Thursday, November 1, 2012

------ ।। मधुर मिलन ।। -----



          गुरूवार, 25 अक्टूबर, 2012                                                                             

           साँझ दिनु भए सकेर सकारे । गउ गोरू पग फिरहिं दुआरे ।।
           भयो स्यामल गगनहि गौरा । सुमनस हरिदय गुंजहि भौरा ।।
 प्रभात को  को समेट कर दिवस संध्या में परिणित हो गया है | गाय गोरू अपने घर लौट रहे  हैं, गौर वर्ण गगन कृष्ण रुप धारण कर चुका है, भौरा मगन हो पुष्प के ह्रदय में गूंज रहा है ।         
                
              चैन के बँसरि अधर पधारे । रागनुराग के रे रस अधारे ।।
              थिरकत संग तरंगिहि माला ।  अंजन रँग  तट तरुअ तमाला ।।
 चैन की सुन्दर बांसुरी के सुर अधरों पर विराज गए, राग एवं प्रेम के रसों को धारण किये हुवे,तरंगों की (सुर) मालाओं  के साथ थिरकते तट के वृक्ष  श्याम रंग में रंग कर मानो तमाल (शीशम )के वृक्ष हो गए ।          

           लहर बहर बहि बहु बहिलाहीं ।  बलभी भरि बल्लभ गल बाहीं ।।
           सलग्न बलग्न बदन निहारे  । सरसै सरित सरट सुर सारे  ।।
 आनंद एवं सुख रूपी वायु  बहुत प्रकार से बहला रही हैं, प्रिया अपने प्राननाथ को आलिंगन किए हुवे थे प्राणनाथ के करधन को संलग्न किए वह उनके मुख मंडल को निहार रही है , सुरों से युक्त होकर हवा, नदी सहित सभी आल्हादित हैं ।

          फुरे फूर तैं भरि फुलबारी । झौंर झौंर जलकन झरहारी ।।
          हेम अंक अंग पत अनुगामा । हिमकन बन जिमि हिमबल  हिम धामा ।।
           फुले फुले सुन्दर फूलों से वाटिका  भरी हुई  हैं , जो हवा के झौंके से झूमते हुवे  ओस बिंदुओं को बौछार कर रहे हैं 
               जैसे काले आकाश में चन्द्रमा मोती स्वरूप में शोभाय मान है 
              उसी प्रकार पुष्प पर ओस की बूंद व प्रिया के स्वर्णांकृत अंक में प्रियप्राननाथ सजे हुए हैं 
   हेमांक +अंग = स्वर्णालङ्कृत            
 अनुगामा = सहचरणी 
                 
             हेमांड अचलंत हेम चंद्र लंकार किए   ।
            आए हुलस हेमंत हिम मई ऋतु परसहि पद  ।।    
 (चाँद रूपी प्रिया) सोने के चंद्र से अलंकृत  ब्रम्हांडका स्थिर मन सुशोभित है ओसमयी चाँद रूपी ऋतु, उल्लसित हेमंत के आगमन पर चरण छू रही है ।         
     

           शुक्रवार, 26 अक्टूबर, 2012                                                             

           लगन लगनबट लट लहरावै  । लाल ललामिहि लहि लहिकावै ।।
           लरि लरि लल करि ललित प्रहारा । लय बध बेधहिं बारंबारा ।।
प्रेम बंधन में बंधे  ( प्रिया के)केश लहरा रहे हैं, लाल रंग की सुन्दर बुँदे हिल डुल रही हैं, हिलती दुलती लड़ियाँ परस्पर लड़ कर प्रियतम को मधुर आघात कर रहीं हैं वारंवार के इन आघातो से  पिया की लय बाधित हो रही है ।

           मन ही मन पिय मोह बिहसाहिं । धरि करि मरुरै मनोहरु ताहिं ।।
           मसकहि कस कहि कुलहि कलैया । सिसकहिं अकुलहिं लहँ सहुँ सैयाँ ।।
 मन ही मन प्रियतम मोहक विहास करते हैं , कान की बूंदों की कड़िया पकड़कर मोड़ते हुवे हाथ से कस कर पीड़ा पहुंचा भिन्न क्रीडाएं करते हैं, सिसकती हुई व्याकुलित (प्रिया ) सैंया सम्मुख ले आते हैं।         

           बिनत बहु बिधि बिकल भइ भारी । स्याम सजन सुनैनि निहारी ।।
           हूँकत हूँटत  होट हुकारे । देखि दसा पिय हँसै हुँकारे ।।
सुनयना सलोने सजन को  निहारते हुवे बहुत प्रकार से विनती कर रहीं कि यह पीड़ा अधिक हो गई है पीड़ापूर्ण होंठ ( बूंदों को ) पृथक करने हेतु निवेदन कर रहे हैं पिया हाँ हाँ कह प्रेयषी की ऐसी दशा देख हँस पड़े | 

             
           कसत अस त कहि कटकिहिं  काना । दीन नीर बिनु मीन समाना ।।
           पिय कहिं खड़कइ अब लय मोरी ? नहिं नहिं गोरी कहि कर जोरी ।।
जल के बिना तड़पती हुई मीन के समान प्राणप्रिया  कहती है कि ऐसे कसने से तो कान ही कट जाएंगे, प्रिय कहते हैं कहो मेरी लय को अब भंग करोगी ?? प्रिया हाथ जोड़ कहती हैं नहीं !नहीं!! 

           हिलगत पिय हियहि हिलगइँ  पियतमा भइ अधीर ।
           हँस हँस हरत हिय हिरकहिं,  हरे न हिय के पीर ।।
पिय प्रेमवश प्रियतमा को ह्रदय से लगा लेते हैं  किन्तु प्रियतमा  व्याकुल हो उठती है तब प्रियतम हँस कर हृदयालिंगन करते वह ह्रदय  का तो हरण कर लेते हैं किन्तु पीड़ा को नहीं हरते।   
            
           
           शनिवार, 27 अक्टूबर, 2012                                                        

           अरझइ अरचइ करज छुराई । रसमस कस अस लबक लखाई ।
           दीठ पीठ बत बैस बिरुझई । बोल न बोधहि झुठि मुठि रिसई ।।
           उलझती व अर्चना करती एवं अँगुलियाँ छूड़ाकर  क्रोधपूरित  नेत्रों  से निहारते हुवे प्रिया 
               कहती है  ऐसे आकर्षण से भी कोई आनंदित होता है क्या ??और इसप्रकार  प्रियतम से उलझ गई और  पीठ 
               फेर अबोली होकर झूठ मुठ ही रुठ बैठी ।      

           अछ बस जस सस अकड़ अगौहीं । सौरइ ससि सहुँ सहसहि सोही ।।
           निभ नछत पथ नभ चमस खींचे । भुजदंड पास भास भरु भींचे ।।
           जैसे अक्ष के वशीभूत चाँद  आगे बढ़ अपनी अकड़ दिखला रहा है वैसे ही हंसते सांवलेसांवरे 
              प्रिय के  सम्मुख चाँद स्वरूप प्रियतमा भी शोभायमान है,जिस प्रकार नभ चाँद की किरणों को 
              समेटे हुवे है उसी प्रकार प्रीतम भी अपनी भुजाओं के पाश में अपनी प्रेयषी के प्रेम को कर्षे हुवे है । 
               
               
           बिसुरइ रुझनइ लछनउ लाखा । लुबुधहिं बोधइ लखन सलाका ।।
           उरुज भुज सेखर हनु टेके । लूक लूक लोचन लेखिहिं देखे ।।
             रूठती,मचलती प्रेम से पीड़ित प्रियतमा ऐसे  दृश रहीं है मानो प्रेममग्न प्रियवर  से कह रही 
               हो कि यह लक्ष्मण रेखा है जिसे पार करना कठिन है,प्राणप्रिया के उरूज कन्धों पर 
               ठुड्डी टेक उसके क्रोधपूरित लोचन को चोरी-छुपे से देखते हैं । 

           परसत खटिकन पुछत सकुचाए । करन खगन भए बहुल बितताए ।।
           करक सरक कहि हिय भरि लाई । पिया न जानिब पेम पिराई ।।
             कर्ण -छिद्र को स्पर्श कर फिर  संकोच वश पुछते है कि  ये कानों की चुभन अधिक टीस दे रही है क्या ? 
                तब प्रिया हाथ झटक कर दूर सरकते हुवे भरे ह्रदय से कहती हैं पिया न तो प्रेम पहचानते 
                है न ही पीड़ा ।

               पलक पताका लड़क लड़ाका चटपट बत बढ़चढ़ चढ़ी ।
           छिटक छिटक छट लहर लहट लट जनु झटफुटत फुलझड़ी  ।।
           नयन लगाईं के मेल मिलाई के काहे कर धर कानन कड़ी ।
           ललित लोचनि लवनय ललौहनी लखी लड़ी लर्झरी ।।
           हे मृग लोचनी तुम छोटी सी बात को  बड़ा रही हो एवं इस तरह 
               से दूर हट रही हो मानो फुलझड़ियों से चिंगारी निकल रही हों 
               पिया तुमने  नयन मिला किसलिए इतनी  कस के बुँदे खीची??
               हे सुनयना तुम्हारी आँखों का यह क्रोध बहुंत ही आनंदमयी है ।

               खींच खीच बिनयन भींच  बाहु प्रलंब बिचलन  ।
           जनु कार्तिक के घन घिंच बीच बिजुरी बिरचन ।।
              
               मान मनुहार करते पिया प्रिया को खिंच कर बाहु में भींच लेते हैं 
               वह इस प्रकार विचलित हो रहीं है मानो कार्तिक में बादलों के 
               मध्य बिजली ही रूठी हुई हैं ।


              रविवार, 28 अक्टूबर, 2012                                                              

           छिनु छिनु छितिजहि छबि छहराई । छलनि डार के छाज उराई ।।
           बिनतहिं बत कहिं बारहिं बारे । बाहु जोरंत जय जोहारे ।।
           छण में ही छितिज छन-छन करती जो विद्युत की चमकती शोभा बिखरी हुई है 
               वह मेरी छोटी भूल से उपजी तुम्हारी क्रोध की चिंगारी का स्वरूप है विनय पूर्वक 
               वचन कहते कहते अंत में हाथ जोड़ चरण पकड़ने को हुवे तब : --

           नहिं नहिं अस बस अरच न करहीं । मृदु मन तन तव रस रूप सकलहिं ।।
           नयन अंजनउ  दरस तिहारे । तमि धन दर्पन तवहिं अधारे ।।
          ( प्रिया कहती है ) नहीं नहीं बस ऐसे अर्चना मत कीजिये मेरा यह कोमल मन, तन यह रूप 
               यह प्रेम रस सारे तुम्हारे ही है यह काले नयन तुम्हारे ही दर्शन स्वरूप है मल बिन दर्पण 
               अन्धेरा बिना चाँद का अस्तित्व नहीं उसी प्रकार हरि बिन हरिप्रिया का भी कोई आधार 
                नहीं ।
                
               लसित रसित रतिरस रसवंता । बलित जुबनित  सरित हरि रंता ।।
           कनपत करजहिं करखन कोरे । कित कतिक कहब का का मोरे ।।
           क्रीडाशील प्रसन्न, आनंदित हो प्रेम में मगन रस में सराबोर प्रियतम कान की बूंदों 
              को छू उन्मादपूर्वक जोड़ अंगों को उँगलियों से स्पर्श कर कहते हैं कहो तो कहाँ, 
              कितने व कौन-कौन  से ( अंग) मेरे हैं ।

              दसन बसन धन दूर धचकाहिं । धत दुतकर कहि कोरहिं काही ।।
          मद भरू बिहबल मोह मुकुलिता । मतिभरम गति हीनहु मन मिता ।। 
           मदोन्मत्त अधमुँदी काम के वश पिया से प्रिया मुस्कराती  हुई साथ ही दूर (हल्के से )
              धकियाती धत धत कहती हैं तुम  ऐसे क्यूँ छू रहे हो ये मन मीत की बुद्धि, निर्बुद्धि  
              हो, बुद्धू हो गए हैं ।

             मदन कंटक आतुर मधुर परसहिं मर्म स्थान ।
          लचक मचक नभ चमस धुर मर मर जिअत जान ।। 
          प्रेम-अनुराग को आलिंगन कर कामदेव के वश प्रिय कोमल अंगो को 
             स्पर्श करते है जिस कारण प्रिया रूपी चाँद नभ में अपनी धूरी पर लचकती 
             चाल से प्राण हरने वाली मधुर ध्वनी उत्पन्न हो रही है ।

             मंगलवार, 30 अक्टूबर, 2012                                                                 

          बहि बहु पहर भय कहि पियाही । फिरि बहु अब गह मुर दर दाहिनाहिं ।।
          कमलिन बंधइ मनोहर जोरी । बहर बहल बन बहहिं बहोरी ।।
          बहुत अन्धेरा होने पर प्रियाने प्रियसे कहा -- हेप्रिय बहुत घूम चुके अब हमारा घर लौटना 
          उपयुक्त होगा । बंधा हुआ यह कमलों का सुन्दर जोड़ा प्रसन्न करने वाले वन से मन बहला 
              लौट चला 

              अधंगन्हिं गह अध बर बहियाँ । बहहिं बैसार बहनइ सैंया ।।
           बसह बधहि धर बैस अधारिहिं । बाहि बाहित बह बहनु बाहिहिं ।।
           आधी बाहों के बीच अर्धांगनी को भर सैंया ने उठा कर वाहन में बैठा दिया । ( और )
              बैल की रस्सी को नियंत्रित कर गाड़ीवां के बैठने के स्थान पर विराज वहन करने 
              वाले वाहन को ले वापस लौट चले ।

              जिमि जिमि झल चल जल जुन्हैया । तिमि तिमि तुर दुर धुर धुरैया ।।
           धूलि ध्वज पटल पिछु पिछारे । थिर तर धुरीन  निअर दुआरे ।।
           जैसे जैसे ज्योतिर्मय रात ज्योति झलकर जलती चलती जा रही थी । वैसे वैसे गाड़ीवान 
               भी गाढ़ी के पहिये को तेज चला जा रहा था । धुल रूपी बादलों को पीछे छोड़ पिया प्रधान 
               ने गाडी ( घर के ) द्वार के पास किनारे पर लाकर रोकी ।

               पौर पौर पुर पहुँचहिं बेला । भव भवन चरन नतैत भेला ।।
               सरन गमन गह सयनागारे । धारागह फुहरहिं निस्तारे ।।  
            नगर, घरद्वार पर समयपूर्वक पहुँच गृह-प्रवेश कर नाते दारों से भेंट किया ।
                चरण विश्राम ग्रहण  हेतु शयन कक्ष की और प्रस्थान किये । ( वहां )
                स्नानागार गार में फुहारों के निचे स्नान कर तरोताजा हुवे ।

                भारइ भरू भुज दल भरन पूँछइ भए भूखन भक्ष ।
               भावुक भाव गति गहन मुसुकहिं गहिं भक्षन कक्ष ।। 
            प्रिय को बाहू में भर कर जब प्रिया ने पुछाकी- भूख लगी है??
            उनके रुवांसे से भावों को समझ कर मुस्कराती हुई 
               भोजन कक्ष की ओर( भोजन लाने हेतु ) बढ़ चली ।      

              बुधवार, 31 अक्तूबर, 2012                                                                        

           तुरतहि गवनइ भवन भंडारा । हरिहुँत हथ लइ अवन अहारा ।।
           कोर कोर कर  कवल   करारे । प्रीति  बरध  धर अधर कसारे  ।।
           ( प्रिया) तत्काल रसोई गृह गईं एवं प्रीतम हेतु भोजन ले आई । एवं प्रेमपूरित  भोजन के 
               छोटे-छोटे, कौर कर प्रीतम के मुख पर रखती गईं ।।

               प्रियबर बचन भव बदनु भाषे । तव परसब यब रस रस रासे ।।
            तुम्हउ बदनउ बहुहु लबारी । भुक्ति भुखन तव भुगतहु भारी ।।
            प्रियतम के मुख से यह सुन्दर वचन बोले ।  ( हे प्रियतमा ) तुम्हारी उँगलियों के स्पर्श से भोजन
                सरस व स्वादिष्ट हो गया । (प्रियतमा बोली ) तुम्हारे बोल अत्यधिक ही प्रशंसा पूर्ण हैं । तुमने भोजन 
                हेतु भूख को अत्यधिक सहा (अत: भोजन स्वाद पूर्ण प्रतीत हो रहा है) ।

               उदर  पुजन कर अगन भुझाई । कर धर पग भर छति पर आहीं ।।

           मंजु मुख गवनि चितब सुहाई ।  लजन सजाए सजन समुहाई ।।
           भोजन कर तृप्त हो कर (हरि संग प्रिया) हाथ पकड़ चलकर छत पर आए । मनोहर मुखाकृति 
               धर हंसगमनी ( हर के) नयन व ह्रदय को सुहावनी प्रतीत हो रही है ।  लज्जा से सुसज्जित सजनी (
               सजन के सम्मुख आईं  ।

                सजनि हाथ पुनि गह निज हाथा । गहि भुज अंचलु चलिअहिं साथा ।।
           खतमालु गालु  केश घनेरे । भए बिगलित जनु नभ लएँ  घेरे ।।
आँचल को भुजाओं में समेटकर हाथों में हाथ  लिए  प्रिया प्रीतम के साथ चलने लगी | गालों और कन्धों पर बिखरे  काले बादलों जैसे घने कुंतल मानो नभ को घेर लेने की अभिलाषा में हैं ।

                 संकेत निकेतन नयन संक्रम क्रमनक क्रमन ।
             संकुलित कुल झुलहि सुमन सकुचइ संगहिं सयन  ।।
              प्रिया व् प्रीतम अपने डग भर कर एक स्थान  से दूसरे स्थान गमन करते हैं 
। कलियों से आच्छादित सुमन झूले पर सजनी सयन हेतु 
                  संकोचपूर्वक सिमटी हुई है ।

              


               कंठ निकेतन माल रँगे प्रीत के रंग ।
             शुभग दर्शन शयन काल भय सुहावन संग  ।।
           प्रियतम के कंठ में गले में  माला सुशोभित हो रहीं हैं अनुराग पूरित 
                 काम क्रीडा रसमग्न है शयन सैया पर भाग्य प्रदान करने वाले श्री के अंग अंगारों
                 के सदृश शोभायमान हैं ।

               सजी सुहागन रैन  बिभावर मुख कान्त कर  ।
              मंझन मंजुल नैन बिभूति भूषन भेष धर  ।।
              चाँद तारों से प्रज्वलित ज्योत्सना से परिपूर्ण सुहागों वाली सुख रात्रि  सुसज्जित हुई।
                   श्री,अनुराग पूर्ण आभूषण एवं वस्त्र धारण किये श्रीधर के नयनों में विराजमान हैं  ।।       

      
            सोमवार, 29 अक्टूबर, 2012                                                                

           नलिनि सयन बिच लोचन जोरे । तरे चरन धर पलकन कोरे  ।
           नौ तरन तरुन नवल अनंगा । पूर निभाननि जोबन रंगे  ।।
         
           कमल समूह से सुसज्जित शयनिका के मध्य प्रियतम के कमल की पँखुड़ी-से लोचन 
            प्रिया के लोचन से सम्मिलित हुवे  । पलकों की कगारों पर चरण धृत कर प्रियतम नयनों में उतर गए ।  पूर्णिमा के चन्द्रमा के सी प्रियतमा के यौवन में अनुरक्त  मुग्ध करने वाली नव यौवना के नयन-झील में 
              नौकायन से तैरने लगे ।  

             अवतमस तरन तरित तर ताहि । अवन मन बद्ध अवनिहि धाही ।।
           नयन पदम् पद पथहु बिहारे । निकुंज करि कर कुंचन कारे ।।
           अल्पन्धकार में उतरते उतरते हरि झील के किनारे पहुंच ह्रदय रूपी धरती पर 
               छायादार पथ पर पग रख दिए । कमल जैसे कोमल पग से विहार 
               करते हरि को ( हरिप्रिया ने ) नयनो के उद्यान में कुण्डी लगा कर बंद कर लिया ।

              नयन निमित मित चरनहु नाई । नमत नमत नत निमिखहि झुकाइ ।।
           मुखमंडल कार्मुक कामुक किमि । जुबनइ जामि  मीर जलजल जिमि ।।
            नयनों में मनमीत के चरण चिन्हों को प्रणाम किया । स्वामी को नमन करते हुवे झुके बादल 
               स्वरूप पलकें भी झुक गईं । झुका हुवा मुखड़ा  व् झुकी भवें कासी कामुक लग रही हैं जैसे कि 
               तरुणई रात्रि में जलता हुवा  तरुण चाँद समुद्र के जल में  शीतलता प्राप्ति हेतु व्याकुल हो ।
              सजन बदन रस परसहिं माथा । छिनु छिनु निछिनु  नयन पट नाथा ।।
          मुख कांति कमल कपोल रागा । अभिरति रत पत अधर परागा ।।
            
              पिया का अधर अमृत ललाट को स्पर्श करने लगा । क्षण भर में मोदपूर्ण पिया ने पलकों 
              को चुम्बित कर दिया । कमल से खिले मुखड़े पर सौंदर्यपूर्ण लाली शोभाय मान हो रही है  
           प्रेमलगन में सलग्न पिया के अधरों का पुष्प पराग प्रिया के गालों पर विराजमान हो गया ।

           
                      बुधवार, 07 नवम्बर, 2012                                                                          

                      रसै रसै रत रिस भइ अंता । रतिभर रतिगर भइ रतिवंता ।।
                      पदमन दर्पन जल कन दरसिहि । पदम अंतर तर पनपत परसिहि ।।
                       शनै: शनै : रात्रि रिक्त होकर  समाप्त हो रही है रत्तीभर किन्तु सुन्दर  सवेरा होता दिखाई दे रहां है ।
                               सरोवर  रूपी दर्पण में जल कण दर्शित हो रहें हैं ,सरोवर के हृदय में उतरकर   कमल ह्रदय में उतरकर 
                               करने हेतु स्पर्शित हों ।
                        भास भास भए भवनउ भोरे । बिरतत रत रतनिधि नीड रोरे ।।
                      नींदउ भंजन नयन निथारे । बीथि बीथि बिज बियत बिथारे ।।
                      भवन प्रकाशित हुवे, मुर्गे बोलने लगे, भोर हुई । रात के व्यतित होने पर पंछी घोसलें में 
                              कलरव करने लगे । नीद खुली आँखों को मसलते हुवे अम्बर पथ पर पंक्तियों में पंख 
                              फैला दिए ( नए लक्ष्य हेतु )

                     रय रयरथ धरि रविरय राजे । प्रियकर सुन्दर सारथि साजे ।।
                     रयनि रयन रय रवनहहिं धाए । रतन प्रभ बाहु गर्भ गह आए ।।
                      धूल रूपी गति वाहित को धारण कर सूरज राजा विराजमान हुवे । लाल कमल के सदृश्य 
                              किरण रूपी सारथी भी सज गए । रजनी के सह सयुक्त हो अर्थात अंधेर-सवेर में रवि राजा 
                             ( पंछियों के कलरव से युक्त) शब्द करते चले । रत्न के सामान दैदीपमान विष्णु अर्थात विश्व 
                              व विष्णु प्रिया अर्थात धरती के घर आए ।

                     रचित रतन करि भूषन माला । परखनु  अचलउ राजित साला ।।
                     सहस चित चरनउ नयन नवाए । सहस सस बदनउ गुनगन गाए ।।

                      कुबेर के द्वारा गुंथी रत्नों की खान में रत्नों के ढेर में से परखे माणिक जड़ी (ओस रूपी )माला 
                            हाथ में लेकर हजार चरण वाले भगवान श्री विष्णु को सूर्य ने  प्रणाम कर दशतिदश प्रकार 
                            से दशतिदश मुख से दशातिदश गुणों का गुण गान किया ।  
                             
                     हे जगती जगत धारी हे जगती जग जोत ।
                     हे जगत कर्ता कारी वन्दे चरन स्त्रोत  ।। 
                     हे पृथ्वी सकल विश्व के धारण कर्ता हे पृथ्वी वे संसार के आलोक ।
                            हे सृष्टि के कारण स्वरूप परमेश्वर  तुम्हारे चरण की स्तुति- वन्दन करता हूँ ।

                    गुरूवार, 08 नवम्बर, 2012                                                                        

                    हे जगमोहन छबि जग मोही । बिस्व रूपी तव  रूप अति सोही ।
                    बिस्वथा  मनस मय बिस्वासे । बिराट अवनउ अबसु अबासे  ।।
                    विश्व को मोहित करने वाले हे ! जगमोहन हे ! विश्व रूपी विबीन्न रूपों में प्रकट हो 
                           तुम अत्यधिक सुहाने प्रतीत होते हो । हे ! सर्व व्यापी विश्व स्वरूप सबके मन मानस 
                            विश्वास पुर्णिता, सब पर शासन करने वाले सब पर उपकार करने वाले सर्वज्ञ विश्व के 
                            आधार ईश्वर ।    
                 
                     जग पुजित जेहिं बंदउँ सारे । बिस्व बिभावन बिदित बिसारे ।।
                    जै जग जनयन जन हित कारे । धरन भरन  भरू धरनी धारे ।।
                    सर्वत्र  पूज्यनीय जिसकी वन्दना संसार भर में होती है हे ! विश्व की रचाना करने वाले 
                           तुम्हारी ख्याति तो सर्वत्र प्रसारित है । विश्व का धारण-पोषण करने वाले धरणी को 
                           धारण करने वाले समस्त मानव जाति हित करने वाले लाभ करने धरणी पति की 
                            जय हो !  
              
                     बिस्व अधिपत सहाहु स्वामि । जग कारक  करि अंतर जामी ।
                    बेद गुहयउ कारूक दल दृष्टा । बेद बिद सारु जै जग कृष्टा ।।
                     हे ! विश्व के राजन हे ! धरनिस्वामी ! हे! अन्तर्यामी प्रभु हे! बिष्णु हे ! चतुश्पत रूपी 
                            ब्रम्हस्वरूप चतुर्भुज वेदों के सार स्वरूप  सबके प्रति सद्भाव रखने वाले वेदज्ञ तुम्हारी जय हो !  


                    बंदउँ जग गुरु गोचर चरना । सख सातम सहि सकल सृज करना ।।
                    बिस्वनयन कहि करि कल्याना ।  कूट करम करि केतु बखाना ।।
                     समस्त विश्व के पिता स्वरूप सर्वत्र दृश्यमान के चरणों की में वन्दना करता हूँ ।
                             सूर्य देव ने संसार का हित करने वाले की हिमालय की चोटी पर किर्णित कर 
                             सर्व सारग्रन्थ स्वरूप गुणों का वर्णन किया ।

                    सुदरसन चक्र पानि धरन सुमिरनु मंगल स्वर ।
                    सूक्त बचन बदनु भजन सुनाद निगद दिनकर ।।   
                      
                     सौह्रदय निधि नलिन धरन  सुमिरनु मंगल स्वर ।
                     सूक्त सहस बदन भजन सुनाद निगद दिनकर ।।
                     सद्भावन के निधि कमला पति का ध्यान स्मरण कल्याण कारिकारी स्वरों में 
                             श्री विष्णु भगवान का सुन्दरता पूर्ण कथन भजन सूर्यदेव  शंख ध्वनी युक्त 
                             पाठ कर रहें हैं ।

                     गुरु/शुक्र 08/09 नवम्बर,2012                                                                     
  
                     नाम किरति करि नाम न होई । नाम धरन धरि नाम न सोई ।
                     भू भुवन भूरि भूति भलाई । करित करम करि जस तस पाई ।।
                     ईश्वर अथवा महापुरुषों का नाम जपने से मनुष्य ईश्वर अथवा महा पुरुष नहींहो जाता 
                            उनका नाम रखने से भी मनुष्य ईह्वर अथवा महापुरुष नहीं हो जाता । पञ्च भूत व प्राणी 
                            मात्र को अधिकाधिक भला कर उपकृत कर्ता को यश भी उसी प्रकार से प्राप्त  होगा ।

                     बंदउँ मंगल चरन अचारा । काम कलस करि मंगल कारा ।।
                     भुयहु भूयस भाग बिधाता । भाजन भुवन भूरि धन दाता ।।  
                      मंगल कामना करने वाले मंगल मंदिर में शुभ घड़ी में योग्यतानुसार जन धन 
                             से पूरित करने वाले भाग्य बिधाता के चरण की मैं बारम्बार वंदना करता हूँ । 

                      बिस्व जित जुद्ध जोनि जोधा । बीज भव भरत सकल प्रबोधा ।।
                      नाभि नाथ धृति पालन हारे । पउ पाचनु पति पोषनु धारे ।।
                      हे! विश्व युद्ध विजित, विश्व के योद्धा हे!विश्व के  मूल कारक ब्रम्ह स्वरूप ईश्वर हे! विष्णु 
                             तुम  समस्त जन को जागृत करने वाले हो हे विष्णु ! तुम सबकी रक्षा करने वाले, 
                             सबका पालन पोषण करने वाले समस्त तत्व को धारण करने वाले तुम ही विघटन शक्ति 
                             के धारन करने वाले विश्व के केंद्र बिंदु हो  ।

                      सहस सिखर कर धौतउ धामा । सहसस निगदहि अर्चन नामा ।।
                      कंठ बरन बर कुलि कर कोरा । जप जपनी जल जोरन जोरा ।।
                       दशतिदश किरणों से विन्ध्य पर्वत श्रेणी को दशतिदश बार धोकर सूर्यदेव दशतिदश
                              प्रकार के नामों का जाप  कंठ से सुन्दर उच्चारण करते हुवे हाथ जोड़ के किनारे ओस रूपी
                              ( माणिक कण )जल कणों से गुंथी माला ले कीर्तन वंदन करते है  |

                               
                       हरि कथन कीरत करन्ह क्रांत गीत गृह कर ।
                       हरि हरि हरिअरी हरिअन हरि हरि हरि अरी हर ।। 
                       हरी की कीर्ति कथा करने हेतु किरणों ने हरी मंदिर को ( किरणों की )लताओं में आवृत 
                              कर लिया । हरी हरी हरियाली को हरियाने हर्य ने हरी के शत्रु रूपी तिलचट्टों का हरण कर लिया ।
                              अथवा हल की आरी रूपी नोकों को तेज किया अथवा रावण सीता हरण के फेर में है । 

                      शनिवार, 10 नवंबर, 2012                                                                           

                      प्रति दिन जौं भयऊ भिनुसारे । दुइदिग उदभिद भीत हमारे ।
                      भोग तजन फल ताहिं जनइता । एक दसमुख ते दुज तेहिं जिता ।।
प्रत्येक दिवस में भोर होने पर हमारे भीतर  भोग और त्याग फल के द्वारा  उत्पन्न दो दिग्गज जागृत होते हैं एक रावण तोदुसरा उसे जितने वाला |                       

                            एक धुत चरिता दइत अचारी । दुज देउ कृत करि ब्यवहारी ।।
                     हिरन हिरन हन हरि जहँ जाहीं । हरनु हुँत तहँ  हरानत आहीं ।।   
  एक धूर्त चरित दैत्य के आचरण का है तथा दूसरा देव रूपी व उन्हीं के जैसा व्यवहारी है जहां त्याग रूपी राम, माया रूपी सोने के हिरन का वध करने गए, वहां  (सद चरित्र रूपी) हरिपत्नी को हरण हेतु नत मस्तक हो रावण आया | 
                          

                             तरु तृन ललहत कृमि कृत काई । दुइ रसन खग रूप रमिताई ।।
                     जंतु जिगमिषु मनु जोनि  कैसे  । काम क्रोध लुभ मद मन जैसे  ।।
तरु और तृण कृमि की काया धारण करने हेतु लालायित रहते है। सरीसृप को पक्षी की देह लुभाती है जंतुओं को मानव शरीर प्राप्त करने की अभिलाषा कैसे होती है जैसे मनुष्य के मन को  काम , क्रोध, मद व लोभ की होती है ।  
                   
                              

                       श्रुति गोचनि धर रंजन राखा  । सब्द कारि गह सहसस साखा ।।
                       नलिन नैनि के पलकन पाँखी । लाखहिं चहुँ दिसि तै सहसाखी ।।
सूर्यदेव की मधुर ध्वनी  कानों में सुनाई देने लगी  दशतिदश शाखाओं वाले वेद के क्षोभ वायु तरंग द्वारा कान ग्रहण कर रहे हैं  । सहस्त्र चक्षु वाले सूर्य देव चारों दिशाओं से कमल के समान नयनों वाली सुंदरा की पलक पंखुड़ियों का लक्ष्य कर रहे थे |   

                                

                               हरुअ हरुअ दुहु पटल प्रफुराए  । परस पिया पद रज सिरु आए ।

                       अभिरति रत जे बचन उचारे । भई उसर भए निलय अधारे  ।। 
दोनों पलक पटल हल्के हल्के  प्रफुल्लित हुए और प्राणपति के चरण स्पर्श कर उन्होंने धूलि को प्रिया के शिरोधार्य किया | अनुराग की रयनि  द्वारा उद्धृत हुवे वचन, उषा होने पर हृदय में आत्मसात हो गए |                              

                                  

                                निभ के निभरत नीद उपारी । नव जिउ सर्जन चरनन धारी ।।
                        प्रथम किरन सम  नव दइताई । धार गेह नद पद पैसाई ।।
चमकदार प्रकाश के प्रकाशित होने पर नववधू सुसुप्त अवस्था से जागृत अवस्था को प्राप्त हो निद्रा को दूर करते हुवे सृष्टि   के नव जीवन का  सृजन करने हेतु अग्रसर हुई | सूर्य की प्रथम किरण के समान चरण धार्य करते उस नवविवाहिता ने  स्नान गृह रूपी नदी में प्रवेश किया । 
  


                         निर्मल जल तहँ कर अन्हायो  । जिमि सुर सिन्धु सरित सुहायो 
                         भरन भवन पुनि चरनन धारे । बरन बरन के बसन बैसारे ।। 
वहां निर्मल जल का स्नान  गंगा स्नान के समान ही सुहा रहा था  तदनन्तर  वेशभूषा के कोष्ठ के सम्मुख चरण रख रुचिनुसार वर्ण का चयन कर वस्त्र धारण किये ।
                           
                         
                           भूषन अभरे धरनि के सुभ दरसन सुभांग ।
                           सिरोधार किए प्रिया निज प्राननाथ के  रंग ।।  
आभूषणों से भूषित हो धरणी रूपी प्रिया का सुन्दर दर्शन मंगलमय व् शुभ शगुनों का संसूचक था सेंदुरि श्रृंगार के स्वरूप में प्राण नाथ को धारण किए हुवे है।
                            


                          रवि/सोम, 11/12 नवम्बर, 2012                                                                       

                            कंचन कुंदन कंगन कारे ।  कलप कारु कर कियो कगारे ।।
                            कानन लाल ललामिक लतिका । लवंग कलिका कियउ नासिका ।।
कांच पर कुंदन का कार्य किए हुवे कंगन से कलाइयों को संवारा । सेंदुर की आभा लिए सुहागा  से युक्त  बूंदों से कानों को एवं लौंग कालिका को नासिका में सुशोभित किया सुशोभित हुई ।
                       
                          
                          लसिहि ललित ललाटूल टीका । कंठ मनि कंठि संग कूनिका ।।
                          मंजुल गमनि चरन सिंगारे । मंजीर मंडल मनोहारे ।। 
 सुन्दर ललाट पर सुन्दर माँग टीका  कंठ में मणियुक्त हार व ( वाणी में ) वीणा सुशोभित हुई । (तत्पश्चात )मंजुल गमनि ने नुपूर मयी झांझ से चरणों  पर मनोहारी श्रृंगार किया । 
               

                          सुर सुरूप सैन्दूरु सिरु साजै । मनहुँ सजन मनि सदन बिराजै  ।।
                           राग रंग रज सूरज सोहा  ।  रागारुण रथ रमनहि रोहा ।।
 शीश पर देव स्वरूप सुन्दर लाल सिंदूर शोभायमान है मानो प्रीतम रूपी  मणि ही शीश मंदिर में विराजित हो  । अनुराग की धूलि में रंग कर बिंदिया रूपी सूरज शोभायमान है मानो अनुराग युक्त लाल रंग के रथ पर स्वयं प्रियतम ही विराज मान हों ।                      

                                    मंजुल मुकुलित  मुकुर बिहसाए  । कमल कांत मुख चित्र कन छाए ।।
                           रति रत रमन नयन उन्नैने । लुरक लुरक लर लुरिअन लइने ।।
                            कमल के जैसा आभा मंडित मुख के छवि  कण छाने लगे तो दर्पण भी अधनिंदे से 
                                     विहास करने लगा । प्रियतम के अनुराग  में अनुरक्त नयन ज्यों ही झुके कर्ण के की बुँदे इन्हें 
                                      पाने के लिए आपस में ही लपट-झपट पड़ी  ।

                                      कृष कृष कूर्पर पद कर कुम्भकार कटि अंग ।
                             कुशय कुशेशय कलेवर कैशिक केशव संग ।।
                              दुबले पतले कुहनी व् घुटने युक्त हाथ व पैर हैं कुम्भ की आकृति युक्त कटिप्रदेश हैं ।
                                       रवण रूपी श्रृंगार से श्रृंगारित   ( कुम्भ में ) जलमग्न कमल के जैसी देह है ।।

                            पँवर पँवर पर पउँ पउनारे । पंथ गहन सुरबन पइसारे ।।
                            पउँर नुपुर पुर सुमधुर धारे । खनक कनक कन छनक झँकारे ।।
                            
                            निहार निहार हार निहारे । निहोरहिं होरहु हो रहुँ हारे ।।
                            गहनहु गुहनहु गहनि गुहारे । भँवर भरन भए बारहिं बारे ।।   
                               
                           सुर बन बल्लभि पथ पद पारे । मुकुति सुकुति प्रसु प्रसुन प्रसारे ।।
                           प्रात पुजन पुन बंदनी बंदि । सुमुख मनि मत मति मधुर नंदी ।।

                           पुहुपक सुरबलि सिंच सुहाए । पुहुप रचन बरन भूषन भाए ।।
                           सिंच सरित सरि श्री श्रुति साधे । देउ कुट चरन चरइ अराधे ।।

                           दीप कालि कलि बर्तिक माला । अलि अधार धर अंकुर थाला ।।
                           दीपित बरन बर बृत अन्बिता । हरि भवन भित भविनन्ह प्रीता ।।

                          जगमग जग जगन्मयी जगमग ज्योति ज्वाल ।
                          जगर-मगर धर जगजयी ज्योतिमय जयमाल ।।     

                          बुधवार, 14 नवम्बर, 2012                                                                                   

                         कपूर प्रसंगित अगरु सुगंधा । भनिति बिनति भलि करि कर बंधा ।।
                         बंदन भजन श्रवनहि बनबारी । बद्धानंदन घन घाँ  घर घारी ।।

                         कला कलुक कर कलि कलिसाई । कलित कला कृत कलि कलियाई ।।
                         कली कलुष कर कलि कलुषाई । कलित कली भृत कलिजुग आई ।।
                          पैजनी की कला सेव कला मयी रचना से  अर्थात कला -संगीत को गृहित कर (शाखाएं में )
                                 नई नई कलियाँ उत्पन्न हो प्रस्फुटित हो  जाती हैं । ( किन्तु ) झगड़ा, पाप कृत्यों से तो एक युग 
                                 कलुषित हो जाता है,  युद्ध के कारण ही  कलयुग का आगमन हुवा था । 

                          नत नव नूतन नलिन निकासे । मूल फूल भए बहुल बिकासे ।।
                          छंद प्रबंध पद रसबत  रवने । सुनि पबि पबितउ पालउ प्रबने ।।

                          पब पब पबमन पबि पबिताई । भवन्हू बहु बन महुँ पहुनाई ।।
                          पदुम कर करित लसित ललसाए । पुहुप पत परस प्रसादनु पाए ।। 

                         पुन्न करमनी काल के कृतौ करहिं कीर्तन ।
                         पुनी पुर रजन पाल के जय जय कहहिं पुरजन ।।

                          
                         
गुरूवार, 15 नवम्बर 2012                                                                        

                         सुमनस मन अस सुम सुहाए । सुमित मिलहुँ सहुँ करज महुँ आए ।।
                         देखु देखु कहि गहिं पहुनाई । चलत फिरत चहु दिसित दिखाई ।।

                         तरु भुज मंडित बिलसहिं कैसे । बिलस सदन धनु सादन जैसे ।।
                         तलक तलक तरी तरु बिकसाए । तलप तले जनु दसन दसनाए ।।
                         धनुकर कानन कासउ काही । जनु धनु धनिअन धनिकहिं ताही ।।
                         धूम अयन पथ केतन कैसे । नयन भवन दय दयितहिं जैसे ।।

                          धूल न धूरे धूलि धुलिका ।  उबटहिं अभ्र इव बरन बधुहि का ।।
                          भुइँ भुइँ मुँदर बूँद फुँद पिरोए । जिमि नव कुँवरि के कुंडल कोए ।।

                          देखु सागर सैन सईं भसित तूल सइ सैन ।
                          समझ सैन सुमन मुसुकइ दिरिसहिं तिरछत नैन ।।





                           


Sunday, October 21, 2012

----- ।। लंका काण्ड ।। -----

                                                                                                           
                                              मंगलवार, 16 अक्तूबर, 2012                                                                                       


                                              तर तर तरियन चरनउ  चापा । दया धर द्विज दाप उधापा ।।
                                              तथ्य तहँ कहँ तमि षिची सांचा । तपसी नहँ वहँ निपट निसाटा ।।

                                              दलउ  दौह्रदय दह दौहाटा । नटक नाटितक नाठन नाठा ।।
                                              धूरे दर्वन धमक धर पावा । दान मान धन दातृ धरावा ।।

                                              धोतर धोधर धुर धुंधराया । तजन प्रान निज तन तर धाया ।।
                                              नाथ नर्दन निबहन निबहुरा । धर तातल तर धावन तूरा ।।

                                              तुतथ निरख औषध न नयंगा । दरीभृत धर तर उपारंगा ।।
                                              धुर धुर ऊपर निसि नभ धाए । देव भूव भव भवन अवधाए ।। 

                                              दीर्घ बाहु  मारुत सुत निसिचर खर नभमान ।                                                                                                
                                              निष्फलक तर दशरथ पुत तीर तूनीर तान ।।                                                                                                     


                                             तहाँ निगदन नाथ नर नाईं । देखहु नयनु लखनु दुखदाई ।।                   
                                             ततसुत आए न निसि अधियाई । तजनमन त्रसन दया निधाई ।।

                                             दरसहु दसा अनुज उर धारा ।  दुखातन दुखमन अति दुखियारा ।।
                                             तपवन अयन तव तजन ताता । तपस चरन तनवंग त्रितापा ।।
                                             
                                             नयन पथ पटल जल निर्झारे । धार धार धर धरन न धारे ।।
                                             दिग दरपन दिर्न धर अरुनाई । दुःख बहुल धर दुःख दुहाई ।।
                                   
                                             तान तान तन ताना पाई । तान तान तन तातल धाई ।।
                                             तार तार  तर तंत्री थाई । तार तार तर दरस दुभाई ।।

                                             दया निधान सील सागर निधि । दिन बंधू बदन बिलखन बहु बिधि ।।
                                             दया आद्र धर द्रव द्रव धारा । दरसन महिमन अपरमपारा ।।                                                                                                                                                                                                                                                                                         
                                                                                                                                                                                    
                                                                                                                                                                                                                                    
                                             तरण तरण तरंगिणी तन तर तर तरंग माल ।                                                                                                               

                                             तरण श्रवण करण आगमन तुर तुर तुरंग लाल ।।     

                                             बुधवार, 17 अक्टूबर, 2012                                                                                                

                                              दसकंठारि कंठ तर धारे । नाम गुन किरत कपि किलकारे ।।
                                              देवबैद दुःखछद उपचारा । धराधार तल तुरतहिं धारा ।।

                                              निबंधन बंद भय बाहु बंधु । निअर तर निकर निनादित नंदु ।।
                                              दसानन श्रवन द्वेषी उदंता । दसोधड़ धुनहु दसधड़ वंता ।।

                                              निद्र कुंभकरनउ चरन निजकाए  । निद्र मगन भय भंजन भ्राताए ।।
                                              दुर्मुख देरिरिपु नर आहारी । धुर धमधूसर देही धारी ।।

                                               तेहि दसानन निगदन गावा । नेम धरन धर लंकन धावा ।।
                                               निभृतउ भूतहिं निमद निबोधा । निपतय  निपटाहु निपुन जोधा ।।                                                                                                                                                                                

                                               धरात्मजा धरन हरन कथन कह दनुजेंद्र ।
                                               तररन श्रवन कुंभकरन धिक्कार दानवेंद्र ।।                                                                                          

                                                                                                                                         
                                               दुष्कृत कर्मन तुम्ह दुष्कर्मा । दुष्कुलीन कुल किरतन धर्मा ।।
                                               ततछन तजनहु तात दंभन्हिं । धरन चरन तव तुरत त्रिभुवनहिं ।।                                                                                                                                                                                                         

                                               त्रिभुवन गुन गनी मगन अनुजा । देवमदन मस मगवउ दनुजा ।।
                                               दाढ़उ कराल दंडा  धारी । दानव दंस भीरुकन हारी ।।

                                               दुर्मद पय कुंभकरन कारा । निपतय गयउ धुजिन नहिं धारा ।।
                                               देख दृगु लघु अनुज अगावा । धरन परन निज नाम धरावा ।।

                                                तात लात धर मरतइ मारा । दरिन कहिन कह अनुज दुहारा ।।
                                                धन्य धन्य तै धन्य निधाना । निसिचर नरेस दिगबल बाना ।।

                                                निपत्य तरन कुंभकरण  दनुज अनुज निर्दंड ।
                                                त्रिभुवन ध्वजिनी धौंजन ध्वनि ध्वान प्रचंड ।।                                                                                                                                           
                        
                                                दीर्घ कंधर केशउ कारी । गति जंघ जीव तुंडी धारी ।।
                                                दरसन संसन निद्र पिछउ बाहु । मूलक वर्चिक रसन रद राहु ।।
                           
                                                 धर्म चरन चर ग्रंथन त्राता । त्रिभुवन लिकन जगती धाता ।।
                                                 धनुर्धर पानि धनुगुन कारा । धरसन धर्षिन धमक धमकारा ।।

                                                 दृढ़ करमन धनवन संधाना । दालान दलमलन धनु धर ताना ।।
                                                 तान तान पुर पुंख पसारे । तेजपुंज तर धनु कर धारे ।।

                                                  तीर तूनीर तत तर तारे । तेज तेजनक तेज तरारे ।।
                                                  तर तर धनुधर दसति दस धाए । दसन कुम्भकरन धर धंसाये ।।                                                                               
                          
                                                  तर तर तरनहु वदनहु धावा । त्रोन द्रोन कल कलस धरावा ।।                                                                                    
                                                  निसर सर सर निकर नाराचा । दसमुख समुख अनुजमुख नाचा ।।                                                       

                                                  देव दूषणारि धनुर्धारी धन्विनय धनेश्वरम् ।
                                                  धन्य धन्यम्मन्य धन्या धीनय धन्वन धन्वाकरम् ।।
                                                  दृशीक दृश्यम् द्रष्ट द्र्शोपम दृष्टि कृत गत गोचरम् ।
                                                  देव कुल गण गतिक गुण गन पुंस पुंडरीक लोचनम् ।।
                                                                                                                                                                                                                                            
                                                   निषंग निषंगी षंगथि निशित निशात शत सर ।                                                                                  
                                                   निगूढ़ गत गम गति निशरण शमन  निशिचर ।।                                                                                   

                                           
                                                  
गुरूवार, 18 अक्टूबर, 2012                                                           

                                                  दिवस छय कर संजात सेना ।  धरो हर धरोहर धर देना ।।
                                                  दिन दयालु दल  बली  धीरा । तूला तूल तिलक धर तीरा ।।

                                                  निकर निकारन निसिचर सैना । दूबर दूभर तहँ दिनरैना ।।
                                                  देखि अनुज धड़ दसकंधारा । धड़ धर कर दुरक्रंदन कारा ।।

                                                  तब ततछन आवनु घननादा । निजकन बोधन तात  निगादा ।।
                                                  ताड़ तडाका तड़कउ देखाहु । दिग बल चक्रांग  तुरंगन ताहु ।।

                                                  तड़क तड़क तड़ ताड़ तड़केइ । ताड़ ताड़ तुर ताड़क लरिकेइ ।।  
                                                  निषंगथि रथि निषंगहिं षंगा । त्रिसक्ति सूल धनुक धडंगा ।।

                                                  दूरारुड़ गमन पतन पंता । दूरधव अधिगम अतिक्रम अंता ।।
                                                  दंद दुगुनइ दुंद द्विदंडी । धूर धुरेरन उरहु उदंडी ।।


                                                  त्रिगुणा गुणित गमन गगन घननाद नदन नाद ।
                                                  तर तर थिर थर थर थरन दुर्वहन वदन वाद ।।  


                                                  दस दिसि धरकर नभचर चाषा । निषंगन षंगी निकस अकासा ।।
                                                  तरु मृग बर चर नभ नदनंता । निदर्शन दरस न निवृत्तंता ।।

                                                  निकषसुत सीरू सर सर सारा । निकृत कृति करनउ निकर निकारा ।।
                                                  तिलकन तिलछन तालु चटकाहु । तर तर तीरउ फिरउ फिराऊ ।।

                                                  दरी भृत मुख तंतु जाल गिरउ । तर तर तरन तनु तात तितऊ ।।
                                                  नाग फाँस फन फनकन फेरा । तरकर खरकर घनकर घेरा ।।

                                                  नागन नाखन नक नक नाँघा । दनुपति सुत समर सुर सांगा ।। 
                                                  नाग निबंधन नाथ निबांधा । नाथ निबंधन नाग न बांधा ।।

                                                 नकपति जित जामवंत धारा । धारण चरन धरु उर पर मारा ।।
                                                 धारण चरन अंक लंकन नाखा । देवरिषि दरस लच्छन लाखा ।।
                                                                                          

                                                  नाक नाख नाकेश जित नाग पांशन पाश ।
                                                  नव व्यूह नागेश थित तल थल नीर निवास ।।     

                                                  ताक्ष्र्य ध्वज तार तर ताक्ष्र्य तक्षणा तक्ष । 
                                                  त्रिगुणा गुणित नाग निकर ततक्षण भक्षण दक्ष अक्ष ।।

                                               

                                                 नख नग धर तरु मृग बर भारे । धड़ धड़ गढ़ चढ़ बढ़ बढ़ धारे ।।
                                                 निससन सांसउ नकपति जित जागा । देखि दनुपति निलज लज लागा ।।

                                                 तुरतउ गयउ दरी भृत मुखी । देव यज यजन कारन हवि हूति ।।
                                                 तहँ तंत्रन  बिबीषन बिधाना । तात तहु सुनहु धीगुन धाना ।।
   
                                                 द्रोहचिंतन घननादन तुलहु । त्रिगुना  गगन हवन हवि धरहू ।।
                                                 धराधार दिन्ह नाथ निदेसा । निकष निषंगन नमन निमेषा ।।

                                                  निकस निकर्षन दिग बल बीरा । दलज गंजन गिरा गंभीरा ।।
                                                  थित थिर थूलन तहँ न थिरकौहुँ । तौ तुम्ह मम नाम न धरौहू ।।

                                 
                                                 धर त्रिभुवन चरण सरोज  धवन द्विसहस्त्राक्ष ।                                          
                                                 नल नील तारा तनोज तत तनय मयंद दक्ष ।।   

                                                                                                                                                                                  
                                                 शुक्रवार, 19 अक्टूबर, 2012                                                          


                                                 देखहु गवउ आवहन आहा । देत दंश भीरु सतहु सुआहा ।।
                                                 थित थिर थरकन थिरक न थावहु  । धर त्रिसूल तब दधिसोन धावहु ।।

                                                दिग बल भद्र मुख समुख सब आहुं  । तूल पकड़ पिछु घननादनाहु ।।
                                                धारा धर बिष कर धर धारी । धमक धमक पड़ तडि तरवारी ।।

                                                ततसुत तारापुत त्रस त्रासे । तासु त्रिसूल सिर सबहिं धाँसे ।।                                                                                                                                                                            
                                                दूरपातहु  द्रुन षंड प्रचंडा । नौबिधि धातु ब्यूवहु खंडा ।।

                                                तर तर तरन लछिमन लच्छा । दइत द्वितई द्रुत द्रुतै अछा ।।
                                                देखि दुर्जय अरि दर भर भिता । ताप तपन तर तपो बल तिता ।।

                                                तेज तेजनक धनुधर धारा । त्रिभुवन निगद तुर उर उतारा ।।
                                                निबहन बरनउ बरहन बहुरा । निभ निभ भरमन धुरी न धूरा ।।                                                                                                                                                                    
                                              

                                                तहँ कहँ त्रिभुवन जपन त्यों त्यक्त प्राण ।
                                                धन्य धन्य जन्य जन्मन त्रस रेणु तरण त्राण ।।

                                                ततसुत तेहि धुर ऊपर धारा । धरउ रखहु सरनदीप दुआरा ।।
                                                देवगन गगन गिरा गहु गावहिं । दुदुंभ दुदुंमा धूम धमावहिं ।।  

                                                दुःखमय भय मयसुता दुखियाहि । दुर्क्रंदन करइ धीर न थाही ।।
                                                त्रिभुवन भवन भय भिनुसारा । तर निकर धर तुरियन दुआरा  । 
                        
                                                द्विगुनी गुन चरन बचन बाहिका । सिर सीर्ष सहस्त्र सेन सिखा ।। 
                                                दल गंजन मन दानउ दोला । दरस दसानन निबचन बोला ।। 

                                                दीठ पीठ बत बीर भट भीरु । तारन  तर तर समर सूर सिरू ।।  
                                                निज भुज बलहा हा बलकाहाँ । धमनिक अहनिक अहम् मति आहाँ ।।

                                                तुर तुर तुरगी तुरी तुरंगा । तिल तिल तूल तूली पतंगा ।।
                                                                                                                                      

                                                धर्षणीय धर्ष धर्षण धौर्तक धौर्य धर ।
                                                धवन धौरण रावण रण नृदुर्ग संस निशिचर ।। 


                                                 ध्वज अंशुक धर थंभन धारी । दंड भय भृत मुख अहंकारी ।।
                                                 दिग बल बली बहु मुख भुजंगी । धरनउ चरनउ अनी चतुरंगी ।।                               
                         
                                                 दंश भीरु दंती मदउ मुखा । दलहु चलहु दंद दंदसूका ।।  
                                                 धुर्बह बहनु बहु धूर्बीना  । दचक दचक दधि दचन दच्छिना ।।   
                                                                                                                                                                                                                                                    
                                                 दगड़ धगड़ थक तगड़ नगाड़ा । धड़ धड़ाधड़ बढ़ बढ़ गाड़ा ।। 
                                                 धुर उढा धुर ऊपर धराऊ । धूनक धूनन धुजिनी धाऊ ।।

                                                 धूम केतन पथ अगन बाना । आभउ अंग अयन अयमाना ।।
                                                 देखि निकट धुजिनी द्वैपाई । धाए तर करि तात दोहाई ।।                   
                                                                                                                                                                                                                                                                                          

                                                                                 
                                                 दंड काक चारी ठक्का धारी बालधि बहु वाहिनी ।

                                                 थंभित थर थर थली थरि धर थंभ न थाम्हनी ।।
                                                 नग नाग फाँस नखांक धाँस नखरायुध नखोटनी ।
                                                 दंती मदन दंड दसानन त्रिजगत जय जय कारिनी ।।

                                                 द्वार द्वार द्विआगमन द्विद्विपी द्विद्वीप ।
                                                 द्वि साहस्त्र सैन्य हन द्यौ द्यौ द्यवन उद्धिप ।। 

                                                 शनिवार, 20 अक्टूबर, 2012                                                                     
                                                 दनुज धुजिन धज धुजिहिन धाता । देखि दसा दिसि दुखभय भ्राता ।।       
                                                 द्वापर दापहु उर अनुरागा । धरनहु परनहु निगद निरागा ।।

                                                 दसारथि रथ न त्रान तुरंगा । दुर्जय जय भय अति दुर्लंघा ।।
                                                 दया कर सिन्धु सील निधाना । निबचन बंधु दयित बर दाना ।।

                                                 दीछन दछ सुत क्रतुध्वंसिना । दीछक दीछा दयितहु दीना ।।

                                                 धीर बीर दय धरम धुर तिना  । दृढ़ करम चेतन  तिते धुजिना ।।
                                           
                                                 दम छम सम धर कर परहिता । तुरिय तुरंग रछ त्रिजग जीता ।।
                                                 देवाराधन  निपुन निषंगथि   ।    त्याग तनरक्षक निषंग तृप्ति  ।।

                                                 दिग बल बुध दान दिर्घायुधा । दछ दमथ दुष्कर धनु निजुधा  ।।
                                                 नित्य करम जात बुद्धि बहुला ।  थिर निर्मल तन मन त्रोन तुला ।

                                                 द्विज निवेदन बेद निर्भेदा । तेहि तुर सूर सुजय सुभेदा ।।                                                                                                                                                                          

                                                  
                                                                     
                                                 धूर धुरंधर धर धुरन दर्शन ( दिक्षण) श्रवण सुधीर ।
                                                 दिग्गज विजयी दशानन दुर्जय जयंत धीर ।।
                                                
                                                                                                                                                                                                                                                                                                           
                                                                                                                                                  
                                                 धन्य धन्य तुम्ह धनेश धन्यम्मन्य अहमेव ।                                                                                                                                            
                                                 धर दान धर्मोपदेश निवचन विभीषण एव ।।
  

                                                  उत तत्सुत  तारातनय इत दसकंठ दहाड़ ।
                                                  नाम धर निज देवेशय तडिन्मय तडित ताड़ ।।

                                                 तिमिर भिद हर तूल तिलक धर  तुणीर तर तर तुरंगा ।
                                                 तेज तेवर तेह तेहर धर समर सुर सिर सुरंगा ।।                                   

                                                 तम काण्ड कारी तमाचारी तमो गुणी गण गर्जना ।।            
                                                 तीक्ष्ण दंष्ट्रक तेज तक्षक तार पत  स्वर तर्जना ।।

                                                 तंत्र जाल झाड़ गाल फाड़ तरंगी ताड़ मालयम् ।
                                                 तर तारण तुल धारण धुल नर केसरी हरि कौतुकम् ।।
                                                 धू तुक धून धुनक धुनन देव गिरा गृह गर्जना ।
                                                 तरक तरण तृण तडि तडि तृण तुषार कर गिरि पाषाना ।।


                                                  दर्श निज दल तल तिलछन दस-दस भुज दस धनुर ।
                                                  धरन दौकूल दशानन धड़ धड़ ध्वजिन दूर ।।


                                                  तड़ातड़ ताड़हु तृपल तन तासु । तड़ तड़ तड़कहु धंतीगढ़ धाँसु ।। 
                                                  धायउ धर दसकंधर दापा । तर तर कर किलकारउ धापा ।। 

                                                  थिरन रथन थिर थिर थिरकौहाँ । दुर्मद दुर्जन दुहृदय द्रौहा ।।
                                                  दपट झपट झट दसकंधावा । त्राहि त्राहि तब तर कर धावा ।।

                                                  तर तर तिलछित तरन धराधारा । नौधातु धरत सत सर सारा ।।
                                                  तुंग सिखर उर दनुज उतारा । धँसक धचक धर दसकंधारा ।। 
   
                                                  निष्प्रतिभ परन धरनि निसांसा । ततछन उठहू जगनउ सांसा ।।
                                                   
                                                  दान धृत्वन  धर दीर्घायुध उर उतर धराधारहिं ।   
                                                  निपतय पातन अधर उठावन दसमुख निसंसन निसकहिं ।।
                                                  धृति धृत्वन धराधार धरन धुर उपर तुल धूलकनी ।
                                                   निरपाय पावन धर उठावन दसानन त्रिभुवन धनी ।।

                                                   देखि ततसुत तहँ धावन निबचन भीषन बाँच ।
                                                   तरुमृग आवनहिं रावन तेहिं धौल धौलन धाँच ।।

                                                   रविवार, 21 अक्टुबर, 2012                                                                    

                                                  नीक निषंगकर नेक निकर तर निकष निकटि उपलाकरम् ।
                                                  नय कोविदय नावनीतय दृग भृगुरेख नीकहृदयम् ।। 
                                                  नयन नारायण नलिनी नंदन खंड मंडन मंडपम् ।
                                                  धनुगुण गुंजन गतिक गगन अहि महि दधि दोलारुढ़म् ।।

                                                   देवसुर लोकन शोभन गगन सुमन निर्झार ।
                                                   नाथ माथ त्रिपुंड वर्ण त्रस रज नयन आधार ।।
                                                  
                                                   निसान निषंग षंगथि संगा । दसहिं दिसि दामिनी दमकंगा ।। 
                                                   धीर धनेश धनुर तर तूरा । निकर कर सर तर सिरउ सूरा ।।  

                                                    तन तपन कर तापा तपाका । नदीन गगन घन ढाकन ढाँका ।। 
                                                    तीर तरन तुल तोयन माला । तर तर तरनि तूनीर ताला ।।
                                                  
                                                    तरु तरु तरियन तिरनउ तीरहिं । तमो गुन गुनीहिं  गिन गिन गिरहिं  ।।
                                                    दिसि दिसि दरसहिं  ताड़क ताड़ा । तुषार तृपल तरु भरू अपारा ।।   

                                                    नीर रुधिर भर धेनी धाई । धन्य धन्य बीर धर भरमाई ।।
                                                    तड़तड़ाहट भट पटल पाटा । द्रव द्रावन रावन द्रोहाटा ।। 

                                                     त्रि जग कर वंदन मोहन जग प्रभु प्राण प्रणाम । 
                                                     त्रैलोक्य नाथ त्रिभुवन चरण त्रिवणी धाम ।।

                                                     देखहिं त्रिभुवन चरनउ चारी । देवन्ह त्रसहु अस दुखकारी ।।
                                                     देवपति पथ रथ निज नियोजा । द्रुत गति सूत सरनहु नियोगा ।। 
  
                                                     तेज धुजिनउ धज दिव्य दरसहि । तीर तुरिय तुर तुरग अकर्षहिं ।।
                                                     धुजिनारुढ़ त्रिजगत अवलोका । धाए पाए तर तेज अनोखा ।।

                                                      त्रिभुबन नयन द्विज चरन नाए । त्रस अस निगदन धुजिहिं दौराए ।।
                                                      तब दिगबल बहुमुख भड़कहु । तर्जत गर्जत ताड़न तड़कहु ।।  

                                                      तहँ कह ततछन द्वेष निबाहुं । दीठ पीठ बत तवहिं दरसाहुँ ।।
                                                      नर्मन निगदन दीन दयाला । तथा कथन तन तव दसभाला ।। 

                                                      तत्व ज्ञान निष्ठ भाषण तथा कथित विध कथन 
                                                      तत परायण नर सम तदनुरूप भव आचरण ।।

                                                      एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं । 
                                                      एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं करत न बागहिं ।।(तुलसीदास)


                                                     दुर्बचन बदन दर्पत दसकंधा । तुल तडितहि तर तारन अंधा  ।।
                                                     नानाकार नाराचउ धाए । दसति दस दिसि धर द्यौ द्यौताए ।।

                                                     ध्वस्ति साजव सर सर सारे । तुरतइ दहनइ तरन तरारे ।। 
                                                     दुइ सहस्त्र सर सार दौराए । निफल सकल सर फर फिरत आए ।।

                                                      तार सार सर सत सध धाया । धुजीबान धँस धरनि धराया ।।
                                                      दसारथिहिं उत सूतउ  उठाए   । दसावतार तब ताप तपाए ।।

                                                      निकष कष कर तर तीर अंगा । निजुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध निषंगा ।।   
                                                      निकट निसाटक निकर निकारे । धार धार धर सर सर सारे ।।

                                                      तान तान तूनीर तर दंत द्रष्टा कराल ।
                                                      नक् निकुरम्ब कृंतन कर नग नग तरंग माल ।।

                                                      नलिनी खंड मुंड झुंड निभ निर्गत निस्तार ।
                                                      तीर तीर तुरंग तुंग तर तर दशावतार ।। 

                                                      तीस तीर तरनउ रनधीरा ।   दु दस बाहिं दससिर निचहिं  गिरा ।।  
                                                      निटिल निकाटन नाथ निकिइना । निकटहिं उपजउ भयउ नबीना ।।
                                                      
                                                      निटिल टले ना टालहिं टाले । दसति दस दरसहिं दसहु भाले ।। 
                                                       दल बल बहुमुख भुज धनु ताना । तर्जत  गर्जत  नभ  अभिमाना ।।

                                                       निपतय पतन  देखि दससीसा  । दस दस भुज सर तर दसहु दिसा ।
                                                       धरन धुजिन धर तर दंडएकी । निहार निहार न दिनकर देखि ।। 

                                                        निकाटउ निटिल नभ गति धावहिं । ध्वनि गुंजजय भय उपजावहिं 

                                                        निकृत निकारण निकर निकालन निटिल निकषात्मजय । 
                                                        नर नारायण नर्दन नर्मन निकर सर  सिर निकृन्तनय ।। 
                                                        नभ नाभि नाल काल माल भाल वृंदा वृत्त विबंधनम् ।
                                                        नदी नीर रुधिर निमज्जन शरीर समर तर निभ निराजनम् ।।

                                                        दृश्य दर्श दसकंध धार तेजसपुंज प्रचंड ।
                                                        दस तूणीर तर उतार अनुज कर काल दंड ।।  

                                                        सोमवार, 22 अक्टूबर, 2012                                                              

                                                        दिग आवत दरसहिं बल बालिहा । तहँ सहँ सरनपन सहुँ सालिहा ।।
                                                        निछेपहिं निसस नेक निअराहु । निगदन बिभीषन दिगु बहु बाहु ।।

                                                        दुर्भग मति मद जोगन जोधा । तै तपन नग नर बर बिरोधा ।।
                                                        नीलकंठ कंठ काट चढ़ाए । तब एक कपाल कै कोटि काए ।।

                                                        तेहिं निमित निर्जित जीव जिता । तरन अवतरहिं अब तव दहिता ।।
                                                        धर्षन परधन धरन धनासा । तथा कहि तात तातल धाँसा ।।

                                                        निपीरन पीर निपतित पाता । धरउ चलउ  तहँ जहँ जगत्राता ।।
                                                        दापतहि तब दनुपति धाया । निपतय ततसुत धम धमकाया ।।

                                                       दूष्नारि निदेसन धर दौर दौर तेज तर ।
                                                       दरस दल गंजन बल बर धूर्त रचन कृति कर ।।


                                                       देखे तरुमृग दसमुख मायहिं । त्राहि करन सरन तरन आयहिं ।।
                                                       धावहिं दिसि दस दसति दसमुखा । दुर्हृदय भय भयंकर भूखा ।।
                                         
                                                       ततछन त्रिभुवन गुनी निकाटा । तम गुन धन हरण निभ निफाटा ।।
                                                       निकर निकर तर सुर नाथ नाए  । तरलत तमकि महिहिं सहित आए ।।
                                 
                                                       तब नील नल धड़ बढ़ चाढ़े । नखन्ह नखोढ़ निफरन फाढ़े ।।
                                                       दर्पकल धर दसमुख दहाड़ा । दापित धरइ धँसइ दुइ दाढ़ा ।।

                                                       ततसुतादि धरहिं करहिं निसंसा । निसिकरन कर अटाहस नृसंसा ।।
                                                       देखि  निज दल निरुद्ध अघाता ।  दीर्घकेशवि दनुज निघाता ।।

                                                       निसांस संसन निसिचर निपतित पत्य आघात ।
                                                       निहारहिं निससन निसतर  दनुज दल सकल तात ।।

                                                       तहँ जहँ जानकी त्रिजटा जाई । तथा कथन बिध ब्यथा बताई ।।
                                                       निबचन सुनि नलिनमुख मलीना । दुर्जय जात जीव दुखदीना ।।

                                                       निमेष मुंद निमद निसि चारी । दिरिस दरसहिं कबहिं दूषनारि ।।
                                                       दर्पकल छेदहु हरि दर्पिता । तड़पत तरन्ह दरसन सीता ।।

                                                       त्रसन धरन त्रस्त त्रयी देही । निगदन बदन भाचन बैदेही ।।
                                                        नयन निचयन निछल छर छाए । नाथ निछोह निछावर चाए ।।

                                                        नयन पट पथ जल कमल कामा । नमित नमसित नयनाभिरामा ।।
                                                        नीर नभ गमन गगन्हीं घाए । नमत नमत नत नयन निर्झाए ।। 

                                                        त्रिपुरांतकारी दूषणारि त्राण त्रस वशन वानकी ।
                                                        त्रिजग जीवन कर प्राण वंदन जगत मोहिनी जानकी ।।
                                                        नव खंड शक्ति नव व्यूह भक्ति नव नवधिय अनंगना ।
                                                        त्रिपथ्य यामिनी चरण गामिनी गुणी गगन गंगना ।।  


                                                        निकुंज कुंच निकर नयन रिता सीता धरून धर ।
                                                        नाम कीरत धारन अधर दिवारात दिव्यकर ।। 

       
                                                        मंगलवार, 23 अक्टूबर, 2012                                                               
                                                       
                                                         निसिकर काज कलेबर काला । दिवाकर मनि मय भयउ भाला ।।
                                                         दीप धवज देहि दीनदयाला । तप दीपित कर मूरति माला ।।

                                                         तरुमृग दल बल प्रबल प्रहारा  । तिलछन  निसिचर चरनिहिं चारा ।।
                                                         धरनउ धरतउ धूर्त रचाया । तंतुक जाल मंत्र मय माया ।।

                                                         धूत धुर निकट प्रकट पिसाचे । धनुधर कर नाराचहिं नाचे ।।
                                                         निसिचरी कर एक कपालंगा । दुजकर पर टार धर धारंगा ।।

                                                         धरु मरू धवनि गह गगन घोरा । तरुमृग देखि दहनु चहु ओरा ।।
                                                         तिलमिलहिं तबउ तिलछन तापा । दीर्घकेश तर धरनि धापा ।।

                                                         ततसुत सूल बिपुल धर धाए । दिसि दस उतर धर तीर घिराए ।।
                                                         धरु मारू तरस  आए किलकाए । दंत किटकिट कर काए उठाए ।।

                                                          तर तारण तार तरणि धार धरणी आधार  अवतरण ।
                                                          देह धूम्र रुचय दीधिति धृतय धूलि धर ध्वज मंडलम् ।।
                                                          तन तेज ताल तुंग भाल तुंग शिखर तूल तुंगिशा  ।
                                                          दिव्य देवायुध धर देवायुस दिग विजय जय दस दिशा ।।

                                                          तारन तीर तंत्र जाल  तर तूनीर निकाल ।
                                                          निकाट काट कर कपाल दल बल बहुफल भाल ।।

                                                          निकाटत धड़हिं बढ़उ बहुताई । निभ नीलाभ लाभ लिप्साई ।।
                                                          दसकंठ कंठ कटे न काटे । तबहिं त्रिभुवन बिभीषन ताके ।।

                                                          नाभिकुंड कीलहिं कीलाला । दुर्जय जिअत जबहिं दसभाला ।।
                                                          निर्भेदन बिभीषन दयाला । धनुधर धर तर दंष्ट्र कराला ।।
                                                  
                                                          धुंधकार कर धन्वन धाहा । धकपक धक धगधागन गाहा ।।
                                                          दसदिसि दहन हवन अहवनाहिं । दिब्य बसन गह गहन गहनाहि ।।

                                                          नभस चाष चर नभ गज गामी । नभस्तल नभउ अंतरजामी ।।
                                                          नमस्कार कर धनुधर धारा । धनु धनवंतर दस कंधारा ।।

                                                          तीछन कर्मन बुद्धि बर धन्व कर धन्वाकर ।
                                                          तेज तेजनक धनुर्धर दसकंठ धनवंतर ।। 

                                                           तान कान कर कोदंड टार तारण एकतीस ।
                                                           नवधातु विष दंत षंड नग फन फर सर सरिस ।। 24 अक्टू 

                                                           बुधवार, 24 अक्टूबर, 2012                                                                

                                                            नाभिकुंड छद दीनदयाला । दसमौलि मूल हिन मुख माला ।।
                                                            दावन रावन दलमल दाला । दर्प न दर्पन कर न कपाला ।।

                                                           तरन एकतर हर देवहारा । तर अपर कर सिर षंड सारा ।।
                                                           नसन निसंसन नय नाराचे । धरहिं परहिं नटन निटिल नाचे ।।

                                                           धड़ धड़ धरपड़ धरनिहि धंसाए । तब तर कृतकर हर दुदितिआए ।।
                                                           धड़धड़ गड़गड़ धंतीगाड़ा । धरन धरंतर धरनि दरारा ।।

                                                          दोलहिं दिद्युतउ दोलत धरनिहि । दोलहिं तर सर सिंधु दहु दिसिहिं ।।
                                                          दिसिजय जय दिग्बल भुजदंडा । दिसिजय जयकार ब्रम्हांडा ।।
   
            
                                                         त्रिलोक भावन रक्ष रावण अयन आत्मन अभ्युदयम् ।
                                                         दिशा विजय कर विजय ध्वजा धर नय विजयाभ्युपायम् ।।
                                                         दशकंठ जित विजिगीषु गीत विजयापयितृ पूर्णोत्सवम् ।
                                                         दिग्बली विजय  शील सिद्धय जयति जय जय विजयादशम ।।

                                                         दहन शील सारथि शरण दहन गर्भ केतन ।

                                                         दिशा दिशा दस दशानन दहर-दहर दहपटन ।।