रविवार, १६ मार्च, २ ० १ ४
भयौ सो भयौ बिति सो बीती । जुझाउ लागि त रही न रीती ॥
लज्जा बस की सकुच समुदाए । तीनइ भाग पन भ्रात पठाए ॥
जो हो गया सो हो गया, जो बीत गई सो बीत गई । भ्राता-भगिनी झगड़ा लगे किन्तु भगिनी रिक्त हस्त न रही । लज्जा वश कि समाज के संकोच वश, भ्राता न निर्धारित पण का दो तिहाई भाग भगिनी की ससुराल में पहुंचा दिया ॥
इत प्रियतम लघु भ्राता पाहहि । फिरि फिरि लागन लेन पठावहि॥
बधु सनमान सँकोच न सोची । मांग जान बर सोच सँकोची ॥
इधर वधु ने लघु भ्राता के ऋण का समुद्धारण करने हेतु प्रियतम को उसके पास वारंवार भेजती ॥ वधु, भ्राता के सम्मान जनित संकोच का विचार नहीं करती । किन्तु वर ऋण समुद्धारण हेतु विचार सहित सम्बन्धों का संकोच करते ॥
पन ठानै धन बहिनै धारी । तिन जुगाउनि तुम न अधिकारी ॥
धर्म करम तईं कि को दूषन । जोगउनु भवन तुम्हरेहि धन ॥
जिस धन से पण निर्धारण किया था वह भगिनी का दिया हुवा था । उस धन को संकलित करने का तुम्हें अधिकार नहीं था ॥ धर्माचरण से न्याय सम्मत कि कोई दूषित कार्य से कोई धन यदि भवन में संचयित है तब उस धन के तुम अधिकारी हो ॥
पुनि का कुचन कवन लज्जाई । अस कह बधु दुहु सीख सिखाई ॥
पिय तुहरे बहु सरल सुभावा । मीठ बचन तुम माँग धरावा ॥
फिर संकोच कैसा लज्जा कैसी । ऐसा कहते हुवे वधु ने प्रियतम को पट्टी पढ़ाई ॥ प्यारे प्रियतम तुम्हारा स्वभाव बहुंत सरल है तुम मीठे मीठे वचन से ऋण की मांग करते हो ॥
बहुरि बहुरि माँग परतस, जो न मँगनी प्रदाएँ ।
फिरैं आपनी पावना, कारत तीख सुभाए ॥
वारंवार मांग करने से भी यदि ऋण समुद्धारित न हो । फिर अपनी लेनी को तीक्षण स्वभाव से अर्जित किया जाता है ॥ सोमवार, १७ मार्च, २०१५
अरु गयउ चढ़े बधु उतप्रेरे । परम रोख भाँवर सन घेरे ॥
दुर्घोष बचन अस बिघन बोइ । जो होई सो भले ना होइ ॥
और वधु की प्रेरणा से चरम आक्रोश के घेरों से घिरे प्रियतम भ्राता के ऊपर चढ़ बैठे । कर्णकटु ध्वनि से युक्त वचनों ने असा विध्न किया । जो हुवा वह अच्छा नहीं हुवा ॥
बड़े न बरतत अस बरतावा । रहत छोटिन्हि के सद भावा ॥
कु कि सु जोइ बडेन की करन । लघुत देख तिन्हिहि अनुसरनइ ॥
यदि बड़े ऐसा व्यवहार उपयोग में नहीं लाते तब छोटों की भावनाएं भी अच्छी रहती ॥ कु हो कि सु, बड़ों की जो करनी होती है उसे देखकर छोटे भी उन्हीं का अनुशरण करते हैं ॥
बधु सन बड़के सब सन छोटे । नाउ बिपरीत दुर्मति ओटे ।।
बिबेकहिन् हो किए मन काला । छाँड़ेसि वचन बान ब्याला ॥
जो भ्राता वधु से बड़े शेष सभी से छोटे ( भ्राता ) न्याय विपरीत दुर्बुद्धि का वरण किये विवेकहीन होकर मन कलुषित किये उन्होंने वचन रूपी भयंकर बाण छोड़े ।
प्रियबर कहँ न्यून रहि होंही । एक बत दोइ करत कहि होहीं ॥
दोनउ भूर भाख मरजादा । करै होहि बहु बाद बिबादा ॥
प्रियतम भी कहाँ क्वचित रहे होंगे एक बात की दो बात करके बोले होंगे ॥ दोनों ने भाषाओं की मर्यादा त्याग दी होगी । बहुंत ही वाद-विवाद हुवा होगा ॥
निज निज जय जय कार मह, आपन सब बर जान ।
तजे बुद्धि जान बिनु का, होत मान सन्मान ।।
अपनी-अपनी जय जय कार करने हेतु अपने को ही श्रेष्ठ मानते हुवे दोनों ने ही अपनी बुद्धि का त्याग किया बिना यह जानते हुवे कि मान-सम्मान क्या होता है ॥
मंगलवार, १८ मार्च, २ ० १ ४
दरसनी भ्राता कृपणताई । रख बहु लागन कछुकन दाई ॥
सीखत बड़े सिख कहत ढिठाए । सेष होइहि सो उदर समाए ॥
उस समय भ्राता की कृपणता दर्शनीय थी । उन्होंने थोड़ा-बहुंत चुकाया, बहुंत-कुछ रखे रखा ॥ बाधों की सीख सिखाते धृष्टता पूर्वक कहने लगे । जो शेष बचा वह पेट में गया ॥
देख भ्रातिन्ह जेइ सुभावा । भरे नयन मुख दारुन दावा ॥
करकत बधु कहि बचन कठोरे । मोरे चरन तुम्हरे पोरे ॥
भ्राताओं का यह स्वभाव देखकर । भरे नयन से मुख में भयंकर अग्नि धारण किए । वधु ने कड़कते हुवे कठोर वचन कहे । यह मेरे चरण हैं और वह तुम्हारी ड्योढ़ी : -
पर्सन का दरसन तरसाही । अजहुँ सन तुम मम कोउ नाही ॥
देह गही जँह जननि जनाई । खेल खाए जँह बालकताई ॥
स्पर्श तो क्या दर्शन को भी तरसेगी । अब से तुम मेरे कोई नहीं हो ॥ जहां जननी ने जन्म दिया जहां यह देह प्राप्त हुई जहां पर बचपन खेला-खाया ॥
निसदिन जिन मन मेलन हेले । गवनै को पथ तँह गत मेले ॥
लिखे सिखे जीउन गुन लाहा । जिनके श्रीकर भयौ बिबाहा ॥
नित्य प्रतिदिन जिनसे मन मिलन के फेर में रहता किसी मार्ग पर जाते वह उन्हीं से मिल जाता ॥ जहां पड़े-लिखे जीवन के गुण सीखे जिनके प्रियजनों के श्रीहस्त से विवाह हुवा ॥
जो जननी सरिसा जनक सरि दिसा भौजाई भ्रात सगे ॥
पीहरा दुआरा पुर परिबारा आजु हृदय आन लगे ।
ससी लिख देखे, राहु अवरेखे, बिधि सदैव बाम रहे ।
कहीं जनम लहे कहीं जनम दहे नारी नियति का कहै ॥
जो भावज-भ्राता जननी के सरिस हैं जनक के सदृश्य हैं पीहर का वह द्वार,वह पुर वह परिवार वधु के ह्रदय को आज पराया लगा । विधाता कि गति तो सदैव उलटी ही रही शशी लिखने चले थे राहु की चित्र उकेर दिया ,अन्यथा गगन में दो चंद्रमा दिखते । और नारी उसके भाग्य की क्या कहें । जन्म कहीं ले रही है जन्म कहीं दे रही है ॥
आपनि कुकरम कारि कै, दैवे दूजन दोस ।
आपइ चलै बाम पंथ, धरि बिरची सिरु दोस ॥
स्वयं कुकर्म करते हैं, दोष दूसरे पर आरोपित करते हैं । मनुष्य उलटे पंथ स्वयं चलता है और विधाता को बुरा-भला कहता है ॥
बुधवार, १९ मार्च, २ ० १ ४
बहुर चरन बधु करि मन भारी । कहत पिय दुइ बचन हितकारी ॥
पिहरन देही सन बिसराई । जानउ मैं मन नेहंन नाही ॥
वधु फिर मन भारी करत हुवे लौटी तो प्रियतम ने यह दो हिकारी बातें कही ॥ मैं तुम्ह जानता हूँ तुमने अपने पीहर को तन से बिसराया है मन से नहीं ॥
गंध सुगंध कि हो अगियाई । धुनी धूरि कन बचन कहाई ॥
परबाहित बाहि सुभाए जेई । सोइ तिन्ह तुर प्रसरन देई ॥
गंध हो सुगंध हो की कोई आग हो ध्वनि हो कि धूलका कण हो कि कोई कही गई बात हो । प्रवाहित वायु का यह स्वभाव है कि वह उनका तत्काल ही विस्तार कर देती है ॥
चरत अचिरम सास दिए काने । भ्रात बहिनि सन जो रन ठाने ॥
दरस तिरछ बैसत पुत पासू । कटाख बानि कर बोलि सासू ॥
भ्राताके साथ हुवे झगड़े कि बात उसने अतिशीघ्र सास के कानों तक पहुंचा दिया । तब सास अपने पुत्र के पास बैठ कर वधु को तिरछे देखते हुवे कटाक्ष वाणी कर कहने लग : --
कभु इँह बादए कभु उँह बादए । कभु आपनिहु पिय सोंबिबादए ॥
कबहु मम पिहरारु सन रारे । मम का आपन भ्रात न छाँरे ॥
कभी यहाँ लगती है कभी वहाँ लगती है । कभी अपने ही प्रियतम से लड़ बैठती है । कभी मरे पीहर वाले क साथ रार करती है। इसने मेरे तो क्या अपने भाईयों को भी नहीं छोड़ा ॥
कहन कटुक जो पंथ जुहाई । भाग लगे सुअ अवसरु पाई ॥
कलह प्रिया जू ऐतक आही । अनी पठइ दौ काहे नाही ॥
कटूक्ति कहने के लिए सास प्रतीक्षारत थी । भागयवश वह सुअवसर भी उपलब्ध हो गया । जब यह हमारी वधु इतनी ही कलह प्रिय है । तो हे रे ठोटे इसे सेना में काहे नहीं भेज देते ॥
भाल सरासन बान ब्याला । सिखि सूल का खडग का ढाला ॥
जे आयुध बिरथा तिन हूँते । बान बचन के बान बहूँते ॥
भाले-बरछी कि धनुष-बाण कि भयंकर शिख एवं शूल वाले अस्त्र तलवार ढाल आदि ये आयुध भी इसक लिए व्यर्थ हैं इसकी सरासन सी वाणी सर से वचन ही बहुंत है, रक्षा के लिए और काहे के लिए ॥
कहत पिय अरी माइ, अजहुँ त सीउँ साँति छाइ ।
होहहि गवन बिहाइ, परि जँह ताके चौचरन ॥
प्रियतम बोले अरी माई, सीमा पर अभी अभी तो शांति छाई है । जो जहां इसके चौचरण पड़ गए, वहाँ की शांति गई समझो ॥
बृहस्पतिवार,२० मार्च, २ ० १ ४
कँह बुधि कलिजुग दान प्रधाना । ए कर धन बर गौन भए ज्ञाना ॥
जो जेतक जग बड़ धनमानी । सो तेतक बर पति पत पानी ॥
बुद्ध प्रबुद्ध कह गए हैं कि कलयुग में दान की प्रधानता है । यही कारण है कि कलयुग में ज्ञान गौण हो गया धन का महत्त्व हो गया अथवा धन महिमान्वित हो गया इस कारण दान-प्रधान हो गया ॥ कलयुग में जो जितना बड़ा धनी वह उतना बड़ा पति, संसार मन उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा ॥
मर बिहने तँह दिए बिसराईं । धर्म करम रह पत अस्थाईं ॥
परिहरइ जोइ भोग बिलासा । तिन्ह सदन सरर्ने प्रत्यासा ॥
किन्तु ऐसे धनी के देहावसान पर संसार उन्हें भूला देता है । वही प्रतिष्ठा स्थाई रहती है जो धर्म-पुण्य से कर्मकांड से ग्राह्य होती है॥ जो सदन भोग विलास का परित्याग कर देते हैं उन सदनों में सारी प्रत्याशाएं शरण प्राप्त कराती हैं ॥
पुर पत प्रतिठा तुल ससुराई । पिहरारू के रहि अधिकाई ॥
धर्मन कृत कारज सन बड़ मन । कारनी कारक करइता धन ।।
नगर में ससुराल की प्रतिष्ठा की तुलना में वधु के पीहर के कुल की प्रतिष्ठा अधिक थी ॥ परमार्थ ही उस प्रतिष्ठा का कारण था परमार्थ कर्म को प्रेरणा देने वाला करक धन था ॥ ( परमार्थ सेवा से भी होता है दान से परमार्थ तीन प्रकार का होता है भौतिक वस्तुओं का दान ,बौद्धिक वस्तुओं का दान, अध्यात्मिक दान , अध्यात्मिक दान सर्वोपरि है ॥ )
जे जुझाउ जब करनन पाई । सब बहिनि भ्रात बात सुनाई ॥
तब दुहु एक दिन करत ग्लानी । आए भवन किए बर अगवानी ॥
रसरी जराए जाए न ऐंठे । अस पोथी पत्तर लिए बैठे ॥
बड़के दिए कर सकल लगारे । छुटके कहि मैं लागनहारे ॥
पाहिले रहि अपनई पुनि, बड़के भए अपनीत ।
बिप्रतिपन मति बर कहाइ, बधुरि भ्रात रनजीत ॥
शुक्रवार, २१ मार्च, २०१४
अरु इत कारत भ्रातिन्हि रिसे । खोलन आपन कछुक कर मिसे ॥
करत याचन पिआरु मनाई । थीर संगर कहत समुझाई ॥
गह गेहस समरूप रथ बाहि । चरहि तब जब कर सिध लाही ॥
तुहरी भृतिकाहु नहि स्थाबर । न मैं थीर श्री न तुएँ थीर श्रीधर ।
करमकार जब करम बियोगे । करमहीन कर कारज जोगे ॥
जोगएँ अन कन पेट पिटारी । बसन भवन तन बासि दुआरी ॥
अजहुँ त साधृत साधन होई । सकल बिपनी साज सँजोई ॥
जोगत बैसक बैसनिहारे । प्रियबर करौ न औरु बिचारे ।।
कहि पिया जुगल कर कंठ, निरखत प्रेम निहार ।
तुअँ अधिथित स्वामिनि तव मैं सेवक पतियार ॥
शनिवार, २२ मार्च, २ ० १ ४
तुहरे कहन करन मैं माना । पर सांद्रित तुम भयौ प्रधाना ॥
कोष पीठ तुम बैसहु जोगहु । सौं मैं रहिहउँ बिपनइ लोगहु ॥
देइ लगाउनिहि जेहि तेही । तुहारी मांगनी तुअहि लहेहीं ॥
बाइँ बाइँ भाल दाहिनि दाईं । लुगाइ सौमुख भली लुगाई ॥
देखु जे पँगत पुरुख प्रधाना । तहां उचित कहँ हमरे जाना ॥
साधन प्रसाधन हम सँजोगू । मनगनी लागत तुम गत जोगू ॥
कारन बैपार हाँ हाँ कारे । पर रम्भन जेई पन धारे ॥
बसे कि उजरे साधृत तोरी । रहि परमम सेउकाइ मोरी ॥
एहि भाँति दुनहु पन पँगत, करत परस्पर मेल ।
किए सांद्रित सुभारम्भ, बेचन बैठे तेल ॥
रविवार, २३ मार्च, २ ० १४
गहहिं पिया जब बालकताई । लिए-दिए तनिहि अनुभूति पाईं ॥
जब सन देही जुवपन जोगे । रहि बैपारी करम बिजोगे ॥
ता पर दुइ गुन पितु सन लाही । दुइ गुन बधु पितु भ्रात जुगाही ॥
दुइ दुइ चारी किए जुग आठे । किए करधनि तनि साँठन गाँठे ॥
बधुरि ठान पन अर्जन लाहे । करत मुदित पिय मानस उछाहे ॥
इत आपन त उत सेउकाई । भयौ पिय चिक्करहिं के नाई ॥
करि कार पर बहु लगन लगाए । नउ अनुभावक भूति मन भाए ।।
देइ कोइ पन लाहन लाभा । बरधइ लावन श्री मुख आभा ॥
प्रियतम कारज श्रम करे, बहियर भई सहाइ ।
तासू करम लेइ देइ, वाका जोग जुगाइ ॥
सोमवार,२४ मार्च, २०१४
दिन भूख रहे निसी न निंदा । बिपनन चिन्ते नयन अलिंदा ॥
मुख दुआरि बत गहि हटियारी । बिसराइ वो बतियाँ प्यारी ॥
प्रियबर के मुख पन पन पन पन । प्रिये बदन कह धन धन धन धन ॥
धरे जल पात त तेल तिराए । आगिन के कछु कही ना जाए ॥
बिपनन की जे रीत पुरानी । कबहु लाभ कृति कबहुँक हानी ॥
लाह लहे सब रैन दिवारी । हानिहि गहि दिवारिहू कारी ॥
बास नगर बरधी पत पानी । पैन पंगत पिय एक एक जानी ॥
जहँ जहँ गत तहँ करत बढ़ाई । तिन सैम जमात मिल कठिनाई ।।
को पुर को गाँउ नगरी, निबासि केत पुरान ।
ए काल अस दुरमत गहे, धन के ही हिलगान ॥
मंगलवार, २५ मार्च, २ ० १ ४
प्रियतम कुल पुर पुरनइ बासी । तिन टूल पितु कुल नवल निवासी ॥
ससुर कौटुम्ब पहिलइ आईं । पितु पिछोरे स्वाधिनताई ॥
अर्थ काम कर चिंतन कारी । अभाउ गहि घर गौरउ घारे ॥
गरब गहन जो भयउ प्रधाने । धर्म दान सन दोष न जाने ॥
तात मत सोइ पथ संचारी । अर्थ काम गहि धरमाधारे ॥
सारा जिउन धन बिहिन बिलासा । भवन सरन जन जन प्रत्यासा ॥
हाट बाट घर गली अथाई । नगरी भर पितु पत प्रतिठाई ॥
जोइ करत भल काज समाजे । तिनके पत श्री सम्पत भ्राजे ॥
कर करमनु हारे इत ससुरारे अँधियारे बास बसे ।
भइ सब दिसि बामा सकुचित धामा आगंतुक निरख हँसे ॥
अर्थहीन हो दुरदिवस बिलोके दारुण दुःख उर लहने ।
जनि जनम जनाई बालकताई जस प्रियतम के कहने ॥
दोइ कुल एकै नगरी, बिलगित पंथ निबास ।
एक कुल धर एक धारिका, गहि निज निज इतिहास ॥
इतिहास भनित कह भास् क्वचित मैं अधिकाइ ।
गागर सागर जोए जस, बिंदु सिंधु लिखियाइ ॥
बृहस्पतिवार, २७ मार्च २०१४
सनलग सांद्रित बैठे धामा । मिला काम बधु कर हिन् कामा ॥
जान कहँ बिते रैन बिहाने । होहि दिनु जामिनि निमिष माने ॥
दोइ सुकनिआ जोत जुटाई । तिन्ह के तात बड़के भाई ॥
कुसल सील दुनहु सुसिखिता । कर्पूर गिरी गौर बरन बनिता ॥
सब लछन संपन्न कुमारी । रूप लवन तन सम्पद घारी ।।
तिन मह क कनि गई बिहाई । होत बिदा घर भई पराई ॥
दूसर के मन चिंतन घेरे । सुजोग बर को लागसि हेरे ॥
कहत समाजु परिजन्हि लोगू । बहुरि मिलिहि एक बर कनि जोगू ॥
बिप्रबर लगन पतिका कोरे । मंगल दिवस मूहुर्त होरे ॥
श्रील श्रीमान पितु कुल देउते । सबहि जनिन्ह सादर नेउते ॥
भ्रात सुता सगाई सुनि, बधु अनमन कछु हरषाइ ।
लाग लगाई तिन्ह सो, गयऊ ना बिसराइ ॥
शुक्रवार, २८ मार्च, २०१४
सुनि प्रिया भ्रात सुता बिबाहू । पिय मन मीर तरंग उछाहू ।।
कहि अस कहें न को जग माही । कछु दिन जाइ रहु काहु नाही ॥
चपर चिडत बधु छूटत बोली । हमहि तुम्ह का समुझत भोली ॥
लगे सगे मिट पितु गुर गेहा । चाहे केतक रहे सनेहा ॥
जाए न बिन बोलेहुँ न कोई । जेई बचन संदेह न होई ॥
गेह कृपाण अस नेह न दाने । गंतुक के होत न सनमाने ॥
प्रभु पत प्रियबर प्रान पियाही । तिन गेह जाहु बिनहि बुलाही ॥
कहत बचन अस पिय अकुलाने । कहु तुअँ अस को देइ ग्याने ॥
कहहुँ मैं इतिहास पुरानए । जो गिरिजा सों सम्भु बखानए ॥
एकाकी के सुअवसर हारे । बधु बदन पिय कातर निहारे ॥
ता परतस पिय निजानन जोई कलेवर कारि ।
बहु बिधि बिनोद करत बधु,, प्रियतम प्रतिलिपि धारि ॥
शनिवार, २९ मार्च, २ ० १ ४
बहोरि एक दिवस दूरभासे । छनन मनन कर मधुरित भासे ॥
आवइ धरि बधु भागहि भागे । जोग बदन बद करन बिभागे ।।
सुनि धुनी पुनि जान परखानी । रहि बड़ब बहिनि के मृदु बानी ॥
बोलि लघु बहिन तैं भर भावा । गवन पितुघर अवसरु बिहावा ॥
बसन भूषण जोई सब साजा । भयौ पूरनित सकल समाजा ॥
मलिन मुख दुःख मान मन माही । दिए उतरू बहियर कहि नाही ॥
लगन पतिका अब लग न आईं । भ्रात मोहि नेउत न पठाईं ॥
गहत बहिनी अचरज के सिंधु । बोली हहरत नयन भर बिंदु ॥
पिता भवन उत्सव परम परिजन गहि अस अभिमान ।
तिनकी मति बिभरम भई, बहिनिहि बहिन न जानि ॥
रविवार, ३० मार्च, २ ० १ ४
तिन्हनि कहत जगत कुल पालक । कुल पालक अहैं कि कुल घालक ॥
पितुजन सुकृत कीर्ति लहाई । सुत अपकृत सब देइ डुबाई ॥
घनकत घन जस धनब कुलीसा । बहिन मुख अस बरत बागीसा ॥
जिन लघु बहिनी सुता सम जानी । तिन अपमानै आपनि मानी ॥
कहत भ्रात बहु होहि दुखारी । भई अनाथ कुसमउ बिचारी ॥
जो तुम तिन्ह नेउत न देबा । हमही बहोरि कर नहि लेबा ॥
जो गत नहिं सोइ को निहारे । हमहु न जाहिं उछाह तुहारे ॥
बड़ बहिनि निज बचन रहि ठाढ़हिं । सेषहु तिनते आगि न बाढ़हिं ॥
जाकी संपद अभिमान, गहे मूल न ब्याज ।
बिनइ धनश्री श्रील सदा, अगजग लग रह भ्राज ॥
सोमवार, ३१ मार्च, २ ० १ ४
दिनु रैन रय रैन दिनु राँचे । बिबाहु के दिन चारहि बाँचे ॥
आगमनु भवन बड़के भ्राता । पान जल पूछि सब कुसलाता ॥
बहुरि तब भगिनि देइ बुलावा । आजु हमहि घर भयौ बिहावा ॥
दरस भ्रात बधु अलक सुपच्छा । सुहसित मुख हरिअरि कहि अच्छा ॥
अवसरु सुबह को भवन समाजे । अनुजा तनुजा सोहहिं भ्राजे ॥
न आवइ सोइ होहि न माने । ए निहोर मोहि नेउत दाने ॥
एहि अवाइ बड़ बहिन अगवाइ । तिन्ह हुँत मोहि हूँत बोलाइ ॥
तेहि काल बधु हाँ हाँ कारी । भ्राता गत मन गवन बिसारी ॥
मान सों बर अमान भए, शाँति सोंह बार क्रोध ।
जान सों बर अजान भए, बोध सोंह अनबोध ॥
भयौ सो भयौ बिति सो बीती । जुझाउ लागि त रही न रीती ॥
लज्जा बस की सकुच समुदाए । तीनइ भाग पन भ्रात पठाए ॥
जो हो गया सो हो गया, जो बीत गई सो बीत गई । भ्राता-भगिनी झगड़ा लगे किन्तु भगिनी रिक्त हस्त न रही । लज्जा वश कि समाज के संकोच वश, भ्राता न निर्धारित पण का दो तिहाई भाग भगिनी की ससुराल में पहुंचा दिया ॥
इत प्रियतम लघु भ्राता पाहहि । फिरि फिरि लागन लेन पठावहि॥
बधु सनमान सँकोच न सोची । मांग जान बर सोच सँकोची ॥
इधर वधु ने लघु भ्राता के ऋण का समुद्धारण करने हेतु प्रियतम को उसके पास वारंवार भेजती ॥ वधु, भ्राता के सम्मान जनित संकोच का विचार नहीं करती । किन्तु वर ऋण समुद्धारण हेतु विचार सहित सम्बन्धों का संकोच करते ॥
पन ठानै धन बहिनै धारी । तिन जुगाउनि तुम न अधिकारी ॥
धर्म करम तईं कि को दूषन । जोगउनु भवन तुम्हरेहि धन ॥
जिस धन से पण निर्धारण किया था वह भगिनी का दिया हुवा था । उस धन को संकलित करने का तुम्हें अधिकार नहीं था ॥ धर्माचरण से न्याय सम्मत कि कोई दूषित कार्य से कोई धन यदि भवन में संचयित है तब उस धन के तुम अधिकारी हो ॥
पुनि का कुचन कवन लज्जाई । अस कह बधु दुहु सीख सिखाई ॥
पिय तुहरे बहु सरल सुभावा । मीठ बचन तुम माँग धरावा ॥
फिर संकोच कैसा लज्जा कैसी । ऐसा कहते हुवे वधु ने प्रियतम को पट्टी पढ़ाई ॥ प्यारे प्रियतम तुम्हारा स्वभाव बहुंत सरल है तुम मीठे मीठे वचन से ऋण की मांग करते हो ॥
बहुरि बहुरि माँग परतस, जो न मँगनी प्रदाएँ ।
फिरैं आपनी पावना, कारत तीख सुभाए ॥
वारंवार मांग करने से भी यदि ऋण समुद्धारित न हो । फिर अपनी लेनी को तीक्षण स्वभाव से अर्जित किया जाता है ॥ सोमवार, १७ मार्च, २०१५
अरु गयउ चढ़े बधु उतप्रेरे । परम रोख भाँवर सन घेरे ॥
दुर्घोष बचन अस बिघन बोइ । जो होई सो भले ना होइ ॥
और वधु की प्रेरणा से चरम आक्रोश के घेरों से घिरे प्रियतम भ्राता के ऊपर चढ़ बैठे । कर्णकटु ध्वनि से युक्त वचनों ने असा विध्न किया । जो हुवा वह अच्छा नहीं हुवा ॥
बड़े न बरतत अस बरतावा । रहत छोटिन्हि के सद भावा ॥
कु कि सु जोइ बडेन की करन । लघुत देख तिन्हिहि अनुसरनइ ॥
यदि बड़े ऐसा व्यवहार उपयोग में नहीं लाते तब छोटों की भावनाएं भी अच्छी रहती ॥ कु हो कि सु, बड़ों की जो करनी होती है उसे देखकर छोटे भी उन्हीं का अनुशरण करते हैं ॥
बधु सन बड़के सब सन छोटे । नाउ बिपरीत दुर्मति ओटे ।।
बिबेकहिन् हो किए मन काला । छाँड़ेसि वचन बान ब्याला ॥
जो भ्राता वधु से बड़े शेष सभी से छोटे ( भ्राता ) न्याय विपरीत दुर्बुद्धि का वरण किये विवेकहीन होकर मन कलुषित किये उन्होंने वचन रूपी भयंकर बाण छोड़े ।
प्रियबर कहँ न्यून रहि होंही । एक बत दोइ करत कहि होहीं ॥
दोनउ भूर भाख मरजादा । करै होहि बहु बाद बिबादा ॥
प्रियतम भी कहाँ क्वचित रहे होंगे एक बात की दो बात करके बोले होंगे ॥ दोनों ने भाषाओं की मर्यादा त्याग दी होगी । बहुंत ही वाद-विवाद हुवा होगा ॥
निज निज जय जय कार मह, आपन सब बर जान ।
तजे बुद्धि जान बिनु का, होत मान सन्मान ।।
अपनी-अपनी जय जय कार करने हेतु अपने को ही श्रेष्ठ मानते हुवे दोनों ने ही अपनी बुद्धि का त्याग किया बिना यह जानते हुवे कि मान-सम्मान क्या होता है ॥
मंगलवार, १८ मार्च, २ ० १ ४
दरसनी भ्राता कृपणताई । रख बहु लागन कछुकन दाई ॥
सीखत बड़े सिख कहत ढिठाए । सेष होइहि सो उदर समाए ॥
उस समय भ्राता की कृपणता दर्शनीय थी । उन्होंने थोड़ा-बहुंत चुकाया, बहुंत-कुछ रखे रखा ॥ बाधों की सीख सिखाते धृष्टता पूर्वक कहने लगे । जो शेष बचा वह पेट में गया ॥
देख भ्रातिन्ह जेइ सुभावा । भरे नयन मुख दारुन दावा ॥
करकत बधु कहि बचन कठोरे । मोरे चरन तुम्हरे पोरे ॥
भ्राताओं का यह स्वभाव देखकर । भरे नयन से मुख में भयंकर अग्नि धारण किए । वधु ने कड़कते हुवे कठोर वचन कहे । यह मेरे चरण हैं और वह तुम्हारी ड्योढ़ी : -
पर्सन का दरसन तरसाही । अजहुँ सन तुम मम कोउ नाही ॥
देह गही जँह जननि जनाई । खेल खाए जँह बालकताई ॥
स्पर्श तो क्या दर्शन को भी तरसेगी । अब से तुम मेरे कोई नहीं हो ॥ जहां जननी ने जन्म दिया जहां यह देह प्राप्त हुई जहां पर बचपन खेला-खाया ॥
निसदिन जिन मन मेलन हेले । गवनै को पथ तँह गत मेले ॥
लिखे सिखे जीउन गुन लाहा । जिनके श्रीकर भयौ बिबाहा ॥
नित्य प्रतिदिन जिनसे मन मिलन के फेर में रहता किसी मार्ग पर जाते वह उन्हीं से मिल जाता ॥ जहां पड़े-लिखे जीवन के गुण सीखे जिनके प्रियजनों के श्रीहस्त से विवाह हुवा ॥
जो जननी सरिसा जनक सरि दिसा भौजाई भ्रात सगे ॥
पीहरा दुआरा पुर परिबारा आजु हृदय आन लगे ।
ससी लिख देखे, राहु अवरेखे, बिधि सदैव बाम रहे ।
कहीं जनम लहे कहीं जनम दहे नारी नियति का कहै ॥
जो भावज-भ्राता जननी के सरिस हैं जनक के सदृश्य हैं पीहर का वह द्वार,वह पुर वह परिवार वधु के ह्रदय को आज पराया लगा । विधाता कि गति तो सदैव उलटी ही रही शशी लिखने चले थे राहु की चित्र उकेर दिया ,अन्यथा गगन में दो चंद्रमा दिखते । और नारी उसके भाग्य की क्या कहें । जन्म कहीं ले रही है जन्म कहीं दे रही है ॥
आपनि कुकरम कारि कै, दैवे दूजन दोस ।
आपइ चलै बाम पंथ, धरि बिरची सिरु दोस ॥
स्वयं कुकर्म करते हैं, दोष दूसरे पर आरोपित करते हैं । मनुष्य उलटे पंथ स्वयं चलता है और विधाता को बुरा-भला कहता है ॥
बुधवार, १९ मार्च, २ ० १ ४
बहुर चरन बधु करि मन भारी । कहत पिय दुइ बचन हितकारी ॥
पिहरन देही सन बिसराई । जानउ मैं मन नेहंन नाही ॥
वधु फिर मन भारी करत हुवे लौटी तो प्रियतम ने यह दो हिकारी बातें कही ॥ मैं तुम्ह जानता हूँ तुमने अपने पीहर को तन से बिसराया है मन से नहीं ॥
गंध सुगंध कि हो अगियाई । धुनी धूरि कन बचन कहाई ॥
परबाहित बाहि सुभाए जेई । सोइ तिन्ह तुर प्रसरन देई ॥
गंध हो सुगंध हो की कोई आग हो ध्वनि हो कि धूलका कण हो कि कोई कही गई बात हो । प्रवाहित वायु का यह स्वभाव है कि वह उनका तत्काल ही विस्तार कर देती है ॥
चरत अचिरम सास दिए काने । भ्रात बहिनि सन जो रन ठाने ॥
दरस तिरछ बैसत पुत पासू । कटाख बानि कर बोलि सासू ॥
भ्राताके साथ हुवे झगड़े कि बात उसने अतिशीघ्र सास के कानों तक पहुंचा दिया । तब सास अपने पुत्र के पास बैठ कर वधु को तिरछे देखते हुवे कटाक्ष वाणी कर कहने लग : --
कभु इँह बादए कभु उँह बादए । कभु आपनिहु पिय सोंबिबादए ॥
कबहु मम पिहरारु सन रारे । मम का आपन भ्रात न छाँरे ॥
कभी यहाँ लगती है कभी वहाँ लगती है । कभी अपने ही प्रियतम से लड़ बैठती है । कभी मरे पीहर वाले क साथ रार करती है। इसने मेरे तो क्या अपने भाईयों को भी नहीं छोड़ा ॥
कहन कटुक जो पंथ जुहाई । भाग लगे सुअ अवसरु पाई ॥
कलह प्रिया जू ऐतक आही । अनी पठइ दौ काहे नाही ॥
कटूक्ति कहने के लिए सास प्रतीक्षारत थी । भागयवश वह सुअवसर भी उपलब्ध हो गया । जब यह हमारी वधु इतनी ही कलह प्रिय है । तो हे रे ठोटे इसे सेना में काहे नहीं भेज देते ॥
भाल सरासन बान ब्याला । सिखि सूल का खडग का ढाला ॥
जे आयुध बिरथा तिन हूँते । बान बचन के बान बहूँते ॥
भाले-बरछी कि धनुष-बाण कि भयंकर शिख एवं शूल वाले अस्त्र तलवार ढाल आदि ये आयुध भी इसक लिए व्यर्थ हैं इसकी सरासन सी वाणी सर से वचन ही बहुंत है, रक्षा के लिए और काहे के लिए ॥
कहत पिय अरी माइ, अजहुँ त सीउँ साँति छाइ ।
होहहि गवन बिहाइ, परि जँह ताके चौचरन ॥
प्रियतम बोले अरी माई, सीमा पर अभी अभी तो शांति छाई है । जो जहां इसके चौचरण पड़ गए, वहाँ की शांति गई समझो ॥
बृहस्पतिवार,२० मार्च, २ ० १ ४
कँह बुधि कलिजुग दान प्रधाना । ए कर धन बर गौन भए ज्ञाना ॥
जो जेतक जग बड़ धनमानी । सो तेतक बर पति पत पानी ॥
बुद्ध प्रबुद्ध कह गए हैं कि कलयुग में दान की प्रधानता है । यही कारण है कि कलयुग में ज्ञान गौण हो गया धन का महत्त्व हो गया अथवा धन महिमान्वित हो गया इस कारण दान-प्रधान हो गया ॥ कलयुग में जो जितना बड़ा धनी वह उतना बड़ा पति, संसार मन उसकी उतनी ही प्रतिष्ठा ॥
मर बिहने तँह दिए बिसराईं । धर्म करम रह पत अस्थाईं ॥
परिहरइ जोइ भोग बिलासा । तिन्ह सदन सरर्ने प्रत्यासा ॥
किन्तु ऐसे धनी के देहावसान पर संसार उन्हें भूला देता है । वही प्रतिष्ठा स्थाई रहती है जो धर्म-पुण्य से कर्मकांड से ग्राह्य होती है॥ जो सदन भोग विलास का परित्याग कर देते हैं उन सदनों में सारी प्रत्याशाएं शरण प्राप्त कराती हैं ॥
पुर पत प्रतिठा तुल ससुराई । पिहरारू के रहि अधिकाई ॥
धर्मन कृत कारज सन बड़ मन । कारनी कारक करइता धन ।।
नगर में ससुराल की प्रतिष्ठा की तुलना में वधु के पीहर के कुल की प्रतिष्ठा अधिक थी ॥ परमार्थ ही उस प्रतिष्ठा का कारण था परमार्थ कर्म को प्रेरणा देने वाला करक धन था ॥ ( परमार्थ सेवा से भी होता है दान से परमार्थ तीन प्रकार का होता है भौतिक वस्तुओं का दान ,बौद्धिक वस्तुओं का दान, अध्यात्मिक दान , अध्यात्मिक दान सर्वोपरि है ॥ )
जे जुझाउ जब करनन पाई । सब बहिनि भ्रात बात सुनाई ॥
तब दुहु एक दिन करत ग्लानी । आए भवन किए बर अगवानी ॥
रसरी जराए जाए न ऐंठे । अस पोथी पत्तर लिए बैठे ॥
बड़के दिए कर सकल लगारे । छुटके कहि मैं लागनहारे ॥
पाहिले रहि अपनई पुनि, बड़के भए अपनीत ।
बिप्रतिपन मति बर कहाइ, बधुरि भ्रात रनजीत ॥
शुक्रवार, २१ मार्च, २०१४
अरु इत कारत भ्रातिन्हि रिसे । खोलन आपन कछुक कर मिसे ॥
करत याचन पिआरु मनाई । थीर संगर कहत समुझाई ॥
गह गेहस समरूप रथ बाहि । चरहि तब जब कर सिध लाही ॥
तुहरी भृतिकाहु नहि स्थाबर । न मैं थीर श्री न तुएँ थीर श्रीधर ।
करमकार जब करम बियोगे । करमहीन कर कारज जोगे ॥
जोगएँ अन कन पेट पिटारी । बसन भवन तन बासि दुआरी ॥
अजहुँ त साधृत साधन होई । सकल बिपनी साज सँजोई ॥
जोगत बैसक बैसनिहारे । प्रियबर करौ न औरु बिचारे ।।
कहि पिया जुगल कर कंठ, निरखत प्रेम निहार ।
तुअँ अधिथित स्वामिनि तव मैं सेवक पतियार ॥
शनिवार, २२ मार्च, २ ० १ ४
तुहरे कहन करन मैं माना । पर सांद्रित तुम भयौ प्रधाना ॥
कोष पीठ तुम बैसहु जोगहु । सौं मैं रहिहउँ बिपनइ लोगहु ॥
देइ लगाउनिहि जेहि तेही । तुहारी मांगनी तुअहि लहेहीं ॥
बाइँ बाइँ भाल दाहिनि दाईं । लुगाइ सौमुख भली लुगाई ॥
देखु जे पँगत पुरुख प्रधाना । तहां उचित कहँ हमरे जाना ॥
साधन प्रसाधन हम सँजोगू । मनगनी लागत तुम गत जोगू ॥
कारन बैपार हाँ हाँ कारे । पर रम्भन जेई पन धारे ॥
बसे कि उजरे साधृत तोरी । रहि परमम सेउकाइ मोरी ॥
एहि भाँति दुनहु पन पँगत, करत परस्पर मेल ।
किए सांद्रित सुभारम्भ, बेचन बैठे तेल ॥
रविवार, २३ मार्च, २ ० १४
गहहिं पिया जब बालकताई । लिए-दिए तनिहि अनुभूति पाईं ॥
जब सन देही जुवपन जोगे । रहि बैपारी करम बिजोगे ॥
ता पर दुइ गुन पितु सन लाही । दुइ गुन बधु पितु भ्रात जुगाही ॥
दुइ दुइ चारी किए जुग आठे । किए करधनि तनि साँठन गाँठे ॥
बधुरि ठान पन अर्जन लाहे । करत मुदित पिय मानस उछाहे ॥
इत आपन त उत सेउकाई । भयौ पिय चिक्करहिं के नाई ॥
करि कार पर बहु लगन लगाए । नउ अनुभावक भूति मन भाए ।।
देइ कोइ पन लाहन लाभा । बरधइ लावन श्री मुख आभा ॥
प्रियतम कारज श्रम करे, बहियर भई सहाइ ।
तासू करम लेइ देइ, वाका जोग जुगाइ ॥
सोमवार,२४ मार्च, २०१४
दिन भूख रहे निसी न निंदा । बिपनन चिन्ते नयन अलिंदा ॥
मुख दुआरि बत गहि हटियारी । बिसराइ वो बतियाँ प्यारी ॥
प्रियबर के मुख पन पन पन पन । प्रिये बदन कह धन धन धन धन ॥
धरे जल पात त तेल तिराए । आगिन के कछु कही ना जाए ॥
बिपनन की जे रीत पुरानी । कबहु लाभ कृति कबहुँक हानी ॥
लाह लहे सब रैन दिवारी । हानिहि गहि दिवारिहू कारी ॥
बास नगर बरधी पत पानी । पैन पंगत पिय एक एक जानी ॥
जहँ जहँ गत तहँ करत बढ़ाई । तिन सैम जमात मिल कठिनाई ।।
को पुर को गाँउ नगरी, निबासि केत पुरान ।
ए काल अस दुरमत गहे, धन के ही हिलगान ॥
मंगलवार, २५ मार्च, २ ० १ ४
प्रियतम कुल पुर पुरनइ बासी । तिन टूल पितु कुल नवल निवासी ॥
ससुर कौटुम्ब पहिलइ आईं । पितु पिछोरे स्वाधिनताई ॥
अर्थ काम कर चिंतन कारी । अभाउ गहि घर गौरउ घारे ॥
गरब गहन जो भयउ प्रधाने । धर्म दान सन दोष न जाने ॥
तात मत सोइ पथ संचारी । अर्थ काम गहि धरमाधारे ॥
सारा जिउन धन बिहिन बिलासा । भवन सरन जन जन प्रत्यासा ॥
हाट बाट घर गली अथाई । नगरी भर पितु पत प्रतिठाई ॥
जोइ करत भल काज समाजे । तिनके पत श्री सम्पत भ्राजे ॥
कर करमनु हारे इत ससुरारे अँधियारे बास बसे ।
भइ सब दिसि बामा सकुचित धामा आगंतुक निरख हँसे ॥
अर्थहीन हो दुरदिवस बिलोके दारुण दुःख उर लहने ।
जनि जनम जनाई बालकताई जस प्रियतम के कहने ॥
दोइ कुल एकै नगरी, बिलगित पंथ निबास ।
एक कुल धर एक धारिका, गहि निज निज इतिहास ॥
इतिहास भनित कह भास् क्वचित मैं अधिकाइ ।
गागर सागर जोए जस, बिंदु सिंधु लिखियाइ ॥
बृहस्पतिवार, २७ मार्च २०१४
सनलग सांद्रित बैठे धामा । मिला काम बधु कर हिन् कामा ॥
जान कहँ बिते रैन बिहाने । होहि दिनु जामिनि निमिष माने ॥
दोइ सुकनिआ जोत जुटाई । तिन्ह के तात बड़के भाई ॥
कुसल सील दुनहु सुसिखिता । कर्पूर गिरी गौर बरन बनिता ॥
सब लछन संपन्न कुमारी । रूप लवन तन सम्पद घारी ।।
तिन मह क कनि गई बिहाई । होत बिदा घर भई पराई ॥
दूसर के मन चिंतन घेरे । सुजोग बर को लागसि हेरे ॥
कहत समाजु परिजन्हि लोगू । बहुरि मिलिहि एक बर कनि जोगू ॥
बिप्रबर लगन पतिका कोरे । मंगल दिवस मूहुर्त होरे ॥
श्रील श्रीमान पितु कुल देउते । सबहि जनिन्ह सादर नेउते ॥
भ्रात सुता सगाई सुनि, बधु अनमन कछु हरषाइ ।
लाग लगाई तिन्ह सो, गयऊ ना बिसराइ ॥
शुक्रवार, २८ मार्च, २०१४
सुनि प्रिया भ्रात सुता बिबाहू । पिय मन मीर तरंग उछाहू ।।
कहि अस कहें न को जग माही । कछु दिन जाइ रहु काहु नाही ॥
चपर चिडत बधु छूटत बोली । हमहि तुम्ह का समुझत भोली ॥
लगे सगे मिट पितु गुर गेहा । चाहे केतक रहे सनेहा ॥
जाए न बिन बोलेहुँ न कोई । जेई बचन संदेह न होई ॥
गेह कृपाण अस नेह न दाने । गंतुक के होत न सनमाने ॥
प्रभु पत प्रियबर प्रान पियाही । तिन गेह जाहु बिनहि बुलाही ॥
कहत बचन अस पिय अकुलाने । कहु तुअँ अस को देइ ग्याने ॥
कहहुँ मैं इतिहास पुरानए । जो गिरिजा सों सम्भु बखानए ॥
एकाकी के सुअवसर हारे । बधु बदन पिय कातर निहारे ॥
ता परतस पिय निजानन जोई कलेवर कारि ।
बहु बिधि बिनोद करत बधु,, प्रियतम प्रतिलिपि धारि ॥
शनिवार, २९ मार्च, २ ० १ ४
बहोरि एक दिवस दूरभासे । छनन मनन कर मधुरित भासे ॥
आवइ धरि बधु भागहि भागे । जोग बदन बद करन बिभागे ।।
सुनि धुनी पुनि जान परखानी । रहि बड़ब बहिनि के मृदु बानी ॥
बोलि लघु बहिन तैं भर भावा । गवन पितुघर अवसरु बिहावा ॥
बसन भूषण जोई सब साजा । भयौ पूरनित सकल समाजा ॥
मलिन मुख दुःख मान मन माही । दिए उतरू बहियर कहि नाही ॥
लगन पतिका अब लग न आईं । भ्रात मोहि नेउत न पठाईं ॥
गहत बहिनी अचरज के सिंधु । बोली हहरत नयन भर बिंदु ॥
पिता भवन उत्सव परम परिजन गहि अस अभिमान ।
तिनकी मति बिभरम भई, बहिनिहि बहिन न जानि ॥
रविवार, ३० मार्च, २ ० १ ४
तिन्हनि कहत जगत कुल पालक । कुल पालक अहैं कि कुल घालक ॥
पितुजन सुकृत कीर्ति लहाई । सुत अपकृत सब देइ डुबाई ॥
घनकत घन जस धनब कुलीसा । बहिन मुख अस बरत बागीसा ॥
जिन लघु बहिनी सुता सम जानी । तिन अपमानै आपनि मानी ॥
कहत भ्रात बहु होहि दुखारी । भई अनाथ कुसमउ बिचारी ॥
जो तुम तिन्ह नेउत न देबा । हमही बहोरि कर नहि लेबा ॥
जो गत नहिं सोइ को निहारे । हमहु न जाहिं उछाह तुहारे ॥
बड़ बहिनि निज बचन रहि ठाढ़हिं । सेषहु तिनते आगि न बाढ़हिं ॥
जाकी संपद अभिमान, गहे मूल न ब्याज ।
बिनइ धनश्री श्रील सदा, अगजग लग रह भ्राज ॥
सोमवार, ३१ मार्च, २ ० १ ४
दिनु रैन रय रैन दिनु राँचे । बिबाहु के दिन चारहि बाँचे ॥
आगमनु भवन बड़के भ्राता । पान जल पूछि सब कुसलाता ॥
बहुरि तब भगिनि देइ बुलावा । आजु हमहि घर भयौ बिहावा ॥
दरस भ्रात बधु अलक सुपच्छा । सुहसित मुख हरिअरि कहि अच्छा ॥
अवसरु सुबह को भवन समाजे । अनुजा तनुजा सोहहिं भ्राजे ॥
न आवइ सोइ होहि न माने । ए निहोर मोहि नेउत दाने ॥
एहि अवाइ बड़ बहिन अगवाइ । तिन्ह हुँत मोहि हूँत बोलाइ ॥
तेहि काल बधु हाँ हाँ कारी । भ्राता गत मन गवन बिसारी ॥
मान सों बर अमान भए, शाँति सोंह बार क्रोध ।
जान सों बर अजान भए, बोध सोंह अनबोध ॥
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