Tuesday, August 5, 2025

----- || राग-रंग 68 || -----,

 आह!मैं भारत शत्रु का कर रहा आह्वान । 

मुझसे वैर विद्रोह का तुझको है अनुमान॥ 


भाग्य विपर्यय कर यूं, हुआ विधाता वाम l 

विभाजन ने मुझको फिर, दिया दुसह परिणाम ll 


छल कपट से छिन कर लिये देस पर देस । 

तेरा उद्देश्य शेष को करना है अवशेष ॥ 


यह दुर्ग ध्वजा यह दल यह सैन्य यह कोष । 

यह सीमा यह मैत्रि बल मेरा ही परितोष ॥


 प्रनय प्रीति का राग यह जीवन का संगीत |  

युगों से है भारत के देस धर्म की रीत ॥ 


यह परिजन का कौटुम्ब यह आचार विचार । 

सिखा मुझसे तुने कि यह होता है परिवार ॥ 


गाँव गली गढ़ पुर नगर कहते इसको देस । 

लिया जान ज्ञान यह सुन भारत के उपदेस ॥ 


खाता जिस आवाल में, करता उसमें छेद । 

हुपे नहीं रहेंगे अब, जग में तेरे भेद ॥ 

आवाल = थाला 


तेरे पथ प्रदर्शक के धर्म भवन की नीँव। 

बता कहां है जगत को सुन ए गुहा के जीव ॥ 

गुफा= खैबर दर्रा 


यह पावन भूमि मेरे,जन्में जहाँ अधीस । 

बता किसकी ड्योढ़ि पे, झुकता तेरा सीस ।। 


यह हिम गिरि की श्रंखला,इसका शेखर शृंग l 

है उसी महाकाल का, जिसके शिश है गंग ll 


जब तक थिर स्थिर मेरे, धैर्य का है धुर्य । 

तब तक उदय है तेरे साम्राज्य का सूर्य ॥ 

धुर्य= धूरी 


सीमा पर निरंतर हा तेरा ये प्रतिकार l 

शांति नहीं तुझको है संग्राम स्वीकार ll 


शील संयम नियम वसन भूषण मर्यादाचारि l 

पराक्रम पारण मेरा सुन ए अतिक्रमणकारि ॥ 


भीरू पन प्रकट कर तू, करता भीतर घात l 

मेरे बल पौरुष का, तुझे नहीं संज्ञात ll 


नित प्रत्यक्ष दर्श कर तू , यह निष्कंटक जीत l 

मेरी निडर अजेय से,रहा सदा भयभीत ll 


देख निकट विनाश काल,होती मति विपरीत ।

 होगा तेरे रक्त से, यह त्रिशूल रंजीत ll


Friday, August 1, 2025

----- || राग-रंग 67|| -----,

सुनि जूँ दसरथ राज जनक के दूतक दुआरी खड़े । 

पुनि लेंइ बुला तिन्ह सादर देइ मान अगुवान बढ़े ॥ 

भए पुलकित प्रमुदित बिनय पूरित जौँ पाती पढ़े । 

जोग लिखे सब आखर प्रगाढ़त सनेह सामध गढ़े ॥ 

:-- सामध गढ़े = संबंध रचे 

:--  जनक जी के दूत द्वार पर प्रतीक्षारत हैं राजा 


अस जानि परम सुखमानि कि संभु धनुर सुत भंग करे । 

सभा जीत जय माल मेल उर गए जानकी सौंहि बरे ॥ 

अंतर मन भाव पुरायो निलयन में आनंद भरे । 

आनि जोइ सुत कई सुरतिआ नैनन ते जल बूँद झरे ॥ 

उर = वक्ष निलय = हृदय भवन 


सिय राम बिबाहु कई आनि भइँ सो सुभ मंगल घरी। 

जाचक गन दीन्हि हँकार फेरिबारि न्यौछाबरी ॥ 

परिअ भावनी भवन भवन मनिमय झलामल झालरी । 

हेम बौरि सुठि बँधिअ डोरि पौँरि पौँरि गईँ भाँवरी ॥ 

हेम बौर = स्वर्ण पुष्प, सुठि = सुंदर पौँरि पौरि = ड्योड़ि ड्योड़ि 


रामसियाँ कै बिबाहु दरस अभिलाहु दृग जोह चले । 

पीतम पाटल पाटंबर पहिर पहिर सब सोह चले ॥ 

सदन सदन सौं पुरजन परिजन संग संग होह चले l 

मधुरिम मद्धम मंगल सुर गान करत मन मोह चले ll 

पाटल = श्वेत रक्त वर्ण पाटंबर = चमकिले वस्त्र 


नगर नारिं लिएँ आरती, गहे सुमंगल थारिँ । 

सुरभि सुमन बरसाए के, देखहिं चढिँअ अटारिँ ॥ 

अटारि = अट्टालिकाएँ