहाँ उस हार को कभी अटकाया जाता , कभी लटकाया जाता  । कभी  किसी चौकी पर भली प्रकार छाड़ कर फटकाया जाता ॥

दरसत बधु करुना नयन, पिय हिय दय भर आइ । 
प्रतिपद प्रतिपत प्रतिपनन,  करे तिनके सहाइ ॥ 
ऋण प्राप्त करने हेतु वधु के करुणित लोचन को दर्श कर प्रियतम के हृदय दया भर आई । प्रत्येक उपक्रम में ऋण प्राप्ति के प्रत्येक चरण से अवगत होकर वधु की सहायता करने लगे ॥ 

बृहस्पतिवार, ० ६ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                            

रुचिरु रुचिरु त रचि जेउनारे । सकल ब्यंजन सरस सुखारे ।। 
आप त भोग लगाउन जाने । जुगल पर मुख खवाउ न जाने ॥ 
रुचिपूर्वक एवं बड़े मनोयोग से भोज रचा । जिसके सारे व्यंजन रसीले एवं स्वादिष्ट थे । लेकिन, किन्तु, परन्तु वरवधू स्व्यं तो भोग लगाना जानते थे । दूसरों को खिलाना नहीं जानते थे ॥ 

हार धरे बधु कोष दुआरइ । लगइँ चिक्करहिं  बारहि बारइ ॥ 
करत बिनत बहु कहत धनेसा । तुम धनपत हम  मलिनइ भेसा ॥ 
वधु हार धरे धरे अधिकोष द्वार के वारंवार चक्कर लगाने लगी ॥ कुबेर कह कह के वारंवार विनती करती । कहती तुम तो धन के ईश्वर हो मलिन वेशधारी हैं ॥ 

कहत कर्मि तव जस बहुतेरे ।  लिए रिन फेराउन मुख फेरे ॥ 
जो लिए लागन हम ना देहू । कही बधु भवन अधिपत लेहू ॥ 
तब अधिकोष के कर्मचारी कहते जा जा तुम्हारे जैसे बहुंत आते हैं यहाँ । ऋण तो ले जाते हैं लौटाने नहीं आते ॥ फिर वधु ने मधुरता पूर्वक कहा । धारित ऋण यदि हमने नहीं लौटाया तब वह अर्धपतित्व आप ले लेना ॥ 

तब को एक जन चरनन चिन्हे । दरसत भवनन चिन्हित किन्हे ॥ 
प्रथमत पंजीअन हुँतिहि दाए । पुनि राउ सकल लाग चुकताए ॥ 
तब फिर कोई एक कर्मचारी के भवन में प्रवेश कर उस  भवन का सर्वेक्षण किया । प्रथमतस पंजीकरण हेतु राशि प्रदान की । तत्पश्चात राजा का समस्त (ब्याज एवं मूल सहित ) ऋण का भुगतान कर दिया ॥ 

चारि लाखि ले धरन दिए, पंजि पात कटि खाँच । 
दसम बरस हुँत अंस धरि, प्रति मास सहस पाँच ॥ 
पंजीयन पत्र को सुरक्षित कर रूपए चार लाख कुल का ऋण दिया । दस वर्षों की अवधि के लिए , प्रतिमास रूपए पञ्च सहस्त्र का अंशकरण किया ॥ 

 शुक्रवार, ०७ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                               

तीनी बच्छर अंस करन करि । रथ रिन प्रतिमास सहस सत धरि ॥ 
जेइ दुइ लघु उपबसित बिसाए । कर कुंजी धर तिन्ह बिसराए ॥ 
रथ वाहिनी के दाए ऋण ( जो अन्य अधिकोष से आहरित था ) का विभाजन त्रिवर्ष की अवधि हेतु प्रतिमास रूपए सप्त सहस्त्र निर्धारित हुवा । दम्पति द्वारा जिन दो लघु भवनों को क्रय किया गया उसके दायित्व को वे भूल चुके थे ॥  

एक उपबासित के उधारिन त । भयौ मुचित बाहिन हरुआरित ॥ 
कहनइ के प्रभु भवनइ भूता । प्रभूत प्रभूति गहे प्रभूता ॥ 
एक भवन का ही ऋण उऋण होकर  उनके सिर  का भार हल्का हुवा ॥ पहले जिस भवन के वे कहने भर के स्वामी थे, उसका स्वामित्व एवं उसके समस्त अधिकार ( जैसे विक्रय का अधिकार) राजा ग्रहण किये हुवे था ॥ 

भए प्रभो अजहुँ त  पूरनाई । प्रभुत अधिकोष धरन धराई ॥ 
अब आपनहि चिंता ब्यापी । तिन्हु लगे लागन उद्धापी ॥ 
अद्यावधि वर-वधु उस निवास के अधिकारों को अधिकोष में बंधक रखते हुवे भवन के पूर्ण स्वामी हो गए थे ॥ अब उनके मन-मस्तिष्क में आपण की चिंता व्याप्त हो गई । वे उसके देयकों का भी उद्धापन करने के उपायों में लग गए ॥ 

जीवन मह रहि हिनता नाही । धनार्जन बहु सोत लहाहीं ॥ 
हस्त सिद्धि सहि दोष करम सन । गहि भाटक दु भवन सह आपन ॥ 
जीवन में धन सम्बन्धी हीनता अब नहीं रही ।सेवा-पारिश्रमिक ( १२ सहस्त्र ) के साथ (लगभग  १५ सहस्त्र ) भ्रष्टाचारी माया संयुक्त होकर लघु भवनों का भाड़ा ( ३-६ सहस्त्र ) एवं आपण का भाड़ा ( ६ सहस्त्र प्रतिमास ) मिलाकर धन अर्जन करने के बहुंत से स्त्रोत प्राप्त हो गए थे ॥ 

जुगल होनइ भूत भबि, कारत मनस बिचार । 
जोगे जीवन हूत हबि, भलि कछु कलिमल कार ॥  
भूत भविष्य एवं वर्त्तमान से युक्त होकर दम्पति का मन-मस्तिष्क विचार करता ।  कुछ भले एवं कुछ बुरे कार्य करते हुवे जीवन के हवन की आहुति को वे चरण-चरण पर संजोते गए ॥ 

शनिवार, ०८ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                          

जोग रखत बधु निज फुरबाई । तेहि काल बर संगु  लगाई ॥ 
धन सम्पद अस जोग जुहारी । लागसि  जस जग लेइ जुगारी ॥ 
वधु अपनी घर की फुलवारी की देखभाल करते हुवे धन सम्पदा को योग को ऐसे ढूंडती  जैसे कि तीन लोक की सम्पदा  ही संजो लेगी , इस कुकृत्य में प्रियतम को भी साथ लगाए रखती ॥ 

राजित घर मह एकइ बिहागे । धन धन सम्पद रंजन रागे ॥ 
एकै करम मह मन मति लागहि । भोर कि साँझ कि सयन कि जागहि ॥ 
घर में एक ही बिहाग राजता । केवल धन धन केवल सम्पदा का गाना-बजाना रहता । मनो मस्तिष्क केवल एक ही कर्म में लगे रहते भोर हो कि सांझ हो कि जाग रहे हों कि निद्रा वस्था में हो ॥ 

माया कर बहु गही बुराई । लगे लगन लग लाग लगाई ॥ 
नदर नागरी नारिहि सुभाए । बाके बल पुरुख बरनि न जाए ॥ 
विषय विलासिता की साधन स्वरूपा माया के हाथ ने बहुंत ही बुराई ग्रहण की हुई है । यह बने हुवे सम्बन्धों से लग कर उसमें लाई लगा देती है ॥ इस चतुर स्त्री को भय भी नहीं होता, इस स्वभावतस नारी का पौरुष बल तो वर्णनातीत है ॥ 

बधु मन तनि अरु लाहन बाढ़े । जे संचै पत्र राखिहि गाढ़े ॥ 
पट पाटच्चर मति कर पोची । अहरन आपन  देवन सोची ॥ 
वधु का मन इसी माया के आकर्षण में थोड़ी और लोलुप हो गया । जिन संचय पत्रों को उसने कहीं गाड़ कर रखा था । उस निपट चोरनी ने अपनी बुद्धि ओछी करते हुवे उन संचाई पत्रों को धन में परिवर्तित कर प्राप्य धन से आपण के देयक का भुगतान करने का विचार किया ॥ 

पिया सोंह पाटच्चरी के कह को गारी खाहि । 
अइसिहुँ वइसिहुँ पचित अब पेटकहु त नहि आहि ॥ 
प्रियतम के सम्मुख चोरी की बात कह कर गाली कौन खाता । अब कुछ ऐसा -वैसा  पचाने वाला पेट भी तो नहीं रहा ॥ 

रविवार, ०९ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                                     

गह पर्बंधन जदपि प्रबोधे । लाग लगन पर जगत कुबोधे ।। 
लगे सगे जब करे लराई । बधु-बर घर के पटतर दाईं ॥ 
गृह प्रबन्ध्ान यद्यपि नगर में विख्यात था  । किन्तु वर-वधु के झगड़े अगत-जगत तक कुख्यात थे । जब सगे सम्बन्धी आपस में लड़ते । वर-बधु के घर की ही उपमा देते ॥ 

नाम पिया धर कहि तिय हे रे । सकल गृहस तिनके सम केरे ॥ 
देखु तनि तिन्ह के घर बंधे । अस आपने काहु न प्रबन्धे 
वे वधु के प्रियतम का नाम लेकर अपनी अपनी भामिनी से कहते । अरी सारे घर को उनके जैसा घर कर दिया ॥ किंचित देखो उनका घर कैसा बंधा है ऐसे ही अपने घर का प्रबंध काहे नहीं करती ॥ 

दैअहि  दोष पिय मन दुःख पाहिं  । लगे लरइ त  पुनि कहि नहि नाहि ॥ 
बीते करत अस एक पखबारे । एक दिन लघुबर भ्रात पधारे ।। 
लड़ाई में तो पहले से ही कुख्यात हैं यदि इस विषय पर फिर रन झीड़ गया और प्रियतम ने कोई दोषारोपण किया तो मन बहुंत दुःख पाएगा,  नहीं नहीं संचई पत्र का भेद प्रियतम को नहीं देना है ( वधु ने मन में सोचा ) ॥ 

बधु पीयूख सार सुख सानी । बोरत मधुपर्क भीत बानी ॥ 
अधर अधर मुख धर सुहसाई । हरिअर कहि सुनु मोरे भाई ॥ 
ऐसा करते पंद्रह दिवस का समय व्यतीत हुवा । एक दिन कनिष्ठ भ्राता घर पधारे ॥ वधु ने वाणी को पहले पीयूष के सुखसार  में उसन उसे मधुपर्क में अनुरक्त कर : -- 

फोरन पत्र जब कहत निहारी । बारहि बारहि  अनुग्रह कारी ॥ 
भगिनी बचन  देइ न धिआने । लगे आपनी कथा बखाने ॥ 
दोनों अधरों पर मुस्कान धारण करते हुवे धीरे से बोली रे मेरे भ्राता सुनो । और पत्र  मन संचित धन राशि को विमोचित करने की बात कहते हुवे बोली संकट मोचन नाम तिहारो ॥ भगिनी की बातों को तो ध्यान नहीं दिया । भ्राता अपनी ही कथा कहने में लग गए ॥ 

कहत गए तौ कहतइ गए , रहि कथा भई गाथ । 
मन थिर कर बधुरिश्रवनए, धरे हाथ निज माथ ॥  
अब कहते गए तो कहते ही चले गए, जो कथा थी वो गाथा बन गई ॥ वधु मन स्थिर कर अपने सिर पर हाथ धरे उसे सुनती रही ॥ 


सोमवार, १० फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                               

आपनी गई बहुर न पाई । बधु दुजन्हि बहुरन निकसाई  ॥ 
चलि जोइ कथा भुइँ भवन भवन । लिखे भ्रात गन पीठ बिभाजन ॥ 
अपनी बिगड़ी बना न पाई । बधु  दूजन की बनाउन निकसाई  ॥ जिस कथा का प्रचलन इस अनंता के घर घर हो गया, भ्राता उसी विभाजन का पृष्ठ लिख रहे थे ॥ 

कहत कथिक कहु कथम उधापे । कथन मह लिखे का का बातें ॥ 
कस बाँटें कस बाँट बटोरें । भुइयन भवनन खाट खटौरे  ॥ 
कथा कहने वाले ने कहा कहो तो इसका आरम्भ किस प्रकार करें । उसके  वर्णन में किन किन बातों का उल्लेख करें । भूमि भवनों को वाम उपकरणों को कैसे बांटा जाए बातें को कैसे बटोरा जाए ॥ 

को गाढ़ दिन कि को दिन गाढ़े । भाइहि बहिन्हि प्रेम प्रगाढ़े ॥ 
सांझ भई कब भयउ बिहाने । दुहु एक दूजन घर की जाने ॥ 
कठिनाई के दिन हो चाहे सीधे-सरल दिन हों । भाई बहनों का प्रेम प्रगाढ़ को प्राप्त रहता ॥ कब सांझ हुई कब भोर हुई दोनों एक दूजे के घर का भान था ॥ 

भए जगत जस बाँधनी साला । आगउने ऐसेउ कुकाला ॥ 
साँठि गहे न सुने न कोई । साँठि रहे त सुने न सोई ॥ 
जगत जैसे पशुबाड़ा हो गया है ऐसा कलिकाल का आगमन हुवा कि यदि पास में धन नहीं है उसकी कथा कोई नहीं सुनता और यदि धन हो गया तो वह किसी की  नहीं सुनता ॥ 

अचर सम्पद कर जुगत धारें । भए बिहान बेहन बैपारे ॥ 
जदपि पितु भवन त्रइ तल ढारे । पर एकै तल एकै भंडारे ॥ 
अचल सम्पति बंधुओं के हाथ गही थी किन्तु अनाज का व्यापार सारा चौपट हो गया था ॥ पिता  का भवन यद्यपि तिन तलों से युक्त था किन्तु एक ही ताल में एवं एक ही चौके में ॥ 

मात  गवन पर नउ बछर, भावज संग निभाए । 
एहि परिबेस जगत अस, को को के निभ पाए ॥ 
वधु की माता के स्वर्ग सिधारने के पश्चात भी नौ वर्षों तक भावजों की निभी रही । विद्यमान परिवेश में संसार में ऐसा कोई कोई ही निभा पाता है ॥ 

मंगलवार, ११ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                                  

दोइ चारि धुनीहि हितकारी । बधु भ्रात के करन मह घारी ॥ 
बिदा कहत झट दुरिन खोली । हाँ बिदा बिदा  बिथकत बोली ॥ 
वधु ने दो चार कल्याण के दो चार शब्द लघु भ्राता के कान में कहे ॥ और उसके विदा कहते ही झट दुआरी खोली  एवं थके हुवे स्वर से बिली हाँ विदा विदा ॥  

वाके जात पिछु चारि दिन्हें । बड़के भ्रात भवन पद चिन्हे ॥ 
दोइ भुँइ अरु दोइ आगारे । कहे भ्रात चलु करु बटवारे ॥ 
उसके विदा होने के चार दिवस पश्चात घर में अग्रज भ्राता के चरण उद्धरित हुवे ॥ दो भूमि है दो भवन हैं । भ्राता कहने लगे चलो (इस पहेली को सुलझाते हुवे) इसका विभाजन करो ॥ 

अरध बटोरन लगि लघु भाऊ । सद भाजन को जुगत बताऊ ॥ 
बड़के दोइ जात दु जाता । लघु अहहीं एक एक के ताता ॥ 
अनुज आधे भाग को बटोरने में लगा है । ऐसा उपाय कहो कि विभाजन न्यायोचित हो ॥ अग्रज के दो पुत्र हैं एवं दो ही पुत्रियां है । अनुज एक पुत्र एवं एक ही पुत्री के पिता हैं ॥ 

तीनी पुत कुल तीनी पुतिके । करु तिन माझन  भाजन नीके ॥ 
पुत्रिका बहु दाइज दए बिहाहू । सेष सकल पुट बधु कर दाहू ॥ 
कुल मिला कर तीन पुत्र है एवं तीन ही पुत्रियां हैं । अत: उनके ही मध्य भली तीन सुन्दर विभाजन करो ॥ पुत्रियों को अतिशय दानोफार दे कर विदा कर देना । शेष सम्पदा को वधु के कर दे देना ( ऐसा वधु ने कहा ) ॥ 

तल गह सोंह दूजन गह, दुज तल छुटके दीनि । 
तल गह बड़के आप धर, भाग करे भुँइ तीनि ॥ 
एक भवन का तलगृह दूसरे भवन के समतुल्य था । अत: दुसरा भवन अनुज को देकर अग्रज ने तलगृह स्वयं रखा और भूमि खंड के तीन तीन भाग कर दिए ॥ 

बुधवार, १२ फरवरी, २ ० १ ४                                                                                              

रगर धरत अनुजात न माने । सकल भगिनी लगी समुझाने ॥ 
पितु मति सों बड़के श्रमकारी । तबहि जेइ सम्पद भू ठाढ़ी ॥ 
अनुज ने हाथ पकड़ ली उसे ऐसा विभाजन मान्य न था । तब सभी भगिनियाँ उस समझाने लगी । अग्रज भ्राता के श्रम किया एवं पिता की बुद्धि रही तब कहीं जाकर यह सम्पदा भमि पर खडी हुई ॥ 

तुम रह बालक किए बहु सेवा । पितु सम भ्रात देइ सो लेवा ॥ 
श्रवनत बात ए प्रथमक रोखे । सनै सनै भयऊ संतोखे ॥ 
तुम तो बालक थे किन्तु तुमने सेवा बहुंत की । अत: पिटा जैसे भरता जो कुछ प्रदान कर रहे है तुम केवल उसी के लहन योग्य हो ॥ 

भले भवन भू सम्पद बाटें । रही अपनपन मन ना फाटे ॥ 
सुधि बुधित भ्रातिन्हि चतुराई । दीख दिखा एक सीख सिखाई ॥ 
भले ही भूमि एवं भवनों का विभाजन हो गया किन्तु भ्राताओं का अपनत्व न गया उनके हृदयों का विभाजन नहीं हुवा ॥ बुद्धिमंत सयाने भाइयों की चतुराई ने एक उदाहरण प्रस्तुत कर एक शिक्षा दी ॥ 

पुरइन कहुँ मात पिता की सीखी । दोनहु के कहि करनी दीखी ॥ 
जुगे जगज्जन जनम बिहाहीं । आहि जाहि सद्क़ृत रहि जाही ॥ 
कहीं पूर्वजोन की कहीं माता-पिता की शिक्षा ही थी । जो दोनों के कार्यों में परिलक्षित हुई । जगत जन जन्म-मरण के बंधनों से बंधे हैं वे आएँगे एवं चले जाते हैं उनके सद्कर्म रह जाते हैं ॥ 

केतक सुमिरन चितबन थीरे । अवतर मनोगगन मह तीरे ॥ 
तिन सोंह जुगे केत सुधियाए । चाह करत चित बिसर ना पाए ॥ 
कितने ही स्मरण चितवन में स्थिर हो मन के गगन में अवतरित होकर तैरने लगे ॥ इनके साथ कितनी ही स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं । जिन्हें यह चित्त छह कर भू भूल नहीं पाता ॥ 

जँह लग जेइ अगत-जगत, जँह लग गगन बितान । 
सबकी आपनि आपनी, अहहीं कथा पुरान ॥ 
यह चराचर जगत का विस्तार जहां तक है, उस चिदानन्दघन का विस्तार जहां तक है । सबकी अपनी अपनी एक कथा है,  कहानी है किसी किसी की गाथा है, पुराण भी है ॥ 

गुरूवार,१३ फरवरी, २० १ ४                                                                                                              

कहत बधुरि अस कलबर कारे । अजहुँ आपनी कथा सँभारै ॥ 
रचे छंद प्रबंध कछु दोहे । जो प्रियबर के कल कुल सोहे ॥ 
उपरोक्त वचनों को अस्पष्ट शब्दों से उच्चारित करते हुवे वधु ने कहा, अब अपनी भी कथा संभालनी चाहिए ॥ कुछ छंद प्रबंध कर कुछ दोहे रचाने चाहिए कि जिससे प्रियवर का कुल सुशोभित हो ॥ 

जब आपनि सम्पद अवधाने । तब आपन रिन लेउ ग्याने ॥ 
आइ कर गनक पत्रक सँजोगी । तीन बछर के जोगन जोगी ॥ 
तत्पश्चात जब अपनी संपत्ति का ध्यान किया तब आपण के ऋण आहरण का ज्ञान किया ॥ इस हेतु आयकर गणक पत्रक एकत्र किये । तीन वर्षों के पत्रकों का जोड़ भाग किया ॥ 

एक  लगाइ पहिलेहि लगाई ॥ लखटकी पत्रक केतक दाई ॥ 
ऐसेउ कहत प्रियतम हाँसे । बधुटि बदन पर भयउ उदासे ॥ 
एक लाग तो पहले ही लगी है । ये लखटकिया पत्रक और कितना देंगे ॥ ऐसे वचन कहते हुवे प्रियतम उपहास करने लगे । उधर वधु के मुख मलिनप्रद हो गया ॥ 

उछ्बासत कहि अब का कारूँ । अपनी कहनी कथम सवारूँ ॥ 
धरी पत्रक पितु भवन पठाई । अग्रज भ्राता दुइ गुन सुझाई ॥ 
उसने एक शीतल सांस ली और कहने लगी अब क्या करूँ । अपनी कहानी कैसे सवारूँ ॥ और उन पतरकों को धरे पीहर पहुँच गई । अग्रज भ्राता से दो गुण बताए ॥ 

अरु बताइँ एक आइ कर अधिबकता के ठौर । 
पुनि बधु तेहि पहि गवनी, सकल पतरक बहौर ॥ 
और साथ में एक आयकर अधिबक्ता का दौर भी बताए । फिर वधु सारे पत्रक एकत्र  कर उस अधिवक्ता के पास पहुँच गई । 

शुक्रवार, १४ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                              

कहि याचत को जुगुतिहि लगाएँ । कर पत्रक मूल तनिक बरधाएँ ॥ 
 वधु लोचन कातर कर देखे ।  कहूं रेखित कर कहुँ कहुँ लेखे ।। 
पहुँच  कर कहने लगी कोई युक्ति लगाओ । इन आयकर पत्रकों का किंचित ही सही मूल्य तो बढ़ाओ ॥ उस समय वधु के नेत्र कातर स्वरुप होकर 'कर' को देख रहे थे  । कहीं कुछ रेखांकित किया कहीं कहीं कुछ लेखांकित किया  ॥ 

बक्ता बधु एकटक तकइ कहइँ । लखत न बनइ कछु करत न बनइँ ॥ 
नवलइ  बछर एहि  लखटिकाई । केबल दस सहसहि बरधाई ॥ 
अधिवक्ता ने वधु को एकटक देखते हुवे कहा । इनमें तो न कुछ लिखते नहीं बन रहा न कुछ करते बन रहा ॥ अब तो नए करनिर्धारण वर्ष में ही इस लखटकिया पत्र-पंगत का कुछ किया जा सकता है । ( उसमें भी बिना कर देय ) केवल दस सहस्त्र ही बढ़ेंगे ॥ 

कहि बधु बरधनि त करि देहू । पहिले एहि कहु केतक लेहू ॥ 
बकता उतरू  देत लजाही । कहे तुम मोहि चिन्हत नाही ॥ 
वधु ने खा यह वर्धन तो कर डोज पहले यह बताओं इसका शुल्क कितना लोगे ॥ अधिवक्ता इस प्रश्न का उत्तर देते हुवे लज्जित हो गए कहने लगे तुम मुझे परख नहीं पा रही हो ॥ 

पढ़ हम सन  बिधि बिद्या धारें । सहपाठि करें न ब्यबहारे ॥ 
अस श्रुत बधु मुख अचरज लाही । तुम्ह तईं मम मन सुमिरन नाहीं ॥ 
हम  साथ में ही पढ़े और साथ में ही हमने विधि की विद्या ग्रहण की ॥ इस प्रकार हैम सहपाठी हुवे और सहपाठी परस्पर व्यवहार नहीं करते ॥ 

गर्दभ खच्चर मंदमति रहहीं हाँ तव नाम । 
मैं न जानु निश्चय होहु, तुम को निष्परिनाम ॥ 
गधा, खच्चर मंदमति, तुम्हारा यही नाम होगा । यदि मैं तुम्हे नहीं जानती तब अवश्य ही तुम कोई निष्परिणाम होगे ॥ 

शनिवार, १५ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                             
सकल सँजोअत एक एक करके । तमकि ताकि तकि पतर्क धरके ॥ 
तुम बकु मैं सकु भाव मुख छाए । पड़त सहपाठि तनिक सकुचाए ॥ 

जस नदि जल धर सिंधु समाई । बहुरत बुधु बधु घर भितराई ॥ होत  कुपित प्रियतम सिरु चाढ़ी । प्रियतम कांपत कुंचित ठाढ़ी ॥ 

तमकत ताकत करक निहारे । कही बकता बहु चूक निकारे ॥ 
तिन्ह पत्रक के को बनवइ या । उहि हम्हरे सवति लघु भइया ॥ 

तुहारे दुलरिया नागर कर । जे तव सहपाठि बर एक बछर ॥ 
दाप अधर उअत प्रियतम हाँसे । अस श्रवनत इत बधुरि रुआँसे ।।  

सकल साधु संत महंत, हमरेहि घर सँजोए । 
त्रुटिगत रत पात पंगत, देख बहूरी रोए ॥ 


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