Thursday, May 16, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 8॥ -----

बात कही लगे सरसित भासी । पर लहि रहि बहु दुःख की रासी ॥
सुधाधार धर बर अंतस रूखे । सुखोपर बधू भीतर हूँके ॥

छन महँ सुत सुमिरत घन गाढ़े । दोनौ के लोचन जल बाढ़े ॥ 
कहँ पिय मम पुत पुनि अवतारे । घारे रूप रह गर्भ तिहारे ॥

एहीं बचन सुन वधु हरषाई । एक भाँतिहि भै मंगलताई ॥
जे दरसन दे नयन दिखाई । पट आँगन को बदरी छाई ॥ 

छिनु भर कबि थर सोच बिचारे । अस भाउ कास ब्यंजन कारे ॥ 
गहन प्रबन बार सरग उतारे । करुनारुन कहि कर सिंगारे ॥ 

कभु धीरज हीन धेना कभु सुख सागर सार ।
थिरत अवगाहत दौनौं करना बच्छल धार  ॥  


शुक्रवार, १ ७ मई, २ ० १ ३                                                                                             

बस दौ चारि दिन उपर कलिते । गही बधुटी गातक सममिते ॥ 
जान परख प्रसूत पहिलौठे । करत सँभारी दूजन औठे ॥ 

इत कुल गेही रीति बनाईं । गृह जाई पर कलह न जाईं ॥ 
को कारन कर कही न जाई । परख परस्पर लाग लड़ाईं ॥ 

भरे दोष के अगणित अंतर । सिधि धर विभ्रंस मारे मंतर ॥ 
महिमा रति की अति दुर्गति कर । मन मति तमो गुनी के प्रति कर ॥ 

हबिर गेह दै हबिश कलित कर । दुर भासन के भुज आहुति भर ॥ 
धूनिहि रमाए धुबित धूति धर । धूम केतु कर बर धू धू कर ॥ 

उरप तरप धूर्त रचना कर । धूमलायन गृह धुर ऊपर ।। 
आराधन बिघन जे कोऊ कर । जरत परजरन धरे परेतर ॥ 

जारी सदनि  सुख सम्पद करत कुल निस्तेज । 
जह घर जनि कलह कलेष सह चालत बोल मुख तेज ॥ 

क्रोध कलित बचन दै तस छनमहँ तिनका तोर  । 
जस कुलिस अस्थि उपल जस लोह कराल कठोर ॥ 

शनिवार, १ ८ मई, २ ० १ ३                                                                                            

सदन सभा सद सबहिं उपाधी । कोउ  लउ लेस को बहु राधी ॥ 
अनभल गरुएँ हरियरि भलाई । मंगल समऊ बाम बनाईं ॥ 

गर्ज तर्ज कभु अस गरियाएँ । हरिन हृदय पल महँ डरी जाएँ ॥ 
को दिन कलबलि कुडकुड भाँती । को दिन करकत करकट जाती ॥ 

कटु भाषन जस कलह काटिके । कुल काजरि करि बचन गारि के ॥ 
कमाए धमाए कुल मर्जादे । खोवति आपन  कर दुर्बादे ॥ 

कभु बधुटी के दोषन छाँटे । दुःख बहुल कर बहुतन्ह डाँटे ॥ 
कभू बरतें दुह साध सुभाऊ । कह्बत नहीं होत पछिताऊ ॥ 

हंसनी कला जननी की महिमा अपरम्पार । 
सुथरी कंठ बिराजि कै बिगरी बदन दुआर ॥ 

रविवार १ ९ मई, २ ० १ ३                                                                                         

पर एहि बारी सजन सलौने । द्वेष दीप मह रहे न मौने ॥ 
कहत सकल जन समझ बुझाई । आप लराई केलि पराई ॥ 

पिया उपदेस अस गुनताई । ढोल कुलाहल तुतरि बजाई ॥ 
उलट पडत सब बहुतहि सुनाए । हमरेहि जाए आँखी दिखाए ॥ 

बदन बचन तन चामी चढ़ाए । तेहि चरन हम पे चढ़ी आए ॥ 
बानी तिख बर उर पर सारे । मरम भेद कस घाव उकारे ॥ 

सुन प्रिय जन के भली बुराई । लोचन पट पिय सीस झुकाईं ॥ 
गही कपट सयान प्रभुताई । बिधि करबस गृह कुमतिहि छाई ।। 

कलि कलह पियारे सदन मुख छोरत चिंगार । 
बुझा कोयरा जरा तन  तस बर अगनी धार ॥ 

अस कह्बत बधु सइ कहत सयन सदन पिय रैन । 
मंद गति गहे सबहि जन समझे ना मम बैन ॥ 

सोमवार, २ ० मई, २ ० १ ३                                                                                                  

एक पुत दुःख दुज गर्भन गाहे । तिस पर कुल कलेष बिलखाही ॥ 
तेहिं बले अस कुल के नाईं  । तरु बलयित बेली के ताईं ॥ 

लाग पाछ पुनि कपट कुचाला । बक जातिहि जस चाल मराला ॥ 
रहे अस फेरन की कुल फोरुँ । मधुर नतैति बिच माहुर घोरुँ ॥ 

 पुनि एक बासर रोष अधीना । मंत्र रसन मुख मन मति हीना ॥ 
कँह गृहजन कथन कुठारे। आप गृहस्तिहि आप सँभारें ॥ 

निसंकोच लै खाट खटोरे। रहू दुनौ को औरन ठोरे ।। 
धरनिहि फाटे बदरी मिलाए । कहें संत उर कौन सिलाए ॥ 

चढ़ बढ़ ऊपर छोलत छाँती । घर मँह बोली साढ़े साती ॥ 
दुरभावन जुग बचन बखाने । हीत अन्हीत कछु नहि जाने ॥ 

एक बाल उदर प्रबेसहि, एक निर्गम संसार ॥ 
एक दुखार्त बिरतत नहि दूजन खड़े दुआर ॥ 


मंगलवार, २ १ मई, २ ० १ ३                                                                                                         

मन ही मन बधुटी एहि चहही । कलेश ते बर कहुउत रहहीं ॥ 
अघ वधु उर पिय भलमनसाही । पालक तज कहुँ जाउ न चाही ॥ 

सोचि पीया मन ऊंच निचाही । अजहुँ त लघु बहिन अन  बियाही ॥ 
पहलहि बर भ्राता अपर अवासे । कलहन कारन बिलगत बासे ॥ 

नात नतेत लोग लोगाही । जित मिल मूँ उत बात बनाहीं ॥ 
सकल समुदाए कहन कहाहीं । देखौ तौ कैसे बिलगाहीं ॥ 

घर भाजन ना सोभ समाजू । जे कारज तौ होत बियाजू ॥ 
चरत बिचारत पिय मति ओढ़े । समाधान समऊ पर छोड़े ॥ 

भाग्य क्रम बिपरीत कर नखत लिखत बल लेख ॥ 
सोचे पिय कर्म निज बर लेखीं लेख सुलेख ॥

बुधवार, २ २ मई, २ ० १ ३                                                                                               

इत घर परे न को कर सांती । कलि कर गृह जन दिनु राती ॥ 
कबि अनदेखत मानस दोषे । बार बार कलजुग को कोषे ॥ 

सिख लिख कँह जे आखर भेंटे । ते ज्ञानी जे सार समेटे ॥ 
रहे सदस गन बड़ गुन राधे । धारे कर बर मान उपाधे ॥ 

ऊंच बिचारी नीचक कारे। बर बुध मति अति दुर मति घारे ॥ 
रही ना को बस बिषया सक्ती । केवल कारे कलह के भक्ति । 

अंत कलह कर एहि फल भीते । योजक हारे भाजक जीते ।। 
कारन नहि रहि धन के ताईं । कौतुक रहि जी के अलगाई ॥ 

लागे देखन कहुँ को अन्तिके । भाट भवनु अलि रवन रंतिके ॥ 
पर पी ऐतक  अर्थ न जोगे । बस रहि भोजन छादन योगे  ॥ 

पर राउ के पिया रही सेवक बहुत श्रम सील । 
खोजे ते मीलै नहीं, धरे कर कांति कील ॥ 

सोमवार, २ ७ मई, २ ० १ ३                                                                                         

गयउ प्रिय कार पालक पाहीं । अरु निज सकल बिपदा सुनाहीं।। 
रहि पालक प्रिय के श्रम तोषे । देइ सासकी गृह परितोषे ॥ 

पिया जे के रहि न अधिकारे । नियमन नियतन बंधन धारे ॥ 
पर कार पालक किए उपकारे । दुइ कछ के छादन कर धारे ॥ 

ते छादन रहि बहुतहि दूरे । मात-पिता सन बहिनि बंधु रे ॥ 
एहि सोच प्रिय तनिक अरु ठाढे । गृहजन चरन मधुरता बाढ़े ॥ 

बचपन ते रँह गहज दुलारे । कभु कोउ कभु कोउ कर धारे ॥ 
कभू तात लिए गोद बिहारे । कभु बंधु बहिन कँह रे आरे ॥ 

बिलगत पीया के नें भरी आए । ताके भावना कही न जाए ॥ 
मात-पिता भगिनी प्रिय भाई । देखि पीया कातर दृग ताईं ॥ 

अंत मह सकल संजुग जोरे । पाँ परी बधु  दु बूँद निचोरे ॥ 

लेइ सकल आसन छदन, धरे बाहिका जोर । 
देखत पिया फिरत फिरत, नयनन मह भर नोर ॥

मंगलवार, २ ८ मई, २ ० १ ३                                                                                     

जे गंध राज गृहबन बासे । देख बदन बधु कहत उदासे ॥ 
बोलि बचन मुख करत मलाना । हम बालक तुम पाल समाना ॥ 

सखा बंधु तुम प्रान पियारे । मृदुल नयन पल सजल निहारे ॥ 
आगिन कहि जोरत दौ हाथे । ले जाउ न हमहूँ निज साथे ॥ 

सकल सुम जब बिनति कर पाई । नलिन नयनी कंठ भर लाई ॥ 
अली कली कल रंग सुरंगे । बिकल बधुन्ह सकल लिए संगे ॥ 

बही बहनु बहु धूरि उराई । धुंध कार नभ ऊपर छाई ॥ 
दुआर अटार भवन मुहूटे । मात-पिता प्रिय पाछिन  छूटे ॥ 

सुन्दर बिपिन बीच बसे सुभग सासकी धाम । 
नदि सेतु कर पार पहुँच किये दुआर प्रनाम  ॥
 

बुधवार, २ ९ मई, २ ० १ ३                                                                                           

पर राउन्ह एक नियम बनाए । सुफल भै ना को काम कमाए ॥
जब लगि दै ना दान दखीना । चाहे कैतक भयौ प्रबीना ॥ 

देइ दखीना भवन प्रबेसे । जै कर ब्रम्हा बिष्नु महेसे ॥ 
भीत भवन रहि धूरि धुराई । को खनि कल मल काल कुराई ॥ 

कंकर कंटक कोट कटीले । बहिर भवन रहि बिमौट टीले ॥ 
कहुँ बेली के तरु सुखदाई । कहूँ पात धर झुरि अमराई ॥ 

पाछिन भइ पीपर की छाई । पहिले रहि ते मकै उगाईं ॥ 
ठाढ़ रही इमरी एक कोरे । दूर जमुन लागे बहु भोरे ॥ 

पीत भीत अरु कोर कियारी । फूर फूर फिर फुरि फुरबारी ॥ 

जीवित जीव जंतु सहित, सकल बिपिन रहि सोह । 
कल कंठी के कल कूज, बधू के लिए मन मोह ॥

गुरूवार, ३ ० मई, २ ० १ ३                                                                                                  

जुग दम्पति अस सँजोउ जोईं । असन रसन ते साजि रसोई ॥ 
सकल भवन बन जतन बिलासे । सयन सदन एक बैठक बासे ॥ 

जब बधूटि सन नैन मिलाई । मिलतहि उपबन भू सकुचाई ॥ 
फिरत बन माहि बधु मुसुकाई । सकल चरन रिपु उपल हटाई ॥ 

परसत बधु के पदुम पाद कर । सकल बाटिका भै अति सुन्दर ॥ 

पाँख पेख पख बहु सुख पाई । पद पद उलसित पत सरसाईं ॥ 

अली कली कल जल सुत सींचे । भयउ मगन सब नैनन मीचे ॥ 
मरग करक कठोर कन चिन्हे । मृदा मृदित कर कोमलि किन्हें ॥ 

सुर सरि उपवन सँगायन धरा गगन के संग । 
श्रील निवास रमा रमन भरे प्रकृति मह रंग ॥ 

शुक्रवार, ३ १ मई, २ ० १ ३                                                                                           

सखा सुमन जे भए ससुरारी । बधू करतल तेहिं के धारी ॥ 
फूर प्रफूर परस्पर मिलाए । बहु कुटुंबी कर बीच बैसाए ॥ 

बाड़ी सुमनस अस रलमीले । जल बूँदी मह जस जलमीले ॥ 
दो दिन लिए अरु पोषन पाईं । सुर भवन के सोभा बढ़ाईं ॥ 

जोग जुगलिन्ह घर जतनाही । अनुकूल दिन पिय गए दिज पाहीं ॥ 
तब दिज पोथी पत्तर पेखे । सुभ दिन करतन हवि हुति लेखे ॥ 

हवं रसन हवि पूजन भोरे । हव्य कव्य अहवन पिय जोरे ॥ 
श्रिया श्रीकर की कथा कराए । हविर बहनु ते भवन पविताए ॥     

श्री के सह श्रीधर मंडप प्रियकर मंगल घट तीर धरे । 
ले सत्य अनुरक्ति ह्रदय मह भक्ति दिज श्री मुख कथा करे ॥ 
धर बधु के आँचर बर के पट तर देवत दिज गत जोढ़े । 
बिधिबत पूजन कर साँकल कर धर दंपति आसन पौढ़े ॥ 

दै अंतिम हवन आहुति करत स्वाहा कार । 
भयौ निर्मल सकल भवन मंत्रोदक कन धार ॥ 



  








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