शनिवार, ०१ मार्च, २ ० १ ४
अस कह बहिनि इत लइ बिदाई । धन धारत उत बधु कदराई ।।
धरे पुनि तिन्ह समुझ धराऊ । आगत लखि के को बिसराऊ ॥
ऐसा कहकर इधर भगिनी ने विदा ली उधर धन-धारण करते हुवे वधु हिचकने लगी ॥ फिर उसे धरोहर समझ कर धारण किया भला आती हुई लक्ष्मी को कोई ठुकराता है ॥
पिय जब जान थात के नाईं । भली भनन बधु कह समुझाईं ॥
जदपि धरे धन धर्मन कारन । दूषित सोत तिन किए संकलन ॥
प्रियतम को जब उस धरोहर के बारे में ज्ञात हुवा । तब उन्होंनें अच्छी बात कह कर वधु को समझाया ॥ यद्यपि तुमने यह धन ( पारिवारिक )परमार्थ हेतु धारण किया है किन्तु यह धन दूषित स्त्रोतों से संगृहीत किया गया है ॥
सोइ कारज होत भलहीना । हो घर बड़हन भाने बीना ॥
माया गहि पुनि बहुस बुराई । बर बर जन के चेत फिराई ॥
और जो घर के बड़ों के संज्ञान से रहित हों ॥ ऐसे कार्य अकल्याणकारी होते हैं ये किसी का हित नहीं करते । फिर माया में बहुंत सी बुराइयां संगृहीत होती हैं यह अच्छे से अच्छे लोगों के चेतना को भ्रमित कर सुप्त कर देती है ॥
निरत करत जब छम छम बोले । मुनि महिमन मन डगमग डोले ॥
रे संगिनी तुएँ भाल न कारे । धारन धारन बहुरि बिचारे ॥
यह जब छम छम करके नृत्य कराती है तब महतिमह मुनिजनों के मन भी डगमग होकर डोलने लगते हैं ॥
आरी संगिनी तुमने यह अच्छा नहीं किया । इस धारण को धारण करने के लिए एक बार और विचार कर लो ॥
तेहि समउ पिय के बचन, लगे प्रबचन समान ।
दी न तिन्ह धिआन तदपि, भई बधु साउधान ॥
उस समय प्रियतम के श्रीवचन प्रवचन से लगे । वधु ने ध्यान नहीं दिया किन्तु वह सावधान अवश्य हो गई ॥
रविवार, ०२ मार्च, २ ० १ ४
करत करत अस जोरत जोगे । सात आठि लख लिए संजोगे ॥
एक छन बधु मति जे मत आई । लाग लगेरे देइ चुकाईं ॥
ऐसा करते करते जोड़- जुगाड़ लगाते वधु क पास सात-आठ लाख भारतीय पत्र मुद्राएं एकत्र हो गई ॥ एक छान को तो वधु के बुद्धि मन यह विचार आया कि ये जितने लाग-लगेडे है सबको निपटा दें ॥
मनस मानस लालस उछाहे । चित कह नहि नहि ए भली नाहे ॥
धरे धरेहु त मल हुइ जाही । नद धन धर्म अमल बहि माही ॥
मस्तिष्क के मानसरोवर लालच उद्वेलित हो उठा । किन्तु मन न खा नहीं नहीं यह कार्योचित नहीं है ॥ किन्तु वह धरोहर धरी धरी भी मलिन हो जाएगी । नदी एवं धन का निर्मल स्वभाव उसके प्रवाह में ही है ॥
पुनि बधु घर पिछु एक भू देखी । बसतिहि अंतर पंथ प्रबेखी ॥
जब प्रियतम सन बोलि बिसावन । देइ पिय उतरु पराए धन सन ॥
फिर वधु ने अपने निवास स्थल के पीछे एक भूमिखंड देखा जो जन संबाध के भीतर प्रवेश मार्ग से लगा था ॥ जब उसने उस खंड को क्रय करने हेतु प्रियतम से चर्चा की । तब प्रियतम ने उत्तर दिया 'पराए धन से'?
लालस एक दिन तुअँ लिए जाही । का तुम पर धन हड़पन चाही ॥
बधु ररन पिय देइ न धिआना । एक कन सुनत निकासे दुज काना ॥
यह लालच ही तुम्हे एक दिन ले कर जाएगा । क्या तुम इस धन को हड़प करना चाहती हो ॥ फिर प्रियतम ने वधु के भूखंड क्रय करने की रट पर कोई ध्यान नहीं दिया । एक कान से सुना दूसरे से निकाल दिया ॥
अरु कहि जे हास बचन, लिखि दूजन के नाम ।
जाके दूजन पतिदेउ, सो आपनि किस काम ॥
और (हंसते हुई मुद्रा में ) यह परिहास वचन कहने लगे : -- जो दूसरे के नाम लिखी हो, जिसके पतिदेव कोई और हो वह अपने किस काम की ॥
सोमवार, ०३ मार्च, २ ० १ ४
कहि बधु बहिनि त अनुमति दाही । तथापि पिय मुख रहि नन्नाही ॥
मन मानस मत पाँख तिरावत । बधूटी भली सीख सिखावत ॥
तब वधु ने कहा किन्तु भगिनी ने तो अनुमति प्रदान कर दी है तथापि प्रियतम के मुख पर नकारात्मक स्वर ही रहा ॥ मन-मस्तिष्क के सरोवर में फिर विचारों के पंख तैराते हुवे वधु को उच्च स्तर का ज्ञान देते हुवे : --
पति देउ देइ भले सुझावा । तनिक बछर मह हो दुहरावा ॥
संच पतर संचाउ न काहे । तुअ मैं का को परस न पाहे ॥
पति देव ने यह उत्तम सुझाव दिया । जो किंचित वर्षों में दोहरे हो जाए । तुम इस धन को उन संचय पत्रों में संचित क्यों नहीं कर देती । फिर तुम क्या मैं उसका उपयोग कोई भी नहीं कर पाएगा ॥
जह धन सब हित कारन होई। आन परे जब चाहत कोई ॥
बंधक पात त लेइ बँधाही । धर्म अर्थ बिरथा हो जाहीं ॥
जहां यह धन सभी के हित का कारण होकर , संयोग से जब इसकी कोई आवश्यकता आन पड़े तब तुम्हारे यह बंधक पत्र समस्त धन को बांधे बैठे रहेंगे फिर उस धन में निहित धर्मार्थ के अर्थ का अनर्थ होकर वह व्यर्थ हो जाएगा ॥
अस कह बधु पिय सम्मति न दानी । लाभ लब्ध अवधिहि अनुमानी ॥
पुनि पिय कर दे त्यों सँचाई । चह जब दें चाहें जब लाईं ॥
ऐसा कहते हुवे वधु ने प्रियतम के मत को सम्मति नहीं दी । फिर लाभ लब्धि और अवधि का अनुमान करते हुवे प्रियतम के हाथों उस धन को इस प्रकार संचित किया कि जिसमें जब चाहें धन संचित जब चाहे आहरित करे सकते थे ॥
घुमरि घुमरि घन घन गगन, बरख न कोउ सुदेस ।
घुमरि बधु मन अस चिंतन, धन कहु करन निबेस ॥
जिस प्रकार गगन के बादल किसी उचित स्थान पर बरसने हेतु घुमड़ते हैं ॥ उसी प्रकार से उस धन रूपी घनरस को किसी उचित स्थान पर निवेश हेतु वधु के मन रूपी गगन में चिंतन रूपी घन घुमड़ने लगते ॥
मंगलवार, ०४ मार्च, २ ० १ ४
एक बछर लग अंस के आपन । करत करत बधु गहन अध्ययन ॥
सोइ पतर लेवन जब बोली । कहत पिया तुम हो बहु भोली ॥
लगभग एक वर्ष तक के अंश पणग्रंथि का का गहन अध्ययन करते करते जब वधु ने प्रियतम को अंसह पत्र क्रय कारन के लिए खा तब प्रियतम न उठता दिया ह प्रियतमा तुम बहुंत ही अबोध हो,
भोली हो ॥
बैठे पति जौ ग्रंथिहि पानी । भए एक त एक सियान सियानी ॥
तुम सिंघनी पट सवा सिंघा । पति जरत जोत तुम्ह पतिंगा ॥
पणग्रंथि में जो पनपती अपना पसारा लगाए बैठे हैं वे एक से एक स्याणी-स्याणे हैं ॥ यदि तुम सिंघणी हो तो वे सवासिंग हैं हे प्राणसमा तुम एक पतंगा हो वे पणपति जलता हुवा दीया हैं ॥
लोभलगन लग लाह ललाहे । केतक जारत भयउ सुवाहे ॥
बन उलूक कटि गाँठिन गवाए । हरि हरि बाहन भवन बेचाए ॥
लोभ के आकर्षणवश लाभ के लगन में उस दिए में पाहिले भी कितने ही जल कर स्वाहा हो गए । उल्लू बने संचित धन गवाए उस दिया के चक्कर में धीरे धीरे वाहनी क्या भवन तक बिक गए ॥
एतद काल जन जन मन भाईं ।तिनकी ललपती ठकुरसुहाई ॥
बगुरा भगत के भरोस का । जग जनार्दन अहही जनता ॥
एतद काल में उसकी लालपत्ती उसकी चिकनी चुपड़ी बातें जन जन के मन को लुभावना लग रही है । यह दिया बगुला भगत है और बगुला अभक्तों का कोई भरोसा है ? यह जनता ही जनार्दन स्वरुप है ॥
अगज जगज जन संगठन, नित अछ्छइ अबिनास ।
छन भंगूरे पूतरे, पलक हरे बिस्वास ॥
यह चराचर जगत और उसका लोकसमूह नित्य है अक्षय है अविनाशी है । ये काठ के पूतले, पांच तत्व के भूत, क्षण में नष्ट हो जाने वाले है फिर कहाँ वे कहाँ उनका प्रतिष्ठान । ये तो पलक झपकते ही लोगों के विश्वास को हरण कर लेते हैं ॥
बुधवार, ०५ मार्च, २ ० १ ४
भच्छा भच्छ भखी निसि चारी । कहत जगत तिन साकाहारी ॥
जोई जेतक पर धन हारी । सोई तेतक बर बैपारी ॥
जो राक्षसी स्वभाव के खाद्य-अखाद्य सभी को खा लतें हैं ।ज्सन्सार उन्हें ही शाकाहारी कहता है ॥ जो जितना पराया धन हरण करता है वह उतना ही बड़ा व्यापारी है ॥
राजा हो की कोउ भिखारी । दोनउ कोउ अंतर न धारी ॥
दुहु कर लेई दान अहारी । दुहु धन के भूखे भंडारी ॥
राजा हो कि कोई भिखारी हो , दोनों में अंतर करना कठिन हो गया है ॥ दोनों हाथ पसार कर दान लेते है दोनों ही दान का खाते हैं ॥ दोनों धन के भूखे भंडारी है ।
छटेल छिद छलि मुख फुरि बानी । कलिजुग तिन गुन बंत बखानी ॥
धरे धुनी मुख भयउ दाने । चारि कनिक के चौसठ गाने ॥
जो छली-कपटी है धूर्त है जिनके मुख झूठी वाणी है । कलयुग में उनहन ही गुणवंत कहा जाता है ॥ मुख से शब्द उच्चारित होते ही उनका दानकरण संपन्न हो जाता है । कहीं चार कण दे भी दिए तो उसके चौसठ गाने बनवाते हैं ॥
धनबति के सिंगार नबीना । निर्धनि के बालक कन हीना ॥
कथा कबित कबि लिख भए अंधे । बरासनी करि गोरख धंधे ॥
धनवालियों के नित नए श्रृंगार हैं । निर्धनी के बालक कण से भी रहित हैं ॥ (ये है देश की अर्थ अव्यवस्था )कवी गण कथा लिख लिख कर अंधे हो गए । पर ऊँचे आसनों पर बैठे लोगों ने गांय रख रख के उसके वाचन को धंधा बना लिया है ॥ ( क्या बेचना चाहिए क्या नहीं इसका ज्ञान वास्तविक व्यापारी को होता है )
गृहस दरिद तपसी धनबंता । भए रति अनुरत साधुहु संता ॥
कहत बन न कछु तिन दुर्दामिन । तात कह त कहि कहु न स्वामिन ॥
गृहस्थ दरिद्र हो गए हैं तपस्वी धनवान हो गए हैं । गृहस्थ विरक्त हो गए हैं साधू संत रति क्रिया में अनुरक्त पाये जाते हैं ॥ इन शक्ति सम्पन्नों को कुछ कहते भी नहीं बनता, तात कहो तो कहते हैं तात मत कहो स्वामी कहो न ॥
बरासनी : -- व्यास पीठाधीश ( प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री राम चरित्र मानस के उत्तर काण्ड से अभिप्रेरित है )
तिनके लख लाख उधार, तुहरे लाख दुइ चार ।
पलक पोटल भीत घार, खाहि न लेहि ढकार ॥
ऐसे व्यापारियों की लाखों उधारी प्रतीक्षा कर रही हैं । और तुम्हार यह दो चार लाख । ये भूक्खड़ छान भर में ही इस अपन उअर मन समर्पित कर दंग और ढकार भी नहीं लेंगे ॥
बृहस्पतिवार, ०६ मार्च, २ ० १ ४
थिर चितबन बहु देइ धिआना । सुनत पिया बधु लगाए काना ॥
जुगति जुगत पूरनित नियाई । जगत जथारथ पिय कहनाई ॥
वधु ने पियाजी को बहुंत ही ध्यानपूर्वक सुचित्त स्वरुप में कान लगा कर सूना ॥ उनके वचन युक्तियुक्त एवं न्याय संगत होकर संसार का यथार्थ वचन थे ॥
तब बधु अंस निबेस बिचारे । तड़ तै जड़ तै मन तै टारे ॥
यह मन चितबन अस सरनि सरन । लगे रहे जँह आवन जावन ॥
तब वधु ने अंश में निवेश के विचार को एक ही झटके में, समूल स्वरुप में मन से त्याग दिया ॥ किन्तु यह मन यह चित्त ऎसे मार्ग के शरण में है । जहां आना-जाना लगा रहता है ॥
करत कलरब सरब सुख दाई । एक मत आनत एक मत जाईं ॥
जस चरण बिपिन सरन सरंगे । जस उरत फिरत गगन बिहंगे ॥
जहां एक विचार का आगमन होता ही दूसरा कलवराव कर करते हुवे ध्वनिमान होकर सुखपूर्वक निर्गमन करटा है । ऐसे जैसे की किसी विपिन की पगडंडियों में चौपड़ विहार कर रहे हों जैसे वियत में वियतगत उड़ते फिरते आवागमन करते हैं ॥
कहत नारि अति सरल सुभावा । रहे न वाके मनस दुरावा ॥
नयन दरसे उदर जो घारी । आतम जन सब कहत उचारी ॥
कहते हैं नारी स्वभाव की सरल होती है । उसके मन में कोई दुराव-छिपाव नहीं होता । जो आँखों से दखा जो उदर को समर्पित किया उसको भी वह आत्मजनों से कह देती है, अर्थात त्रिया-चरित्र पुरुषों का होता है ॥
जदपि नारी मंद बुद्धि, दरस दीठि हहि थोरि ।
डेढ़ सियान नरसन तौ, अहहि भीत की भोरि ॥
यद्यपि नारी की बुद्धि पुरुषों की तुलना में थोड़ी मंद होती है । थोड़ा सा धुंधला भी दिखता है । किन्तु पुरुषों की डेढ़ स्यानपत्ती की तुलना में तो अंतर से वह अबोध ही होती है ॥
शुक्र/शनि, ०७/०८ मार्च, २ ० १ ४
दुःख सुख लगे त बने सहाई । थात भ्रात सों बोल बताईं ॥
भेद प्रगसु न पिय कह हारे । पहिले धारे फिर परचारे ॥
दुःख सुख लगने पर जो सहायक सिद्ध हुवे । उन्हीं भ्राताओं के सम्मुख वधु ने धरोहर की सारी राम-कहानी कह दी ॥ प्रियतम यह समझा कर हार गए थे कि अपने घर का भेद कहीं प्रकट नहीं करना चाहिए अन्यथा लंका ढह जाती है । उसने उस सीख को अनसुना कर पहले तो उस धारण को धारण किया फिर उसका प्रचार कर दिया ॥
अगहन घन जस घन गहरारे । गरजत बरखत तनिक सिधारें ॥
तसहि भ्रातिन्हि छिरी लड़ाई । बाँट बिखेर बिहान बिहाई ॥
जिस प्रकार मार्गशीर्ष के महीने में गहरे हुव घन क्वचित स्वरुप में गरज-बरस कर सिधार जाते हैं ॥ उसी प्रकार भ्राताओं के विभाजन की छीड़ि हुई लड़ाई बांटा की कुछ बिखेरा की अंतत: वह समाप्त हो गई ॥
बहोरि भ्राता बिभाजन परन । दोनहु जन्ह आपनी आपन ॥
अरंभे बैठ पनी पँवारे । तेजी मंदी के बैपारे ॥
उस विभाजन के पश्चात फिर दोनों भाई पुन:अपनी अपनी साधृत में हटवारी की द्वारी पर तेजी-मंदी का व्यापार प्राम्भ किये ॥
धारि उधारि धरे बिनु धनही । गाहे अनुभूति बहु भूतनही ॥
गह गहस होवत रथाकारे । पीठोपर प्रियजन पैठारे ॥
पाणितव्य-द्रव्य उधारी पर आधारित था । भ्राताओं के पास धन नहीं था । किन्तु उनका कार्य परीक्षित एवं अनुभव गृहीत था ॥ गृह-गृहस्थी रथ के आकार की होती है । जिसके पीठ पर प्रियजनों को बैठाकर : --
देत कछुक कनदान, देत आहार ओढ़ान ।
देत बहुस श्रमदान, तबहि रथ के चाक चरे ॥
कुछ कणों का दान करें , उसे भोजन-आच्छादन दें बहुंत ही श्रम दान करें उस रथ का चक्र तभी संचालित होता है अन्यथा धक्के मारने पड़ते हैं ॥
तैल तरल द्रव सार सनेही । बाहनि बाहनि लेही देही ॥
चरत रही जो चक धकियाई । चली सुगम तनि लाहन पाई ॥
तरल तैल जो सार स्वरुप है एवं स्नेह भी है । भ्राता उसी द्रव्य की वाहिनियों का व्यवहार करते थे एवं किया । गृहस्थी के जिस रथ का चक्र धक्के देने से संचालित हो रहा था । किंचित लाभ प्राप्त करते ही उसका परिचालन सुगम हो गया ॥
एक दिन ठाले बैठ बिठाई । बड़के सन बधु पूछ बुझाई ॥
धरेउ धारन कहाँ निबेसूँ । कहु तौ लहकर कोउ सुदेसू ॥
एक दिन ही रिक्त बैठी वधु ने बड़े भ्राता से अनुग्रहपूर्वक पूछा मैने जो धरोहर धर रखी है उस कहाँ निवेश करूँ कोई लाभकारी उचित स्थान ज्ञात कराओ तो ॥
पहिले सोचे भ्रात सयाने । बहुरि बोल जे अभिमत दाने ॥
तेल ताल लह तरल सुभावा । अजहुँ गाहे बहु नीचक भावा ॥
प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त एवं वृद्ध अवस्था में प्रवेश करते हुवे भ्राता ने पहिल विचार किया । फिर अपना यह मत व्यक्त किया । तेल के तालाब का स्वभाव बड़ा पतला हो गया है बिलकुल पानी । अभी उसके मूल्य अत्यंत ही निम्नस्तर पर है ॥
एक अध् बाहिनि लेई लाहू । बढ़ती भाउ देइ बेचाहू ॥
अजमंजस भर करत अंदेसे । कहत बधुरि राखौं को देसे ॥
एक-आध वाहिनी ले लवा लो । जब भाव बढ़ेगा तो विक्रय कर देना ॥ असमंजस में भरी वधु ने यह अंदेशा जताया कि ले तो लूँ किन्तु रखूँ कहाँ ॥
कहत भ्रात अंदेस निबारे । आपन साधृत भीतर धारें ॥
तव जमाता देइ निस्कासन । राखहु का मोहि आपन भवन ॥
भ्राता ने यह कहकर उस अंदेशे का निवारण किया अपनी साधृत के अंदर और कहाँ ॥ वधु ने कहा तुम्हारे भगिनी-भर्ता ने यदि घर से निकाल दिया तब क्या तुम लोग मुझे अपने घर में रखोगे ॥
भ्रात तनुजा सम अनुजा , निहार तिरछ निहार ।
देइ उतरु तौ फिर देहु, मोरे सिरपर धार ॥
तब भ्राता ने अपनी तनुजा सदृश्य अनुजा को तिरछि दृष्टि से निहारा और यह उत्तर दिया । फिर तो तरल तेल जो सार स्वरुप होता है एवं स्नेह भी है उसे मेरे ही सिर पर धर दो ॥
रविवार, ०९ मार्च, २ ० १ ४
एक बाहि पन ठान एहि भाँती । लख डेढ़े कुल जुग लगि थाती ॥
जस भ्राता मुख बोल उचारे । लेइ तिन्हहि के सिरौधारे ॥
वधु न एक वाहिनी का पण निश्चित किया एवं धरोहर मन से लगभग रूपए डेढ़ लाख का भुगतान किया ॥ जैसे की भरता ने अपने मुख से बोला था । पणितव्य द्रव्य को उन्हीं के सर के ऊपर रख दिया ॥
बधु के कर परसत जैसेही । तेल भाउ पन बढ़तै लेही ॥
रोहवरोह तरंग सुभावा । सो बिधि पनितब द्रव के भावा ॥
वधु के हाथ ने जैसे ही तरल तैल जो सार स्वरुप होता है एवं स्नेह भी कहलाता है को स्पर्श किया उसकी हटियारी मूल्य में बढ़ोतरी होती गई ॥ तरंग का स्वभाव रोहावरोह क्रम में होता है पणितव्य सामग्री का स्वभाव भी उसी भाँति का होता है ॥
धरि संचै पत्र बधु कर चौरइ । बध धन अहरन पंथ अगौरइ ॥
तिन अनुग्रह जे भै परिनामा । बहुरि एक दिवस बहुबर धामा ॥
(उधर) वधु ने जिन धन संचय पत्रों की चोरी की थी । उन पत्रों में आबद्ध धन आहरण को प्रतीक्षा कर रहा था । लघु भ्राता क सम्मुख उस हेतु आग्रह का यह परिणाम हुवा कि फिर एक दिन वध-वर के आवास में : --
औचट ही लघुभ्रात पधारे । अहरन के कहि भयउ जुगारे ॥
पंच बछर जिन राख न लाखे । बहुरि भ्रात के श्रीकर राखे ॥
लघुभ्रात का औचट आगमन हुवा । उन्होंने कहा धनाहरण कि व्यवस्था हो गई है ॥ जिन पत्रों को वधु पांच वर्षों तक रख रही और उनकी ओर देखि भी नहीं उन्हें फिर भ्राता के श्रीहस्त पर रख दिया ॥
दोउ भ्रात सों दोउ प्रसंगे । आगिन-पिछु कर भए एक संगे ॥
बधुरि प्रीतम दिए न संज्ञाने । एतदर्थ दोइ तैं ना जाने ॥
दोनों भ्राताओं के संग यह दोनों प्रसंग कुछ आग-पीछे कर लगभग एक ही साथ हुवा था ॥ वधु ने प्रीतम को संज्ञापित नहीं किया था ।अत:वह दोनों घटनाओं से अनभिज्ञ थे ॥
कूट कुटाई छंद छल, सन तिन मन रहि हीन ॥
तेहि काल दुहु भ्रात रहि, बहिनै नेह अधीन ।
उस समय दोनों भ्राता का हृदय कूट-कपट छल-छंद से रहित था वे केवल भगिनी के सनेह के अधीन थे ।
सोमवार, १० मार्च, २ ० १ ४
जुगत परस्पर प्रीत प्रतीते । लेइ देइ के कछु दिन बीते ॥
दें कहेन्हि देंन न सोचे । माँगन भ्राता बधुरि सँकोचे ॥
इस प्रकार परस्पर प्रेम- विश्वास से ओतप्रोत होकर लेन-देन किए कुछ दिवस बीते ॥ देने को कहा था किन्तु बिन मांगे दिए नहीं और माँगने में वधु को संकोच हो रहा था ॥
कह मन ही मन कह अब का कारौं । आपन देवन का परिहारों ॥
दिरिस उलट कलि काल दिखाउब । भ्रात बहिन दे दानि कहाउब ॥
वह मन ही मन कहती अब क्या करूँ । क्या अपनी देनी त्याग दूँ ॥ फिर तो यह कलयुग उलटा समय दिखलाएगा । भगिनी भ्राता को देकर दानी कहलावेगी क्या ॥
माँगन पुनि लाजन परिहारत । भाव बरन क्रम बचन सँवारत॥
बधु मँगनी जब मँग मँग हारए । कल कल कल कह भ्राता टारए ॥
फिर उसने देनी नहीं त्यागी , लज्जा त्यागी और भावों को, वचन के क्रम को संवारते हुवे अपने लागे की मांग की ॥ वधु माँग माँग कर हार जाती , भ्राता कल कल कल कह कर टालते नहीं हारते ॥
माँगि हार थकि भइ उरगानी । कंठ सूख मुख आव न पानी ॥
फुलोवत गाल चेति बियाकुल । लाग लगे मम सन मोरे कुल ॥
और मांग से हार कर जब वह थक गई, उसका कंठ सुख गया मुख में आता पानी भी बंद हो गया फिर वह मौन हो गई । और गाल फूलते हुवे ब्याकुल हो कर सोचने लगी मेरा ही कुल मेरे ही साथ बैर बांधे हैं ॥
बानि बचन सर सरासन, कहुँ तुरही कहुँ भेरि ।
सकल जुझाउनि बाजने, घर भर हेरत हेरि ॥
वाणी एवं वचनों के तीर धनुष कही तुरही कहीं भेरी आदि ये सारे रण के बाजे वह घर भर में ढूंडती फिरने लगी ॥
मंगलवार, ११ मार्च, २ ० १ ४
लोभ लाह जुग लागन केते । रोख पोख बधु किए रन खेते ।।
एक पख बहिनिहि एक पख भाईं । दुहु एकै मात पितु के जाईं ॥
लोभ एवं लालुपता ने मिलकर वैर को ललकारा । वधु ने आक्रोश को पोषित कर रन का क्षेत्र तैयार किया ॥ एक पक्ष में भगिनी का थी तो दुसरे पक्ष भ्राताओं था ॥ दोनों पक्ष एक ही जननी के जाए थे ॥
जब लाग लगे बहु लाग लगे । जब लाग लगे रन भाउ जगे ॥
बरन बचन मुख बान सुधारे । लौहिताननी सान सँवारे ॥
जब स्नेह किया तब बहुंत स्नेह किया । जब वैर किया तो रन के भाव जागृत हो उठे ॥ वर्ण, वसाहन रूपी बाण अपने मुख को सुधार कर उसे लौहित मुखी कर कसौटी पर सवारने लगी ॥
रोख रथ के रथि बनी सोई । सोचि साथ सारथि को होई ॥
बैठे बैठे जुगत लगाई । ठाने पनि पिय करन धराई ॥
उस आक्रोश नामक रथ की रथिक वह स्वयं बनी । और सोच विचार करने लगी कि इसका सारथी कौन हो ॥ बैठे ही बैठे उसे उपाय सुझा । भ्राता के साथ जो पण निश्चय किया था वह जाकर पियाजी के कानों में कह दिया ॥
पिय बिथुरत कहि बिनाहि बताए । कर कुकर्म अब लोहा बजाए ॥
जब संचै पट चौरि बताई । चोर चोर कह रवन मचाई ।।
यह सुनकर पियाजी बिखर गए कहने लगे बिना बोले-बताए ऐसे ऐसे कुकर्म करी और अब राणिगैल मचा दी ॥ और जब संचय धन पत्रों की चोरी बताई तब चोर चोर कहकर ऐसा कोलाहल किया कैसे कोई वायुयान हो ॥
बजे बचन के ठोल निसाना । बाज बाज भए सिथिर बिहाना ॥
सुनी दुर्बादन नेक प्रकारी । बहुरि आइ जब बधु के बारी ॥
फिर तो बातों के ढोल-नगाड़े बजने लगे । बज बज कर अंतत: शिथिल हो गए ॥ इस प्रकार वधु ने अनेक प्रकार के दुर्वचन सुने, दो चार खाई भी । फिर वधु की बारी आई ॥
कंचन कामी छल छंद, धींगी धंधक धोर ।
जदपि बंचक भ्रात मोर, पर नहि को चोर ॥
धन के लोभी हैं, छह करने वाले हैं कपटी हैं दुष्ट हैं, आडम्बरी हैं , यद्यपि मेरे भ्राताओं का चित्त ढगी की ओर प्रवृत्त है किन्तु वह कोई चोर-वोर नहीं हैं ॥
बुधवार, १२ मार्च, २ ० १ ४
अह कस बर बर पदबी दाई । तिनते भली चोर कहनाई ॥
मोर मन त न्यनतम जाना । तुम्ह दीन्ह अधिकधिकाना ॥
अहा ! कैसी बढ़िया बढ़िया पदवी दी है । इससे अच्छा तो चोर कहलाने में है ॥ मेरे में में तो किंचित ही था तुमने अपने भ्राताओं को अधिकाधिक कुपाधियाँ दे कर उन्हें अकिंचत ही कर दिया ॥
हमारी सास तुम्हरी माता । कहहि मोही चोरन की जाता ॥
कहत बहुकन बचन अकुलाने । अ ह ह बिनु माँगहि देहि ताने ॥
जो हमारी सास है ना वही जो तुम्हारी माता है । वो मुझ चोरों की बेटी कहकर पुकारेंगी ॥ और व्याकुल करने वाले बहुंत से वचन कहकर आ हा हा ,बिना मांगे ही ताने देंगी ॥
यहु बत तुम तिन कानन पोई । मम सम अनभल होहि न कोई ॥
अरु त्रुटिबस जो बोल बताहू । जे घर रहि बस मोर बसाहू ॥
यदि तुमने ये बातें उनके कान में पहुंचा दी । तब मुझसे बुरा कोई न होगा । कहीं त्रुटिवश भी बता दी तो फिर इस घर में मैं ही रहूंगी तुम नहीं ॥
जब बहियर अस बोल उचारी । सुन यह पिय हिय लग हहरारे ॥
अह तुहरे लोचन परिहारा । कहाँ जाहिं जे दास तुहारा ॥
जब वधु ने ऐसा कहा तब प्रियतम अंदर तक हिल गए ॥ आह! तुम्हारे आखों से त्यागा हुवा यह तुम्हारा दास कहाँ जाएगा माता भी नहीं रखती भगा देती है ॥
प्रान पियारा बापुरा, मर्म भेद कहूं दाहि ।
तुहरे लाग लगाए जो, अस मूरखा त नाहि ॥
तुम्हारे मर्म भेद कहीं प्रकट करे और तुमसे बैर बांधे यह प्रान प्यारा बेचारा है किन्तु ऐसा मूर्ख तो बिलकुल नहीं है ॥
बृहस्पतिवार, १३ मार्च, २ ० १ ४
सकल जोग जब गयउ ठगाही । तब आन कहि कथा मम पाहीं ॥
कभु करी बिनती कबहु निहोरी । धत ररिहत कबहू कर जोरी ॥
धनहु गवनहु भए मनहु मैला । पन ठानि त रीति रीति थैला ॥
पेटक घार दोइ ठो गारी । घटै जाति का जात तुहारी ॥
कर पचित प्रीत पाचक चूरन । घरहिहु रहिते सकल जुगावन ॥
अह कस लखिनु माया बनाई । तापर छम छम नाच दिखाई ॥
ऐसेउ दरसन को न लुभाए । दुष्ट दनुज खल कि भलमनसाए ॥
तनिक होर लए एक उछ्बासा । पुनि बोलत गवने एक साँसे ॥
उपाधिनि के दे उपाधि, कह दुहु ठो अरु बात ।
घुटुरून सकल बल बुद्धिहि, गहि नारी की जात ॥
शुक्र/शनि, १४/१५ मार्च, २ ० १ ४
कहत बने ना चुपु रहत बने । अवरेब धरत बधु ठारि सुने ॥
पुनि पहिले मँग समउ अगोरे । अरु एक दिन जब माँग निहोरे ॥
बढ़त बत भए बरन चिनगारी । घरे भ्रात कहि पेट पिटारी ॥
बहोरि भयऊ रन घम साना । गहि दुहु पख कर आयुध नाना ॥
बानि बदन लिए खैच सरासन । गर्जहि अस जस को घन गर्जन ॥
करखत करषत कठिन कुभाँती । प्ररित प्रतीति बिनय किए हाँती ।।
दोइ बंच दुइ रन पाटीरे । दोइ भ्रात सन बहिनी घीरे ॥
लोभ मंच मह लाहन नाचे । दुहु पख निकसे बचन नराचे ॥
करत अरगान कुजस बखान बदन बरन बनाउली ।
बहु तेज मुखित लख निलय लखित बाहित बाहि बहि चली ॥
लोहित लोचन ओहि कुबचन कहि बहु आपन कुल के ।
बहु करुवारी, प्रतिउतरु चारि कहे भ्रात सुध भुल के ॥
जोइ भ्रात हिया अनुजा, आपन तनुजा जान ।
सीसोपर निज कर धरे, किए बहु आदर मान ॥
जो कभु को दुर्बाद न बादे । सो किए ऐसेउ कुसंबादे ॥
जारत हिय बधु करत ग्लानी । भ्रात बचन उर बहु दुःख मानी ॥
द्रवित दिरिस मुख बचन न आवा । पटु सोंह भ्रात जेइ सुभावा ॥
रही अनुजा गाहे दुरावा । होत धिआ अस होत न भावा ॥
दोइ पाख धर अधम सुभाऊ । सोइ सुने जो सुने न काऊ ॥
जब जब अगजग माया गाढ़े । तमो गुन गह कुभाउ बाढ़े ॥
को घर धनबन जब धन भ्राजे । लगे सगे सब लगे अकाजे ।।
कोप करत जो पीहर अहुरी । सोच करत अस पिय घर बधुरी ॥
करत मोह छिनभिन मनस, धरत कुठारा घात ।
फाटे मन लेत बहुरी, प्रियजन नयन निपात ॥
पूछे पिया सब सकुसल, दरस सुलोचन रोए ।
दो बैरी बिच झोपड़ा, कुसल कहाँ सन होए ॥
अस कह बहिनि इत लइ बिदाई । धन धारत उत बधु कदराई ।।
धरे पुनि तिन्ह समुझ धराऊ । आगत लखि के को बिसराऊ ॥
ऐसा कहकर इधर भगिनी ने विदा ली उधर धन-धारण करते हुवे वधु हिचकने लगी ॥ फिर उसे धरोहर समझ कर धारण किया भला आती हुई लक्ष्मी को कोई ठुकराता है ॥
पिय जब जान थात के नाईं । भली भनन बधु कह समुझाईं ॥
जदपि धरे धन धर्मन कारन । दूषित सोत तिन किए संकलन ॥
प्रियतम को जब उस धरोहर के बारे में ज्ञात हुवा । तब उन्होंनें अच्छी बात कह कर वधु को समझाया ॥ यद्यपि तुमने यह धन ( पारिवारिक )परमार्थ हेतु धारण किया है किन्तु यह धन दूषित स्त्रोतों से संगृहीत किया गया है ॥
सोइ कारज होत भलहीना । हो घर बड़हन भाने बीना ॥
माया गहि पुनि बहुस बुराई । बर बर जन के चेत फिराई ॥
और जो घर के बड़ों के संज्ञान से रहित हों ॥ ऐसे कार्य अकल्याणकारी होते हैं ये किसी का हित नहीं करते । फिर माया में बहुंत सी बुराइयां संगृहीत होती हैं यह अच्छे से अच्छे लोगों के चेतना को भ्रमित कर सुप्त कर देती है ॥
निरत करत जब छम छम बोले । मुनि महिमन मन डगमग डोले ॥
रे संगिनी तुएँ भाल न कारे । धारन धारन बहुरि बिचारे ॥
यह जब छम छम करके नृत्य कराती है तब महतिमह मुनिजनों के मन भी डगमग होकर डोलने लगते हैं ॥
आरी संगिनी तुमने यह अच्छा नहीं किया । इस धारण को धारण करने के लिए एक बार और विचार कर लो ॥
तेहि समउ पिय के बचन, लगे प्रबचन समान ।
दी न तिन्ह धिआन तदपि, भई बधु साउधान ॥
उस समय प्रियतम के श्रीवचन प्रवचन से लगे । वधु ने ध्यान नहीं दिया किन्तु वह सावधान अवश्य हो गई ॥
रविवार, ०२ मार्च, २ ० १ ४
करत करत अस जोरत जोगे । सात आठि लख लिए संजोगे ॥
एक छन बधु मति जे मत आई । लाग लगेरे देइ चुकाईं ॥
ऐसा करते करते जोड़- जुगाड़ लगाते वधु क पास सात-आठ लाख भारतीय पत्र मुद्राएं एकत्र हो गई ॥ एक छान को तो वधु के बुद्धि मन यह विचार आया कि ये जितने लाग-लगेडे है सबको निपटा दें ॥
मनस मानस लालस उछाहे । चित कह नहि नहि ए भली नाहे ॥
धरे धरेहु त मल हुइ जाही । नद धन धर्म अमल बहि माही ॥
मस्तिष्क के मानसरोवर लालच उद्वेलित हो उठा । किन्तु मन न खा नहीं नहीं यह कार्योचित नहीं है ॥ किन्तु वह धरोहर धरी धरी भी मलिन हो जाएगी । नदी एवं धन का निर्मल स्वभाव उसके प्रवाह में ही है ॥
पुनि बधु घर पिछु एक भू देखी । बसतिहि अंतर पंथ प्रबेखी ॥
जब प्रियतम सन बोलि बिसावन । देइ पिय उतरु पराए धन सन ॥
फिर वधु ने अपने निवास स्थल के पीछे एक भूमिखंड देखा जो जन संबाध के भीतर प्रवेश मार्ग से लगा था ॥ जब उसने उस खंड को क्रय करने हेतु प्रियतम से चर्चा की । तब प्रियतम ने उत्तर दिया 'पराए धन से'?
लालस एक दिन तुअँ लिए जाही । का तुम पर धन हड़पन चाही ॥
बधु ररन पिय देइ न धिआना । एक कन सुनत निकासे दुज काना ॥
यह लालच ही तुम्हे एक दिन ले कर जाएगा । क्या तुम इस धन को हड़प करना चाहती हो ॥ फिर प्रियतम ने वधु के भूखंड क्रय करने की रट पर कोई ध्यान नहीं दिया । एक कान से सुना दूसरे से निकाल दिया ॥
अरु कहि जे हास बचन, लिखि दूजन के नाम ।
जाके दूजन पतिदेउ, सो आपनि किस काम ॥
और (हंसते हुई मुद्रा में ) यह परिहास वचन कहने लगे : -- जो दूसरे के नाम लिखी हो, जिसके पतिदेव कोई और हो वह अपने किस काम की ॥
सोमवार, ०३ मार्च, २ ० १ ४
कहि बधु बहिनि त अनुमति दाही । तथापि पिय मुख रहि नन्नाही ॥
मन मानस मत पाँख तिरावत । बधूटी भली सीख सिखावत ॥
तब वधु ने कहा किन्तु भगिनी ने तो अनुमति प्रदान कर दी है तथापि प्रियतम के मुख पर नकारात्मक स्वर ही रहा ॥ मन-मस्तिष्क के सरोवर में फिर विचारों के पंख तैराते हुवे वधु को उच्च स्तर का ज्ञान देते हुवे : --
पति देउ देइ भले सुझावा । तनिक बछर मह हो दुहरावा ॥
संच पतर संचाउ न काहे । तुअ मैं का को परस न पाहे ॥
पति देव ने यह उत्तम सुझाव दिया । जो किंचित वर्षों में दोहरे हो जाए । तुम इस धन को उन संचय पत्रों में संचित क्यों नहीं कर देती । फिर तुम क्या मैं उसका उपयोग कोई भी नहीं कर पाएगा ॥
जह धन सब हित कारन होई। आन परे जब चाहत कोई ॥
बंधक पात त लेइ बँधाही । धर्म अर्थ बिरथा हो जाहीं ॥
जहां यह धन सभी के हित का कारण होकर , संयोग से जब इसकी कोई आवश्यकता आन पड़े तब तुम्हारे यह बंधक पत्र समस्त धन को बांधे बैठे रहेंगे फिर उस धन में निहित धर्मार्थ के अर्थ का अनर्थ होकर वह व्यर्थ हो जाएगा ॥
अस कह बधु पिय सम्मति न दानी । लाभ लब्ध अवधिहि अनुमानी ॥
पुनि पिय कर दे त्यों सँचाई । चह जब दें चाहें जब लाईं ॥
ऐसा कहते हुवे वधु ने प्रियतम के मत को सम्मति नहीं दी । फिर लाभ लब्धि और अवधि का अनुमान करते हुवे प्रियतम के हाथों उस धन को इस प्रकार संचित किया कि जिसमें जब चाहें धन संचित जब चाहे आहरित करे सकते थे ॥
घुमरि घुमरि घन घन गगन, बरख न कोउ सुदेस ।
घुमरि बधु मन अस चिंतन, धन कहु करन निबेस ॥
जिस प्रकार गगन के बादल किसी उचित स्थान पर बरसने हेतु घुमड़ते हैं ॥ उसी प्रकार से उस धन रूपी घनरस को किसी उचित स्थान पर निवेश हेतु वधु के मन रूपी गगन में चिंतन रूपी घन घुमड़ने लगते ॥
मंगलवार, ०४ मार्च, २ ० १ ४
एक बछर लग अंस के आपन । करत करत बधु गहन अध्ययन ॥
सोइ पतर लेवन जब बोली । कहत पिया तुम हो बहु भोली ॥
लगभग एक वर्ष तक के अंश पणग्रंथि का का गहन अध्ययन करते करते जब वधु ने प्रियतम को अंसह पत्र क्रय कारन के लिए खा तब प्रियतम न उठता दिया ह प्रियतमा तुम बहुंत ही अबोध हो,
भोली हो ॥
बैठे पति जौ ग्रंथिहि पानी । भए एक त एक सियान सियानी ॥
तुम सिंघनी पट सवा सिंघा । पति जरत जोत तुम्ह पतिंगा ॥
पणग्रंथि में जो पनपती अपना पसारा लगाए बैठे हैं वे एक से एक स्याणी-स्याणे हैं ॥ यदि तुम सिंघणी हो तो वे सवासिंग हैं हे प्राणसमा तुम एक पतंगा हो वे पणपति जलता हुवा दीया हैं ॥
लोभलगन लग लाह ललाहे । केतक जारत भयउ सुवाहे ॥
बन उलूक कटि गाँठिन गवाए । हरि हरि बाहन भवन बेचाए ॥
लोभ के आकर्षणवश लाभ के लगन में उस दिए में पाहिले भी कितने ही जल कर स्वाहा हो गए । उल्लू बने संचित धन गवाए उस दिया के चक्कर में धीरे धीरे वाहनी क्या भवन तक बिक गए ॥
एतद काल जन जन मन भाईं ।तिनकी ललपती ठकुरसुहाई ॥
बगुरा भगत के भरोस का । जग जनार्दन अहही जनता ॥
एतद काल में उसकी लालपत्ती उसकी चिकनी चुपड़ी बातें जन जन के मन को लुभावना लग रही है । यह दिया बगुला भगत है और बगुला अभक्तों का कोई भरोसा है ? यह जनता ही जनार्दन स्वरुप है ॥
अगज जगज जन संगठन, नित अछ्छइ अबिनास ।
छन भंगूरे पूतरे, पलक हरे बिस्वास ॥
यह चराचर जगत और उसका लोकसमूह नित्य है अक्षय है अविनाशी है । ये काठ के पूतले, पांच तत्व के भूत, क्षण में नष्ट हो जाने वाले है फिर कहाँ वे कहाँ उनका प्रतिष्ठान । ये तो पलक झपकते ही लोगों के विश्वास को हरण कर लेते हैं ॥
बुधवार, ०५ मार्च, २ ० १ ४
भच्छा भच्छ भखी निसि चारी । कहत जगत तिन साकाहारी ॥
जोई जेतक पर धन हारी । सोई तेतक बर बैपारी ॥
जो राक्षसी स्वभाव के खाद्य-अखाद्य सभी को खा लतें हैं ।ज्सन्सार उन्हें ही शाकाहारी कहता है ॥ जो जितना पराया धन हरण करता है वह उतना ही बड़ा व्यापारी है ॥
राजा हो की कोउ भिखारी । दोनउ कोउ अंतर न धारी ॥
दुहु कर लेई दान अहारी । दुहु धन के भूखे भंडारी ॥
राजा हो कि कोई भिखारी हो , दोनों में अंतर करना कठिन हो गया है ॥ दोनों हाथ पसार कर दान लेते है दोनों ही दान का खाते हैं ॥ दोनों धन के भूखे भंडारी है ।
छटेल छिद छलि मुख फुरि बानी । कलिजुग तिन गुन बंत बखानी ॥
धरे धुनी मुख भयउ दाने । चारि कनिक के चौसठ गाने ॥
जो छली-कपटी है धूर्त है जिनके मुख झूठी वाणी है । कलयुग में उनहन ही गुणवंत कहा जाता है ॥ मुख से शब्द उच्चारित होते ही उनका दानकरण संपन्न हो जाता है । कहीं चार कण दे भी दिए तो उसके चौसठ गाने बनवाते हैं ॥
धनबति के सिंगार नबीना । निर्धनि के बालक कन हीना ॥
कथा कबित कबि लिख भए अंधे । बरासनी करि गोरख धंधे ॥
धनवालियों के नित नए श्रृंगार हैं । निर्धनी के बालक कण से भी रहित हैं ॥ (ये है देश की अर्थ अव्यवस्था )कवी गण कथा लिख लिख कर अंधे हो गए । पर ऊँचे आसनों पर बैठे लोगों ने गांय रख रख के उसके वाचन को धंधा बना लिया है ॥ ( क्या बेचना चाहिए क्या नहीं इसका ज्ञान वास्तविक व्यापारी को होता है )
गृहस दरिद तपसी धनबंता । भए रति अनुरत साधुहु संता ॥
कहत बन न कछु तिन दुर्दामिन । तात कह त कहि कहु न स्वामिन ॥
गृहस्थ दरिद्र हो गए हैं तपस्वी धनवान हो गए हैं । गृहस्थ विरक्त हो गए हैं साधू संत रति क्रिया में अनुरक्त पाये जाते हैं ॥ इन शक्ति सम्पन्नों को कुछ कहते भी नहीं बनता, तात कहो तो कहते हैं तात मत कहो स्वामी कहो न ॥
बरासनी : -- व्यास पीठाधीश ( प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री राम चरित्र मानस के उत्तर काण्ड से अभिप्रेरित है )
तिनके लख लाख उधार, तुहरे लाख दुइ चार ।
पलक पोटल भीत घार, खाहि न लेहि ढकार ॥
ऐसे व्यापारियों की लाखों उधारी प्रतीक्षा कर रही हैं । और तुम्हार यह दो चार लाख । ये भूक्खड़ छान भर में ही इस अपन उअर मन समर्पित कर दंग और ढकार भी नहीं लेंगे ॥
बृहस्पतिवार, ०६ मार्च, २ ० १ ४
थिर चितबन बहु देइ धिआना । सुनत पिया बधु लगाए काना ॥
जुगति जुगत पूरनित नियाई । जगत जथारथ पिय कहनाई ॥
वधु ने पियाजी को बहुंत ही ध्यानपूर्वक सुचित्त स्वरुप में कान लगा कर सूना ॥ उनके वचन युक्तियुक्त एवं न्याय संगत होकर संसार का यथार्थ वचन थे ॥
तब बधु अंस निबेस बिचारे । तड़ तै जड़ तै मन तै टारे ॥
यह मन चितबन अस सरनि सरन । लगे रहे जँह आवन जावन ॥
तब वधु ने अंश में निवेश के विचार को एक ही झटके में, समूल स्वरुप में मन से त्याग दिया ॥ किन्तु यह मन यह चित्त ऎसे मार्ग के शरण में है । जहां आना-जाना लगा रहता है ॥
करत कलरब सरब सुख दाई । एक मत आनत एक मत जाईं ॥
जस चरण बिपिन सरन सरंगे । जस उरत फिरत गगन बिहंगे ॥
जहां एक विचार का आगमन होता ही दूसरा कलवराव कर करते हुवे ध्वनिमान होकर सुखपूर्वक निर्गमन करटा है । ऐसे जैसे की किसी विपिन की पगडंडियों में चौपड़ विहार कर रहे हों जैसे वियत में वियतगत उड़ते फिरते आवागमन करते हैं ॥
कहत नारि अति सरल सुभावा । रहे न वाके मनस दुरावा ॥
नयन दरसे उदर जो घारी । आतम जन सब कहत उचारी ॥
कहते हैं नारी स्वभाव की सरल होती है । उसके मन में कोई दुराव-छिपाव नहीं होता । जो आँखों से दखा जो उदर को समर्पित किया उसको भी वह आत्मजनों से कह देती है, अर्थात त्रिया-चरित्र पुरुषों का होता है ॥
जदपि नारी मंद बुद्धि, दरस दीठि हहि थोरि ।
डेढ़ सियान नरसन तौ, अहहि भीत की भोरि ॥
यद्यपि नारी की बुद्धि पुरुषों की तुलना में थोड़ी मंद होती है । थोड़ा सा धुंधला भी दिखता है । किन्तु पुरुषों की डेढ़ स्यानपत्ती की तुलना में तो अंतर से वह अबोध ही होती है ॥
शुक्र/शनि, ०७/०८ मार्च, २ ० १ ४
दुःख सुख लगे त बने सहाई । थात भ्रात सों बोल बताईं ॥
भेद प्रगसु न पिय कह हारे । पहिले धारे फिर परचारे ॥
दुःख सुख लगने पर जो सहायक सिद्ध हुवे । उन्हीं भ्राताओं के सम्मुख वधु ने धरोहर की सारी राम-कहानी कह दी ॥ प्रियतम यह समझा कर हार गए थे कि अपने घर का भेद कहीं प्रकट नहीं करना चाहिए अन्यथा लंका ढह जाती है । उसने उस सीख को अनसुना कर पहले तो उस धारण को धारण किया फिर उसका प्रचार कर दिया ॥
अगहन घन जस घन गहरारे । गरजत बरखत तनिक सिधारें ॥
तसहि भ्रातिन्हि छिरी लड़ाई । बाँट बिखेर बिहान बिहाई ॥
जिस प्रकार मार्गशीर्ष के महीने में गहरे हुव घन क्वचित स्वरुप में गरज-बरस कर सिधार जाते हैं ॥ उसी प्रकार भ्राताओं के विभाजन की छीड़ि हुई लड़ाई बांटा की कुछ बिखेरा की अंतत: वह समाप्त हो गई ॥
बहोरि भ्राता बिभाजन परन । दोनहु जन्ह आपनी आपन ॥
अरंभे बैठ पनी पँवारे । तेजी मंदी के बैपारे ॥
उस विभाजन के पश्चात फिर दोनों भाई पुन:अपनी अपनी साधृत में हटवारी की द्वारी पर तेजी-मंदी का व्यापार प्राम्भ किये ॥
धारि उधारि धरे बिनु धनही । गाहे अनुभूति बहु भूतनही ॥
गह गहस होवत रथाकारे । पीठोपर प्रियजन पैठारे ॥
पाणितव्य-द्रव्य उधारी पर आधारित था । भ्राताओं के पास धन नहीं था । किन्तु उनका कार्य परीक्षित एवं अनुभव गृहीत था ॥ गृह-गृहस्थी रथ के आकार की होती है । जिसके पीठ पर प्रियजनों को बैठाकर : --
देत कछुक कनदान, देत आहार ओढ़ान ।
देत बहुस श्रमदान, तबहि रथ के चाक चरे ॥
कुछ कणों का दान करें , उसे भोजन-आच्छादन दें बहुंत ही श्रम दान करें उस रथ का चक्र तभी संचालित होता है अन्यथा धक्के मारने पड़ते हैं ॥
तैल तरल द्रव सार सनेही । बाहनि बाहनि लेही देही ॥
चरत रही जो चक धकियाई । चली सुगम तनि लाहन पाई ॥
तरल तैल जो सार स्वरुप है एवं स्नेह भी है । भ्राता उसी द्रव्य की वाहिनियों का व्यवहार करते थे एवं किया । गृहस्थी के जिस रथ का चक्र धक्के देने से संचालित हो रहा था । किंचित लाभ प्राप्त करते ही उसका परिचालन सुगम हो गया ॥
एक दिन ठाले बैठ बिठाई । बड़के सन बधु पूछ बुझाई ॥
धरेउ धारन कहाँ निबेसूँ । कहु तौ लहकर कोउ सुदेसू ॥
एक दिन ही रिक्त बैठी वधु ने बड़े भ्राता से अनुग्रहपूर्वक पूछा मैने जो धरोहर धर रखी है उस कहाँ निवेश करूँ कोई लाभकारी उचित स्थान ज्ञात कराओ तो ॥
पहिले सोचे भ्रात सयाने । बहुरि बोल जे अभिमत दाने ॥
तेल ताल लह तरल सुभावा । अजहुँ गाहे बहु नीचक भावा ॥
प्रौढ़ अवस्था को प्राप्त एवं वृद्ध अवस्था में प्रवेश करते हुवे भ्राता ने पहिल विचार किया । फिर अपना यह मत व्यक्त किया । तेल के तालाब का स्वभाव बड़ा पतला हो गया है बिलकुल पानी । अभी उसके मूल्य अत्यंत ही निम्नस्तर पर है ॥
एक अध् बाहिनि लेई लाहू । बढ़ती भाउ देइ बेचाहू ॥
अजमंजस भर करत अंदेसे । कहत बधुरि राखौं को देसे ॥
एक-आध वाहिनी ले लवा लो । जब भाव बढ़ेगा तो विक्रय कर देना ॥ असमंजस में भरी वधु ने यह अंदेशा जताया कि ले तो लूँ किन्तु रखूँ कहाँ ॥
कहत भ्रात अंदेस निबारे । आपन साधृत भीतर धारें ॥
तव जमाता देइ निस्कासन । राखहु का मोहि आपन भवन ॥
भ्राता ने यह कहकर उस अंदेशे का निवारण किया अपनी साधृत के अंदर और कहाँ ॥ वधु ने कहा तुम्हारे भगिनी-भर्ता ने यदि घर से निकाल दिया तब क्या तुम लोग मुझे अपने घर में रखोगे ॥
भ्रात तनुजा सम अनुजा , निहार तिरछ निहार ।
देइ उतरु तौ फिर देहु, मोरे सिरपर धार ॥
तब भ्राता ने अपनी तनुजा सदृश्य अनुजा को तिरछि दृष्टि से निहारा और यह उत्तर दिया । फिर तो तरल तेल जो सार स्वरुप होता है एवं स्नेह भी है उसे मेरे ही सिर पर धर दो ॥
रविवार, ०९ मार्च, २ ० १ ४
एक बाहि पन ठान एहि भाँती । लख डेढ़े कुल जुग लगि थाती ॥
जस भ्राता मुख बोल उचारे । लेइ तिन्हहि के सिरौधारे ॥
वधु न एक वाहिनी का पण निश्चित किया एवं धरोहर मन से लगभग रूपए डेढ़ लाख का भुगतान किया ॥ जैसे की भरता ने अपने मुख से बोला था । पणितव्य द्रव्य को उन्हीं के सर के ऊपर रख दिया ॥
बधु के कर परसत जैसेही । तेल भाउ पन बढ़तै लेही ॥
रोहवरोह तरंग सुभावा । सो बिधि पनितब द्रव के भावा ॥
वधु के हाथ ने जैसे ही तरल तैल जो सार स्वरुप होता है एवं स्नेह भी कहलाता है को स्पर्श किया उसकी हटियारी मूल्य में बढ़ोतरी होती गई ॥ तरंग का स्वभाव रोहावरोह क्रम में होता है पणितव्य सामग्री का स्वभाव भी उसी भाँति का होता है ॥
धरि संचै पत्र बधु कर चौरइ । बध धन अहरन पंथ अगौरइ ॥
तिन अनुग्रह जे भै परिनामा । बहुरि एक दिवस बहुबर धामा ॥
(उधर) वधु ने जिन धन संचय पत्रों की चोरी की थी । उन पत्रों में आबद्ध धन आहरण को प्रतीक्षा कर रहा था । लघु भ्राता क सम्मुख उस हेतु आग्रह का यह परिणाम हुवा कि फिर एक दिन वध-वर के आवास में : --
औचट ही लघुभ्रात पधारे । अहरन के कहि भयउ जुगारे ॥
पंच बछर जिन राख न लाखे । बहुरि भ्रात के श्रीकर राखे ॥
लघुभ्रात का औचट आगमन हुवा । उन्होंने कहा धनाहरण कि व्यवस्था हो गई है ॥ जिन पत्रों को वधु पांच वर्षों तक रख रही और उनकी ओर देखि भी नहीं उन्हें फिर भ्राता के श्रीहस्त पर रख दिया ॥
दोउ भ्रात सों दोउ प्रसंगे । आगिन-पिछु कर भए एक संगे ॥
बधुरि प्रीतम दिए न संज्ञाने । एतदर्थ दोइ तैं ना जाने ॥
दोनों भ्राताओं के संग यह दोनों प्रसंग कुछ आग-पीछे कर लगभग एक ही साथ हुवा था ॥ वधु ने प्रीतम को संज्ञापित नहीं किया था ।अत:वह दोनों घटनाओं से अनभिज्ञ थे ॥
कूट कुटाई छंद छल, सन तिन मन रहि हीन ॥
तेहि काल दुहु भ्रात रहि, बहिनै नेह अधीन ।
उस समय दोनों भ्राता का हृदय कूट-कपट छल-छंद से रहित था वे केवल भगिनी के सनेह के अधीन थे ।
सोमवार, १० मार्च, २ ० १ ४
जुगत परस्पर प्रीत प्रतीते । लेइ देइ के कछु दिन बीते ॥
दें कहेन्हि देंन न सोचे । माँगन भ्राता बधुरि सँकोचे ॥
इस प्रकार परस्पर प्रेम- विश्वास से ओतप्रोत होकर लेन-देन किए कुछ दिवस बीते ॥ देने को कहा था किन्तु बिन मांगे दिए नहीं और माँगने में वधु को संकोच हो रहा था ॥
कह मन ही मन कह अब का कारौं । आपन देवन का परिहारों ॥
दिरिस उलट कलि काल दिखाउब । भ्रात बहिन दे दानि कहाउब ॥
वह मन ही मन कहती अब क्या करूँ । क्या अपनी देनी त्याग दूँ ॥ फिर तो यह कलयुग उलटा समय दिखलाएगा । भगिनी भ्राता को देकर दानी कहलावेगी क्या ॥
माँगन पुनि लाजन परिहारत । भाव बरन क्रम बचन सँवारत॥
बधु मँगनी जब मँग मँग हारए । कल कल कल कह भ्राता टारए ॥
फिर उसने देनी नहीं त्यागी , लज्जा त्यागी और भावों को, वचन के क्रम को संवारते हुवे अपने लागे की मांग की ॥ वधु माँग माँग कर हार जाती , भ्राता कल कल कल कह कर टालते नहीं हारते ॥
माँगि हार थकि भइ उरगानी । कंठ सूख मुख आव न पानी ॥
फुलोवत गाल चेति बियाकुल । लाग लगे मम सन मोरे कुल ॥
और मांग से हार कर जब वह थक गई, उसका कंठ सुख गया मुख में आता पानी भी बंद हो गया फिर वह मौन हो गई । और गाल फूलते हुवे ब्याकुल हो कर सोचने लगी मेरा ही कुल मेरे ही साथ बैर बांधे हैं ॥
बानि बचन सर सरासन, कहुँ तुरही कहुँ भेरि ।
सकल जुझाउनि बाजने, घर भर हेरत हेरि ॥
वाणी एवं वचनों के तीर धनुष कही तुरही कहीं भेरी आदि ये सारे रण के बाजे वह घर भर में ढूंडती फिरने लगी ॥
मंगलवार, ११ मार्च, २ ० १ ४
लोभ लाह जुग लागन केते । रोख पोख बधु किए रन खेते ।।
एक पख बहिनिहि एक पख भाईं । दुहु एकै मात पितु के जाईं ॥
लोभ एवं लालुपता ने मिलकर वैर को ललकारा । वधु ने आक्रोश को पोषित कर रन का क्षेत्र तैयार किया ॥ एक पक्ष में भगिनी का थी तो दुसरे पक्ष भ्राताओं था ॥ दोनों पक्ष एक ही जननी के जाए थे ॥
जब लाग लगे बहु लाग लगे । जब लाग लगे रन भाउ जगे ॥
बरन बचन मुख बान सुधारे । लौहिताननी सान सँवारे ॥
जब स्नेह किया तब बहुंत स्नेह किया । जब वैर किया तो रन के भाव जागृत हो उठे ॥ वर्ण, वसाहन रूपी बाण अपने मुख को सुधार कर उसे लौहित मुखी कर कसौटी पर सवारने लगी ॥
रोख रथ के रथि बनी सोई । सोचि साथ सारथि को होई ॥
बैठे बैठे जुगत लगाई । ठाने पनि पिय करन धराई ॥
उस आक्रोश नामक रथ की रथिक वह स्वयं बनी । और सोच विचार करने लगी कि इसका सारथी कौन हो ॥ बैठे ही बैठे उसे उपाय सुझा । भ्राता के साथ जो पण निश्चय किया था वह जाकर पियाजी के कानों में कह दिया ॥
पिय बिथुरत कहि बिनाहि बताए । कर कुकर्म अब लोहा बजाए ॥
जब संचै पट चौरि बताई । चोर चोर कह रवन मचाई ।।
यह सुनकर पियाजी बिखर गए कहने लगे बिना बोले-बताए ऐसे ऐसे कुकर्म करी और अब राणिगैल मचा दी ॥ और जब संचय धन पत्रों की चोरी बताई तब चोर चोर कहकर ऐसा कोलाहल किया कैसे कोई वायुयान हो ॥
बजे बचन के ठोल निसाना । बाज बाज भए सिथिर बिहाना ॥
सुनी दुर्बादन नेक प्रकारी । बहुरि आइ जब बधु के बारी ॥
फिर तो बातों के ढोल-नगाड़े बजने लगे । बज बज कर अंतत: शिथिल हो गए ॥ इस प्रकार वधु ने अनेक प्रकार के दुर्वचन सुने, दो चार खाई भी । फिर वधु की बारी आई ॥
कंचन कामी छल छंद, धींगी धंधक धोर ।
जदपि बंचक भ्रात मोर, पर नहि को चोर ॥
धन के लोभी हैं, छह करने वाले हैं कपटी हैं दुष्ट हैं, आडम्बरी हैं , यद्यपि मेरे भ्राताओं का चित्त ढगी की ओर प्रवृत्त है किन्तु वह कोई चोर-वोर नहीं हैं ॥
बुधवार, १२ मार्च, २ ० १ ४
अह कस बर बर पदबी दाई । तिनते भली चोर कहनाई ॥
मोर मन त न्यनतम जाना । तुम्ह दीन्ह अधिकधिकाना ॥
अहा ! कैसी बढ़िया बढ़िया पदवी दी है । इससे अच्छा तो चोर कहलाने में है ॥ मेरे में में तो किंचित ही था तुमने अपने भ्राताओं को अधिकाधिक कुपाधियाँ दे कर उन्हें अकिंचत ही कर दिया ॥
हमारी सास तुम्हरी माता । कहहि मोही चोरन की जाता ॥
कहत बहुकन बचन अकुलाने । अ ह ह बिनु माँगहि देहि ताने ॥
जो हमारी सास है ना वही जो तुम्हारी माता है । वो मुझ चोरों की बेटी कहकर पुकारेंगी ॥ और व्याकुल करने वाले बहुंत से वचन कहकर आ हा हा ,बिना मांगे ही ताने देंगी ॥
यहु बत तुम तिन कानन पोई । मम सम अनभल होहि न कोई ॥
अरु त्रुटिबस जो बोल बताहू । जे घर रहि बस मोर बसाहू ॥
यदि तुमने ये बातें उनके कान में पहुंचा दी । तब मुझसे बुरा कोई न होगा । कहीं त्रुटिवश भी बता दी तो फिर इस घर में मैं ही रहूंगी तुम नहीं ॥
जब बहियर अस बोल उचारी । सुन यह पिय हिय लग हहरारे ॥
अह तुहरे लोचन परिहारा । कहाँ जाहिं जे दास तुहारा ॥
जब वधु ने ऐसा कहा तब प्रियतम अंदर तक हिल गए ॥ आह! तुम्हारे आखों से त्यागा हुवा यह तुम्हारा दास कहाँ जाएगा माता भी नहीं रखती भगा देती है ॥
प्रान पियारा बापुरा, मर्म भेद कहूं दाहि ।
तुहरे लाग लगाए जो, अस मूरखा त नाहि ॥
तुम्हारे मर्म भेद कहीं प्रकट करे और तुमसे बैर बांधे यह प्रान प्यारा बेचारा है किन्तु ऐसा मूर्ख तो बिलकुल नहीं है ॥
बृहस्पतिवार, १३ मार्च, २ ० १ ४
सकल जोग जब गयउ ठगाही । तब आन कहि कथा मम पाहीं ॥
कभु करी बिनती कबहु निहोरी । धत ररिहत कबहू कर जोरी ॥
धनहु गवनहु भए मनहु मैला । पन ठानि त रीति रीति थैला ॥
पेटक घार दोइ ठो गारी । घटै जाति का जात तुहारी ॥
कर पचित प्रीत पाचक चूरन । घरहिहु रहिते सकल जुगावन ॥
अह कस लखिनु माया बनाई । तापर छम छम नाच दिखाई ॥
ऐसेउ दरसन को न लुभाए । दुष्ट दनुज खल कि भलमनसाए ॥
तनिक होर लए एक उछ्बासा । पुनि बोलत गवने एक साँसे ॥
उपाधिनि के दे उपाधि, कह दुहु ठो अरु बात ।
घुटुरून सकल बल बुद्धिहि, गहि नारी की जात ॥
शुक्र/शनि, १४/१५ मार्च, २ ० १ ४
कहत बने ना चुपु रहत बने । अवरेब धरत बधु ठारि सुने ॥
पुनि पहिले मँग समउ अगोरे । अरु एक दिन जब माँग निहोरे ॥
बढ़त बत भए बरन चिनगारी । घरे भ्रात कहि पेट पिटारी ॥
बहोरि भयऊ रन घम साना । गहि दुहु पख कर आयुध नाना ॥
बानि बदन लिए खैच सरासन । गर्जहि अस जस को घन गर्जन ॥
करखत करषत कठिन कुभाँती । प्ररित प्रतीति बिनय किए हाँती ।।
दोइ बंच दुइ रन पाटीरे । दोइ भ्रात सन बहिनी घीरे ॥
लोभ मंच मह लाहन नाचे । दुहु पख निकसे बचन नराचे ॥
करत अरगान कुजस बखान बदन बरन बनाउली ।
बहु तेज मुखित लख निलय लखित बाहित बाहि बहि चली ॥
लोहित लोचन ओहि कुबचन कहि बहु आपन कुल के ।
बहु करुवारी, प्रतिउतरु चारि कहे भ्रात सुध भुल के ॥
जोइ भ्रात हिया अनुजा, आपन तनुजा जान ।
सीसोपर निज कर धरे, किए बहु आदर मान ॥
जो कभु को दुर्बाद न बादे । सो किए ऐसेउ कुसंबादे ॥
जारत हिय बधु करत ग्लानी । भ्रात बचन उर बहु दुःख मानी ॥
द्रवित दिरिस मुख बचन न आवा । पटु सोंह भ्रात जेइ सुभावा ॥
रही अनुजा गाहे दुरावा । होत धिआ अस होत न भावा ॥
दोइ पाख धर अधम सुभाऊ । सोइ सुने जो सुने न काऊ ॥
जब जब अगजग माया गाढ़े । तमो गुन गह कुभाउ बाढ़े ॥
को घर धनबन जब धन भ्राजे । लगे सगे सब लगे अकाजे ।।
कोप करत जो पीहर अहुरी । सोच करत अस पिय घर बधुरी ॥
करत मोह छिनभिन मनस, धरत कुठारा घात ।
फाटे मन लेत बहुरी, प्रियजन नयन निपात ॥
पूछे पिया सब सकुसल, दरस सुलोचन रोए ।
दो बैरी बिच झोपड़ा, कुसल कहाँ सन होए ॥
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