Friday, August 16, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 14।। -----

बितत दुइ चारि दिवस बहोरे । लेइ उबकाए बधु एक भोरे ॥ 
बधु समुझत छिनु लागहि नाहीं । कहि मन माह मैं गर्भ धराहीं ॥ 

पलभर हुँत बधुटी बिझुकाई । रहि चितबत सुधि बुध बिसराई ॥ 
होहहिं साँस नीचकिन नीचे / तँह पुनि गहनै अंतर खींचे ॥ 

मलिन बदन बधु दरसत पियाए / बूझत कहि भए सकल कुसलाए ॥ 
पलक नयन असमंजस बासे । बिचित्र रंग मुख रंजन रासे ।। 

बिखरित आखर अधर जुहाने / भाव अर्थ लै जुग मुसुकाने ॥ 
पंच शब्द सूकुति संधाने / मृदुलित कहि हम गर्भा धाने ॥ 

ऐसेउ शब्द श्रवन कै,प्रियतम रहहि अवाक । 
सुस्मित मुख बिस्मै नयन अपलक बधु रहि लाख ॥ 

शनिवार, १७ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                            


भाव प्रबनत बधू भइ रुआँसी । एहि  कहत लेइ मुठिका कासी ।। 

ए कह मुख दुइ  धमुका धारे । जे सब भए किए कार तिहारे ।। 

पुनि रद पद हँसि हंसक घारे । मुख मानस पिय हंस बिहारे ॥ 

कहिं माने हम कारन बारे । थोरइ न तवहु रचना कारे ॥ 

तब बधु के बार बदन अगासे । गहन मलिन चिंतन घन बासे ॥ 

बोली एक संकट तव ताईं । ता पर एक अरु सीस धराईं ॥ 

अब कारें तुहरे सेवकाए । कि धार गर्भ नउ जीउ जनाएँ ॥ 

कभु  को तौ कभु कोउ प्रपंचे । माम जीवन का रचित बिरंचे ॥ 

भयऊ का आपन हाथ, कहत बधु के नाह । 

जैसे मानख आचरन, तैसे समउ के चाह ॥ 

रविवार, १८ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                                 


इहाँ लिखन आखर जुग टेरे । जुगल पीठ भू अवगत केरे ॥ 

दोउ जुगल रहि जेइ समाजे । रीत चरित तँह तेइ बिराजे ।। 

पुर प्रियजन रहि पुत लोभाईं। पुतरी तुल पुत जनम सुहाईं ॥ 

जब जब ते दोनउ अनुहारी । तब तब परि पुत जातक भारी ॥ 

पुतरी गत बत संग पिया के । पुत रहहि सदा मात-पिता के ॥ 

पुत कर अन धन कर्म कमाई। पुतरी जातक भई पराई ॥ 

नारी पौरूख तिर्यक लाखें । ते कर तिनके राखन राखे ॥ 

एहि देसज भए पुरुख प्रधाने । नारि जात कँह भए सनमाने ॥ 

बिटवा के रजस सारत, आपन बंसज रेल । 

बिटिया के गर्भ घारत, दूजन के कुल बेल ॥ 

सोमवार, १ ९ अगस्त, २०१३                                                                                                    


एहि मति सम्मति गहि समुदाई । पियहु तेइ मत जोग मिलाईं ॥ 

बधुटी के तौ मतिहि  भरमाए । पुत जनाए कि पुतिका जन्माए ॥ 

घेरत गहन ज्ञान उजियारे । मति भरमत घन किए अँधियारे ॥ 

जेइ बखत कछु सूझ न पाईं । ते सूझै जौ जग बूझाईं ॥ 

जब लग जीवक जगत जिउताए । तब लग अंतस बहु झुर झुराए ॥ 

पावन जीवन प्रीत प्रतीती । परत निभावन जग के रीती ॥ 

का भए अघ अरु का पुन होहहि । मति भरमै तो कछु नहिं तोहहि ॥ 

तेइ करम कर कारन चाहे । जेइ जीउ धर सुख चर लाहे ॥ 

जीउ बुझौबल बूझत केरे । अवने गवने जन बहुतेरे ॥ 

आवत जो जग दरसन देखे । को निज को पर कुकरम लेखे ॥ 

सोइ लेखनी जगत सुहाई । जोइ लेखनी आप कहाई ॥ 

कुकर्म बहुस होत सरल, बरनन बर्नन आप । 
पर होवत बहुसहि कठिन, कथनत किए निज पाप ॥

मंगलवार, २० अगस्त, २ ० १ ३                                                                                      

एहि बिधि बधु बर जुगत बिबेका । रही सौतुख तीख प्रस्न अनेका ॥ 
सुरसा मुख सों छेक दुआरे । पावन उत्तर पंथ निहारे ॥ 

करत परस्पर संधित साथी । ऊरु फलक जुग जहि भलि भाँती ॥ 
जुगत चरण का लघु बर होहीं । बिकट प्रस्न मति  पूछत जोहीं ॥ 

दूजत बूझत भये अधीरे । का प्रियतम भू चरिहि सुधीरे ॥ 
जे चरिहि तौ कर्म का किन्ही । गृह संचारन कण को दिन्ही॥ 

भए घर ते बिनु घर गोसाईं । कौन ठाँव कँह गृहस बसाईं ॥ 
बहुस  कठिन भै बखतएँ भावइ । होहहि दुखकर बहुस भयावइ ॥ 

जों जों मन सुमिरत आगिन के । तों तों तन हहरत हारिन के ॥ 
पिय संकट अरु गर्भ गहीं कै । बयस भइ जस फंस नागिन के ॥ 

जस सुरसा बाढ़े बदन, करि अतिसय बढ़ खोर । 
तसहि ठहरे जीउ सदन, दुआरि  प्रस्न कठोर ॥ 

बुधवार, २१ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                      

एक चिंता रहि मोले घर के । बूझत मति तिन हरुबर धरके ॥ 
रोचमन नयन कहत कहानी । दिए ऊतरु तर पख के पानी ॥ 

संकट मुख कारत प्रस्नाई । पिया चरन बधु पंथ रचाई ॥ 
जुग धरि जे निधि कर्मन ताईं । ते करि चिंतन तनि लघुताई ॥ 

मित ब्यय करत गृह संचारे । मोले घर दुज अंस उतारे ।।
दंपति चातक गृह भए चंदू । सो संपद बहु देइ अनंदु ।।  

गेहहु उसरत रहि बहु धीरे । बार बधुटीहु रहि न अधीरे ॥ 
एकै बस्तु जे भै सुख दाहीं । नहि त संकट रहि थोर नाहीं ॥ 

कठिन बिषय बय जे बड़ नाईं । लघुतम के तौ का कहि जाई ॥ 

जुगल दंपति जीवन  उत, बिलोकित जल तरंग ॥ 
लेखनी बरन गहत इत, गत रत कहत प्रसंग ॥ 

गुरूवार, २ २ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                         

इत बर के लघु बहिनइ ताई  । लगन धरे दिन लगे अवाई ॥ 
लिखि  बरनत करि लगन पतरिका । नाम धरे बर अरु बहिनहि का ॥ 

मात-पिता सह कँह जन्माईं । दोनौ कुल जन किए बरनाई ॥ 
बार सुन्दर अच्छर किए हेला । पानि गहन करि मंगल बेला ॥ 

अरु बरनत  कहि भँवर लगाईं   । समदन पुर थरि लगन बिठाईं ॥ 
पात पटल बल बरत बलीते । ता पर सुन्दर कलस कलीते ॥ 

प्रथम हुति जन गन अधिनाई ।  पुनि पुरप्रिय जन लिखि हूताईं ॥ 
कृपा करत कहि चरनन चिन्हें । नउ दम्पति निज असीस दिन्हें ॥ 

सकल जोइ कर पाए सुअवसर गुरुजन अयसु सिरु धरे । 
गवने पुर देहरि ससुर भसुर हरि, चरन लगन पत्र उहरे ॥ 
देव निमंत्रण गत भवन भवन, गवन प्रिय परि जन पुरे । 
बोधित श्री मन अवाई लगन बहु याचन करत कर जुरे ॥

लगन लग दिवस उत पिया, धरि बहु उरस उराउ । 
असक कसक परे खटिया, करि हठ गवनु बिहाउ ॥  

शुक्रवार, २ ३ अगस्त,२ ० १ ३                                                                              

हठ पद लगि जब चढ़न पहारी । बढ़ बहियर कर धरत ठहारी ॥  
पपीया कलस करु परिहरु चाहीं । रिरिनत रत कहि नाहीं नाहीं ॥ 

रिर धरि भरक घरि भै रिसहाए । रिरत बधुटी एहि कहत बुझाए ॥ 
चरत बहनु लइ चरन हिलोरे । भयउ बिलग लग जोजित जोरे ॥ 

रलन लगन पिय गवनै ठाने । बधू के कही एकै न माने ॥ 
बहुरि पिहरु जन अरु ससुराई । चित चेतस बर बहु समुझाई ॥ 

कहइ गवनु अरु हठ ना धराहू । बेदउ मन्त्रन  केर मनाहू ॥ 
जे मह रहि जी के  कल्याना । मान भली तेइ बिधि बिधाना ॥ 

पहिलै हठ के परिहरै, लिए मन दूजन माँड़ । 
कह बधु तईं तुम गवनौ, मम सेवापन छाँड़ ॥ 


शनिवार, २ ४ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                    

एहि श्रवनत  बधु सोच जराही । अजहुँ परे पिय सयनइ माही ॥ 
बॉस बसन नित करमन कारें । भोजन जोजन साँझ सकारे ॥ 

जे मैं लगन गवन मेलाहूँ । ते पिया किमि खा अन्हवाहू ॥ 
कहत अंगारि भरके ऐसे । असहै रिसहै मनाउँ कैसे ॥ 

धरि साहस पुनि कहि सिरु नाई । पिय तुम महिम की लग्नाई ॥ 
श्रवनत एहि पिय कहिं रिसिहावत । करकत कह एक दूइ कहावत ॥ 

एकन्ह एक सन धुनी कहेही । रयन सयन माह परे परे ही ॥ 
अरु कहि एही मम आयसु होही । प्रिय लगन बधु नयन जल जोही ॥ 

पुनि कातर बधू नयन निहारे । कहत मृदुल पिय बचन सुखारे ॥ 
बधु होंत कुल बंस सोभाई । मिलन समदन लगन सोहाईं ॥ 

रे प्रान समा मोरि प्रियतमा तनि पिय के कहि लहनौ । 
मरजादा घर लावन श्री कर लगन के लाहन बनौ ॥ 
लगन घरी दिन, कुल बधु के बिन समुदाए जन का कही । 
मानु मम कहिन पुनि दैनंदिन जेइ सुअवसरु न लही ॥

भयउ बिधि बाम बखत एहि, किए मोहे असहाए । 
नहि त रिरत रह न तव सों, गवनै रहहि बिहाए ॥ 

 रविवार, २५ अगस्त, २ ० १ ३                                                                             

तिन अवसरु धरि बदन बिषादू । डरपत पिय परिहरत बिबादू ॥ 
कार सकल प्रियतम के काजू । जथा जोग करि साज समाजू ॥ 

श्रुत भँवरन हुँत नंदनि नादी । अँकबर पितु कर करबर बादी ॥ 
ललित कलित करि कंठ मालिका । अंगुरि धर चरि संग बालिका ॥ 

दोनउ एक संबंधिन संगे । चले मिलन सुभ लगन प्रसंगे ॥ 
चरत दोपहरि साँझ ढराई ॥ चंद्रोदय पूरब पैसाई ॥ 

जा गृह जन सन मेल मिलाई । जे पुर पैसएँ पहिलै ताईं ॥ 
भेस भरे बर लोग लुगाईं । अलिन्दन अँगन भवन बियाईं ॥ 

मंगल कालारंभ अचारहिं । चारत अष्टक बिप्र गुंजारहिं ॥ 
काम धुनी कर कोमल बानी । दै मंगल प्रद मौलिहि पानी ॥ 

भावी जुगल बर दंपति, बरे पंच परिधान ॥ 
तिलक रीति प्रीति पूरत, समदै गह सयान ॥ 

सोमवार, २६ अगस्त , २ ० १ ३                                                                                              

दोउ जामिनी लागि लुभावन । कोउ रागिनी रागि सुरागन ॥ 
बिरति तिलक कारत रतजागे । दूज दिवस किए सगुन सुहागे ॥ 

सोन सुरंगन साजि सिंहासन । एक पुर धुर ऊपर आसन ॥ 
बलि अलि अंबर बर अंबारी । दरस बिपद धर नग नख घारी ॥ 

फूल हार लरि झालरि साजी । भवन बसन बसि भा बर काजी ॥ 
भेरि दुंदुभी ढोल मृदंगे । घन घरजन कर नादित संगे ॥ 

सुर कम्पन कर ग्राम सुहाई । बिरधिन्ह कंठ मंगल गाईं ॥ 
सँवर समधि बार जनेत चढ़ाए । भाइ-बंधु सह जामा जमाए ॥ 

चढ़े रथ बाजि दुंदुभी गाजि रजबर राजि बाहिनी ।  
भेस भरि भ्राजि साजत समाजि पथचर लाजि भामिनी ॥  
जूँ साजि धाजि दामिनी दाजि रूप धर लाजि गामिनी । 
अगुवन बिराजि तारि तर ताजि छितकर छाजि जामिनी ॥ 

दरसत जनेत पख बधू, किए कल नंदत नाद । 
समधी समदनै अस जस, तज दौ दधि मरजाद ॥ 

मंगलवार, २७ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                             

जनेत जन दिव दरसन दिन्हें । नभ मंडल प्रभ मलनइ किन्हें ॥ 
मौली मुकुट कटि कटारि साजे। लोकित बर जस को महराजे ॥ 

बार पख रहि बड़ हरिदै धारे। खान पान कर आप सँभारे ॥ 
बाज गाज सब साज समाजू । करि निज बिधि पर किए बर काजू ॥ 

सुधा सरिस नाना पकवाने । रचित सुरूचित बहुस बिधाने ॥ 
छरस भोग जन केरि बढ़ाई । कहुँ अपरम कहुँ बिधि उपराई ॥ 

मंडल मंडित मंडप देसे । पानि ग्रहन बधु बर उपबेसे ॥ 
भँवरे पुनि कर मह कर राखे । भरे बचन बनि अगनी साखे ॥ 

बरखे सुमन कुँअर कुँअरि , भररि भाँवरि जब सात । 
भए पुलक पाहुन प्रियजन, गहि सों साँवरि रात ॥ 

बुधवार, २८ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                           

दुलहिन बर घर बहियर पाईं ।रितत रयन जन लेइ बिदाई ।। 
बिलगत धिय रोदन करि कैसे । ह्रदय लगत घरि गिरिजा जैसे ॥ 

दान-मान दै बर उपहारे । धिया पिया दुल्हा कर धारे ॥ 
मात-पिता लै दुइ कर जोरीं । रहहि हमरि अजहुँत पत तोरीं ॥ 

नउ मास लगे उदरन घारी । जननि जिन्ह जा जनम जुहारी ॥ 
बिहउत बिहबल सजल निहारी । देइ दान करि झोरिन खारी ॥ 

उत बहुरत रत केत जनेता । इत बहुरन निज नगर निकेता ॥ 
दैं पर दुलहिन पख पहुनाई । जोए सँजोए गवनु हरुवाईं ॥ 

पाछिन परिहरु प्रियतम हेते । बधु चितबन धरि चिंतन चेते ॥ 
निंद मगन  नंदिनी जगाई । जगे प्रात सन जामि बिहाई ॥ 

मान अधि सकल नेगि कर, बियाहु रीति निबेर॥
दान धी  बेगि आप घर, निकसे मुँहू अँधेर ॥ 

गुरूवार, २९ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                           

बिहनै चारत बधु थकि हारी । आवत प्रियबर जोखि सँभारी ॥ 
पूछत कार निज कवन किन्हें । जस तस कहत  पिय उतरु दिन्हें ॥ 

सुरतत बहिनि नयन जल गाढ़े । करत काल घन पलकन बाढ़े ॥ 
बरख परे तब ली उसाँसे । ललकिन रत केसउ पत कासे ॥ 

बूझे उर भर धर तनि सांती । बिदा भइ बहिनइ भली भाँती ॥ 
थकित चिरित बधु कहि किए देहू । जे हमरे कहि पर संदेहू ॥ 

बोलसि कुटिल कटि भृकुटि ऐंचे। कहु त देखाएँ जे चित्र खैंचे ॥ 
तुम तौ बिय बन बरनन पेरू । कहि पिय लड़वन नित हुँत हेरू ॥ 

तुम चह आरती दिवस राती । देइ उतरु बधु बल खाती ॥ 

भाँवरि सात बचन भरे, कहि पिय भए तव नाथ ।
आरती करें चह लरें,  बाँधे बंधन साथ ॥ 

शुक्रवार, ३० अगस्त,  २ ० १ ३                                                                                      

करम सिराई बहिन बिहाई । भयउ मास एक परे सैनाइ॥ 
सीध सयन सइ पीठ लिलाई । बँधे बाहु किए दाहि न बाईं ॥ 

सुहाउ सुभाउ जे रहि अति चारू । रहत घरे बिगरे ब्यबहारू ॥ 
श्रम कर प्रिय अरु कारज हीना । यूँ तरपत जूँ जल बिनु मीना ॥  

नित किरिया तँह तँहहि अन्हाएँ। असन बसन तँह देहिहि धराएँ ॥ 
दरसन गोचर न जग बहिराए । अंग प्रत्यंग सका अठियाएँ ॥ 

हत आहत हरि काल भली करि। आह करत पिय अह अह घरि घरि ॥ 
आहित स्वन बचन बिनयाने । आह्वयन भगवन अह्वाने ॥ 

गिरत परत बिनुधर चरत, ताप धरत दिनु रात । 
राम राम प्रतिपल करत पिय रहिं बखत बितात ॥  

शनिवार, ३१ अगस्त २ ० १ ३                                                                                               

घरे घाउ भरि सका सुधीरे । संधिहि बंधन पर भए ढीरे ।। 
बैदु अहोरन दै तिथि आई । दोइ चारि दिन अवर धराईं ॥ 

तेइ डगर चरि तेइ नगरिया । तेइ चरन पुनि तेइ चरइया॥ 
तेइ बाह पर दूसर बाही । चरे सकल तिन बैदक पाहीं ॥ 

लगे हरन मन दरसन डाहिर । बहुस दिवस पिय निकसे बाहिर ॥ 
चारि चरनि बहि सरनि सुधीरे । भावइ अति मन त्रिबिध समीरे ॥ 

कहुँ नग कहुँ नदि नन्द निनादे । कहुँ बन थरि फर फूरत राधे ॥ 
पिय श्री मुख जे लोकित सांति । बरनन बरन न सक कहुँ भांति॥ 

धरत दृष्टि पिय सुख बृष्टि, परत उरस संतोख । 
पर बधु चित पिछु बहि आगु, चरत रहहि बर चोख॥ 


       
   








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