Wednesday, April 16, 2014

----- ॥ सोपान पथ १२॥ -----

बिधि कहि रे लहुरी ओहारे । धूत जंतु पग बहिर पसारे ॥ 
को को के सिरु धरनी चराए । लमनत चरन दिए गगन पठाए ॥ 
विधाता ने मनुष्य ( उसे उत्पन्न करने के पश्चात ) से कहा था अपनी आवश्यकताएं सिमित रखना । किन्तु उस धूर्त जंतु की आवश्यकता की सीमाएं इतनी विस्तृत हो गई कि  किसी किसी  के पैर इतने लम्बे होते हैं कि वह अम्बर पर चलते हैं सिर धरती पर ॥ 

चित भित जूँ जूँ लाहन गाढ़े । जे उदर अगन तों तों बाढ़े ॥ 
लब्धि लगार लग लाग लगाए । संतोख समन सन ही बुझाए ॥ 
चित्त के अंतर में ज्यों ज्यों लोभ अपने पैर पसारता है । उदर में प्राप्तियों की अग्नि त्यों त्यों बढ़ती जाती है ॥ उपलब्धियों की अधिकता बुराइयों को बढ़ावा देती हैं । संतोष का शामन ऐसी बुराइयों की आग को  बुझा सकता है ॥ 

दुज करनहु को करम न धारी । दुहु सेउकाइ सँग सँग चारी ॥ 
दास चतुर बनौनि पुर राजा । आँखि मूँदि कर दिए सब काजा ।। 
दूसरे कार्यालय ने भी कुछ कार्य नहीं सौपा । फिर दोनों ही सेवाएं साथ साथ चलने  लगी । चतुर दास ने , राज्य का राजा बनने के लिए आँख बंद करके भ्रष्टाचारियों को भी शरण देते हुवे नियोजन के द्वार खोल दिए ॥ 

भोगन हेतु राजसी ठाटे । जान के धन करि बाँदर बाटें ॥ 
लाह लहे मन दुविधा घेरे । को कर गाहे कवन निबेरे ॥ 
वह राजसी ठाट-बाट भोगना चाहता था उसने जनता के धन का बन्दर बाँट कर दिया । लोभ को प्राप्त चित्त को  दुविधा में घिर गया  । वह किस सेवा  का त्याग करे किसे निरंतर रखे ॥ 

सामंजस्  कर दोउ निजोगे । हस्त सिद्धि दोनहु संजोगे ॥ 
एक के थापन बासित ठावा । दूजन  रहही पहिं के गाँवा ॥ 
फिर बुद्धि ने दोनों ही नियुक्तियों में सामंजस्य बैठाया और वार-वधु को दोनों ही कार्यालयों से हस्त सिद्धि प्राप्त होती रही ॥ एक सेवा का स्थापना-स्थल निवास स्थान ही थी।, दूसरी का स्थल  पास का गाँव था ॥ 

रहै सबहि कर कार बिनु, योजित जेतक लोग । 
पाए सो उत्कोच दाए,  लगे लगाउन जोग ॥ 
इस उपक्रम में जितने भी लोग नियोजित किये गए थे उनमें किसी को भी कार्य नहीं सौपा गया था । कार्य उसी को मिला जिसने इसकी प्राप्ति हेतु घूस दी थी । ऐसे अभ्यर्थी  अपनी लागत समुद्धार करने में लग गए ॥ 

वृहस्पतिवार, १७ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                        

रहि भली गवनइ सेउ काई  । रथ संचारन कौटुम दाई ॥ 
रथ बाहि गहे भए रथ बिहिना । अवसरु परे गवनै रथ बिना ॥ 
गाई हुई भृतिका बहुंत भली थी । जिसने रथ के संचायन हेतु कौटुम्ब की व्यवस्था का दी थी ॥ अब दम्पति रथ वाहिनी के होतु हुवे भी उससे विहीन हो गए थे । 

अबलग बर बधु होत प्रबोधे । ब्याजु सहि सब रथ रिन सोधे ॥ 
तेल तरल  भोजन जल दानी । ठाढ़ि बाहि बहु देखि रिसानी ॥ 
अबतक ववधु ने जागरूक होकर  रथ के समस्त ऋण को ब्याज सहित चुकता कर दिया था ॥ फिर उसे तरलतेल भोजन जल दे दे कर भी वधु अचलित वाहिनी को देखती और क्षोभ करती ॥ 

कहत पिया सों कस खिसियाई । परस करत हय हिन्हिन्हाई ॥ 
जे को बधुटी लाए बिहावन । घर सँजोउन कि साज सजावन ॥ 
और अपने प्रियतम से कहती देखो कैसे खिसिया रही है । स्पर्श मात्र से ही हिनहिनाने लगती है । यदि कोई वधु को ब्याह कर लाता है तो घर सजाने के लिए लाता है कि  घर संवारने के लिए ॥ 

लाए  बिसाए सो मोल न थोरे । सूत भुराइहि ओड़ पटोरे ॥ 
कहि पिय दिए कर धन गिन गिन के । लवाइ गए उरझन निस दिन के ॥ 
जिस धन से इस क्रय किया था वह थोड़ा था ? और यह है कि ओढ़कर सोने में ही निमग्न है ॥  हाँ गिन गिन के रूपए दिए थे । और बदले में ये नित्य की उलझन मोल ले लिए ॥ 

कुकरम हो कि सुकरम हो, तुम प्रबीन सब माहि । 
कहत पिया सीखी लैह,  तुमही काहू नाहि ॥ 
प्रियतम बोले कुकरम हो कि  सुकरम हो तुम तो दोनों करने में प्रवीण हो फिर तुम ही क्यूँ नहीं सीख लेती रथ दौड़ाना ॥ 

शुक्रवार, १८ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                

कहत कोच बधु तनिक लजाई । देखि त कहिँ का लोग लुगाई ॥ 
झगड़ा मूरि कलह की नेई । दसरथर्धांगिनि कैकेई ॥ 
फिर वधु ने संकोच करते हुवे किंचित लजाते हुवे कहा । लोह लगी देखेंगे तो क्या कहेंगे ॥ प्रियतम ने उत्तर दिया क्या कहेंगे ?  झगड़े की जड़ और कलह की नींव दशरथ की अर्द्धांगिनी कैकेई और क्या ॥ 

अरु तुअँ पिय नेई के भवना । तीनी पतिनी के प्रिय रमना ॥ 
प्रान ते अधिक प्रिय पिय मोरे । सेष कहँ कहु प्रियतमा तोरे ॥ 
और प्रियतम तुम उस नीव के भवन कहीं के तीन पत्नी के प्रिय पति है ना ॥ पानों से भी प्यारे मेरे प्रिय कांत । ये तो कहो तुम्हारी शेष कांताएं कहाँ हैं ॥ 

राम सिया सह पूत पुतोहू । परिहासि बधु पूछि कर ओहू ॥ 
सकान धर जिन के मन मैले । प्रेम रहित भए तिनके थैले ॥ 
राम और सीता के सदृश्य पुत्र एवं पुत्र वधु कहाँ हैं परिहा सकरते हुवे ओह का उच्चरण कर वधु ने ऐसा प्रश्न किया ॥ शंकाओं से युक्त होकर जिनके ह्रदय में मलिनता होती है । उनकी झोली सदैव प्रीत से रिक्त रहती है ॥ 

 कहन चरे घर राज तुहारे । तव पिय हिय तवहि सोंह हारे ॥ 
मैं राम सरिस तुम सैम सीता । बँधे नेम एक प्रिय एक प्रीता ॥ 
यह घर तुम्हारे ही ऐश से चलता है अत: यहां तुम्हारा ही राज है। तुम्हारे प्रियतम का ह्रदय जिसे तुमने जीत लिया है वह एक तुमसे ही हारा है ॥ यदि मैं राम के सदृश्य हूँ तुम सीता के सदृश्य हो । हम दोनों एक ही प्रिय एक ही प्रियतम के नियम से निबंधित हैं ॥ 

 सत्य सौच दय अरु दान, तपस संहिता चारि । 
श्री रामायन गहि ब्रत, एक नर एक नारि ॥ 
सत्य शौच दया और दान के धर्म एवं तप -संहिता के आचरण से युक्त  श्री रामायण ने एक नर एवं एक नारी व्रत ( विवाह स्वरूप में हो अथवा बिना विवाह के अर्थात कैसे भी हो केवल एक पुरुष हेतु एक नारी और एक नारी हेतु एक ही पुरुष के परस्पर सम्बन्ध का नियम एक नर नारी व्रत कहलाता है ) के नियम को ग्रहण किया है ॥ 

राम चरित रामाचरन, अगजग लग हितकारि । 
हरि कथा कहत ए कारन, कलजुग कलिमल हारि ॥  
भगवान श्री रामचन्द्र का चरित्र एवं उनका आचरण विद्यमान परिवेश में समस्त संसार के लिए हितकर है यही कारण है कि भगवान की कथा को कलयुग के मलिनता उसकी कलुषता को हराने वाली कथा कहते हैं ॥ 

शनिवार, १९ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                   

लहे पिया एक प्रसिछक सेवा । रथ बाहिन चारन सिख देवा ॥ 
दोइ पुंज कर कारत गाँठे । पहले पढ़ाई पहलए पाठे ॥ 
फिर प्रियतम ने रथ वाहिनी के संचालन की शिक्षा देने वाले एक प्रशिक्षक की सेवाएं अर्जित की ॥ वह एक रथ वाह से गुंफित द्वि किरण पुंज वाली वाहिनी से युक्त था । उसने सबसे पहले प्रथम अध्याय को पढ़ाया ॥ 

 एक प्रसिछक एक बधु धारी । कुसा बूझ करि बारहि बारी ॥ 
रहे चलइ जस प्रसिछक कहहीं । संचारै हरियर गति लहहीँ ॥ 
एक किरण पुंज वधु के हस्तगत था दुसरा उस प्रशिक्षक ने धारण किया था ॥ वधु ने प्रशिक्षक के निर्देशों का पालन करते हुवे रथ वाहिनी को उसी के दिशा निर्देशन में संचालित किया । आरम्भ में धीमी गति से ही वाहिनी का संचालन किया ॥ 


एक दिन जब पिय बैसि पिछाहू । कही तुअँहु सिख लेहुँ न काहू ॥ 
पाछिन घटना भूरि न पाहीँ । डरपत पिय कहि नाहि रे नाहि  ॥ 
एक दिन जब प्रियवर पीछे बैठे थे । तब वधु ने उनसे कहा तुम भी ये शिक्षा काहे नहीं ग्रहण कर लेते ॥ प्रियवर पीछे घटित हुई घटना  को भूला नहीं पाए थे ॥ और उन्होंने भयवश कहा नहीं नहीं  ॥ 

लाएँ हमहि श्रम सिद्धि जुगित कर । गृहस भार हमरेहि भुज सिखर ॥ 
दुर्घटना जोइ कहुँ होइ जाही । घर श्रम धन कहु कँह सोन आही ॥ 
गृहस्थी संचालन हेतु आवश्यक धन मेरे ही श्रम एवं योग्यता द्वारा सिद्ध होता है । इस प्रकार गृहस्थी का सारा भार मेरे ही बाहु शिखर पर आधारित है ॥ यदि कोई दुर्घटना हो गई तो कहो घर में धन कहाँ से आएगा धन पेड़ में थोेड़े  न  लगता है ॥ 

 एक बार बाजि सों गिरे, अस्थि भै टूक दोइ । 
धनाभाव गहे तब तुअँ,  केतक कठिनइ होइ ॥  
एक बार जब घोड़े से गिर गया था और हड्डी के दो टुकड़े हो गए थे । और राजा ने काम से निकाल दिया था । तब धन का अभाव होने के कारण तब तुम्हें कितनी कठिनाइयाँ हुई थी । 

 रविवार, २० अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                    

सिछा लहत दिनु दस धन पाँचे । लगन मगन धिआन चित रॉंचे ॥ 
बहुरि लहत भए जब एक मासे । पिय प्रसिछक दिए अवकासे ॥ 
शिक्षा ग्रहण करते हुवे लगभग पंद्रह दिवस व्यतीत हो गए थे । वधु ने एक मास तक बड़े ही लग्न पूर्वक एवं ध्यान मग्न होकर शिक्षा ग्रहण की तत्पश्चात  प्रियतम ने उस प्रशिक्षक को अवकाश दे दिया ॥ 

कारन  प्रशिछक जो धन चाहीं । तिन देवन समर्थ रहि नाहीं ॥
योजिते एक सेवा सुत के । देख परख पुनि कर संजुत के ॥ 
कारण की प्रशिक्षक को जीतनी हस्त सिद्धि की चाह थी । प्रियतम उसे देने में असमर्थ थे ॥ फिर उन्होंने एक रथ सारथी को रथ से संयोजित कर उसकी परीक्षा  ली और  उसे सेवा में नियोजित कर किया ॥ 

कार कुटुम के प्रशिछन दाजए  । एक पंथ सोंह भए दुहु काजए ।।  
मन आए लेइ नगरिहि रमने । परत अवसरु कहुँ लेइ गवने ॥ 
वह रथ कौटुम्ब के सह वधु को रथ सन्चालन हेतु प्रशिक्षित भी करता । अवसर पड़ने पर कहीं ले भी जाता ॥ मन में आया तो नगर विहार किए ॥ 

पावए मन सुख जब करि सेवा । भई दुखित बधु श्रम धन देबा ॥ 
सुख साधन जेतक बिस्तारै । भव भूतिहि को लाह न कारे ॥ 
जब वह सेवा करता तब मन बहुंत सुख पाता । किन्तु जब सिद्धि देने का समय आता तब वधु का मन दुखित हो जाता ॥ सुख के साधन का विस्तार करने से भव की विभूतियाँ अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं होती ॥ 

तन के सोहा तजन में, धन के देवन दान । 
दान के सोहा हित में, करत जगत कल्यान ॥ 
तन की शोभा त्याग में है सुख साधनो के उपभोग में नहीं, धन की शोभा दान में  है साधन संयोग में  नहीं । दान की शोभा संसार का कल्यान करते हूवे सर्व जनों के हित में है , उसके दुरुपयोग में नहीं ॥ 

 सोमवार, २१ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                   

जेत बिधि दिए तेत ओहारे । ता सो जीवन धन जोगारे ॥ 
सुख साधन सब गहै सँकोची । जे पंगत बधु सुमिरत सोची ।। 
विधाता ने जितना दिया है उतने में ही अपने ढकने ढके । उतने से ही मूलभूत आवश्यकताओं क पूर्णित करें । समस्त सुख साधन से युक्त वधु ने संकोच करते हूवे इन पंक्तियों क स्मरन कर विचार-मंथन किया ॥ 

गह गेहस सब साधन साधै । को को जन तौ एहु ना राधे ॥ 
चित निबरित सब सँजोउ लाहे । भयउ दुखित रे मनवा काहे ॥ 
गृह की गृहस्थी सभी सज्जाओं से युक्त है किसी किसी को तो कुछ भी प्राप्य नहीं है ॥ जब चित्त को निवृत्त करने वाले सभी सुख साधन सकलित हैं हे मन ! तुखे फ़िर खिसका दुख है ॥ 

रथ के सथ नाना बिधि चीरा । तोख रहित मन भयउ अधीरा ॥ 
गए परिजन हुँत मन दुःख लाहीँ । एक न एक दिन सबहि जन जाहीं ॥ 
रथ वाहिनी के सह विभिन्न पर्कार के वस्त्र हैं । मन है कि यह संतोष से रहित होकर धैर्यहीन हो रहे है ॥ जो चले गए उन प्रियजनों का  दुख है? एक न एक दिन इस संसार से सभी को  जाना है ॥ 

कबहुँ भयउ जब मनस उचाटे । दिवस रैनी कटे नहि काटे ॥ 
तब बहु बड़की बहिनहि ताहीं । दूरभास मुख जग बतियाही ॥ 
इस प्रकार जब कभी वधु का मन उदास हो  जाता और दिवस रयन व्यतीत नहीँ होते  ॥ तब वह अपनी बड़ी सहोदराओं से दूरभास के सम्मुख होकर वार्तालाप करती ॥ 

बोलत आपनी उरझन, भगिनि कहत समुझाइ  । 
भाव पूरन कि दान धन, सब बिधि भयउ सहाइ ॥  

मंगलवार, २२ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                 

पीहर भयउ अवसरु बिहाई । गवने प्रियजन बहिन न जाईं ॥ 
एहि कर अवगहत सरित  निरासा। खिन्न मनस सब रहहि उदासा ॥ 
पितृ निवास में विवाह का अवसर हुवा । सभी प्रियजन सम्मिलित हुवे किन्तु बहने नाहीं गई । इस पकारण निराशा की सरिता मेन डूबते सभी का मनस वितृष्ण होकर उदास हो गया था ॥ 

तब एक कहि सब जोग जुआरे । बाँपी बन भू को देस बिहारें ॥ 
बिहरन रत मन रंजन लाहीँ । खेद बिषाद भूर परि जाहीं ॥ 
तब एक सहोदरा ने कहा सभी सन्योग भि मिल रहे हैँ क्योँ न हम  किसी क्रिड़ा स्थली मेँ विहार करने चलें ॥ जहां रँजन के सभी लक्षण हो ॥ विहार रत मन जब रंजन को प्राप्त होगा तब खेद विषाद के चिन्ह धुंधले हो जाएंगे ॥ 

देखे तिथि तब बस संजोगे । नवल बछर आवन पथ जोगे । 
सब के सम्यक सम्मति लाखे । त्रइ दिवस के कार क्रम राखे ॥ 
जब विहार हेतु तिथि निर्धारित की जा रही थी तब संयोग वश नव वत्सर पणे आगमन हेतु  प्रतिक्षारत  था ॥ सभी गन्तुक की उचित सहमति जान कर तीन दिवस का कार्यक्रम रचा गया ॥ 

जगन नाथ जग जीवन धामा  । किए तय इ थरी एहि मनकामा ॥ 
बिहरन के सौं होत कृतार्थ । सफल मनोरथ होहि तीरथ ।  
समस्त जगत को जीवन देने वाले प्रभु श्री हरि के धाम को सभी ने  तय किया  इस हेतु कि विहार के सह कृतार्थ होते हुवे मन की कामनाएँ भि सेफल हींगी आउर एक तीर्थ के दर्शन होंगे ॥  

बहुरि बहुरि बिहार करन, बहुतहि प्रमुदित होए । 
कहुँ भूषन कहुँ बसन कहुँ नाना साज सँजोए ॥ 
फिर वह कुल यामिनी  विहारकरन हेतु बहुंत हि प्रमुदित हुई । कहूँ आभूषण तो कहीं वासर कहीं विविध  श्रृंगारिक सामग्रियाँ संजोने लगी ॥ 

बुधवार, २३ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                      

लेन लगे त हटबारि दौड़े ।  जावन जोगित संजुग जोड़े ॥ 
पूर्ण भए जब साज सँजोगे । ब्यय करन तब धन कर जोगे ॥ 
 क्रय करने योग्य हुवा तो उसे लेने हटवारी दौड़े । ले जाने योग्य सब संयोग एकत्र करे । जब साड़ी तैयारियां पूर्ण हो गईं तब व्ययकरण हेतु धन योजित किया ॥ 

गुना भाग ब्यकलित जुगाई । कर अकिंचन ब्यय अधि पाई ॥ 
सास नन्दि सों परि प्रिय लोगहि । मज्जन बसन देंन धन जोगहि ।।
गुना भाग करते जोड-घटा कर हस्त को अकिञ्चित  एवं अतिव्यय विहित पाया ॥ सास, नन्द के सह परिजन , एब्वम् प्रियजन थे । जो तीर्थाटन के अवसर पर वस्त्रा-भूषण धन आदि भेंट प्रतीक्षित थे ॥ 

त्रइ दिवस हुँत प्रबन्ध प्रबासा । बहुरि रथ बाहि के प्रत्यासा ॥ 
बिहरन ब्ययन भोजन पूजन । नाना सत्कृत हुँत  लागहि धन ।। 
तीन दिवस के प्रवास हेतु व्यवस्था की गई थी । फिर रथ वाहिनी का भोजन-पानी । विहार हेतु भोजन पूजन पर होने वाला व्यय । फिर नान प्रकार के सत्कार्य हेतु लगने वाला धन ॥ 

बड़की दयालु कृपा निधानी । लहुरि बहिनी दसा सब जानी ॥ 
कहिँ धन धन हुँत चिँता न लेहू । सकल ब्ययित धन हमहि देहू ॥ 
बड़ी भगिनियाँ अत्यन्त दयालु स्वभाव की थीँ । वह लघु भगिनियों की दशा से भिग्य थीँ ॥ उन्होंने खान धन हेतु तुम करो । यात्राव्यय हम ही वहन करेँगे ॥ 

बहिनि सकल चिंतन हारि, करत बहूसहि हेत । 
तेत ब्यय बधु भार गहि, संचित करि कर जेत ॥  
 इस प्रकार अत्यन्त स्नेह करते हुवे बड़ी भगिनियों ने सभी चिंताएं हर लीँ ॥ फिर वधु व्यय वहां कर सकति थी उसने उतना संकलित कर लिया  ॥ 

बृहस्पतिवार, २४ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                              

गतागत हूँत लौहु पथ बाहि । बसी बहिनि जहँ तहाँ रहि नाँहि ॥ 
एतेव सब रथ किरन सँभारे । पथ साधन सौं गवन बिचारै ॥ 
भगिनियाँ जिस देश मेन वसित थिन उस देश मेँ आवागमन हेतु लौह पथ वाहिनी का साधन नहीं था । एतदर्थ सभी ने रथ वाहिनियों की किरण संभाली पाषाणिक मार्ग के साधन से ही जाने यात्रा करने का विचार किया ॥

गह भोजन सब साज सँभारे । जोग सकल परिबार बिठारे  ॥ 
संग सारथी चरी रथ बाहि ।  गहि गति पैठत लखी पथ माहि ॥ 
भोजन-पानी ग्रहण कर सभी आवश्यक सामग्रियों की संभाल किये समस्त परिवार को बैठा, सारथी की संगती किये, रथ वंही अपने गन्तव्य को चल पड़ी । लक्ष्य पथ में प्रवेश करते ही उसने गति पकड़ ली ॥ 

ताप बात दुर्गन्ध समाही । बिरलइ भै मन त्री बिधि बाहीं ॥ 
चले पद चारिन कोस दूरइ । बदन बसन लहि धूरइ धूरइ ॥ 
उष्मीय वायु दूषण से युक्त होकर दुर्गन्धित दे रही थी, और मन को शीतल मंढ सुगन्धित वायु वायरल स्वरुप मेन कहिन कहिन ही मिल रही थी ॥ रथ के चरण द्वारा चार कोस की दूरी तय करते ही मुख एवम वस्त्र धूल धूल हो गए ॥ 

कहूँ बिरचित कहुँ कहुँ बिरथ्या । गर्त गहे कहुँ रज रज पथ्या ॥ 
दूजन रद अरु रथ पद धचके । सकल संधि जग देहिहि हचके ॥ 
कहीं केवल कथित स्वरुप मेन रचित मार्ग था, तो कहीं औघट स्वरुप लिये था । कहीं वह गर्त धारण किये था तो कहीं कोई पथ रज रज हुवा जा रहे था ॥ 

बालक करि जब त्राहि मम त्राहि । जोग कलस कर मात जल दाहि ॥ 
अध पदन्तर रथिक दिए देई । राज पथ पुनि चरन पैठेई ॥ 
ऐसे पंथ पर गमन करते हुवे बालक जब त्राहि त्राहि की पुकार करने लगे । तब माता ने कर कलश योगित कर उन्हेँ जल पिलाया । प्रथम पड़ाव के अर्ध दूरी पर रथिक कर चुका कर रथ के चारण एक राजपत मेन प्रवेश किये ॥ 

अचिरम द्युति सम द्रुत गति धरि  एक नगरी नियराए  । 
भँवरन रत पथ रथ चरन,  साँभर पुर पैठाए ॥
विद्युत की सी तीव्र गति  धृत किए फ़िर रथ एक नगरि के निकट था । रथ के चरण पथ पथ भ्रमण रत रहे फ़िर रथ ने रथिकों को साम्भर पुर नामक स्थान में पहुचाया ॥ 

 शुक्रवार, २५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                    

चरत आपुनी ढोर ठियारे । सब गंतु जुगे एकै दुआरे ॥ 
रहे तहाँ एक बहिनि निबासा  । भए प्यान के प्रथम प्रवासा ॥ 
अपने अपने ठोर- ठीया से चलते फ़िर सभी यात्रि के दुआर मेन एकत्र हुवे ॥ जहां कि एक भगिनी का निवास था । वह उस यात्रा का प्रथम पड़ाव था ॥ 

अनुग्रह पूरित कर जल पाने । बिते भोर मह बहुरि पयाने ॥ 
चरत बाहि कोलाहल होई । जय जग नाथ करात सब कोई ॥ 
यात्रियों ने वहाँ आग्रह पूर्णित जल पान किया । भोर के व्यतीत होने के पश्चात पुन: प्रस्थान किये । वाहिनी संचारीत ध्वनि से कोलाहल होता । सभी यात्री जगत के स्वामी श्री विष्णु का  जय जय कार करते चलते ॥ 

राजित भरु सौं  आपुनि भामिनि । हों जस भ्राजित घन सों दामिनि ॥ 
 बढ़त पंथ  पुनि भयउ दुपहरी । धूप न्हाइ ताप मह गहरी ॥ 
स्वामी गन अपणी अपनी स्वामिनियों के साथ विराजित हुवे ऐसे सुशोभित हो रहे थे जेसे  दमकती  शोभित होती है ॥ पथ पर अग्रसर होते दप पहरै हो गाई जो शीत काल मेँ दुप से नहाई गहन ताप से युक्त थी ।। 

जोगे संग मह  स्वरचि भोजन  । रचयित रुचिकर सब मन भावन ॥ 
कहुँ कर्परी पूरि कचौरी । कहुँ मधुरन्न अमिअ रस बोरी ॥ 
यात्रीगण स्वयं द्वारा रचित भोजन साथ में लिए चल रहे थे जो सुरुचिपूर्वक तैयार किया गया वह भोजन सभि की रुचि अनुसार था ॥ कहीं पीठी की पकौड़ियाँ रचइ गाई थी कहिन भरवाँ  पुरियां एवम कचौड़ियां थि ॥ कहीं अमृत के जैसे रास मेन दूबाँ हुवाँ मिष्ठान्न नैवैद्य स्वरुप मेँ था ॥ 

पैठि बाहि जथ एक लघु गाँवा । बैठि सबहि एक बटु के छावां ॥ 
जथा जोग सब  लिए आहारे । बहोरि बाहिन गवन पधारे ॥ 
रथ वाहिनी ने जब एक लघु ग्राम में प्रवेश किया । तब सभी एक वाट वृक्ष की छाया में बैठ कर सभी ने यथाः योग्य आहार ग्रहण किया और पुन: प्रस्थान करने हेतु वाहिनी मेन बैठी ॥ 

हरि दरसन प्रमुदित मन होत सगुन चहुँ पास । 
दिसा दिसत पन्थ प्रसन्न, प्रसन्न अन्त अगास ॥ 
मन हरि के दर्शन हेतु प्रमुदित था चारोँ ओर शुभ सगण हो रहा था । दासों दिशाएं पंथ  दर्शा कर प्रसन्न हो रही थीं आकाश अपना अन्त दर्शा कर प्रसंन हो रहा था ॥ 

शनिवार, २६ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                      

पैठत भरि सँध्या कटक नगर । पार गमनत भुवनेस्वर॥
भये सिथिर रथ बैसहि बैसे । जगन नाथ के गौपुर पैठे ॥

चरत आन बहु लमनइ डगरी । अरध कोस चर भीते नगरी ।
तत्पर बाहि तहाँ चलि आवां । उदकत उदधि जहँ परम सुहावा ॥

चढ़त उतरत तरंग अलिंदे । नादि जस कल कूजिका बृन्दे ॥   
निरत करत कल कुलिनी कूला । कूलिनस कण चरन रमझूला ॥ 

उतर धरा पर ससि रतनारी । दधि दर्पन धर रूप सँवारी ॥
मयूखि मुख महि दरसत कइसे । बिहा भवन नौ दुलहिनि जइसे ॥ 

  अद्भुद दृग दरसन दरस , श्रवन  सिन्धु कल बानि ।   
बालक मुख  किलकत कहे, केत न केतक पानि ॥ 

रविवार, २७ अप्रेल, २०१४                                                                                                      

कहूं दरसन अर्थी के कलबल । कहूँ बारिधि करत कोलाहल ॥ 
धिआ सिन्धु छबि चित्र मह देखीं । सम्मुख पहलै बारहि पेखी ॥ 

  तोए तीर तरंग उठि  धाई । बार बार तट परसन आईं ॥ 
दरसि बाल ड्रैग बालक दिरिसे । देइ पटतर सस बाल सरिसे ॥ 

तोए तीर तरंग मचलाही । आए धाए तात बाहु समाही ॥ 
बधु दीठ दइत दइता दिरिसे । देइ पटतर को जुगल सरिसे ॥ 

प्रियतम नयन सस लवन लखाए । प्रिये मयूखि मुख छब दरसाए ॥ 
दरसे अद्भुद दरसन गोचर । करे सुबरन सस केतु छिछ कर ॥ 

इत उदरथि उत रथ पथी चरे पद पँथ करारु । 
सुभागमन कहि रजस कन, अतिथि देउँ पधारु ॥   


सोमवार, २८ अप्रेल २०१४                                                                                                                  

 पार गमन कल कुञ्ज गली सॉ । पैठ रयन एक सरन थली सो ।। 
लए चारि सदन सैयां सुजोगे । आउ भगत मह लगै दु लोगे ॥ 

को सिरु सरनै सयनाई के । जुगल जोग रहि धरम काइ के ॥ 
सबहि सोंह बिबस्ता आनी । ऐसेउ बास रहि न बानी ॥ 

सरन भवन  भीते । अल्प छाज धन तनिक सुभीते ॥ 
दाए जोग जो रहे न जो गे । सोइ जग रहे न रमतु लोगे ॥ 

जगपति पावन मंगल धामा । श्रमित पथिक पुनि करे बिश्रामा ॥ 
उदय प्रात गवनत तट देखे । रयन तरंगिन कृत चित लेखेँ ॥ 

लाल बसन लाली लसे, द्यु पत द्योति मंत । 
रोह रथ सुत रसन कसे, द्युत मती के कंत ॥  

मंगलवार, २९ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                          

प्रात न्हाए गावँ सब साथा । प्रथम भ्रमण किए दरसन नाथा ॥ 
दरसी दीठ भर नाथ दुआरी । भ धन्य मन सकल परिबारी ॥ 

पाएं परत पुन्य पंगत लागे । भितरे भाव भगति रस पागे ॥ 
दोइ घरी नाथ दरसनु दाए ।  नमनत माथ प्रनमिन प्रनमाए ॥ 

त्रान हीन जन चरै पयादे । पाए पद पयस पवित प्रसादे ॥
परदर्सनु जब दरसिन दरसे । मान मनुहार कर बहु हरसे ॥ 

प्रथित अस्थान प्रथित प्रदखिने । जथा जोग लिए दान दक्खिने ॥ 
करे पाथ भोजन मध्याना । फिरैं आए तट दिन अवसाना ॥ 

चितबत चितरेखे फिर फिरि देखे सील सै सागर मुखीं ।
चौंक चौबारीहि घिर घर घारिहि बासत निबासी सुखी ॥
बाहिर पाँवरिया, सुम साँवरिया,  भाँवरि भँवरें ।
पथ जोगत साजन, कर सहुँ दर्पन,साँझ सलौनी सँवरें ॥

कहुँ उद प्लबित कहुँ उदप, उदकत उदख उछारि। 
कहुँ हलबत हुलारि हुलस, मुकुता मुख उद्गारि ॥ 

बुध/बृहस्पत, ३०/०१  अप्रेल/मई , २ ० १ ४                                                                                                    

चरनी चरन रज चिन्ह खचितए । तीर तीर राज भवन रचितए ॥ 
रचितए सारं भवन जाँच ढारी । तीर तीर नागर जन चारी ॥ 

पांथ पयधि पथ पांथ फिरी । पाँति पयादै पथ पाँति घिरी ।। 

रस्बत श्री फल कल जल धारी । रसालिक रास भँवर श्रम हारी ॥ 

पूर्ण पूरी सब मन भाई । मधुराधर करि रस मधुराई ॥ 

पास देस सुत आप धिआना । खाए खेरे खेर कर नाना ॥

उत धिअ सब बालकिन्हि संगें । हेल मेल जल रज रज रंगी ॥ 
रंगोरी रँग भरी अल्पना । आईटी बधु मगन आपनि कल्पना ॥ 

सों स्वजन पॉय हॉस किए, बैठी बहुरि करार । 
कंठ हार की आस किए, अपलक रही निहार ॥   


निसा निरंजन नभ तर छाई । लसत लवन पूर्न जुबताई । 
नील नलिन नभ आभ नियंगे । पूर्णनानी प्रभा प्रसंगे ।। 

प्रभ नाथ पल्लवित एक संगें । निभ निभ नभ निज रंजन रंगे ।।  
असितरनव पत लसत ललाई । धरा धानि सेंदूर धराई ॥ 

कहत बधु  मैहु कुमकुम कर लूँ । केस न्यास कलित कर भर लूं ॥ 
केतु नाथ के कंचन बर लूं । भँवर भरन कृत कंगन कर लूँ ॥ 

अरुन कर कासि किरन उतारूँ । पूर नुपूर चरण लिए घारूँ ॥ 
कलोलित कूल कलापक धारु । कोमल कृत करधनी सवाँरु ॥ 


रयनइ नयन कज्जल भरुँ, अधर कुसुम अनुराग । 
सागर सस्तर सेज करूँ, बरु मैं सुहाग ॥      
    

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