Sunday, December 1, 2013

----- ॥ सोपान पथ ३ ॥ -----

कलित कुलीनस कलसी थापे ॥ पूजन गुंजन गगन ब्यापे ॥ 
गृह मुखिया निज निज परिबारे। बैठे जग गठ बंधन डारे ॥ 
अमृत ग्रहण किये हुवे कलश स्थापित हुवे । पूजा की गूंज गगन में विस्तारित हो गई ॥ अपने अपने परिवार के मुखिया गठ बंधन बाँध के युग्मित होकर आसीत हुवे ॥ 

सोहत अति धृत सुन्दर भेसे । अनुकर रत महि सुर निर्देस ।। 
भाव भगती के भवन समाए । अहर्निसा हरि कीरतन गाएँ ॥ 
श्रद्धा भक्ति के भवन में समाहित होकर वे सांझ -सवेरे हरी कीर्तन गाते, शास्त्रो के विद्वान जनों के निर्देशों का पालन करते वे सुंदर वेश धारण कर अतिशय शोभायमान हो रहे थे ॥ 

कौटुमिक जन सकल जग सिंधुहु । जुगे बिराध लघु भाइ बंधुहु ॥ 
समित समाहित संजम साधे । समासंग सब करत अराधे । 
भव संसार के बड़े छोटे भाई बंधू सहित समस्त कुटुंब जन वहाँ संकलित हुवे ॥ और स्वीकृति पूर्वक सुव्यवस्थित होकर संयम का पालन करते परस्पर मिलकर आराध्य देवताओं की आराधना कर रहे थे, अर्थात समस्त कुटुम जनों का यह मेल सुहावना प्रतीत हो रहा अथा ॥ 

मंगल द्रब्य कल कीलाला । देइ देवन्ह भोग रसाला ॥ 
देव पितर हरि कह कर जोगे । जथा जोग रस आगत भोगें ॥ 
सभी मांगलिक पदार्थों एवं पवित्र  द्रव सहित डिवॉन को भोजन अर्पित किया जाता ॥ और हाथ जोड़ के देवताओं का आह्वान किया जाता हे देव ! यह भोजन जो यथा योग्य है इसे साक्षात उअपस्थित होकर ग्रहण करें ॥ 

परिजन मृदु बानि आसन, राजे सरसइ सेष  । 
सुनि श्राद्ध भुगतिक देव । गहे असन  उपबैस । 
परिजनों के मृदुल वाणी के आसान में जैसे स्वयं माता सरस्वती एवं भगवान धरणीधर शेष विराजित थे । जिसे श्रवण कर श्राद्ध-भोक्ता देव मानो उस प्रसाद को साक्षात ग्रहण कर रहे थे ॥ 

सोमवार, ०२ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

को जन तँह पूरनावधि होरें । को तनिक अधिक त कोउ थोरे ॥ 
कोउ आरम्भ दिवस लग बैठे । को जन मज्झन मह लिए पैठे ॥ 
कोई वहाँ पूर्ण अवधि हेतु कोई थोड़े अधिक तो कोई सिमित अवधि हेतु वहाँ ठहरा रहा ॥ कोई प्राम्भ दिवस से ही वहाँ निवासित रहा कोई स्वजन मध्यावधि में पहुंचा ॥ 

दंपतहु  जूग  सँजोइन के । कछु आपन कछु बालकिन्ह के ॥ 
तँहवाँ जँह सुभ करम बिठाईं । गवनै चारि दिवस के ताईं ॥ 
दंपत ने भी कुछ अपनी तो कुछ बालकों की यात्रा सामग्री तैयार कर ली ॥ और वहाँ जहां इस शुभ कर्म का आयोजन किया गया था चार दिवस के लिए प्रस्थान किये ॥ 

पैठत तहाँ मन बहु सुख पाए । भवन भुँइ भुवन भजन सुर छाए ॥ 
कहु चन्दन कहुँ अगरु सुगंधे । चहुँ पुर अष्टक सुरभित गंधे ॥ 
वहाँ पहुँचते ही मन में सुख की बहुंत ही अनुभूति हुई । वहाँ भवन से होते हुवे  पृथ्वी से लेकर बृह्मांड तक भजन के स्वर गुंजायमान थे ॥ कहीं चन्दन तो कहीं अगर सुगंध सहित चारों दिशाओं में अष्टक गंध सुवासित हो रहा था ॥ 

परिजन सन भरि भवन अटारी । सोहन सँजूग सोंह सँवारी ॥ 
माली निज निज फुर फुरबारी । मानहु लोक प्रदर्सन कारी ॥ 
शरणाश्रय सजावट की सामग्रियों से सुरुचि पूर्वक सुसज्जित था उसका खंड खंड  परिजनों से परिपूर्ण थे ॥ परिवारों के माली स्वरुप मुखिया अपनी अपनी फुलवारियों के फूल-पौधे मानो लोगों के प्रदर्शन हेतु लाए हों ॥ 

कली मुकुल प्रफूटित फर, डार डार संजोग । 
भाँति भाँति के रंग धरि, सबहि निहारन जोग ॥ 
 शाखा -शाखा  कली मुकुल प्रस्फुटित फलों से भरी थीं । वे सभी विविध वर्ण धारण किये देखने योग्य नमूने थे ॥ 

मंगवार, ०३ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                           

भगवद कथोधात सों भोरे । बिप्र बरनन करनन रस घोरे ॥ 
बाजि बहु बाज मुख करत भजन । रयनै भगति मै बाताबरन ॥ 
श्री मद भगवद् कथा प्रात: काल से ही आरम्भ हो जाता ॥ विद्वानों के द्वारा ईश्वर की वर्ण-व्याख्या कानों में रस घोलती ॥ उनके श्री मुख बहुंत से वाद्य यन्त्र का प्रसंग कर भजन करते । इससे वहाँ का सारा वातावरण भक्तिमय हो उठा ॥ 

पाए पितर गन के परसादे । राधे राध कह पदाराधे ॥ 
बड़े बिरध के आयसु लेईं । सीस धरत कर असीस देईं ॥ 
पितृ जनों का पवित्र प्रसाद प्राप्त कर और राधे राधे कहते हुवे उनकी चरणाराधना कर, बड़ों एवं वृद्धजनों की की फिर आज्ञा ली, उन्होंने शीर्षोपर कराधारित कर शुभाशीर्वाद प्रदान किया ॥ 

नमत पदुम पद दोइ कर जोरी । बर बधु मुद तँह बहोरि बहोरि ॥ 
बासन तँहहि बहुस अकुलाहीं । बहुरन किए दुहु के मन नाहीँ ॥ 
उनके पद्म-चरणों पुनश्च प्रणाम कर फिर वर-वधू मुदित मन से वहाँ से लौटे । वहाँ रहने को बहुंत व्याकुल थे किन्तु उनका मन लौटने को नहीं का रहा था ॥ 

श्रम कारज करमने कारनू । निवासित पूरी दुहु आगवनू ॥ 
आवागमन अस फेर बँधाए । कभु को अवाए कभु को गवनाऍ ।। 
किन्तु काम-काज के कारण वे निवास पुरी को लौट आए ॥ इस प्रकार वहाँ आवागमन निरंतर चटा रहा किसी का आगमन होता तो किसी का निर्गमन ॥ 

आवत बूझतनगत जन, तँह के कहन कहान । 
बर बधूटी मनस मुदित, तब करि मधुर बखान ॥ 
जो स्वजन किन्हीं कारणों से गमन करने में असमर्थ थे, वर-वधू के निवास स्थान में आते ही वे सारी कथा-कहानी पूछते ।  तब वर-वधू मुदित मन से बड़े ही मधुरता पूर्वक उन्हें वहाँ का सारा वृत्तांत कह सुनाते ॥ 

बुधवार, ०४ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                              

जुगबन स्वजन मन धरि सांती । सकल करम पूरित भलि भाँती ॥ 

प्रणमत बिप्रबर दिए अनुदाने । गया पुरी गत पिंडक दाने ॥ 
सभी स्वजनों ने मन में शांति रखते हुवे मिलजुल कर पितृ कर्म-काण्ड को भली प्रकार से पूर्ण किया । विप्रवर को प्रणाम कर यथायोग सहायता करते हुवे  फिर श्री गया पुरी में जाकर पिंड दान किया ॥ 

निरमल जल कल कंठ लगाईं । सुरसरि के नीराजन गाईं ॥ 
धरत बदन गुन भज हरि नामा । चारे चरन पुनि तीरथ धामा ॥ 
वहाँ बहती हुई निर्मल गंगा के जल को कंठ से लगाया और उसकी आरती गाई ॥ मुख में प्रभु का नाम  लेते हुवे फिर उनके चरण चार धाम की यात्रा करने चले ॥ 

 हर्षित मन त्रिबेनी अन्हाए । गह गह मज्जनु मलिन धूराए ॥ 
न जान मलिन  दूरे कि नाहिं । भोर के भूरे सांझ बहुराहि ।। 
सबने प्रसन्न मुद्रा से त्रिवेणी ( गंगा, जमुना , सरस्वती का संगम स्थल ) में स्नान करते हुवे गहरी डुबकी लगाते हुवे पापों को धोया ॥ पाप तो ज्ञात नहीं धूले कि  नहीं किन्तु सबेरे के भूले संध्या को अवश्य ही लौट आए ॥ 

वाके लेखे गवनए धोई । प्राग भूर नउ पंथ सँजोई ॥ 
आन फिरत बहु बिध  उपहारे । दिए जोग दिए लेइ कर धारे ॥ 
उनकी समझ से तो धूले गए थे  वास्तव में पुराने पाप बिसराए गए नए पाप करने का मार्ग खुल गया । यात्रोपरांत उनका  आगमन विभिन्न प्रकार उपहारों के वितरण के साथ हुवा देने वालों को  दिया लेने वालों से लिया ॥ 

जोग लोचन जथा जोग, दाई बिबिध बिधान । 
अस पितरगन करमन भए, भाव पूरित बिहान ॥  
जिनके नयन प्रतीक्षारत थे उन्हें विभिन्न प्रकार के विधानों से सस्नेह दान किया इस पकार पितृ गण का कार्य श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक संपन्न हुवा ॥ 

गुरूवार,०५ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                               

चित्र बिचित्र बरनन रंजनाई । जे उत्सव नउ दरसन दाईँ ॥ 
भए चितबत चित छनिक ठहराए । पुनि जीवन चक निज पंथ धाए ॥ 
यह उत्सव भी विचित्र  प्रकार के वर्णों से वर्णित नए नए चित्रों को दर्शा कर चला गया । एक बार के लिए होकर जीवन जैसे स्तब्ध होका ठहर गया । किन्तु पुनश्च उसके चक्र अपने पथ पर गमन करने लगे ॥ 

इत ललना रुज बहुस दुखारिहि । पालएँ पालक उर कर धारिहिं ॥ 
आत झटक त साँस बहुरिन्है । लाए मात पितु बिनवत चिन्है ॥ 
इधर बाल मुकुंद का रोग अतिशय दुखदाई हो गया । पालक उसे उसके  ह्रदय भवन पर हाथ रखे पाल रहे थे ॥ जैसे ही झटका आता उसकी सांह कहीं लौट जाती फिर मात-पिता फिर उसे चिन्ह परख कर कहीं से वापस लाते ॥ 

गवन निरुज गह बारहि बारइ । कभु मास परे कभु दिन चारइ ॥ 
जाके पद भुँइ पलक न ठारे ।  पल भर ठहरे पुनि एक बारे ॥ 
कभी एक मास तो कभी दो चार दिवसोपरांत ही वे वारंवार निदान भवन जाते ॥ जिसके चरण धरती पर पल भर को भी स्थिर नहीं होते थे । फिर एक दिन वह किंचित समय के लिए ठहरे ॥ 

ललन चरन चर आस बँधाई । अरु भाग सोंह निकट निकाई ॥ 
नवेक सकलांग गृहोधाए । तँहवा तनय निसदिन ले जाएँ  ॥ 
ललना के चलने की आस बंध गई । और सौभाग्य वश निवास के निकट ही एक नया सकलांग केंद्र का आरम्भ हुवा । मात-पिता पुत्र को नित्यप्रति वहाँ ले जाते ॥ 

कछुकन तिन्ह के जतने, कछुक जतन किए आप । 
छन भूमि होरि के लाल, चल दु पद दिए चाप ॥  
कुछ उनके प्रयासों से एवं कुछ पालक के निज उपायों से कुछ समय तक खड़े होने के अभ्यास के उपरान्त वह बालक दबाव देकर कुछ दो चरण चला ॥ 

शुक्रवार, ०६ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                                         

हरिहर पगतर चारन लागे । कहत मात पितु भए बड़ भागे ॥ 
तासु मन एक चिंतन परिहारि । कहत कृपा प्रभु सुरतिहि धारीं ॥ 
धीरे धीरे पुत्र के पाँव चलने लगे, माता-पिता ने कहा  अहो भाग हमारे॥ उअनके मन से एक चिंता तो हटी उन्होंने  ईश्वर का स्मरण कर उसे धन्यवाद दिया ॥ 


पीर गहन काया जब लैने । तोल तुला मुख रसनी बैने ॥ 
बोल कोइ जब तोल न बताइ । सोइ पीर सौ सैन समुझाइ ॥ 
जब काया में गहरी पीड़ा होती है । तब मुख- तराजू से जिह्वा की रस्सी उसका भार बतलाती है ॥ यदि किसी की जिह्वा बॉल कर नहीं बतलाती, तब वह उस पीड़ा का भार बहुंत से संकेत करते हुवे समझता है ॥ 

पर ललना धरे न मुख बैने । मंद मतिहि मह घरे न सैने ॥ 
मात पिता दुःख भाव तुलाई । होत बिकल बस मान लगाईं ॥ 
किन्तु उस बालक को बोलना नहीं आता । मंद मति में संकेत भी नहीं धरे ॥ माता-पिता दुःख को उसके भाव से तौलते और व्याकुल होकर केवल अनुमान ही लगाते ॥ 

दरस तेहि जब मन नहि माने । गए देखावें आनइ आने ॥ 
फेर फिरी के सब अस्थाने । अंततो गवने बड़ रौ धाने ॥ 
उसे ऐसी अवस्था में देख जब मन नहीं माना तब उसके रोग के निरीक्षण हेतु कहीं कहीं गए ॥ सब स्थानों से घूम फिर कर अंततोगत्वा बड़ी राजधानी गए ॥ 

पुनि तहहिं केहु भिषकगन, देख निरख सब जोग । 
पर तिन्हहु मिलवई ना, रोगाधार निजोग ॥   
 निरक्षणोपरांत वहाँ के भी वैद्य गण को उसके रोग के  नियोजन का आधार नहीं मिला ॥ 

शनिवार, ०७ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                                        

दोइ भाँति का भेषज धारे । बहुरे निज पुर पौर पँवारे ॥ 
जीवन रुज जस पीछा घारे । छाड़न कहि  अरु कास कै धारे ॥ 
दो पकार की औषधि लेकर फिर वर-वधू अपने निवास स्थान को लौट आए ॥ जीवन  में रोग जैसे पीछे ही पड़ गए थे, पीछा छुआने को कहते तो वो और कास के पकड़ लेते ॥ 

अजहुँ त ललना कछुक न जाने । जी लमाए लम पथ सोपाने ॥ 
मात पिता के पीठ पालकी । पंथ चरन पुनि बनै लाल की ॥ 
अभी तो ठोटे के मनोमस्तिष्क को कुछ संज्ञान नहीं हुवा था । और प्राण एक लंबे सोपान के पथ से थे ॥ उस पथ पर संचरण करने के लिए माता-पिता की पीठ फिर उस बालक की पालकी बनी ॥ 

पीर कंटक  कंकर मग केरे । उरझन के बहु कंटकि घेरे ॥ 
धाँस गहन जब जरत दुखारी । जननि जनक दैं नेह फुहारी ॥ 
मार्ग पीड़ा के कंटक और कंकड़ से परिपूर्ण था उलझनों कि बहुंत सी झाड़ियाँ थीं ॥ जब यह धंस कर दुःख की ज्वाला उत्पन्न करते । तब जननी और जनक स्नेह की फुहारी देकर उसे शांत करते ॥ 

धरे हृदय भय गह अँधियारे । दरसत जग जन गवनु सकारे ॥ 
लखत लाल मुख जिउति उछाहू । पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ॥ 
रात्रि के अन्धकार में हृदय के भीतर पुत्र के जीवन-मरण का भय उत्पन्न हो जाता । जब भोर में जब ओगों को देखते तब यह भय मुक्त होता ॥ उद्वह के मुख पर जीवन जीने का उत्साह देखकर किसी को मार्ग की थकावट और उसके कष्ट का आभास नहीं होता ॥ 

कबहु दुःख पीरत आरत, कबहुँक हाँसत खेल । 
चढ़े ढरे पथ संचरें, जीवन बाहनि ठेल ॥ 
कभी दुःख कभी पीड़ा कभी कष्ट कभी हँसी कभी क्रीड़ा और मार्ग के आरोह अवरोह का क्रम में जीवन की वाहनी किसी प्रकार से संचालित थी ॥ 

रविवार, ०८ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                       

चरत चरत जब भए सिथिलाईं । पाएँ पंथ कहुँ सुख के छाईं ॥ 
दोइ घरी बैसत एक कोरे । कहि निज निज बर बधु सिरु जोरे ॥ 
चलते-चलते जब वह श्रमित हो जाते और पंथ में कहीं सुख की छाया मिलती । तब वे दो घड़ी के लिए थम जाते और एक कोने बैठ वे युगल दंपत सिर जोड़ कर अपनी अपनी बात कहते ॥ 

बहुरि एक दिवस मदरस सानी । बोलइ पिया मधुरित बानी ॥ 
अजहुँ त आपनि  छॉँत ढरियाइँ । काहु न हम एक रथ लैइ आएँ ॥ 
फिर एक दिन मधुरस में पागी हुई प्रियतम मधुर वाणी में कहने लगे । अब तो अपनी छत भी ढली गई, क्यों न हम एक रथ ले आएं ॥ 

रचित रुचित चक बाहिन चारी । सोहहि ठहरी गृह बनबारी ॥ 
चारू चरन जब पथ संचरहि । दरसत तिन्ह जन जन बलिहरहिं ॥ 
चार चक्रों का वह सुंदरता पूर्वक रचा वह वाहन अपने घर की वनवाटिका में खड़ा कितना सुन्दर लगेगा ॥ उसके कुमकुम लगे चरण जब पथ पर टप टप करते हुवे संचालित होंगे तब उस रथ को देखकर आते-जाते लोग कितनी बलाएं लेंगे ॥ 

भेस बसन धर साजित होहू । ता पर जब तुम राजित होहू ॥ 
तासु रथासन केतक सोहहि । बाल मुदित तव सन अवरोहहि ॥ 
वेश भूसा धारण कर जब तुम सुसज्जित होगी । फिर जब तुम उसपर विराजित होवोगी । तब उस रथ का सिंहासन कितना सुन्दर लगेगा । और ये बाल-बच्चे प्रसन्नचित होकर तुम्हारे साथ उस रथ पर चढ़े कितने अच्छे लगेंगे ॥ 

कहत जेइ पिय मृदुल प्रसंगे । दरस बधु मुख पीठिका रंगे ॥ 
नाम नाथ जे तुहरे दासा । परे रहीं तव चरनन पासा ॥ 
यह मृल प्रसंग कहते-कहते जब प्रियतम ने वधु की मुख पृष्ठिका के वर्ण देखे तब प्रसंग परिवर्तित करते हुवे कहा यह तुम्हारा नाथ केवल नाम का ही नाथ है  यथार्ट्स यह तुम्हारा दास है । यह भी पडा रहेगा कहीं, तुम्हारे चरणों के पास ॥ 

भाँति भाँति किए कल्पना, पिया पलक पट नैन । 
रथ के चरन क्रांत कर, थिरकइ सों सुर बैन ॥  
तब फिर प्रियतम के नयन पलक के पट,विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं करने लगे । रथ के चरण, ध्वनी करते हुवे उनकी मधुर-वाणी में जैसे नृत्य ही करने लगे ॥ 

सोमवार, ०९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                         

श्रवनत अस बधु भृकुटिहि ऐंचे । कोउ सरासन गुन जस खैंचे ॥ 
निर्दइ  दयित लखत तिरछाई । श्रृंग सिख सोंह बिसिख चराई ॥ 
ऐसा सुनकर वधु की भृकुटियां तन गई जैसे किसी ने धनुष का गुण खैंच लिया हो ॥ वह निर्दयी अपने प्रीतम को तिरछे देखती श्रृंग के जैसे बाण चलाने लगी ॥ 

अरु कहि पिय सों यह तौ लेखें । हमरे पालक कभु रथ देखें ॥ 
रथ बाहिन तजु का को घोरे । बाँधि मिलै कभु तिनके ठौरे ॥ 
और पिया से कहने आगी यह तो समझाएँ क्या हमारे पालकों ने कभी रथ देखा है ? रथ वाहिनी तो छोड़ों क्या उनके आँगन में कभी कोई घोड़ा भी बंधा मिला है ? 

न जान कवन चक बर्ती राए । जिनके बे तुम हरन करि लाए ॥ 
जो तव अतिसय प्रान पियारे । केत न केत उदर कन घारे ॥ 
जाने किस चक्रवर्ती राजा हैं जिनके घोड़े को तुम हरण कर लाए हो । जो तुम्हे प्राणों से भी अधिक प्रिय है देखो वह कितना खाता है, अर्थात रथ फिर और कितना खाएगा ॥ 

दूजे रचे जो रुचिर अटारी । तिन के हुँत बधु कहत चकारी ॥ 
धन्य धन्य कह पिय अनुरागे । लाग लगे जौ  तुहरे लागे ॥ 
दूजा तुमने जो अटारी निर्माण करवाई है उसके तो बस पूछोई मत सारा घर खा गई ॥ तब प्रिया ने बड़े ही अनुराग पूर्वक खा धन्य हो तुम धन्य हो तुम्हारे जैसी लुगाई को तो आग लगे ॥ 

कल्पकार चित्र कल्पने, जामे भरे न रंग । 
पर भीतर अंकित होत, रहि तिनके चित संग ॥ 
प्रियतम ने एक छत्र की कल्पना की जिसमें रंग नहीं भर पाया । किन्तु वह उनके चित्त के साथ अंतर में रेखांकित हो गया अर्थात उसमें कभी न कभी रंग भरना ही था ॥ 

मंगलवार, १० दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

तौं पिय रहि रथ किरन बिहीना । बधूटि सों भए तिनके हठ हीना ॥ 
जिन्ह अधार रथ लाहन होई । जुगावनई जे जोग सँजोई ॥ 
इस प्रकार परिणेता रथ कि किरणों के विहीन ही रहे । उनका हाथ वधु के सम्मुख फीका रहा ॥ जिसके आधार पर रथ लाने की लालसा जागृत हुई । एकत्रित कर जो धन संजोया गया था ॥ 

झट लोचन पट चौखन ढारत  । एक तज दूजै कल्पन कारत ॥ 
दंपत सीतरहि मनस बिचारे । तिन्ह ते होनिहार सँवारे ॥ 
उस संचय धन के आधार पर पलक झपकते ही एक कल्पना के प्रारूपण दूसरी कल्पना किये ॥ डम्प्टी ने शांत मस्तिष्क से विचार किया । क्यों न उस धन से भविष्य संवारा जाए ॥ 

जान समउ का आगिन आहीं  । कार करन जे होहि सहाहीं ॥ 
जिन बिधि पुरइन पुर क्रय कारहिं । तिन बिधि एक आपन लए धारहिं ॥ 
आगे जाने कैसा समय आ जाए । यह कार्य करने हेतु सहायक होगाकि जिस विधि से हमने पुरातन अचल सम्पदा क्रय की थी उसी विधि से एक आपण ले धारें ॥ 

एक कोन कलित दुइ मुख धारी । पौर पँवर लागे मग चारी ॥ 
नउ नवल भवन पगतर ढरियाइ । लख अष्टक मह एकल ईकाइ ॥ 
फिर एक कोने में वह दौमुखी आपण जिसकी ड्योढ़ी से चौपथ लग रहा था । और वह क्रय किये गए नए नवेले ढले भवन के ठीक तल में स्थित थी जो कुल रूपए अष्ट लाख में एक ईकाई थी ॥ 

एक बपुरमन दोइ बदन, जनु एक जुगल बिहाए । 
वाका सुठि अंतह करन, को बिधि बरनि न जाए ॥ 

बुधवार,११ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                               

जुगावनी पिय जो धन रासी । कौड़ी कौड़ी जुग धरि कासी ॥ 
तिन्ह के रहहि भिनु भिनु सोते । संजम करि कहुँ क़तर बियोंते॥ 
प्रियतम ने जो धनराशि एकत्र  की थी । कौड़ी कौड़ी करते हुवे जो मुठिका में जोड़ी थीं ॥ उसके विभिन्न प्रकार के स्त्रोत थे । कुछ निज जीवन में संयम का पालन किये,कुछ जोड़-तोड़ किये ॥ 

जे भुँइ खन पहिए लिए धारें । बहुरि तिन्ह कहुँ बिकरइ कारें ॥ 
मोलाइ रुपए सहस चालिसा । अंतरि लख दुइ सहस पचीसा ॥ 
पहले जिस भूमि के खंड को क्रय किया था फिर उसे किसी को विक्रय किया ॥ जिसका मूल्य रूपए चालीस सहस्त्र था । वह दो लाख पच्चीस सहस्त्र में परिवर्तित हो गई ॥ 

बहुरि हरिएँ नउ भवन लहाने । दिए पिय मात पिता के काने ॥ 
किरपा कारत दया निधाने । लाख  दोइ कर दिए अवदाने ॥ 
धीरे से नए भवन के क्रय की बात प्रियतम ने माता-पिता के कानों तक पहुंचा दी थी ॥ वे कृपालु हैं एवं दया के भण्डार स्वरुप हैं । उन्होंने रूपए दो लाख की सहायता राशि प्रदान की ॥ 

अरु लिए भुँइ एक दूर डहारी । बड़ भगिनी सह निकट पहारी ॥ 
मोल धरि कुल सहस चौरासी । दोउ बहिन दिए अध् अध् रासी ॥ 
नगर से सुदूर पहाड़ी के निकट और एक भूमि-खंड क्रय किये । जो वधु की बड़ी भगिनी की भागीदारी में थी । उसका मूल्य कुल रूपय चौरासी सहस्त्र था । दोनों बहनों ने उस भूमि की आधी आधी धन राशि चुकाई ॥ 

जोट कछुक गृह भाटक बाढ़े । कछुकन कारत मुठिका गाढ़े ॥ 
अस दंपत सामरथ बढ़ाईं । बिंदु बिंदु नभ घन के नाईं ॥ 
कुछ नए भवनों के भाड़े से कुछ कृपण आचरण के कारणवश धन राशि का योग बढ़ा । ऐसे करते दम्पति ने अपना सामर्थ्य बढ़ाया जैसे नभ में बिंदु बिंदु कर मेघ गहराते हैं ॥ 

दुइ भवन लख दुइ,एक त्रय, आपन महुँ लख चार । 
जुगल दम्पति आपन कर,, धरे सम्पद अपार ॥ 
दो अगहु भवनों में दो-दो लाख एवं एक में कुल रूपए तीन लाख एवं आपण में कुल रूपय चार लाख की धनराशि चुका कर इस प्रकार से युगल दम्पति ने अपने 

बृहस्पतिवार, १२ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                            

एहि बिच पिय जीविकोपार्जन । हेर फेर किए कारज बहुकन ॥ 
अंस कालिन अध्यापन सोहि । एक निज समिति सन जोगित होहिं ॥ 
इसी मध्य वधू के प्रियतम ने जीविकोपार्जन उलट-फेर कर बहुंत प्रकार के कार्य किये अश कालीन अध्यापन के सह वे एक अशासकीय संस्था से संयोगित हुवे ॥ 

जब छूटि रहि राउ सेउकाइ । तब सब मिल तिन गठित धराईं ॥ 
कार करन पंचायत माहीँ । पावन कारज फेर लगाहीँ ॥ 
जब राजा कि सेवाकर्म से निष्कासन हुवा  तब प्रियतम के सह सभी निष्कासित जनों ने सम्मिलित होकर उक्त संस्था का गठन किया ॥ फिर पंचायत विभाग में कार्य करने के कामना से कार्य प्राप्ति हेतु चक्कर लगते ॥ 

समिति सदस सन परे न पारे । आपई आप गठन बिचारे ॥ 
कहु के ईंटा कहु के रोरै  । भानुमान एक कौटुम जोरै ॥ 
जब उस असमिति के सदस्यों के साथ पार नहीं पड़ी तब पानी ही समिति के गठन का विचार किया फिर कहीं की इष्टिका एवं कहीं की कंकरी लेकर भानुमान ने एक कुटुंब जोड़ा ॥ 

चार पतर लिख चारै बैने । अधिकोष एक लेखा लहैने ॥ 
पत्तर मह त लेखे बहु हेतु । जथारथ रहहि बँधए धन सेतु ॥ 
चार पत्रों मन चार पंक्तियाँ लिखी अधिकोषालय में लेंन -देन प्रारम्भ किया ॥ पत्रों में तो समिति के बहुंत से उद्देश्य लिखे । वास्तव में उस समिति का उद्द्श्ये था कि धन का एक पुल निर्मित हो ॥ 

लघु रौ धानी लेख कर, गठे  समिति के गात । 
जनमि सजग जन सहजोग, पुत जनमन के साथ ॥ 
फिर छोटे राजा की छोटी राजधानी में समिति का पंजीकरण कर समिति का स्वरुप तैयार हो गया । और सजग जनसहयोग नाम से यह समिति बनी जो पुत्र के जन्म के समय अर्थात विक्रम संवत् २०५९ के लगभग गठित हुई ॥ 

शुक्रवार, १३ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

कार करन पुनि पिय अस दौरे । धुरी धरे जस भँवरे भौंरे ॥ 
लगत जोगत बहु जुगत भिराए । पर कारज कछु मिलबैं न पाएँ ॥ 

दिवस रैन लग जोग जुटाईं । कभु को मुख कभु को कहबाईं ॥ 
ते जग कारज सोइ कर पाएँ । जोइ के पैठ जेतक लमाए ॥ 

योजना रूप रेखन कारें ।एक लघु कारज फिर कर धारें ॥ 
बहोरि बहोरि भँवर लगाईं । भुगतान मह आध लख लाहीं ॥ 

एक कच्छ माह खोरे अनुमति लह । एकै कछ के महा बिद्या गह ॥ 
पाठन सीस एक सुल्क धराए  । सहस छठदस जा उदर समाए ॥ 

बिहने खाए खवाए के, तेतिक जोगन पाए । 
समिति गाँठी लगाएं मह, जेतैक जोग लगाए ॥  

शनिवार, १४ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

भयउ मीन केतक घरियाला । थाह लहे पिय सासन ताला ॥ 
कीच गाहे को केतक जानी । को के कंठ गहि कितौ पानी ।। 

कृत कृत दिन सरि दूषित राता । अंदर बहिर सबहि के बाता ॥ 
तिन सन बहुकन अनुभव धारे । दूषन केतक चरन पसारे ॥ 

खाट खटौरे हारी बैठे । कछु दिन पिय जब खारी बैठे ॥ 
बहुरि एक लघुबर ठिका उठाए । एक सिस अबास लगे जतनाए ॥ 

कहि नृपसेवक चलउ सुधारौ । जोग प्रभंजन करपर धारौ ॥ 
निबास दूर बसइँ एक गाँवा । रहहि तहहिं सो आश्रम छाँवा ॥ 

निसदिन ठान बाजि चढ़ि जाहीं । तन बहुकन धूरी धर आहीं ॥ 
श्रम जित पिया पूरत निजोगे । रूपै बीस सहस कर जोगे ॥ 

बोलइ बधु पिय उछाहत, अजहूँ दूजां कारु । 
कहि पिया मैं एतिक पढ़े, कर सक तिन अनपढ़ारु ॥ 

रविवार, १५ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                       

समिति कार हुँत जो भँवराहीं । वाके प्रीतम भए एहि लाहीं ॥ 
तनि दिन पर धरि सोइ निजोगे । दुर्घटन कर सयन जब भोगे ॥ 
समिति के कार्य हेतु कार्यालय के चक्कर लगाने का प्रियतम को यह 

पद जोजन समनबयक सोहीं । हस्त सिद्धि दुइ सहसहि जोही ॥ 
एतिक भूति मैं प्रगस सरूपा । भरे नाहि उदरन के कूपा ॥ 

कारज पालक आयसु दाईं । पंचायत करनन सन लाईं ॥ 
राज मह राज योजन कारें । जन के धन सन जन उपकारें ॥ 

ग्राम कूट सइँ सेवक लोगे । पंच महपंच  सचिव निजोगे ॥ 
पुर पंचाययत निसदिन आईं । लए निज गाँउ करम रचनाई ॥ 

लग करमन जो धन अनुमाने । तिन्ह के पिय निकासत काने ॥ 
तों परिकलन कलित कर जोई । पालक तिन कर सही सँजोईं ॥ 

ऊपर लेइ नीचै लग, सबके बाँध बँधाए । 
रूपए एक को दोइ पिया, पैसे दस बिस पाए ॥ 
















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