भोर भई पथ रबि धरि पाँवा । करम करन पिय गवनै गाँवा ॥
गेहस के सब कार उसारे । रीति मतिहि बधु बैठहि ठारे ॥
भोर होती पथ पर रवि के चरण पड़ते ही, प्रियतम कार्य पर चले जाते ॥ गृह के सब कार्य निपटा कर रिक्त मष्तिस्क लिए वधु ठाली बैठे रहती ॥
एहि बिच चित उपजी जिग्यासा । दोष चरन तिन देइ बियासा ॥
बैसि बैसि मन ही मन बोले । चलौ तनिक निज बुद्धी तौले ॥
इसी बीच चित्त में एक जिज्ञासा उपजी । दूषित आचरण ने उस जिज्ञासा को विस्तार दिया । वह बैठे बैठे मन-ही-मन कहने लगी । चलो थोड़ी अपनी बुद्धि की जांच कर लें कि किसमें कितनी है ॥
उलट पुलट सब झोरन देखे । रहहि उहि ब्यबहारी लेखे ॥
देखि नयन एक बाँधि पिटारी । कुंजी सहित अंक के तारी ॥
रखे गए सारे झोलों को उलट-पुलट कर देखा । उसमें वही व्यवहारी बही पत्र थे ॥ फिर एक बंधी पिटारी का निरिक्षण किया । उसमें कुंजी के ताले के सहित अंक का ताला था ॥
बिन कुंजी दवारि पट ढारे । सँजोजित अंक देइ उहारे ॥
चारि पल कुल छह घरी लागे । हेरन फेरन कौतुक जागे ॥
पिटारी की द्वारी में कुंजी लगी नहीं थी केवल अंक के ताले से ही वह आबद्ध थी । वधु ने उसे चार पल एवं कुछ ही घडी अर्थात कुछ ही समय में खोल दिया । फिर हेर-फेर का कौतुक जागा ॥
लेख लिखि लेखा पोथी, पतर्क माल पिरोए ।
तिन्ह सोंह धरे रहि कछु, धन संचइ पत्र जोए ॥
निरीक्षणोंपरांत उसमें लेखा-बही पत्रों की पंक्तियों के सह कुछ संचई धन-पत्र रखे हुवे थे ॥
बृहस्पतिवार, ० २ जनवरी, २ ० १ ४
कछुक दिवस लह अवधि पूरिते । सन्चै पतर लख तिनी परिनिते ॥
जोख सकल बधु तिन्ह निकारी । अरु जस के तस बाँधि पिटारी ॥
अवधि पूर्ण होते ही कुछ ही दिवस में वे संचई पत्र रुपय तीन लाख में परिवर्तित होने वाले थे ॥ यह देख कर वधु ने उन पत्रों को निकाल लिया । शेष सभी सामग्री यत्रवत उस पिटारी में बाँध दी ॥
धनाहरन तिथि आगम पाही । पत्र प्रतिभू परिजन घर आही ॥
उलट-पुलट किए सकल सँजोई । हेरि पतर पर मिलै न कोई ॥
धनाहरण की तिथि निकट आ गई थी । पत्र के प्रतिभू वे परिजन फिर घर आए । और सारे बही-पत्रों को उलटा-पलटा । परिजन उन संचई पत्रों को ढूंड रहे थे किन्तु वह मिले नहीं, होते तो मिलते ॥
सब जानि जे जग रीति होई । किरिया पथ प्रति किरिया जोई ॥
बिहान पिय सन पूछ बुझाईं । जान न कहतै खोटि सुनाईं ॥
जग की इस रीती को सभी जानते है है कि प्रत्येक क्रिया, प्रतिक्रया की प्रतीक्षा करती है ॥ अंत में उन्होंने प्रियतम से पूछ-ताछ की । प्रियतम ने जब उस सम्बन्ध में अनभिज्ञता प्रकट की तब वे परिजन खरी -खोटी सुनाने लगे ॥
सान सुधित सर बिष मह बोरै । लान बचन मुख साधत छोरें ॥
जब पिय मान हरन उतराईं । तब मुखरित बधु कहि पलटाई ॥
फिर वे विष में बोड़े, सान में सँवारे हुवे बाण-वचन मुख में लाते और सधा-साध कर छोडते ॥ । और जब प्रियतम का सन्मान हरण करने लगे तब वधु का मुंह खुल गया वह पलट के बोली ॥
लेख-बही धरावन के, बस हम अनुमति दाए ।
धन सुबरन के कोउ पत, कहु कस धरे ढकाए ॥
हमने आपको केवल लेखा-बही रखवाने की अनुमति दी थी । धन रुपया पैसा सोना-चांदी हीरे मोती या कोई संचई-पत्र रखने की नहीं । रखा और वो भी ढक के ॥
शुक्रवार, ०३ जनवरी, २ ० १ ४
धरैं कूट का आजुध गोरे । बोलइ बधु किए बचन कठोरे ॥
जो फूटन पर आवत कहहू । हमरे गोरे चौरन लहहू ॥
फिर वधु ने वचन कठोर करते हुवे कहा : -- क्या कोई छल करके किसी के यहाँ आयुध और अग्नि गोले रख दे । जो वह फूट जाए तो आकर यह तो नहीं पूछे कि कोई हताहत तो नहीं हुवा , उलटे यह पूछे कि हमारे अग्नि गोले कहाँ है ॥
होहि धरोहर तब को धरि धृति । जब धारक के लेइ स्वीकृति ॥
जो हमरे कर कहूँ गवाईं । तिन्ह धरोहर के हम दाईं ॥
"कोई धरी हुई धृति तभी धरोहर का स्वरुप लेती है,जब धारक उसे धारण करने की स्वीकृति दे "॥ फिर वह हमारे हाथ से कहीं खो जाती है अथवा हम उसका उपयोग कर लेते है तब उस धरोहर पर दायित्व निरूपित होता है ॥
नैन जुरावत पुनि पिय बोरे । तिन पतरन का तुम चोरे ॥
सोचि बधु रे जो कहि हम लाहु । साहु चोर भै चौर भै साहु ॥
फिर प्रियतम ने वधु से नयन मिला कर कहा ''क्या तुमने उन पत्रों को चोरी किया है ''॥ वधु सोचने लगी यदि मैने यह कह दिया की हाँ चोरी की है तब चोर साहूकार सिद्ध हो जाएगा और साहूकार चोर हो जाएगा ॥
बुद्धि अँधरे गाँठि के पूरे । बहिनि तरु बेलरी बिनु मूरे ॥
परिजन धन सन भए मतवारे । पाँवर कस करत ब्यवहारे ॥
बुद्धि के अंधे गाँठ के पूरे । बहन रूपी वृक्ष पर बिना मूल के फुलतेफलती बेलरी कहीं के,ये स्वजन तो धन के मद में मतवारे हुवे जा रहे हैं । इनका व्यवहार मूर्खता पूर्ण परिलक्षित हो रहा है ॥
दोष दुहू के आहि की नाहि । रच्छक पहि गत बाँधि ले जाहिं ॥
जे मतिहिन लिए देइ छुटाहीं । पर दीनन के कवन रखाही ॥
दोनों का दोष है कि नहीं है यह तो ईश्वर ही जाने । यदि ये राजा के रक्षकों के पास चले गए तो वे दोनों को बाँध के ले जाएंगे । ये मतिहीन ले-दे के छूट जाएंगे । किन्तु दरिद्र को कौन बचाएगा ॥
सह माया लोभन सन राँराँचे । एक कोती दिखावत नाचे ॥
साथ में एक कोने में माया भी लोभ के रंग में अनुरक्त हो कर अपना मोहक नृत्य दिखाने लगी ॥
बिपल मत मान सरोबर, तीर तरंग लहाहि ।
अस सौ मत गतागत पर, बधु धीरहि कहि नाहि ॥
विपल में ही मस्तिष्क के मान सरोवरके तट पर तरंगे उठने लगी । ऐसे सौ प्रकार के विचार आने-जाने के पश्चात वधु ने फिर धीरे से कहा ''नहीं''
शनिवार, ०४ जनवरी, २ ० १ ४
बिभावरी मुख तरत बिभावा । खेद जनक भावहि उपजावा ॥
नयन भवन के पलक अलारे । अस कह पर पिय चरन बुहारे ॥
पीले पड़े मुखड़े पर भाव के तीन अंगो एक भावोद्दीप्त अवस्था ने खेद को जन्म देने वाले भाव को प्रकट किया । नयन रूपी भवन में पलकों की द्वारी ने ऐसा कहते हुवे प्रियतम के चरणों को बुहारने लगे ॥
नवल नवल के भए धनमानी । दुर्बादित अतिसय अभिमानी ॥
अपनपो ऐँठ दूर दुराई । हवन करत बर हाथ जराईं ॥
परिजन, नए नए धनवान हुवे थे ।अतिशय अभिमान से युक्त होकर वे दुर्वादन करते अपने आप में ऐंठे दूर हो गए । प्रियतम ने तो भलाई की किन्तु मिली बुराई ॥
कूट कुटिल कुबुद्धि कस जागी । बेनु बिपिन जागत जस आगी ॥
बधु नए स्वजन मेल बिगारी । तिन कारन कह लघुमति नारी ॥
छल कपट की बुद्धि ऐसे जागृत हुई जैसे करील के विपिन में अग्नि जागृत होती है । वधु ने परिजनों से बिगाड़ कर ली । इसी कारण कहते हैं कि स्त्रियों की बुद्धि अल्प होती है॥
पलक पहर भए पहरअहि रइना । भयो दिनमल संचत दिन दिना ।
जोगबनी दिनमल भए पाखे । पाख पाख जुग बत्सर लाखे ॥
क्षण पहरों में पहर रात्रि में रात्रि दिवस में परिवर्तित होती गई, दिवस संचयित होकर मास में परिवर्तित हो गए | मास -मास का योग पक्ष में पक्ष-पक्ष का योग वर्ष में परिणित हो गया |
दोई बत्सल पूर्ण कारे । भयवन तीजन पथ पद धारे ॥
तिन्ह पत्र बधु धरे रखाई । कबहु पिया जब पूछ बुझाई ॥
दो वर्ष जाते देर न लगी और समय तीसरे वर्ष में प्रवेश कर गया । वे पत्र वधु के पास ही रखे रहे । कभी प्रियतम तत्संबंध में पड़ताल करते : --
मुख पटल करत गम्भीर, कहु का तुम तिन लाहि ।
कबहु हाँ कबहु नाहि कह, कभु इत उत टरकाहि ॥
और मुख के गगन पटल पर मेघ के सदृश्य गम्भीरता ओढे कहते कहो उन पत्रों को क्या तुमने लिया था । तब वधु कभी हाँ कहती कभी ना कहती कभी इधर उधर की कह कर बात टाल देती ॥
रवि/सोम , ०५/०६ जनवरी, २ ० १ ४
पुनि बधु कर धर भाल बिचारी । अजहुँ न नुकूल चरत बयारी ॥
जोग काल लागैं जब आहीं । तब प्रियतम मन साँच बताहीं ॥
फिर वहु सर पर हाथ धरे विचार करने लगी । अभी वायु का प्रवाह अनुकूल नहीं है । जब लगेगा कि देश काल एवं परिस्थितियां उत्तम होगी तब प्रियतम से सत्य कह दूँगी ( कदाचित यह वधु की एक त्रुटि थी ) ॥
असकर प्रस्तुत प्रकरन संगे । घटे जुत पुरब कथित प्रसंगे ॥
बसहि बसति एक पाहि निबासे । जँह कछुकन ब्ययसनी बासे ॥
इस प्रकार प्रस्तुत प्रकरण के सह पूर्वोक्त घटनाएं भी घटित होती रहीं ॥ जहां वरवधू का निवास था वहाँ निकट ही एक वसति में कुछ व्यवसनी वास करते थे ॥
बसि सासकी भवन एहि मज्झन । चारि बारिहि कुल चौरी करन ॥
चोर चकार पद घर चिन्हे । चोरित चोरितक गवनु लिन्हे ॥
इसी मध्य शासकीय भवन में निवास करते हुवे घर में कुल चार बारी चोरी हो गई ॥ चोर-उचक्कों के चरणों ने घर को चिन्हित किया हुवा था । वे छोटे मोटे समान चोरी कर ले जाते ॥
को कारन को काज बियावा । गवनै बरबधु बाहिर गाँवा ॥
साँझ ढरे अरु भए जब राता । चोर उचक तब मारै हाथा ॥
रजत मुद्रा कुल दसक दहाई । तीनि सहस रति सोन गढ़ाई ॥
एक लोहे कि पिटारी में एक कोषागार था । एक बार तो चोर उसमें ही लग गए ॥ जिसमें कुल एक शतक रजत मुद्राएँ थीं तीन सहस्त्र रत्ती ( आठ रत्ती = एक माशा, बारह माशा= एक तोला )कुल स्वर्ण के आभूषण थे ॥
हिरनइ को गहन रजत के । कछुकन पतर अचर संपत के ॥
रहहि न कोइ दरस धन रासी । एतिक रहहि धन जोग बियासी ॥
आभूषण उज्जवल एवं हिरण्मयी थे । कुछ अचल सम्पति के लेखा-पत्र थे । कोई साक्षात धन राशि नहीं थी कारण कि सभी अचल सम्पति में संजोई गई थी ॥
बिहाउ परन जुगल जिन्ह, राखे जोग जुहार ।
नैहर ससुराइ दुहु जुट, देइ दान उपहार ॥
विवाहोपरांत वधूवर ने जिन्हें संजो कर रखा हुवा था जो पीहर एवं ससुराल दोनों और का दिया दानोपहार था ॥
भोर भइ कि कहुँ जागरन, उचाके गयउ भाग ।
लागसि अस ते कारन, बाँचै सबहि सुभाग ॥
वे उचक्के भाग गए थे ,कदाचित भोर हो गई अथवा कहीं जाग हो गई लगा कि इसी कारण सौभाग्य से सभी कुछ बच गया था ॥
ठोटे रुज कारन उपचारी । कभु अवसर को मंगलकारी ॥
कहुँ जावन को मरन-जियाई । गहन रखन तब चिंतन खाई ॥
पुत्र के रोगोपचार के कारणवश अथवा कभी किसी शुभ किसी मांगलिक अवसर पर या किसी के मरने-जीने पर जब फिर कहीं जाने की आवश्यकता हुई तब उन आभूषणों के रक्षन की चिंता सताने लगी ॥
पुनि पिय पद जनु चकरी घारे । अधिकोष के चिक्करइँ कारे ॥
कोषागार को कहहुँ न पाए । बहुरत भोंदू भवन भितराए ॥
फिर प्रियतम के पैरों में जैसे कोई चकरी पहन लिए हों । वे अधिकोष की शाखाओं का चक्कर लगाने लगे ॥ वाहनं उन्हें कहीं भी कोषागार नहीं मिला और बुधु बनकर घर लौट आए ॥
कही मन मैं बधु अब का कारौं । आपनि धरोहर को पहिं धारौं ॥
पिय कहि मात पिता के पाहीं । बधु मन मैं कहि नाही नाही ॥
वधु मन में कहने लगी अब क्या करूँ ? अपनी धरोहर को कहाँ धरूँ ? ॥ प्रियतम कहने लगे मेरे माता-पिता के पास ? वधु फिर मन में कहने लगी नहीं नहीं ॥
संचई पत्र के अग्नि गोरे । धरे हम अस भेद कस खोरें ॥
बहुरि जुगावत एक पेटारी । भ्रात भेद दे धरन गुहारी ॥
संचय पत्र के जो अग्नि गोले हैं । वह मेरे पास हैं यह भेद उन्हें कैसे दूँ ? फिर उसने एक पिटारी में सारा धन एकत्र किया । और अपने भ्राता को उन संचई पत्रों का भेद देते हुवे उसे धृति स्वरुप धारण करने की गुहार लगाई ॥
अपने साज संजोवनी लवनै । भ्रात कहत धुत कहुँ अरु गवनै ॥
बहु अनुग्रह पर बहु कर जोरे । तब भ्राता धृति धरुवन होरे ॥
वे धुत-धुत करते बोले ये अपनी साज -सामग्री बटोरे और कोई दुसरा घर देखो ॥ फिर अत्यंत ही आग्रह करने एवं वारंवार कर जोड़ने पर फिर भ्राता ने उस धृति को धरोहर स्वरुप ग्रहण कर लिया ॥
असकर बधुबर बहिर्गत, आगत चरन बहोर ।
धरे धरौहर ले गवनै, मांग करे निज ठौर ॥
ऐसा करते जब वधु-वर कहीं बहिर्गमन करते और वहाँ से वापस लौटते । तब वे अपनी धरोहर मांगकर अपने घर ले जाते ॥
मंगलवार, ०७ जनवरी, २०१४
जब कथित बातिन्ह मैं भूरे । पय योजनावधि भयउ पूरे ॥
जिन्ह करनानुबन्ध धराईं । अवधि पूरतै करम बिहाईं ॥
जब वर-वधू कही गई उपरोक्त बातों में निमग्न थे कि तभी वर की जल योजना की अवधि पूर्ण होकर वह समाप्त हो गई । जिस का कार्य करने हेतु वर ने अनुबंध किया था । अवधि पूर्ण होते ही अनुबंध भी पूर्ण हो गया और वर का सेवकाई भी जाती रही ॥
तहँ लख जो तिनु चारिन आही । भ्रष्ट चरन चर जोगित लाहीं ॥
जुगे धन गेह गहस चराईं । सेष आपनु भवन भुगताईं ॥
वहाँ ( लगभग अट्टारह बीस माह में ) भ्रष्टाचार करते हुवे वर ने तीन-चार लाख की धन राशि लाभार्जित की । संगृहीत धन से गृह-गृहस्थी संचालित की एवं शेष को संपत्ति के अंश का भुगतान किया ॥
प्रान नाथ पुनि बिनु श्रम कामा । बैठे ठारे सिरु धर धामा ॥
सौचए अब कँह कर बिस्तारें । जँह गवनै तँह ठोकर मारै ॥
वधू के प्राणनाथ फिर से कर्महीन हो गए सर थाम कर घर में बैठ गए ॥ सोचने लगे अब कहाँ हाथ पसारें । जहां जाते हैं वहीँ ठोकरेँ मिलती हैं ॥
फेर सकेरे सकल उपाधी । भ्रष्ट चरन के एक अपराधी ॥
बहुरत मह बिद्यालय सोईं । अंस काल अध्यापक होईं ।।
फिर सारे उपद्रवों को एकत्र किये भ्रष्ट आचरण का एक अपराधी पुनश्च जहां पहले था उसी महाविद्यालय में अंश कालीन अध्यापक के रूप में नियुक्त हुवा॥
भए आपनु सहि भू भवनु, अधम अधिक अपनोइ ।
कहि पिय अब मन चिंताए, पेट लपेटन होइ ॥
प्रियतम कहने लगे : -- भूमिखंड, भवन, एवं आपण के हम आधे से अधिक के स्वामी हो गए हैं, अब भोजन-वस्त्र की ही चिंता रह गई॥
बुधवार, ०८ जनवरी, २०१३
बन उपबनी पलास बिकासे । फुरत फरत उत भै षट मासे ॥
एक दिन प्रियतम धावत आईं । जे सुखकर संदेस सुनाईं ॥
वन-उपवन में पलास के पुष्प विकसित होकर फलने फूलने लगे आधार छह: मास व्यतीत हो गए ॥ एक दिन प्रियतम लगभग दौड़ते हुवे से आए । और यह सुखकारी सन्देश सुनाया ॥
पट ज्ञापित किए कछुक पद राए । मग जोजन अभियंता सहाए ।।
अहहिं उपजंती पदक बहूले । मम अर्हता भए अनुकूले ॥
राजा ने मार्ग योजना हेतु सहायक अभ्यंता के कुछ पदों को ज्ञापित किया है । जिसमें बहुंत से उपभियन्ता के भी पद हैं मेरी अर्हता भी उन पदों के अनुकूल है ॥
भाव प्रबन पिय बदन दरसाए । तिनके ब्यंजन बरनि न जाए ॥
कहि बधु पिय अरु बिलम न कारौ । कारत जाचन पद आहारौ ॥
प्रियतम के वदन में जो भावुकता प्रदर्शित हुई उसकी व्यंजना वर्णातित हैं ॥ फिर वधु ने हे मेरे प्रियतम अब और विलम्ब न करो । राजा के सम्मुख याचना करते हुवे उक्त पद को ग्रहण करो ॥
बिबरन पिय जब देइ धिआने । तिनके पन पिय बे न अधाने ॥
निर्दिसित रही जो बे सीवा । बैकर पिय तनि रहहिं अधीवा ॥
जब प्रियतम ने ज्ञापित पदों के विवरण को ध्यान से देखा । तो वे नियुक्ति नियमों के प्रतिज्ञा की पूर्णता को प्राप्त नहीं हो रहे थे ॥ जो आयु सीमा निर्दिष्ट की गई थी । वहाँ आयु वर्धन करते हुवे प्रियतम किंचित अधिकता को प्राप्त थे ॥
जो आस मुख लाहि निरासा माहि छिनु मैं रूपांतरी ।
जनु मुख बन लाहू भवन उछाहू तापरचिरु द्युति गिरी ॥
सह कारज करमा पद अति परमा रहहि बहु आकर्षनै ।
बिनु काम कमाई, सों जिउताईं हस्त सिद्धि कहि न बने ॥
प्रियतम के श्री मुख पर की आशाओं की कांति वह निराशा की श्यामलता में परिवर्तित हो गई । यह निराशा ऐसी थी मानो मुख लालसाओं का उपवन है जिसमें उत्साह का एक भवन है और उसपर बिजली आ गिरे हो ॥ काम-काज के सह पद की शोभा अति आकर्षक थी । जो बिना काम-कमाई के हो उस जीवक के सम्मुख हस्त सिद्धि, वर्णनातीत थी ॥
हरिएँ कहत पिय होहि पद जदपि धार अनुबंध ।
तिनके हुँत नियमित सोंह, जिनके को न प्रबंध ॥
प्रियतम ने धीरे से कहा : -- यद्यपि यह अनुबंधारित पद है । किन्तु जिसका कोई प्रबंध न हो, उस हेतु यह नियमित के ही सदृश्य है ॥
गुरूवार, ० ९ जनवरी, २०१४
एक त नहि कहि पद सेउकाई । भाग मिलै सो भाग बिहाई ॥
देखि बधु पिय चिंतन घेरे । भै चंचल चित चोर चितेरे ॥
एक तो कहीं सेवोपजीविका के पद रिक्त नहीं हैं । भाग्य वश जो मिला वह भी भागा जा आरहा है ॥ जब वधु ने अपने प्राणाधार को चिंता से घिरे देखा । तब उसके चित का चितेरा चोर चंचल हो गया ॥
मलिनइ तव मुख सोह न पावै । कही चलौ को जुगत लगावैं ॥
श्रुत बधु बत पिय दुइ पल होरे । पूछे पुनि जोरे का तोरें ॥
वह कहने लगी तुम्हारे श्री मुख पर उदासी अच्छी नहीं लगती । चलो कुछ उपाय करत हैं । वधु की बात सुनकर प्रियतम एक प् के लिए ठहरे । फिर पूछे कहो तो क्या जोड़ें और क्या तोड़ें ॥
कही बधु जो पद तव मन चाही । हेर फेर बिनु दूर दुराही ॥
सिद्ध बयस पत्र काचि लिखाई । प्रतिलेखित धरु बै जुवताई ॥
वधु कहने लगी तुम्हारा चित्त जिस पद को प्राप्त करने को आकांक्षित है, वह बिना उअत-पुलट के तो पकड़ नहीं आएगा, और दूर भाग जाएगा ॥ जो पत्र आयु को प्रमाणित कर रहा है उस पत्र की लिखाई देखो, कच्ची है । इसे प्रतिलिखित कर थोड़े युवा हो जाओ ॥
देह बसन घर नित कन चाही । जे अवसरु पुनि आहि कि नाहीं ॥
रूरत पथ पथ पद पत पानी । डरपत करि तनि आना कानी ॥
यह देह तो नित्य प्रति ही वस्त्र और अन्न मांगेगी । यह अवसर जाने फिर प्राप्त होगा कि नहीं ॥ तुम्हारे पद की प्रतिष्ठा पथ मारी मारी फिर रही है । प्रियतम भयभीत हो गए, किंचित टाल-मटोल कर : --
हेर फेर पिय करन पुनि कठिनइ साज समाजि ।
दरसै जब निज जोगता, अस कृत करनन लाजि ॥
फिर किसी भांति प्रियतम हेर-फेर करने हेतु तैयार हो गए । किन्तु जब उन्होंने अपनी योग्यता देखी, तब ऐसे कुकृत्य करते हुवे लज्जित हो उठे ॥ क्योंकि सुकृत्य कभी निष्फल नहीं जाते, कुकृत्यों से अवसरों का संयोग समाप्त होता जाता है ॥
शुक्रवार,१० जनवरी, २ ० १ ४
पद निहोरत सोइ अस आसहिं । आस पीहु जस पयस प्यासहि ॥
लगे जोग पथ अस परिनामा । बिनु कार बनिहार को कामा ॥
पद हेतु आवेदन कर वह इस प्रकार से आशान्वित हो गए । जैसे प्यासे पपीहा पयस के लिए आशान्वित हो ॥
चयन-परिणाम हेतु वह ऐसे प्रतीक्षित हुवे जैसे बिना कार्य के कोई बनिहार, कार्य प्राप्त करने की प्रतीक्षा कर रहा हो ॥
गत रौधानी पिय एक बारे । लोग जोग फर पूछत हारे ॥
किए चयनित जब नाम उजागर । भए मुदित तब आपनु दरसकर ॥
एक अवसर पर राजधानी पहुँच गए । वहाँ लोगों से योगफल पूछ पूछ कर श्रमित हो गए ॥ ( कुछ समय पश्चात) जब प्रशासन ने चयनित नाम प्रकाशित किए । वहाँ अपना नाम देखकर प्रियतम अतयंत ही हर्ष से भर गए ॥
उपजंती के किए अभिलाखे । बनए सहायक अस पत भाखै ॥
मिलै पदक जो सपन न अहाईं । गत प्रभु भवन कहत सिरु नाईं ॥
अभिलाषा उपयंत्री की किए थे प्रकाशित पत्र सहायक दर्शा था ॥ प्रियतम ईश्वर के द्वार पर गए एवं 'जिस पद की स्वप्न में भी आस नहीं थी वह आपकी कृपा से प्राप्त हुवा' ऐसा कहते हुवे ईश्वर का धन्यवाद किया ॥
पदक चयन जब कही सहुँ संगिनि । उलट बचन अस कहि मन रंजनि ॥
तव अनंदु अस जस जुबताई । कहूँ गवाईं बहुरत पाईं ॥
पद के चयन की बात जब संगिनी के सम्मुख कही । उस मन रंजनि ने उलटे वचन कहे ॥ वह खाने लगी तुम्हारा हर्ष ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने यौवन कहीं गँवा कर उसे पुन: प्राप्त कर लिया हो ॥
उमग चित बहु प्रनय सहित, सुहसित नयन जुराए ।
खर कर करधनी धर बर, बधु भुजांतर लाए ॥
प्रीतम उल्लास भरे चित्त से प्रणय सहित सुन्दर हंसी हंसते हुवे नयन चार किये ॥
शनिवार, ११ जनवरी, २ ० १ ४
लख अपलक लक अलक सँवारे । लवन मगन किए करन कगारे ॥
कपोलारून निज अधरं लैने । भए प्रनिसित पिय प्रनइत बैने ॥
बहुरि बदन कन धर करताला । आजानु हनु पत चुंबत भाला ॥
रसिक असिक रस किए रसिया रे । अधराधर निजधर अधिकारे ॥
दोई प्रनई प्रनय मैं रँगे । दुहु दुआराधर भए प्रतिसँगै ॥
बाहु सिखर रत परिगत कंठन । अनुरागिन के रवनै कंकन ॥
धरे अवर जब किए रस पाना । प्रिये अधर प्रिय दिए रद दाना ॥
आह कहत कहि हमसों लगाइ । लाह धरत बधु नयन निपताइ ॥
कह रहि लै गवनु नौ भवनु, कहे हरिएँ पिय जाहु ।
हाँ हाँ कही भइ भाव प्रवनु, बधु प्रीतम भर बाहु ॥
रविवार, १२ जनवरी, २०१४
पिय रत हहरत हीअ हिलगाए । तनि बिलम हरिअ बाहु बिलगाए ।।
बधु बूझि जे भली समुझाई । ऐसी मति तव कहु को दाई ॥
प्रियतम में आसक्त कपकपाती हृदय से लगी रही । फिर कुछ समय पश्चात धरे से भुजाएं वियोजित कर वधु ने पूछा यह भली समझ ऐसी सदबुद्धि कहो तो तुम्हें किसने दी ॥
जे परम सुखद पद मैं लहेउँ । तात मात पहि जब गत कहेउँ ॥
कहत सोइ रे बाल सियाने । जो तव मति हमरे मत माने ॥
मात-पिता के पास जाकर जब मैने ऐसा कहा कि यह परम सुखद पद मैने प्राप्त किया है। तब उन्होंने बोला, हमारे सयाने बालक जो तेरी बुद्धि हमारी कही माने ॥
काहु न तज घर भाटक लाहू । धरे अँट गँठ एतिक हठ काहू ॥
एक बारि त को दे फाँसे । तिन खल बहु बल सन निस्कासै ॥
घर के भाटक के लोभ का त्याग क्यों नहीं कर देते । इतना हठ गाँठ क्यों बांधे हुवे हो ॥ एक बार तो उस घर को देकर फंस गए थे । उस दुष्ट को कितना बल लगा कर निकाला था ॥
जो निबास तुम्ह बास बसाए । बाल बधु तहँ बहुसहि दुःख पाएँ ॥
अजहुँ त भइ सुठि काम कमाई । नवल भवन काहु न लै जाईं ॥
जिस निवास में तुमने वसति वासित की है । वहाँ बाल-बच्चे बहुंत दुःख पा रहे हैं ॥ अब तो काम -कमाई भली हो गई । बहु को नए भवन में क्यों नहीं ले जाते ।।
ए श्रुति रंजन बचन कबहु, हमसों को ना केहिं ।
कही पिय तासु श्रवनै नहि, जोन बधिरन अहेहिं ॥
कानों में रस घोलने वाले ऐसे सुमधुर वचन कभी हमसे तो किसी ने नहीं कहा । जब वधु ने ऐसा बोला तो प्रियतम ने उत्तर दिया कहा था किन्तु जो बहरे होते हैं, उन्हें सुनाई नहीं देता ॥
सोमवार, १३ जनवरी, २ ० १ ४
तात एक जोतिष बिद बुलाईं । पैठ मुहूरत पूछ बुझाईं ॥
तिनके कहि बर नखत सँजोगे । एक सुभ दिन धर लागै जोगे ॥
वर के पिता ने एक ज्योतिर्विद को बुला भेजा । एवं गृह प्रवेश का मुहूर्त पूछा । उनके कहे अनुसार उत्तम नक्षत्र के संयोग में एक शुभ दिवस निर्धारित कर उसकी प्रतीक्षा करने लगे ॥
भयउ भले भृतिका पद ताईं । थापन रहि जँह बास बसाईं ॥
इत प्रियतम गहिं कारज भारे । उत बहियर घर साज सँभारे ॥
सेवा पद के निमित्त एक भली बात हुई । पद स्थापना स्थली वहीँ रही जहां की निवास स्थान था ॥ इधर प्रियतम ने पद भार ग्रहण किया । उधर वधु गृहोपकरण सभालने में लग गई ॥
भोजन भवन भाँड भंडारे । कहुँ चुग चुग अन कनी घारे ॥
कोन कोन कन कनख निहारे । जउँ नउँ केत सबहि कर धारे ॥
पाकशाला के के सभी भोजन पात्र, कहीं चुग बीन कर वधु अन्न कणिकाएं संजो रही थी ॥ कोने कोने के कण कनखियों से निरख रहे थे । कह रहे थे या तो जाओ मत या हम भी नव भवन ले चाओ इस प्रकार सभी ने वधु का हाथ पकड़ लिया ॥
सभा सदन कहुँ सयन सँजोई । तासु संग बंधन पथ जोईं ॥
उत बनबारइ मुख कुमलाई । सन जावन तिन मन लोभाईं ॥
कहीं सभा सदन की कहीं सयन की सामग्री । सब उनके साथ बांधे जाने हेतु प्रतीक्षारत हो गए ॥ उधर वनवाटिका का मुख कुम्हला गया ॥ उसका ह्रदय भी साथ चलने को लालान्वित हो उठा ॥
पौध पुहुप धानी घर घारी । आएं पानि धर सख ससुरारी ॥
हर्ष सोइ हिर हिर हरियारे । फूर बहुरी बनाउ न हारे ॥
पौधे वे कुसुम कलियाँ जिन्होंने पौधे-धानी को घर बनाया हुवा था एवं जो सखि स्वरुप में ससुराल से ही वधु के साथ आई । वे हर्षित हो कर हिल्लोल कराती हरियान्वित हो उठी । वे प्रफुलित हो बार बार श्रृंगार करते न हारती ॥
एक तौ घर के जोगना, दूजन गवन समाज ।
अजहुँ गेह गेहनी के, बाढ़े अतिसय काज ॥
एक तो घर कि देखभाल, दूजे जाने की तैयारी । अब तो गृह में गृहणी का कार्य बहुंत ही बढ़ गया था ॥
मंगलवार, १४ जनवरी, २ ० १ ४
एक कर्मी अरु कार घनेरे । कहुँ पालउ कहुँ बसन सकेरे ।
नउ गह गवन उमगि दिन दूना । कबहु पुरइन मानि मन ऊना ॥
धरे करम कभु करम बियोगे । तहहि एतिक सुख सम्पद जोगे ॥
कूट कपट क्कभु किए चोरी । खेद प्रगट करि बधु कर जोरी ॥
जहँ जनमे दुहु थोटी ठोटा । रहत परिगत जिन्ह परकोटा ॥
होहि सुख दुःख त कोई न कोई । जे जीवन नित चरिआ होई ॥
रयन जिन सयन लगाइ जी ते । पिया सन लगन लगाइ बीते ॥
कबहु लगावन कबहु लगाई । कबहु उरझत बहु लरियाई ॥
जो रतियन अलगावत गवनही । सो बिरहन कास न्यारी रही ।
बहुरत पिय हिलगावत गही । सो हिलगन कास पियारी रही ॥
बेस जिन सदन सलोने सपन के कण कर सम्पुट किए ।
पलक पट नयन के कल कल्पन धर हार पिरोई दिए ॥
हार मनोहर सोइ धरी दरसत कस नियारी रही ।
बालम के कर भाल घरी हरस कस मनियारी रही ॥
कानन कहि जो बात, हरुवर हरषात हँसात ।
बहियाँ गहि निसि प्रात, सो केतक सुहाइ रही ॥
भुज दल कण्ठन घार, अधरोपर अधरन धार ।
देइ परस उपहार, सो केतक सुहाइ रही ॥
बुधवार, १५ जनवरी, २० १ ४
छाँड़ चले जब भ्राता के कर । जनक जनि घर जब भया नैहर ॥
कर साथै द्रव दाने भूरी । तिन सोन केतक सुरता जूरी ॥
जथा जोग बन जोउ नियंगे । बसन अभूषन दसन पलंगे ॥
दे गुन दो जौ सीख सीखाए । गह असीस बर देहरी आए ॥
जहाँ जन्माए पहिलौठा । बा मुकुन सुठि सोहनु ठोटा ॥
एक रयनि सुत रही गए सूते । सोइ सुपुत मुख सुरत बहूँते ॥
मोहनि मूर्ति चित मह समाए। ससुराइ भवान छाँड़ चले आए ॥
जेइ सदन जब बसति बसाई । आए तिन लेख कहि किमि जाई ॥
होत बियाहु जोइ पिया, मौले एक खन भूमि ।
एक बालक गर्भा धरे, जो जनि तेहि पहूमि ॥
गेहस के सब कार उसारे । रीति मतिहि बधु बैठहि ठारे ॥
भोर होती पथ पर रवि के चरण पड़ते ही, प्रियतम कार्य पर चले जाते ॥ गृह के सब कार्य निपटा कर रिक्त मष्तिस्क लिए वधु ठाली बैठे रहती ॥
एहि बिच चित उपजी जिग्यासा । दोष चरन तिन देइ बियासा ॥
बैसि बैसि मन ही मन बोले । चलौ तनिक निज बुद्धी तौले ॥
इसी बीच चित्त में एक जिज्ञासा उपजी । दूषित आचरण ने उस जिज्ञासा को विस्तार दिया । वह बैठे बैठे मन-ही-मन कहने लगी । चलो थोड़ी अपनी बुद्धि की जांच कर लें कि किसमें कितनी है ॥
उलट पुलट सब झोरन देखे । रहहि उहि ब्यबहारी लेखे ॥
देखि नयन एक बाँधि पिटारी । कुंजी सहित अंक के तारी ॥
रखे गए सारे झोलों को उलट-पुलट कर देखा । उसमें वही व्यवहारी बही पत्र थे ॥ फिर एक बंधी पिटारी का निरिक्षण किया । उसमें कुंजी के ताले के सहित अंक का ताला था ॥
बिन कुंजी दवारि पट ढारे । सँजोजित अंक देइ उहारे ॥
चारि पल कुल छह घरी लागे । हेरन फेरन कौतुक जागे ॥
पिटारी की द्वारी में कुंजी लगी नहीं थी केवल अंक के ताले से ही वह आबद्ध थी । वधु ने उसे चार पल एवं कुछ ही घडी अर्थात कुछ ही समय में खोल दिया । फिर हेर-फेर का कौतुक जागा ॥
लेख लिखि लेखा पोथी, पतर्क माल पिरोए ।
तिन्ह सोंह धरे रहि कछु, धन संचइ पत्र जोए ॥
निरीक्षणोंपरांत उसमें लेखा-बही पत्रों की पंक्तियों के सह कुछ संचई धन-पत्र रखे हुवे थे ॥
बृहस्पतिवार, ० २ जनवरी, २ ० १ ४
कछुक दिवस लह अवधि पूरिते । सन्चै पतर लख तिनी परिनिते ॥
जोख सकल बधु तिन्ह निकारी । अरु जस के तस बाँधि पिटारी ॥
अवधि पूर्ण होते ही कुछ ही दिवस में वे संचई पत्र रुपय तीन लाख में परिवर्तित होने वाले थे ॥ यह देख कर वधु ने उन पत्रों को निकाल लिया । शेष सभी सामग्री यत्रवत उस पिटारी में बाँध दी ॥
धनाहरन तिथि आगम पाही । पत्र प्रतिभू परिजन घर आही ॥
उलट-पुलट किए सकल सँजोई । हेरि पतर पर मिलै न कोई ॥
धनाहरण की तिथि निकट आ गई थी । पत्र के प्रतिभू वे परिजन फिर घर आए । और सारे बही-पत्रों को उलटा-पलटा । परिजन उन संचई पत्रों को ढूंड रहे थे किन्तु वह मिले नहीं, होते तो मिलते ॥
सब जानि जे जग रीति होई । किरिया पथ प्रति किरिया जोई ॥
बिहान पिय सन पूछ बुझाईं । जान न कहतै खोटि सुनाईं ॥
जग की इस रीती को सभी जानते है है कि प्रत्येक क्रिया, प्रतिक्रया की प्रतीक्षा करती है ॥ अंत में उन्होंने प्रियतम से पूछ-ताछ की । प्रियतम ने जब उस सम्बन्ध में अनभिज्ञता प्रकट की तब वे परिजन खरी -खोटी सुनाने लगे ॥
सान सुधित सर बिष मह बोरै । लान बचन मुख साधत छोरें ॥
जब पिय मान हरन उतराईं । तब मुखरित बधु कहि पलटाई ॥
फिर वे विष में बोड़े, सान में सँवारे हुवे बाण-वचन मुख में लाते और सधा-साध कर छोडते ॥ । और जब प्रियतम का सन्मान हरण करने लगे तब वधु का मुंह खुल गया वह पलट के बोली ॥
लेख-बही धरावन के, बस हम अनुमति दाए ।
धन सुबरन के कोउ पत, कहु कस धरे ढकाए ॥
हमने आपको केवल लेखा-बही रखवाने की अनुमति दी थी । धन रुपया पैसा सोना-चांदी हीरे मोती या कोई संचई-पत्र रखने की नहीं । रखा और वो भी ढक के ॥
शुक्रवार, ०३ जनवरी, २ ० १ ४
धरैं कूट का आजुध गोरे । बोलइ बधु किए बचन कठोरे ॥
जो फूटन पर आवत कहहू । हमरे गोरे चौरन लहहू ॥
फिर वधु ने वचन कठोर करते हुवे कहा : -- क्या कोई छल करके किसी के यहाँ आयुध और अग्नि गोले रख दे । जो वह फूट जाए तो आकर यह तो नहीं पूछे कि कोई हताहत तो नहीं हुवा , उलटे यह पूछे कि हमारे अग्नि गोले कहाँ है ॥
होहि धरोहर तब को धरि धृति । जब धारक के लेइ स्वीकृति ॥
जो हमरे कर कहूँ गवाईं । तिन्ह धरोहर के हम दाईं ॥
"कोई धरी हुई धृति तभी धरोहर का स्वरुप लेती है,जब धारक उसे धारण करने की स्वीकृति दे "॥ फिर वह हमारे हाथ से कहीं खो जाती है अथवा हम उसका उपयोग कर लेते है तब उस धरोहर पर दायित्व निरूपित होता है ॥
नैन जुरावत पुनि पिय बोरे । तिन पतरन का तुम चोरे ॥
सोचि बधु रे जो कहि हम लाहु । साहु चोर भै चौर भै साहु ॥
फिर प्रियतम ने वधु से नयन मिला कर कहा ''क्या तुमने उन पत्रों को चोरी किया है ''॥ वधु सोचने लगी यदि मैने यह कह दिया की हाँ चोरी की है तब चोर साहूकार सिद्ध हो जाएगा और साहूकार चोर हो जाएगा ॥
बुद्धि अँधरे गाँठि के पूरे । बहिनि तरु बेलरी बिनु मूरे ॥
परिजन धन सन भए मतवारे । पाँवर कस करत ब्यवहारे ॥
बुद्धि के अंधे गाँठ के पूरे । बहन रूपी वृक्ष पर बिना मूल के फुलतेफलती बेलरी कहीं के,ये स्वजन तो धन के मद में मतवारे हुवे जा रहे हैं । इनका व्यवहार मूर्खता पूर्ण परिलक्षित हो रहा है ॥
दोष दुहू के आहि की नाहि । रच्छक पहि गत बाँधि ले जाहिं ॥
जे मतिहिन लिए देइ छुटाहीं । पर दीनन के कवन रखाही ॥
दोनों का दोष है कि नहीं है यह तो ईश्वर ही जाने । यदि ये राजा के रक्षकों के पास चले गए तो वे दोनों को बाँध के ले जाएंगे । ये मतिहीन ले-दे के छूट जाएंगे । किन्तु दरिद्र को कौन बचाएगा ॥
सह माया लोभन सन राँराँचे । एक कोती दिखावत नाचे ॥
साथ में एक कोने में माया भी लोभ के रंग में अनुरक्त हो कर अपना मोहक नृत्य दिखाने लगी ॥
बिपल मत मान सरोबर, तीर तरंग लहाहि ।
अस सौ मत गतागत पर, बधु धीरहि कहि नाहि ॥
विपल में ही मस्तिष्क के मान सरोवरके तट पर तरंगे उठने लगी । ऐसे सौ प्रकार के विचार आने-जाने के पश्चात वधु ने फिर धीरे से कहा ''नहीं''
शनिवार, ०४ जनवरी, २ ० १ ४
बिभावरी मुख तरत बिभावा । खेद जनक भावहि उपजावा ॥
नयन भवन के पलक अलारे । अस कह पर पिय चरन बुहारे ॥
पीले पड़े मुखड़े पर भाव के तीन अंगो एक भावोद्दीप्त अवस्था ने खेद को जन्म देने वाले भाव को प्रकट किया । नयन रूपी भवन में पलकों की द्वारी ने ऐसा कहते हुवे प्रियतम के चरणों को बुहारने लगे ॥
नवल नवल के भए धनमानी । दुर्बादित अतिसय अभिमानी ॥
अपनपो ऐँठ दूर दुराई । हवन करत बर हाथ जराईं ॥
परिजन, नए नए धनवान हुवे थे ।अतिशय अभिमान से युक्त होकर वे दुर्वादन करते अपने आप में ऐंठे दूर हो गए । प्रियतम ने तो भलाई की किन्तु मिली बुराई ॥
कूट कुटिल कुबुद्धि कस जागी । बेनु बिपिन जागत जस आगी ॥
बधु नए स्वजन मेल बिगारी । तिन कारन कह लघुमति नारी ॥
छल कपट की बुद्धि ऐसे जागृत हुई जैसे करील के विपिन में अग्नि जागृत होती है । वधु ने परिजनों से बिगाड़ कर ली । इसी कारण कहते हैं कि स्त्रियों की बुद्धि अल्प होती है॥
पलक पहर भए पहरअहि रइना । भयो दिनमल संचत दिन दिना ।
जोगबनी दिनमल भए पाखे । पाख पाख जुग बत्सर लाखे ॥
क्षण पहरों में पहर रात्रि में रात्रि दिवस में परिवर्तित होती गई, दिवस संचयित होकर मास में परिवर्तित हो गए | मास -मास का योग पक्ष में पक्ष-पक्ष का योग वर्ष में परिणित हो गया |
दोई बत्सल पूर्ण कारे । भयवन तीजन पथ पद धारे ॥
तिन्ह पत्र बधु धरे रखाई । कबहु पिया जब पूछ बुझाई ॥
दो वर्ष जाते देर न लगी और समय तीसरे वर्ष में प्रवेश कर गया । वे पत्र वधु के पास ही रखे रहे । कभी प्रियतम तत्संबंध में पड़ताल करते : --
मुख पटल करत गम्भीर, कहु का तुम तिन लाहि ।
कबहु हाँ कबहु नाहि कह, कभु इत उत टरकाहि ॥
और मुख के गगन पटल पर मेघ के सदृश्य गम्भीरता ओढे कहते कहो उन पत्रों को क्या तुमने लिया था । तब वधु कभी हाँ कहती कभी ना कहती कभी इधर उधर की कह कर बात टाल देती ॥
रवि/सोम , ०५/०६ जनवरी, २ ० १ ४
पुनि बधु कर धर भाल बिचारी । अजहुँ न नुकूल चरत बयारी ॥
जोग काल लागैं जब आहीं । तब प्रियतम मन साँच बताहीं ॥
फिर वहु सर पर हाथ धरे विचार करने लगी । अभी वायु का प्रवाह अनुकूल नहीं है । जब लगेगा कि देश काल एवं परिस्थितियां उत्तम होगी तब प्रियतम से सत्य कह दूँगी ( कदाचित यह वधु की एक त्रुटि थी ) ॥
असकर प्रस्तुत प्रकरन संगे । घटे जुत पुरब कथित प्रसंगे ॥
बसहि बसति एक पाहि निबासे । जँह कछुकन ब्ययसनी बासे ॥
इस प्रकार प्रस्तुत प्रकरण के सह पूर्वोक्त घटनाएं भी घटित होती रहीं ॥ जहां वरवधू का निवास था वहाँ निकट ही एक वसति में कुछ व्यवसनी वास करते थे ॥
बसि सासकी भवन एहि मज्झन । चारि बारिहि कुल चौरी करन ॥
चोर चकार पद घर चिन्हे । चोरित चोरितक गवनु लिन्हे ॥
इसी मध्य शासकीय भवन में निवास करते हुवे घर में कुल चार बारी चोरी हो गई ॥ चोर-उचक्कों के चरणों ने घर को चिन्हित किया हुवा था । वे छोटे मोटे समान चोरी कर ले जाते ॥
को कारन को काज बियावा । गवनै बरबधु बाहिर गाँवा ॥
साँझ ढरे अरु भए जब राता । चोर उचक तब मारै हाथा ॥
किसी कारणवश अथवा औचक कोई कार्य उत्पन्न हो जाने के कारण वरवधू को बाहिर गाँव-नगर में जाना पड़ता । जब सांझ ढाती एवं रात्रि होती तब चोर-उचक्के हाथ की कुशलता दिखाते ॥
कोषगार ढरि लौह पिटारी । तिन चौरन लागहि एक बारी ॥ रजत मुद्रा कुल दसक दहाई । तीनि सहस रति सोन गढ़ाई ॥
एक लोहे कि पिटारी में एक कोषागार था । एक बार तो चोर उसमें ही लग गए ॥ जिसमें कुल एक शतक रजत मुद्राएँ थीं तीन सहस्त्र रत्ती ( आठ रत्ती = एक माशा, बारह माशा= एक तोला )कुल स्वर्ण के आभूषण थे ॥
हिरनइ को गहन रजत के । कछुकन पतर अचर संपत के ॥
रहहि न कोइ दरस धन रासी । एतिक रहहि धन जोग बियासी ॥
आभूषण उज्जवल एवं हिरण्मयी थे । कुछ अचल सम्पति के लेखा-पत्र थे । कोई साक्षात धन राशि नहीं थी कारण कि सभी अचल सम्पति में संजोई गई थी ॥
बिहाउ परन जुगल जिन्ह, राखे जोग जुहार ।
नैहर ससुराइ दुहु जुट, देइ दान उपहार ॥
विवाहोपरांत वधूवर ने जिन्हें संजो कर रखा हुवा था जो पीहर एवं ससुराल दोनों और का दिया दानोपहार था ॥
भोर भइ कि कहुँ जागरन, उचाके गयउ भाग ।
लागसि अस ते कारन, बाँचै सबहि सुभाग ॥
वे उचक्के भाग गए थे ,कदाचित भोर हो गई अथवा कहीं जाग हो गई लगा कि इसी कारण सौभाग्य से सभी कुछ बच गया था ॥
ठोटे रुज कारन उपचारी । कभु अवसर को मंगलकारी ॥
कहुँ जावन को मरन-जियाई । गहन रखन तब चिंतन खाई ॥
पुत्र के रोगोपचार के कारणवश अथवा कभी किसी शुभ किसी मांगलिक अवसर पर या किसी के मरने-जीने पर जब फिर कहीं जाने की आवश्यकता हुई तब उन आभूषणों के रक्षन की चिंता सताने लगी ॥
पुनि पिय पद जनु चकरी घारे । अधिकोष के चिक्करइँ कारे ॥
कोषागार को कहहुँ न पाए । बहुरत भोंदू भवन भितराए ॥
फिर प्रियतम के पैरों में जैसे कोई चकरी पहन लिए हों । वे अधिकोष की शाखाओं का चक्कर लगाने लगे ॥ वाहनं उन्हें कहीं भी कोषागार नहीं मिला और बुधु बनकर घर लौट आए ॥
कही मन मैं बधु अब का कारौं । आपनि धरोहर को पहिं धारौं ॥
पिय कहि मात पिता के पाहीं । बधु मन मैं कहि नाही नाही ॥
वधु मन में कहने लगी अब क्या करूँ ? अपनी धरोहर को कहाँ धरूँ ? ॥ प्रियतम कहने लगे मेरे माता-पिता के पास ? वधु फिर मन में कहने लगी नहीं नहीं ॥
संचई पत्र के अग्नि गोरे । धरे हम अस भेद कस खोरें ॥
बहुरि जुगावत एक पेटारी । भ्रात भेद दे धरन गुहारी ॥
संचय पत्र के जो अग्नि गोले हैं । वह मेरे पास हैं यह भेद उन्हें कैसे दूँ ? फिर उसने एक पिटारी में सारा धन एकत्र किया । और अपने भ्राता को उन संचई पत्रों का भेद देते हुवे उसे धृति स्वरुप धारण करने की गुहार लगाई ॥
अपने साज संजोवनी लवनै । भ्रात कहत धुत कहुँ अरु गवनै ॥
बहु अनुग्रह पर बहु कर जोरे । तब भ्राता धृति धरुवन होरे ॥
वे धुत-धुत करते बोले ये अपनी साज -सामग्री बटोरे और कोई दुसरा घर देखो ॥ फिर अत्यंत ही आग्रह करने एवं वारंवार कर जोड़ने पर फिर भ्राता ने उस धृति को धरोहर स्वरुप ग्रहण कर लिया ॥
असकर बधुबर बहिर्गत, आगत चरन बहोर ।
धरे धरौहर ले गवनै, मांग करे निज ठौर ॥
ऐसा करते जब वधु-वर कहीं बहिर्गमन करते और वहाँ से वापस लौटते । तब वे अपनी धरोहर मांगकर अपने घर ले जाते ॥
मंगलवार, ०७ जनवरी, २०१४
जब कथित बातिन्ह मैं भूरे । पय योजनावधि भयउ पूरे ॥
जिन्ह करनानुबन्ध धराईं । अवधि पूरतै करम बिहाईं ॥
जब वर-वधू कही गई उपरोक्त बातों में निमग्न थे कि तभी वर की जल योजना की अवधि पूर्ण होकर वह समाप्त हो गई । जिस का कार्य करने हेतु वर ने अनुबंध किया था । अवधि पूर्ण होते ही अनुबंध भी पूर्ण हो गया और वर का सेवकाई भी जाती रही ॥
तहँ लख जो तिनु चारिन आही । भ्रष्ट चरन चर जोगित लाहीं ॥
जुगे धन गेह गहस चराईं । सेष आपनु भवन भुगताईं ॥
वहाँ ( लगभग अट्टारह बीस माह में ) भ्रष्टाचार करते हुवे वर ने तीन-चार लाख की धन राशि लाभार्जित की । संगृहीत धन से गृह-गृहस्थी संचालित की एवं शेष को संपत्ति के अंश का भुगतान किया ॥
प्रान नाथ पुनि बिनु श्रम कामा । बैठे ठारे सिरु धर धामा ॥
सौचए अब कँह कर बिस्तारें । जँह गवनै तँह ठोकर मारै ॥
वधू के प्राणनाथ फिर से कर्महीन हो गए सर थाम कर घर में बैठ गए ॥ सोचने लगे अब कहाँ हाथ पसारें । जहां जाते हैं वहीँ ठोकरेँ मिलती हैं ॥
फेर सकेरे सकल उपाधी । भ्रष्ट चरन के एक अपराधी ॥
बहुरत मह बिद्यालय सोईं । अंस काल अध्यापक होईं ।।
फिर सारे उपद्रवों को एकत्र किये भ्रष्ट आचरण का एक अपराधी पुनश्च जहां पहले था उसी महाविद्यालय में अंश कालीन अध्यापक के रूप में नियुक्त हुवा॥
भए आपनु सहि भू भवनु, अधम अधिक अपनोइ ।
कहि पिय अब मन चिंताए, पेट लपेटन होइ ॥
प्रियतम कहने लगे : -- भूमिखंड, भवन, एवं आपण के हम आधे से अधिक के स्वामी हो गए हैं, अब भोजन-वस्त्र की ही चिंता रह गई॥
बुधवार, ०८ जनवरी, २०१३
बन उपबनी पलास बिकासे । फुरत फरत उत भै षट मासे ॥
एक दिन प्रियतम धावत आईं । जे सुखकर संदेस सुनाईं ॥
वन-उपवन में पलास के पुष्प विकसित होकर फलने फूलने लगे आधार छह: मास व्यतीत हो गए ॥ एक दिन प्रियतम लगभग दौड़ते हुवे से आए । और यह सुखकारी सन्देश सुनाया ॥
पट ज्ञापित किए कछुक पद राए । मग जोजन अभियंता सहाए ।।
अहहिं उपजंती पदक बहूले । मम अर्हता भए अनुकूले ॥
राजा ने मार्ग योजना हेतु सहायक अभ्यंता के कुछ पदों को ज्ञापित किया है । जिसमें बहुंत से उपभियन्ता के भी पद हैं मेरी अर्हता भी उन पदों के अनुकूल है ॥
भाव प्रबन पिय बदन दरसाए । तिनके ब्यंजन बरनि न जाए ॥
कहि बधु पिय अरु बिलम न कारौ । कारत जाचन पद आहारौ ॥
प्रियतम के वदन में जो भावुकता प्रदर्शित हुई उसकी व्यंजना वर्णातित हैं ॥ फिर वधु ने हे मेरे प्रियतम अब और विलम्ब न करो । राजा के सम्मुख याचना करते हुवे उक्त पद को ग्रहण करो ॥
बिबरन पिय जब देइ धिआने । तिनके पन पिय बे न अधाने ॥
निर्दिसित रही जो बे सीवा । बैकर पिय तनि रहहिं अधीवा ॥
जब प्रियतम ने ज्ञापित पदों के विवरण को ध्यान से देखा । तो वे नियुक्ति नियमों के प्रतिज्ञा की पूर्णता को प्राप्त नहीं हो रहे थे ॥ जो आयु सीमा निर्दिष्ट की गई थी । वहाँ आयु वर्धन करते हुवे प्रियतम किंचित अधिकता को प्राप्त थे ॥
जो आस मुख लाहि निरासा माहि छिनु मैं रूपांतरी ।
जनु मुख बन लाहू भवन उछाहू तापरचिरु द्युति गिरी ॥
सह कारज करमा पद अति परमा रहहि बहु आकर्षनै ।
बिनु काम कमाई, सों जिउताईं हस्त सिद्धि कहि न बने ॥
प्रियतम के श्री मुख पर की आशाओं की कांति वह निराशा की श्यामलता में परिवर्तित हो गई । यह निराशा ऐसी थी मानो मुख लालसाओं का उपवन है जिसमें उत्साह का एक भवन है और उसपर बिजली आ गिरे हो ॥ काम-काज के सह पद की शोभा अति आकर्षक थी । जो बिना काम-कमाई के हो उस जीवक के सम्मुख हस्त सिद्धि, वर्णनातीत थी ॥
हरिएँ कहत पिय होहि पद जदपि धार अनुबंध ।
तिनके हुँत नियमित सोंह, जिनके को न प्रबंध ॥
प्रियतम ने धीरे से कहा : -- यद्यपि यह अनुबंधारित पद है । किन्तु जिसका कोई प्रबंध न हो, उस हेतु यह नियमित के ही सदृश्य है ॥
गुरूवार, ० ९ जनवरी, २०१४
एक त नहि कहि पद सेउकाई । भाग मिलै सो भाग बिहाई ॥
देखि बधु पिय चिंतन घेरे । भै चंचल चित चोर चितेरे ॥
एक तो कहीं सेवोपजीविका के पद रिक्त नहीं हैं । भाग्य वश जो मिला वह भी भागा जा आरहा है ॥ जब वधु ने अपने प्राणाधार को चिंता से घिरे देखा । तब उसके चित का चितेरा चोर चंचल हो गया ॥
मलिनइ तव मुख सोह न पावै । कही चलौ को जुगत लगावैं ॥
श्रुत बधु बत पिय दुइ पल होरे । पूछे पुनि जोरे का तोरें ॥
वह कहने लगी तुम्हारे श्री मुख पर उदासी अच्छी नहीं लगती । चलो कुछ उपाय करत हैं । वधु की बात सुनकर प्रियतम एक प् के लिए ठहरे । फिर पूछे कहो तो क्या जोड़ें और क्या तोड़ें ॥
कही बधु जो पद तव मन चाही । हेर फेर बिनु दूर दुराही ॥
सिद्ध बयस पत्र काचि लिखाई । प्रतिलेखित धरु बै जुवताई ॥
वधु कहने लगी तुम्हारा चित्त जिस पद को प्राप्त करने को आकांक्षित है, वह बिना उअत-पुलट के तो पकड़ नहीं आएगा, और दूर भाग जाएगा ॥ जो पत्र आयु को प्रमाणित कर रहा है उस पत्र की लिखाई देखो, कच्ची है । इसे प्रतिलिखित कर थोड़े युवा हो जाओ ॥
देह बसन घर नित कन चाही । जे अवसरु पुनि आहि कि नाहीं ॥
रूरत पथ पथ पद पत पानी । डरपत करि तनि आना कानी ॥
यह देह तो नित्य प्रति ही वस्त्र और अन्न मांगेगी । यह अवसर जाने फिर प्राप्त होगा कि नहीं ॥ तुम्हारे पद की प्रतिष्ठा पथ मारी मारी फिर रही है । प्रियतम भयभीत हो गए, किंचित टाल-मटोल कर : --
हेर फेर पिय करन पुनि कठिनइ साज समाजि ।
दरसै जब निज जोगता, अस कृत करनन लाजि ॥
फिर किसी भांति प्रियतम हेर-फेर करने हेतु तैयार हो गए । किन्तु जब उन्होंने अपनी योग्यता देखी, तब ऐसे कुकृत्य करते हुवे लज्जित हो उठे ॥ क्योंकि सुकृत्य कभी निष्फल नहीं जाते, कुकृत्यों से अवसरों का संयोग समाप्त होता जाता है ॥
शुक्रवार,१० जनवरी, २ ० १ ४
पद निहोरत सोइ अस आसहिं । आस पीहु जस पयस प्यासहि ॥
लगे जोग पथ अस परिनामा । बिनु कार बनिहार को कामा ॥
पद हेतु आवेदन कर वह इस प्रकार से आशान्वित हो गए । जैसे प्यासे पपीहा पयस के लिए आशान्वित हो ॥
चयन-परिणाम हेतु वह ऐसे प्रतीक्षित हुवे जैसे बिना कार्य के कोई बनिहार, कार्य प्राप्त करने की प्रतीक्षा कर रहा हो ॥
गत रौधानी पिय एक बारे । लोग जोग फर पूछत हारे ॥
किए चयनित जब नाम उजागर । भए मुदित तब आपनु दरसकर ॥
एक अवसर पर राजधानी पहुँच गए । वहाँ लोगों से योगफल पूछ पूछ कर श्रमित हो गए ॥ ( कुछ समय पश्चात) जब प्रशासन ने चयनित नाम प्रकाशित किए । वहाँ अपना नाम देखकर प्रियतम अतयंत ही हर्ष से भर गए ॥
उपजंती के किए अभिलाखे । बनए सहायक अस पत भाखै ॥
मिलै पदक जो सपन न अहाईं । गत प्रभु भवन कहत सिरु नाईं ॥
अभिलाषा उपयंत्री की किए थे प्रकाशित पत्र सहायक दर्शा था ॥ प्रियतम ईश्वर के द्वार पर गए एवं 'जिस पद की स्वप्न में भी आस नहीं थी वह आपकी कृपा से प्राप्त हुवा' ऐसा कहते हुवे ईश्वर का धन्यवाद किया ॥
पदक चयन जब कही सहुँ संगिनि । उलट बचन अस कहि मन रंजनि ॥
तव अनंदु अस जस जुबताई । कहूँ गवाईं बहुरत पाईं ॥
पद के चयन की बात जब संगिनी के सम्मुख कही । उस मन रंजनि ने उलटे वचन कहे ॥ वह खाने लगी तुम्हारा हर्ष ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने यौवन कहीं गँवा कर उसे पुन: प्राप्त कर लिया हो ॥
उमग चित बहु प्रनय सहित, सुहसित नयन जुराए ।
खर कर करधनी धर बर, बधु भुजांतर लाए ॥
प्रीतम उल्लास भरे चित्त से प्रणय सहित सुन्दर हंसी हंसते हुवे नयन चार किये ॥
शनिवार, ११ जनवरी, २ ० १ ४
लख अपलक लक अलक सँवारे । लवन मगन किए करन कगारे ॥
कपोलारून निज अधरं लैने । भए प्रनिसित पिय प्रनइत बैने ॥
बहुरि बदन कन धर करताला । आजानु हनु पत चुंबत भाला ॥
रसिक असिक रस किए रसिया रे । अधराधर निजधर अधिकारे ॥
दोई प्रनई प्रनय मैं रँगे । दुहु दुआराधर भए प्रतिसँगै ॥
बाहु सिखर रत परिगत कंठन । अनुरागिन के रवनै कंकन ॥
धरे अवर जब किए रस पाना । प्रिये अधर प्रिय दिए रद दाना ॥
आह कहत कहि हमसों लगाइ । लाह धरत बधु नयन निपताइ ॥
कह रहि लै गवनु नौ भवनु, कहे हरिएँ पिय जाहु ।
हाँ हाँ कही भइ भाव प्रवनु, बधु प्रीतम भर बाहु ॥
रविवार, १२ जनवरी, २०१४
पिय रत हहरत हीअ हिलगाए । तनि बिलम हरिअ बाहु बिलगाए ।।
बधु बूझि जे भली समुझाई । ऐसी मति तव कहु को दाई ॥
प्रियतम में आसक्त कपकपाती हृदय से लगी रही । फिर कुछ समय पश्चात धरे से भुजाएं वियोजित कर वधु ने पूछा यह भली समझ ऐसी सदबुद्धि कहो तो तुम्हें किसने दी ॥
जे परम सुखद पद मैं लहेउँ । तात मात पहि जब गत कहेउँ ॥
कहत सोइ रे बाल सियाने । जो तव मति हमरे मत माने ॥
मात-पिता के पास जाकर जब मैने ऐसा कहा कि यह परम सुखद पद मैने प्राप्त किया है। तब उन्होंने बोला, हमारे सयाने बालक जो तेरी बुद्धि हमारी कही माने ॥
काहु न तज घर भाटक लाहू । धरे अँट गँठ एतिक हठ काहू ॥
एक बारि त को दे फाँसे । तिन खल बहु बल सन निस्कासै ॥
घर के भाटक के लोभ का त्याग क्यों नहीं कर देते । इतना हठ गाँठ क्यों बांधे हुवे हो ॥ एक बार तो उस घर को देकर फंस गए थे । उस दुष्ट को कितना बल लगा कर निकाला था ॥
जो निबास तुम्ह बास बसाए । बाल बधु तहँ बहुसहि दुःख पाएँ ॥
अजहुँ त भइ सुठि काम कमाई । नवल भवन काहु न लै जाईं ॥
जिस निवास में तुमने वसति वासित की है । वहाँ बाल-बच्चे बहुंत दुःख पा रहे हैं ॥ अब तो काम -कमाई भली हो गई । बहु को नए भवन में क्यों नहीं ले जाते ।।
ए श्रुति रंजन बचन कबहु, हमसों को ना केहिं ।
कही पिय तासु श्रवनै नहि, जोन बधिरन अहेहिं ॥
कानों में रस घोलने वाले ऐसे सुमधुर वचन कभी हमसे तो किसी ने नहीं कहा । जब वधु ने ऐसा बोला तो प्रियतम ने उत्तर दिया कहा था किन्तु जो बहरे होते हैं, उन्हें सुनाई नहीं देता ॥
सोमवार, १३ जनवरी, २ ० १ ४
तात एक जोतिष बिद बुलाईं । पैठ मुहूरत पूछ बुझाईं ॥
तिनके कहि बर नखत सँजोगे । एक सुभ दिन धर लागै जोगे ॥
वर के पिता ने एक ज्योतिर्विद को बुला भेजा । एवं गृह प्रवेश का मुहूर्त पूछा । उनके कहे अनुसार उत्तम नक्षत्र के संयोग में एक शुभ दिवस निर्धारित कर उसकी प्रतीक्षा करने लगे ॥
भयउ भले भृतिका पद ताईं । थापन रहि जँह बास बसाईं ॥
इत प्रियतम गहिं कारज भारे । उत बहियर घर साज सँभारे ॥
सेवा पद के निमित्त एक भली बात हुई । पद स्थापना स्थली वहीँ रही जहां की निवास स्थान था ॥ इधर प्रियतम ने पद भार ग्रहण किया । उधर वधु गृहोपकरण सभालने में लग गई ॥
भोजन भवन भाँड भंडारे । कहुँ चुग चुग अन कनी घारे ॥
कोन कोन कन कनख निहारे । जउँ नउँ केत सबहि कर धारे ॥
पाकशाला के के सभी भोजन पात्र, कहीं चुग बीन कर वधु अन्न कणिकाएं संजो रही थी ॥ कोने कोने के कण कनखियों से निरख रहे थे । कह रहे थे या तो जाओ मत या हम भी नव भवन ले चाओ इस प्रकार सभी ने वधु का हाथ पकड़ लिया ॥
सभा सदन कहुँ सयन सँजोई । तासु संग बंधन पथ जोईं ॥
उत बनबारइ मुख कुमलाई । सन जावन तिन मन लोभाईं ॥
कहीं सभा सदन की कहीं सयन की सामग्री । सब उनके साथ बांधे जाने हेतु प्रतीक्षारत हो गए ॥ उधर वनवाटिका का मुख कुम्हला गया ॥ उसका ह्रदय भी साथ चलने को लालान्वित हो उठा ॥
पौध पुहुप धानी घर घारी । आएं पानि धर सख ससुरारी ॥
हर्ष सोइ हिर हिर हरियारे । फूर बहुरी बनाउ न हारे ॥
पौधे वे कुसुम कलियाँ जिन्होंने पौधे-धानी को घर बनाया हुवा था एवं जो सखि स्वरुप में ससुराल से ही वधु के साथ आई । वे हर्षित हो कर हिल्लोल कराती हरियान्वित हो उठी । वे प्रफुलित हो बार बार श्रृंगार करते न हारती ॥
एक तौ घर के जोगना, दूजन गवन समाज ।
अजहुँ गेह गेहनी के, बाढ़े अतिसय काज ॥
एक तो घर कि देखभाल, दूजे जाने की तैयारी । अब तो गृह में गृहणी का कार्य बहुंत ही बढ़ गया था ॥
मंगलवार, १४ जनवरी, २ ० १ ४
एक कर्मी अरु कार घनेरे । कहुँ पालउ कहुँ बसन सकेरे ।
नउ गह गवन उमगि दिन दूना । कबहु पुरइन मानि मन ऊना ॥
धरे करम कभु करम बियोगे । तहहि एतिक सुख सम्पद जोगे ॥
कूट कपट क्कभु किए चोरी । खेद प्रगट करि बधु कर जोरी ॥
जहँ जनमे दुहु थोटी ठोटा । रहत परिगत जिन्ह परकोटा ॥
होहि सुख दुःख त कोई न कोई । जे जीवन नित चरिआ होई ॥
कबहु लगावन कबहु लगाई । कबहु उरझत बहु लरियाई ॥
जो रतियन अलगावत गवनही । सो बिरहन कास न्यारी रही ।
बहुरत पिय हिलगावत गही । सो हिलगन कास पियारी रही ॥
बेस जिन सदन सलोने सपन के कण कर सम्पुट किए ।
पलक पट नयन के कल कल्पन धर हार पिरोई दिए ॥
हार मनोहर सोइ धरी दरसत कस नियारी रही ।
बालम के कर भाल घरी हरस कस मनियारी रही ॥
कानन कहि जो बात, हरुवर हरषात हँसात ।
बहियाँ गहि निसि प्रात, सो केतक सुहाइ रही ॥
भुज दल कण्ठन घार, अधरोपर अधरन धार ।
देइ परस उपहार, सो केतक सुहाइ रही ॥
बुधवार, १५ जनवरी, २० १ ४
छाँड़ चले जब भ्राता के कर । जनक जनि घर जब भया नैहर ॥
कर साथै द्रव दाने भूरी । तिन सोन केतक सुरता जूरी ॥
जथा जोग बन जोउ नियंगे । बसन अभूषन दसन पलंगे ॥
दे गुन दो जौ सीख सीखाए । गह असीस बर देहरी आए ॥
जहाँ जन्माए पहिलौठा । बा मुकुन सुठि सोहनु ठोटा ॥
एक रयनि सुत रही गए सूते । सोइ सुपुत मुख सुरत बहूँते ॥
मोहनि मूर्ति चित मह समाए। ससुराइ भवान छाँड़ चले आए ॥
जेइ सदन जब बसति बसाई । आए तिन लेख कहि किमि जाई ॥
होत बियाहु जोइ पिया, मौले एक खन भूमि ।
एक बालक गर्भा धरे, जो जनि तेहि पहूमि ॥
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